प्रवचन पीयूष [प्रथम भाग]

[स्वामी नंदनाचार्य और स्वामी निर्मलानन्द]

आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आज हमारे आराध्यदेव की जन्म-तिथि है। अतएव स्वाभाविक ही हमारे सौभाग्योदय का यह परम पावन पर्व है। यह बात लोक और वेद में प्रसिद्ध है कि शशि और सूर्य की भाँति सन्तों का अवतरण जगन्मंगल के लिए हुआ करता है। सन्तों की गति अनन्त होती है। उनकी महिमा-विभूति के गायन के लिए वाणी भी मूक हो जाती है, फिर मुझ अज्ञानी के लिए तो आसानी की बात ही क्या हो सकती है? सन्त सद्गुरु अपने कृपा-कटाक्ष से अनन्त अक्ष का उन्मेष कराकर अनन्तस्वरूपी के दर्शन करानेवाले होते हैं-
“ सतगुरु की महिमा अनन्त, अनन्त किया उपकार ।
लोचन अनन्त उघारिया, अनन्त दिखावनहार ।।”
-सन्त कबीर साहब
वस्तुतः, सर्वेश्वर को पाकर वे इतने विशेष हो जाते हैं कि शेष निःशेष हो जाता है। उनकी दृष्टि इतनी पैनी हो जाती है कि उसे व्यष्टि और समष्टि वेष्टित नहीं कर पाती, वरन् इन उभय का अतिक्रमण कर निर्भय हो सम हो जाती है। यही हेतु है कि सन्तों ने कहीं ‘गुरु शंकररूपिणौ’ कहीं ‘कृपासिन्धु नररूप हरि’ तो कहीं ‘गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवः महेश्वरः’ के रूप में गुरु के दर्शन किए हैं। इतना ही नहीं, किसी स्थल पर राम-सम, तो कहीं गोविन्द से विशेष और कहीं ‘परम पुरुषहू तें अधिक’ की दृष्टि से वे गुरु को निहारते हैं। किन्तु मुझ-जैसा ‘मुकुर मलिन अरु नयन विहीना’ तथा ‘अज्ञ अकोविद अंध अभागी। काई विषय मुकुर मन लागी।।’ जन अपने परम गुरुदेव के दिव्य रूप को देखे तो किस दृष्टि से और कुछ बोले तो किस मुँह से?
“ का मुख ले विनती करौं, लाज आवत है मोहि ।
तुव देखत औगुन करौं, कैसे भावौं तोहि ।।”
(सन्त कबीर साहब)
एक सौ एक वर्ष पूर्व हमारे गुरुदेव जी महाराज का आविर्भाव वैशाख शुक्ल चतुर्दशी के दिन इस जगती-तल पर हुआ था। चैत और वैशाख वसन्त ऋतु कहलाते हैं। इस ऋतु में सन्त और भगवन्त उभय के अवतार हुए हैं अर्थात् भगवन्त और सन्तरूप में भगवंत-उभय के अवतरण हुए हैं, जैसे चैत शुक्ल नवमी को भगवान राम और वैशाखी पूर्णिमा को भगवान बुद्ध। और देखिए, वैशाख शुक्ल पंचमी को आचार्य शंकर और वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को संतमत के आचार्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज हुए। ऋतुराज को योगिराज और ऋषिराज को लाने का श्रेय स्वाभाविक है। अपने परमाराध्य को मैं राम कहूँ, कृष्ण कहूँ, बुद्ध कहूँ, शंकर कहूँ; समझ में नहीं आता। सन्त कहूँ या भगवंत कहूँ, अपनी अल्प बुद्धि में निर्णय नहीं कर पाता।
रामावतार त्रेतायुग में हुआ। नाम राम था, किन्तु वर्ण श्याम था। कृष्णावतार द्वापर में हुआ। उस समय नाम श्याम और रूप भी श्याम हुआ। गोया त्रेतायुग का अधूरापन द्वापर में पूरा हुआ; किन्तु जब उसमें भी कमी दृष्टिगोचर हुई तो कलियुग के अवतार में उसकी पूर्त्ति की गई। वह क्या? नाम और रूप तो मिला, किन्तु ग्राम का अभाव था। इसलिए त्रेता युगवाला नाम (राम) रहा और जन्मभूमि का ग्राम श्याम हुआ। यदि और भी स्पष्ट करना चाहें तो ऐसा कह सकते हैं कि भगवान राम ही दूसरे अवतार में श्याम हुए थे। ऐसा क्यों न कहा जाए कि इन युगल युगों के योग से कलियुग में राम+अनुग्रह=रामानुग्रह नाम पड़ा अर्थात् अनुग्रहपूर्वक राम ग्राम श्याम में अवतरित हुए।
इस अवसर पर सन्त और भगवन्त के अवतरण पर स्वल्प प्रकाश डालना असंगत न होगा। साधारण लोग मायावश होकर जन्म लेते हैं; परन्तु महायोगेश्वर माया को स्ववश में रखते हुए संसार के कार्यों का सम्पादन करने के लिए जन्म धारण करते हैं।
संतजन सर्वश्रेष्ठ होते हैं। वे माया को कौन कहे, मायापति को वश में किए होते हैं।
‘अपने बस करि राखेउ रामू ।’
(रामचरितमानस)
संत पलटू साहब की वाणी में हम कह सकेंगे-
“ सबसे बड़े हैं सन्त दूसरा नाम है ।
तीजै दस अवतार तिन्हें परनाम है ।।
ब्रह्मा विष्णु महेश सकल अवतार हैं ।
अरे हाँ रे पलटू सबके ऊपर
सन्त मुकुट सिरताज हैं ।।”
संतजन लोक-कल्याणार्थ निज इच्छा से जन्म धारण करते हैं। भगवंत के जन्म का कारण होता है-
“ यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।
परित्रणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे ।।”
(श्रीमद्भगवद्गीता 4/7-8)
अर्थात् हे भारत! जब-जब धर्म मंद पड़ता है, अधर्म की प्रबलता होती है, तब-तब मैं जन्म धारण करता हूँ। साधुओं की रक्षा, दुष्टों का विनाश तथा धर्म के प्रतिष्ठापन-हेतु युग-युग में जन्म लेता हूँ।
संतजन के लिए दुष्ट और शिष्ट सभी समान होते हैं। अतः वे दुष्टों का नहीं, वरन् दुष्टों की दुर्वृत्ति-दुर्बुद्धि का नाश करते हैं। वे अज्ञान का नाश एवं सद्ज्ञान का प्रकाश करते हैं। वे अपकारक के भी उपकारक होते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में- “ सन्त उदय सन्तत सुखकारी ।
विस्व सुखद जिमि इन्दु तमारी ।।
भूरज तरु सम सन्त कृपाला ।
परहित नित सह बिपति बिसाला ।।”
“ तुलसी सन्त सुअम्ब तरु, फूलै पर हेत ।
इत तें वे पाहन हनें, उत तें वे फल देत ।।”
संतजन विश्व-उपकार की भावना से स्वेच्छापूर्वक शरीर धारण करके संसार में विचरण करते हैं, इसीलिए अपने आराध्यदेव के संबंध में हम कह सकेंगे कि उनका इस संसार में सहर्ष आना हुआ, इसलिए सहर्ष + आ = सहर्षा उनकी जन्मभूमि का जनपद (जिला) हुआ।
भगवंत संसार-रूपी कारागार में कारापाल की भाँति रहते हैं। संत जलकमलवत् जगत में रहते हैं। भगवंत का अवतरण कारण-मंडल से स्थूल मंडल में किसी कारणवश होता है। कार्य सम्पन्न करके पुनः कारण मंडल में प्रतिष्ठित होते हैं। संत का अवतरण सत् गुरुधाम-परमात्मपद से होता है और लौकिक लीला संपन्न करके परम धाम-अजर लोक में निवास करते हैं। संत कबीर साहब के शब्दों में-
“ जमीं आसमान वहाँ नहीं, वह अजर कहावै ।
कहै कबीर कोइ साध जन, या लोक मझावै ।।”
हमारे सद्गुरु महाराज का जन्म श्याम ग्राम के मँझुआ टोले में हुआ। ऐसा लगता है, जैसे ‘मँझावै’ का ही यह अपभ्रंश हो। मँझुआ+आवै=मँझुवावै। यदि हम गुरुदेव को बुद्ध की दृष्टि से देखना चाहें तो उससे भी एक विलक्षण बोध प्राप्त होगा।
भगवान बुद्ध का पूर्व का नाम सिद्धार्थ था और पश्चात् का नाम बुद्ध। हमारे सद्गुरु देव का पूर्व नाम ‘रामानुग्रह’ था और पश्चात् का नाम ‘मेँहीँ’।
भगवान बुद्ध का पित्तृगृह नेपाल की तराई कपिलवस्तु नगर में था (जो बिहार प्रांत में ही कभी अवस्थित था) हमारे सद्गुरु देव का पित्तृगृह नेपाल की तराई पुरैनियाँ (पूर्णियाँ) जिले में है, जो बिहार राज्यान्तर्गत है।
भगवान बुद्ध का जन्म वैशाखी पूर्णिमा को हुआ था। हमारे सद्गुरु का जन्म वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को हुआ, अर्थात् एक दिन पूर्व। इस दृष्टि से यदि कहा जाए कि भगवान बुद्ध से हमारे गुरु महाराज एक दिन के बड़े हैं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
भगवान बुद्ध की माता जब अपने पित्तृगृह- मायके जा रही थीं, तब मार्ग में ही शालवन में बुद्ध का जन्म हुआ था। हमारे सद्गुरुदेव की माता जब अपने पित्तृगृह-मायके पहुँच चुकी थीं, तब वहाँ ही आपका जन्म हुआ।
भगवान बुद्ध जन्म धारण करते ही तत्क्षण सात डेग चले थे, जो अलौकिक बात है। हमारे सद्गुरुदेव को जन्मजात सात जटाएँ थीं, जो प्रतिदिन सुलझा देने पर भी पुनः सात-की-सात बन जाती थीं, यह विलक्षण जन्मजात योगी के प्रतीक नहीं तो क्या?
भगवान बुद्ध की अल्पावस्था में ही उनकी माता की मृत्यु हुई थी। हमारे सद्गुरुदेव की भी अल्पावस्था में यानी चार वर्ष की उम्र होने पर इनकी माता की मृत्यु हुई।
भगवान बुद्ध के पिता शुद्धोधन ने पुनर्विवाह किया था। हमारे सद्गुरुदेव के पिता बबुजनलाल दासजी ने भी पुनर्विवाह किया था।
भगवान बुद्ध की सौतेली माँ का अद्भुत स्नेह उनके प्रति था। उसने लाड़-प्यार से उनका पालन-पोषण किया था और बड़े होने पर भी (बुद्ध होने पर) गुरुवत् उसी प्रतिष्ठा की दृष्टि से उनको देखा। हमारे सद्गुरुदेव की सौतेली माँ का अलौकिक प्यार इनको प्राप्त था और जब आप बड़े हुए तो वे आपको पुत्र की दृष्टि से नहीं, वरन् एक सन्त की दृष्टि से देखती थीं। इसका सबल प्रमाण है कि जब वे इस जगत से महाप्रयाण कर रही थीं, उस समय उन्होंने आपका आवाहन कर आपके शुभ दर्शन किए थे।
भगवान बुद्ध ने विवाह करके कुछ काल के लिए गृहस्थ धर्म स्वीकार किया था, तत्पश्चात् वे संन्यासी बने। हमारे सद्गुरुदेव ने बाल-ब्रह्मचारी रहकर संन्यास व्रत धारण किया।
भगवान बुद्ध को वृद्ध, रुग्न और मृतक- दर्शनरूप प्रचंड पवन के तीन झकझोरे लगने पर प्रबल वैराग्य हुआ। हमारे सद्गुरुदेव को अध्ययन-काल में ही वैराग्य हुआ। आपको परीक्षा-काल में (ठनपसकमते) शीर्षक का मात्र एक झटका लगा और वैराग्याग्नि प्रदीप्त हो उठी। ऐसा लगता है कि जैसे सूखी दियासलाई पर मात्र एक काठी की आवश्यकता थी। भगवान बुद्ध छह वर्षों तक जंगल में कठोर तप करने पर इस निर्णय पर पहुँचे कि इससे अभीष्ट सिद्धि की प्राप्ति नहीं हो सकती। हमारे सद्गुरुदेव ने छह महीने तक जमीन के नीचे रहकर यह निष्कर्ष निकाला कि इस कठिन तपश्चर्या से सर्वेश्वर का साक्षात्कार नहीं हो सकता।
भगवान बुद्ध को बिहार राज्यान्तर्गत गया जिले की गया भूमि में वटवृक्ष के नीचे परम सिद्धि की प्राप्ति हुई थी। हमारे सद्गुरु को बिहार राज्यान्तर्गत भागलपुर जिले में गंगा-पुलिनस्थित कुप्पाघाट की गुफा, भागलपुर में परम सिद्धि मिली।
स्मरणीय है कि इन दोनों सन्तों की जन्मभूमि गंगा के उत्तरी पार थी और उभय को अभय सिद्धि की प्राप्ति गंगा के दक्षिणी पार में हुई।
भगवान बुद्ध ने ध्यान करने और पंचशील पालन करने का उपदेश दिया। हमारे सद्गुरुदेव ने ध्यानाभ्यास करने और झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार; इन पंच पापों से विरत रहने का प्रबल आदेश दिया।
भगवान बुद्ध ने बुद्ध, धर्म और संघ की त्रिशरण बताई-‘बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि।’
हमारे गुरुदेव ने त्रिशरण के समास-रूप गुरु, ध्यान और सत्संग का निर्देशन करते हुए एक सर्वेश्वर पर अचल विश्वास एवं पूर्ण भरोसा रखने की शिक्षा दी।
भगवान बुद्ध ने अंगुलिमाल नामक डाकू तथा आम्रपाली नामक वेश्या का उद्धार किया जबकि हमारे गुरुदेव ने कितने ही दुष्टों तथा अज्ञातनामा (कटिहार नगर की) वेश्या का उद्धार किया।
भगवान बुद्ध ने पैदल घूम-घूमकर सम्पूर्ण देश में अपने धर्म का प्रचार किया। हमारे सद्गुरुदेव ने भी पदयात्र करके बीहड़ मार्गों को तय किया और सन्तमत का प्रचार-प्रसार किया; मात्र अपने देश में ही नहीं, अपितु नेपाल राज्य में भी। अनपढ़, असभ्य और गिरे हुओं को, जिनको पूछनेवाला कोई नहीं, आपने सद्ज्ञान दिया।
अब स्वल्प रूप में जो विषमताएँ हैं, उनका समास रूप में दिग्दर्शन कराना चाहूँगा।
कहते हैं, भगवान बुद्ध ने वेद और ब्रह्म को अस्वीकार किया, परन्तु हमारे सद्गुरुदेवजी ने उन दोनों को स्वीकार किया और मानवीय मर्यादा दी। भगवान बुद्ध ने भिक्षुओं और भिक्षुणियों की संख्या बढ़ाने में प्रोत्साहन दिया, किन्तु हमारे सद्गुरुजी ने देशकाला- नुकूल गृहस्थाश्रम में रहने तथा स्वालम्बी जीवनयापन का आदेश दिया। भगवान बुद्ध ने मौखिक उपदेश दिया, किन्तु परम पूज्यगुरुदेवजी ने मौखिक उपदेश के साथ साहित्य-सृजन भी किया। वेदवादी और पंथवादी के बीच का पाटन-कार्य आपने सफलतापूर्वक किया। साथ ही, साम्प्रदायिक भाव के कारण सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार आदि की जो आपस में कटुता थी, आपने अपने अर्जित ज्ञान और सामंजस्यपूर्ण विचार द्वारा उसकी झंझट का उन्मूलन करके उसमें मधुरिमा ला दी।
अन्य संतों की भाँति आपने एक ईश्वर पर विश्वास दिलाया और उनकी भक्ति दृढ़ की। साथ ही, उनकी प्राप्ति का एकमात्र मार्ग अन्तमार्ग बताया, जो ज्योतिर्मय और ध्वनिमय है। जैसे जल में तैरनेवाले के लिए जल ही मार्ग होता है और जल ही अवलम्ब, वैसे ही अंतर्मार्गी साधक के लिए ज्योति और नाद ही मार्ग हैं तथा ये ही दोनों अवलम्ब भी। आपने प्रकाश और शब्द को परमात्मा का वाम और दक्षिण हस्त बतलाया और कहा कि यह शब्द जहाँ विलीन होगा, वहाँ ही उपनिषद् का यह वाक्य ‘निःशब्दं परमं पदम्’ सार्थक होगा अर्थात् वही परमात्म-धाम है। वहीं गोस्वामी तुलसीदासजी का ‘एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद परधामा।।’ है। इन कतिपय शब्दों के साथ मैं श्री सद्गुरुजी महाराज के चरणों में अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय)
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन 22-05-1986 ई0 को महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट,
भागलपुर में महर्षि मेँहीँ जयन्ती के शुभ अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जुलाई 1986 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं बहनो!
आपलोगों ने संत सद्गुरु तथा सत्संग के प्रसंग में बहुत-सी कहानियाँ सुनीं। कहानियों को सुनकर मेरे मन में भी हुआ कि मैं भी एक कहानी आपलोगों को सुनाऊँ। लेकिन यह कहानी पौराणिक कहानी नहीं है, न मेरी कहानी है, न किसी नानी की कहानी है। वह एक अजब और लासानी कहानी है। लेकिन वह कहानी अर्वाचीन नहीं, प्राचीन है। फिर भी वह चीन की कहानी नहीं, जापान की हैै।
जापान में एक संत आश्विन महीने में अपने आसन पर आसीन थे। उसी समय एक लेफ्रटीनेंट वहाँ प्रजेंट होता है। बिल्कुल नया जवान था। जवानी का पानी भी उसपर चढ़ा हुआ था और वह ऐसा जवान था कि जिसकी जबान में लगाम नहीं थी। पद के कारण वह मद में तो था ही और जवानी के कारण किसी की सुनता नहीं था, न गुनता ही था। ऐसे लोग बड़ों के सामने जाकर झुकना नहीं जानते हैं, ऐंठना जानते हैं। बड़ों को वे प्रणाम नहीं करते। बड़ों को प्रणाम करना वे पाप समझते हैं, चाहे अपना बाप ही क्यों न हो। इस कारण उसने महात्माजी को प्रणाम तो नहीं किया, बल्कि मूँछ पर हाथ देकर कहा, ‘महात्माजी! कुछ पूछूँ?’ महात्माजी ने कहा, ‘क्या पूछना चाहते हो? पहले यह तो बताओ कि तुम हो कौन?’ उसने कहा, ‘मैं अमुक रेजीमेंट का लेफ्रटीनेंट हूँ।’ महात्माजी ने आपादमस्तक देखा और कहा, ‘तुम अपने को लेफ्रटीनेंट कहते हो; लेकिन मैं तो समझता हूँ कि तुम उस लेफ्रटीनेंट का असिस्टेंट का सर्भेण्ट भी होने योग्य नहीं हो। तेरा चेहरा तो चुहार जैसा है। तुम क्या लेफ्रटीनेंट बनोगे।’ जवान तो था ही; म्यान से अपनी तलवार निकाली और चाहा कि उनके सर को सर से अलग कर धड़ से उतारकर धरा पर धर दूँ। उसने उसपर तलवार का वार किया। लेकिन महात्माजी ने अपने कर से वार को सम्हाल लिया और कहा, ‘अच्छा! तेरे पास तलवार भी है।’ मुस्कुराते हुए कहा, ‘अरे! तेरी तलवार एक तिनके को नहीं काट सकती, तो फिर मेरे तन की तो बात ही क्या है।’ वह युवक पुनः आवेश में आया और प्रहार करना चाहा। उसकी तलवार को महात्मा ने एक बाल की तरह मोड़ दिया और कहा, ‘वत्स! तेरे जैसे जवान का जवानी में आना कल्याण के लिए होता है। लेकिन तनिक-सी बात में तुनक जाने के लिए नहीं है। अरे! याद है तुमको! तुमने क्या पूछा था मुझसे।’ उसने पूछा था, ‘बाबा! स्वर्ग और नरक क्या है?’ महात्मा ने कहा, “ मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे रहा था। अभ्ाी तक तुम नरक के द्वार पर खड़े हो। अभी तुम तलवार से वार करने, हत्या करने के लिए तैयार हो, इसलिए तुम अभी नरक के द्वार पर खड़े हो।
“ काम क्रोध मद लोभ सब, नाथ नरक कर पंथ ।”
(गो0 तुलसीदासजी)
जब कोई क्रोध में आ जाता है, तो वह अबोध हो जाता है। प्रतिशोध की भावना उत्पन्न हो जाती है, वह इतना अबोध हो जाता है कि क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है, निर्णय नहीं कर पाता। वह अपकर्म करने के लिए तुल जाता है और सारे ज्ञान को वह भूल जाता है, जिस भूल के कारण उसके हृदय में शूल होता है, जिसका निर्मूल करना मामूली बात नहीं।” महात्मा का यह कहना था कि, वह युवक पढ़ा-लिखा तो था ही, नतमस्तक हो गया, महात्मा के चरणों पर वह गिर गया और अपने अश्रुजल से उनके चरणों को धोने लगा। महात्माजी उनकी पीठ को सहलाते हुए कहते हैं, ‘बेटा! अब तुम स्वर्ग के द्वार पर खड़े हो। जब जिसके हृदय में क्रूरता रहती है, तो वह नरक के द्वार पर रहता है। अब तुम्हारी क्रूरता दूर हो गयी। जो तुम्हारी हिंसा वृत्ति थी, वह अहिंसा में परिणत हो गयी। दयाभाव तुम्हारी आत्मा में आ गया। अब तुम स्वर्ग के द्वार पर हो। तुमने मुझसे पूछा था कि स्वर्ग और नरक क्या है? मैं यही बतलाने के लिए ही ऐसा कहा था।
यह तो विदेश की बात थी, अब स्वदेश की बात पर आइये। हमलोगों के यहाँ स्वर्ग और नरक के बाद भी स्थान बतलाया जाता है, जिसको अपवर्ग कहते हैं। उसे त्रयवर्गपर अपवर्ग कहा जाता है। वह अपवर्ग क्या है? अपवर्ग कहते हैं मोक्ष को। मोक्ष मिलता कैसे है? शास्त्र कहता है-ज्ञानान्मोक्षमवाप्नोति। ज्ञान से मोक्ष होता है। गो0 तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
“ धर्म ते विरति जोग ते ज्ञाना ।
ज्ञान मोक्षप्रद वेद बखाना ।।”
शास्त्र कहता है-ज्ञान से मोक्ष होता है। इसलिए उस ज्ञान के जो ज्ञाता होते हैं, वे गुरु कहलाते हैं। जिस गुरु में ज्ञान नहीं है, उसके लिए शास्त्र वचन है-‘त्येजद्गुरुम्’। उसको छोड़ दो। सारी बातों का ज्ञान दे दें; लेकिन यदि वह मोक्ष का ज्ञान नहीं देता है, तो वह गुरु कहला सकते है, संत सद्गुरु नहीं हो सकते। जिनसे हम कुछ सीखते हैं, वे गुरु कहलाते हैं। वे संत सद्गुरु नहीं होते हैं। गुरु तो बहुत होते हैं। संत कबीर साहब ने कहा-
प्रथम गुरु है माता पिता ।
रज बीरज का सोई दाता ।।
दूसर गुरु है मन की धाई ।
गिरह बास की बंध छुड़ाई ।।
तीसर गुरु जिन धरिया नामा ।
लै लै नाम पुकारै गामा ।।
चौथे गुरु जिन शिक्षा दीन्हा ।
जग व्यवहार सभै तब चीन्हा ।।
पंचम गुरु जिन वैष्णव कीन्हा ।
रामनाम का सुमिरन दीन्हा ।।
छठे गुरु जिन भरम गढ़ तोड़ा ।
दुविधा मेटि एक से जोड़ा ।।
सातवँ गुरु जिन सतशब्द लखाया ।
जहाँ का तत्त्व सो तहाँ समाया ।।
“ कबीर सात गुरू संसार में, सेवक सब संसार ।
सतगुरु सोई जानिये, जो भवजल उतारे पार ।।”
जो संसार-सागर से पार करनेवाले होते हैं, वे ही संत सद्गुरु होते हैं। और-
“ गुरू नाम है ज्ञान का, शिष्य सीख ले सोय ।
ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरु शिष्य न कोय ।।”
यह गुरु और शिष्य की जो परम्परा है, आदि काल से चली आ रही है। जबसे सृष्टि है, तबसे गुरु है। कोई सिखानेवाला है, तो कोई सीखनेवाला है। कोई माता के पेट से सीखकर नहीं आता है, यहाँ आकर ही सीखता है। लेकिन एक जागतिक गुरु होते हैं और दूसरे पारमार्थिक गुरु होते हैं। सांसारिक गुरु के द्वारा सांसारिक लाभ होता है। पारमार्थिक गुरु जो होते हैं, वे परम तत्त्व का ज्ञान देते हैं। यह जीव जाकर पीव को पावे, जीवात्मा परमात्मा में मिल जाए, यह ज्ञान संत सद्गुरु देते हैं। इसीलिए अन्य गुरुओं की अपेक्षा संत सद्गुरु का स्थान सर्वोपरि है। संत सद्गुरु से बढ़कर किसी दूसरे का दर्जा नहीं हो सकता।
लोग भगवान राम कहते हैं, भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने भी गुरु धारण किया। भगवान श्रीकृष्ण ने भी गुरु धारण किया। मात्र गुरु ही धारण नहीं किया; बल्कि उनकी सेवा भी की। भगवान श्रीकृष्ण लकड़ी तोड़-तोड़कर गुरु के जलावन के लिए लाते थे। भगवान श्रीराम के लौकिक और पारलौकिक दो गुरु थे। लौकिक गुरु विश्वामित्र मुनि थे और पारलौकिक गुरु वशिष्ठजी थे। लौकिक गुरु की भी उन्होंने कम सेवा नहीं की। रामायण में गो0 तुलसीदासजी ने लिखा है-
“ मुनिवर शयन कीन्ह तब जाई ।
लगे चरण चापन दोउ भाई ।।”
लोग कहा करते हैं कि गो0 तुलसीदासजी के इष्टदेव भगवान श्रीराम थे। लेकिन अध्ययन किया जाय तो पता चलेगा कि गो0 तुलसीदासजी ने गुरु को कितना विशेष स्थान दिया है। रामचरितमानस लिखते हैं तो आरंभ करते हैं-
“ बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि ।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।”
छोटी-सी पुस्तिका उनकी है-हनुमान- चालीसा। बहुत लोगों को वह कंठस्थ भी होगी समूची। वे उसमें आरंभ करते हैं-
“ श्रीगुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि ।
बरनऊँ रघुवर विमल जसु, जो दायक फल चारि ।।
वर्णन करते-करते आगे बढ़ते हैं तो कहते हैं-
“ जय जय जय हनुमान गोसाईं ।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं ।।”
जिनके इष्ट भगवान राम हैं, वे कहते-
“ जय जय जय हनुमान गोसाईं ।
कृपा करहु रघुपति की नाईं ।।”
वे हनुमानजी की प्रार्थना कर रहे हैं, हनुमान चालीसा लिख रहे हैं, लेकिन वे कहते हैं-
“ बुद्धिहीन तनु जानिकै, सुमिरौं पवन-कुमार ।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस विकार ।।”
तुलसीदासजी वहीं पर यह कह सकते थे कि बल, बुद्धि तो मुझे है नहीं, इसलिए हे हनुमानजी ‘जय जय जय हनुमान गोसाईं। कृपा करहु जो तोहि सुहाईं ।।’ सो भी नहीं कहते हैं। बल्कि वे कहते हैं-
“ जय जय जय हनुमान गोसाईं ।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं ।।”
एक जगह लिखते हैं-
“ राम नाम कलि कामतरु, रामभगति सुर धेनु ।
सकल सुमंगल मूल जग, गुरु पद पंकज रेनु ।।”
कलियुग में रामनाम क्या है-‘कलि कामतरु’। कल्पवृक्ष के नीचे आप जाइये, जो कामना कीजिए, सारी पूरी हो जाएगी। तो रामनाम कलियुग में कल्पवृक्ष है और राम की जो भक्ति है, ‘राम भगति सुर धेनु’। कामधेनु से खाने-पीने के लिए जो कुछ माँगिये, सब आपको मिल जाएँगे। यदि हमको कल्पवृक्ष मिल जाए या कामधेनु मिल जाय, तो फिर हमको किसी भी चीज की आवश्यकता ही क्या रह जाएगी? लेकिन गो0 तुलसीदासजी की दृष्टि में बहुत कमी है। वे कहते हैं, ‘कल्पवृक्ष और कामधेनु मिलने पर भी तुम्हारा सुमंगल नहीं होगा। मंगल होगा, मगर सुमंगल नहीं होगा। मौका पड़ने पर मंगल क्या, षड़मंगल ही हो जाएगा।’ अभी आपलोगों ने सुनी थी कहानी विश्वामित्रजी की। विश्वामित्र गये थे शिकार करने के लिए। जब वे शिकार करके लौटते हैं, तो वशिष्ठजी के आश्रम पहुँचते हैं। विश्वामित्र के साथ में चतुरंगिनी सेना थी। विश्वामित्र से वशिष्ठजी ने कहा, ‘भोजन का समय है, आप भोजन ग्रहण कीजिए।’ विश्वामित्र ने कहा, ‘मैं अकेला नहीं हूँ। इतनी फौज मेरे साथ हैं, मैं खा लूँ और वे लोग भूखे रहें, यह तो मुझसे नहीं होगा।’ वशिष्ठजी ने कहा, ‘सबकी सेवा हो जाएगी।’ यह सुनकर विश्वामित्रजी चकित हो गये। देखता हूँ कि इनकी छोटी-सी झोपड़ी और इतनी बड़ी फौज, इनकी सेवा कैसे करेंगे?
वशिष्ठजी के पास कामधेनु गाय की पुत्री थी-नन्दिनी। नन्दिनी से वशिष्ठजी ने कहा, ‘मेरे यहाँ अतिथि आ गये हैं, सबका तुम सत्कार करो।’ भोजन की इतनी सामग्री निकली नन्दिनी से कि सब खाते-खाते थक गये। यह देखकर आश्चर्यचकित हो गये। विश्वामित्र ने कहा, ‘इतने को भोजन आपने कैसे करवाया?’ उन्होंने कहा, ‘मेरे पास है नन्दिनी- कामधेनु। उसी से सबके लिए इतने भोजन प्राप्त हुए।’ विश्वामित्र ने कहा, ‘साधु बाबाजी आपके पास यह गाय रहकर क्या करेगी? यह गाय तो मेरे पास रहनी चाहिए। मेरे यहाँ तो तरह-तरह के लोग आया करते हैं। यह मेरे यहाँ सेवा करेगी। यह आप मुझे दे दीजिए।’ वशिष्ठजी तो संत थे। उन्होंने कहा, ‘ले जाइये’ विश्वामित्रजी नन्दिनी को ले जाने लगे। वह जा नहीं रही थी। उसके साथ जबर्दस्ती की गयी। फिर भी गाय टस-से-मस नहीं हुई। अब उनकी फौज उसपर टूट पड़ी कि येन-केन-प्रकारेण ले चलेंगे। वशिष्ठजी की ओर नन्दिनी देखने लग गयी। वशिष्ठजी ने कहा, ‘मेरी ओर क्या देखती है, अपना पराक्रम कर।’ सो जो उसने अपना पराक्रम दिखलाया, तो सारी फौज परास्त हो गयी। विश्वामित्र लौट गये। नन्दिनी को नहीं ले जा सके। अब द्वेष वशिष्ठजी के साथ बढ़ गया। उनके सौ पुत्रें का हनन करवा दिया। इस कहानी से क्या सार निकला? जिनके घर में कामधेनु हो, उनके सौ पुत्र मारे जाएँ! विधवा पतोहू नजर में आवे, यह क्या मंगल है? कामधेनु के रहते हुए भी षड़मंगल हो गया।
कल्पवृक्ष की भी कथा है-एक आदमी घूमते- फिरते एक ऐसे जंगल में पहुँचा, जहाँ कल्पवृक्ष था। वह जंगल में पथभ्रष्ट हो गया। रास्ता अपना भूल गया था। वह भूखा था। पिपासित था। संयोग से वह थका-माँदा कल्पवृक्ष के नीचे बैठ जाता है। वह सोचता है, अगर पानी मिल जाता तो अपनी पिपासा को शांत करता। देखता है कि पवित्र जल की कलकल धारा बह रही है। वह सोचता है कि इसी होकर तो अभी मैं आया था। यह धारा कहाँ से आ गयी? सोचा, शायद मैं दूसरी दिशा से यहाँ आया हूँ। उसने उसमें स्नान कर लिया, लोटा में जल भर लिया और सोचने लगा, अगर कुछ खाने को मिल जाता, तो कुछ खाकर ही पानी पीता। खाली पेट पानी पीना अच्छा नहीं। सोचना था कि एक सुन्दर थाल में भोजन की सारी सामग्री आ गयी। वह भोजन करके तृप्त हो गया। भोजन के बाद उसके मन में आया कि कुछ आराम कर लेता, बहुत थका-माँदा हूँ। फिर सोचा कि जमीन पर सोना ठीक नहीं, कीड़े-मकोड़े बहुत होंगे, यदि कोई बिछावन, खाट-पलँग होता, तो आराम से सोता। इतने में उसके सामने ही पलँग लग जाता है-सोने के लिए। फिर सोचता है कि यहाँ गाछ है, कहीं चिड़िया बीट न कर दे। जरा कपड़घर हो जाता, तो निश्चिन्त होकर सोता। कपड़घर भी बन गया। अब गया वह सोने के लिए। सिरहाने पर जब सिर रखता है, तब सोचता है कि यह तो जंगल है, निर्जन वन है, कहीं जंगल से बाघ आ जाए और गला मरोड़ दे, तो मेरी जीवन-लीला समाप्त हो जाएगी। इतने में बाघ आया और उसका गला मरोड़ दिया। वह वहीं मर गया। अब देखिये, कल्पवृक्ष के नीचे रहने पर भी यह हालत हो गयी। तो गो0 तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
“ राम नाम कलि कामतरु, रामभगति सुर धेनु ।”
लेकिन सकल सुमंगल इसमें नहीं है। अगर सकल सुमंगल चाहते हो, तो-
“ सकल सुमंगल मूल जग, गुरु पद पंकज रेनु ।।”
इसलिए गुरु का स्थान सर्वोपरि है। इनसे विशेष किन्हीं का स्थान नहीं हो सकता। हमलोग क्या गाते हैं-
‘परम पुरुषहू तें अधिक, गावें सन्त सुजान ।’
एक तो परम पुरुष परमात्मा ही क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष से परे है। लेकिन गुरु उनसे भी अधिक क्यों? गुरुदेव के वचन में आया है-
“ हरदम प्रभु रहैं संग, कबहुँ भव दुख न टरै ।
भव दुख गुरु दें टारि, सकल जय जयति करै ।।”
त्रयतापों से जो हम तप्त होते रहते हैं, उनसे मुक्त करनेवाले कौन हैं? एक गुरु के सिवा दूसरा- तीसरा कोई नहीं है। इसलिए तो सहजोबाई ने कहा-
“ राम तजूँ पै गुरु न बिसारूँ ।
गुरु के सम हरि कूँ न निहारूँ ।।”
किसी ने पूछ दिया, ऐसी बात क्यों? तो सहजोबाई ने कहा-
“ हरि ने जन्म दियो जग माहीं ।
गुरु ने आवागमन छुटाहीं ।।
हरि ने पाँच चोर दिये साथा ।
गुरु ने लई छुटाय अनाथा ।।
हरि ने कुटुँब जाल में गेरी ।
गुरु ने काटी ममता बेरी ।।
हरि ने रोग भोग उरझायौ ।
गुरु जोगी कर सबै छुटायौ ।।”
कहते-कहते वे अंत में कह देती हैं-
“ चरणदास पर तन मन वारूँ ।
गुरु न तजूँ हरि कूँ तजि डारूँ ।।”
यह है गुरु पर निर्भरता। लेकिन गुरु पर निर्भरता है, गोरू पर नहीं। ‘गुरु नाम है ज्ञान का’। जो ज्ञान जानता है, वह उसका आचरण भी करता है।
“ कहता सो करता नहीं, मुख का बड़ा लबार ।
आखिर धक्का खाएगा, साहिब के दरबार ।।
एक कहै दूजी कहै, दो दो कहै बनाय ।
ये दो मुख का बोलना, घना तमाचा खाय ।।”
इसलिए गुरु का जो स्थान है, वह सभी संतों के यहाँ और सद्ग्रंथों में सर्वोपरि है। गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
“ गुरु की मूरति मन महिँ धियानु।
गुरु के शबदि मंत्र मनु मानु ।।
गुरु के चरण रिदै लै धारउ।
गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारऊ ।”
संत कबीर साहब कहते हैं-
“ मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।”
शिवनारायण स्वामी जी महाराज कहते हैं-
“ निहारो यारो गुरु मूरति की ओर ।
गुरु मूरति सूरति बीच निरखो, तब उर होत इंजोर ।।”
यहाँ तो ‘गुरु मूरति सूरति बीच निरखो’ और गो0 तुलसीदासजी की वाणी में आपलोगों ने अभी सुनी-
“ श्री गुर पद नख मनि गन जोती ।
सुमिरत दिब्य दृष्टि हिय होती ।।
दलन मोह तम सो सुप्रकासू ।
बड़े भाग उर आवइ जासू ।।”
यह कैसे होता है? यह प्रकाश कैसे होता है? हमलोगों के यहाँ जो बिजली का प्रकाश होता है, वह कैसे होता है? दो धारें आती हैं, एक शीत धार, दूसरी उष्ण धार-निगेटिव और पोजिटिव। दोनों धारों को मिलाइये बल्ब जल जाएगा। हमलोगों की जो दृष्टिधार है, वह एक निगेटिव है और दूसरी पोजिटिव है। इन दोनों धारों को मिलाइये, प्रकाश होगा। इन दोनों धारों को हम कैसे मिलावें? दृष्टि की जो दोनों धारें हैं, वे क्या हैं? समानान्तर रेखाएँ हैं। समानान्तर रेखाएँ कभी मिलती नहीं हैं। लेकिन जब किसी एक वस्तु को एक प्वाइंट पर देखते हैं, तो दृष्टि-धारा मिल जाती है। जैसे सूई के छिद्र में धागा पिरोते हैं, तो दृष्टि एक हो जाती है। लेकिन इसमें भी पूर्ण सिमटाव नहीं है। इस छिद्र से भी जब सूक्ष्म से सूक्ष्म होगा, तब कहीं एक प्वाइंट होगा।
हमलोग रेखागणित में पढ़ते हैं, जिसका स्थान है, लेकिन परिमाण नहीं, जिसमें लंबाई-चौड़ाई कुछ नहीं। इस तरह का विन्दु किसी ने देखा है? परिभाषा में हमलोग पढ़ते, विन्दु के समूह को रेखा कहते हैं। रेखा उसको कहते हैं, जिसमें लंबाई होती है, लेकिन चौड़ाई-मोटाई नहीं होती। इस तरह की रेखा किसी ने देखी है? बाहर की रेखा में कुछ-न-कुछ चौड़ाई हो जाएगी। विन्दु में कुछ-न-कुछ परिमाण हो जाएगा। बाहर में न विन्दु है, न रेखा है यथार्थ में यौगिक दृष्टि से जो देखते हैं, तो उनको रेखा और विन्दु दीखते हैं। गुरु नानकेदव जी महाराज ने कहा-‘एक दृसटि करि समसरि जानै, जोगी कहीअै सोई।’ हमारे गुरु महाराज कहते हैं-
“ युग दृष्टि की एक तीक्ष्ण नोक चीर तेजस विन्दु रे ।
सुनो अंदर नाद ही लखो सूर्य तारे इन्दु रे ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
जो ये क्रिया जानते हैं और करते हैं, तो अंतःप्रकाश होता है। जहाँ अंतःप्रकाश होता है, वहाँ अंतर्नाद की अनुभूति होती है। जहाँ अंतर्नाद की अनुभूति होती है, जहाँ उत्पत्ति होती है, उसका विलय वहीं होता है। उस नाद की उत्पत्ति परम प्रभु परमात्मा से है। उस शब्द को जो ग्रहण करता है, वह शब्द उसको परम प्रभु परमात्मा तक पहुँचाता है। संत सद्गुरु यह बतलाते हैं कि मानस जप करो, मानस ध्यान करो, दृष्टियोग की क्रिया करो। नादानुसंधान करो। बड़ा ही अच्छा गुरुदेव ने कहा-
“ नाद सों नादों में चलि धरु प्रणव सत ध्वनि सार रे ।
एक ओम् सत नाम ध्वनि धरि मेँहीँ हो भव पार रे ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
इसलिए इस संसार से उद्धार पाने के लिए यही एक सच्चा मार्ग है, जो सद्गुरु महाराज हमलोगों को बता गये हैं, उनके ज्ञान में किसी प्रकार की कमी नहीं है। कमी हमलोगों के करने में है। जो कमी है, उसको हमलोग पूरा करें इसके लिए उकताना नहीं है-
“ धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आये फल होय ।।”
गुरु महाराज कभी-कभी कहा करते थे-Slow and steady wins the race अर्थात् धीरे- धीरे ही हो; लेकिन अनवरत होना चाहिए। चलते-चलते कभी-न-कभी अवश्य पहुँच जाएँगे। भगवान बुद्ध न कहा, ‘बूँद-बूँद से घड़ा भर जाता है, उसी तरह थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करते-करते पूर्ण हो जाओगे। थोड़ा-थोड़ा अपने दोषों को छोड़ते हुए पूर्ण हो जाओगे। जैसे सुनार चाँदी की मैल को धीरे-धीरे जलाकर साफ कर देता है, उसी तरह मन में भी विकार रूपी मैल जो है, वह भी ध्यानाभ्यास करते-करते दूर हो जाती है। गो0 तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
“ निर्मल मन जन सो मोहि पावा ।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा ।।”
इसलिए हमलोग ध्यान-सत्संग करते रहें, झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार-इन पंच पापों से बचकर रहें। स्वावलंबी जीवन-यापन करें। गुरुदेव का जो आदेश है, उसी परिवेश में रहें, तभी हमलोग जो अभी गुरु-पूर्णिमा का समारोह मना रहे हैं, यह सार्थक होगा। यही आपलोगों के सामने थोड़ा-सा कहा।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 21-7-1986 को महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर में गुरु-पूर्णिमा के अवसर पर अपराह्णकालीन सत्संग में हुआ था।
(शान्ति-सन्दंश, सितम्बर 1986 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
“ ऐसी मूढ़ता या मन की ।
परिहरि राम-भगति सुर-सरिता,
आस करत ओस कन की ।। 1।।
धूम-समूह निरखि चातक ज्यों,
तृषित जानि मति घन की ।
नहिं तहँ सीतलता न बारि पुनि,
हानि होत लोचन की ।। 2।।
ज्यों गच काँच विलोकि स्येन जड़,
छाँह आपने तन की ।
टूटत अति आतुर अहार बस,
छति बिसारि आनन की ।। 3।।
कहँ लौं कहौं कुचाल कृपानिधि,
जानत हौ गति जन की ।
तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख,
करहु लाज निज पन की ।। 4।।”
हमलोग देखते हैं कि चीनी बहुत साफ, बिल्कुल उज्ज्वल है, रंग उसका सफेद है। उसमें गंदगी नहीं है, मैल नहीं है। लेकिन जब उसी चीनी को कड़ाही में डालकर, पानी मिलाकर उसके नीचे अग्नि प्रज्वलित करते हैं, तो देखते हैं कि थोड़ी ही देर में कड़ाही में ऊपर-ऊपर काफी मैल आकर इकट्ठी हो जाती है; ऊपरी सतह पर मैल तैरने लगती है। जब उस चीनी के घोल को आँच के ऊपर नहीं चढ़ाया गया था, तब उस चीनी की मैल को हम नहीं देख पाते थे। चीनी से गंदगी हटाने के लिए, मैल हटाने के लिए उस कड़ाही में हम दूध के छींटे मारते हैं। कड़ाही के चीनी के घोल पर जब दूध का छींटा पड़ता है, तो मैल चीनी से अलग हो जाती है और साफ चीनी अलग हो जाती है।
हम ध्यान करने बैठते हैं, तो हम देखते हैं कि यद्यपि हम अत्यन्त ही पवित्र, साफ मन से ध्यान करने बैठे हैं; किन्तु मन की दशा देखते ही बनती है। पता नहीं, कहाँ-कहाँ से जमाने की बात, जिसके बारे में हाल में हमने कुछ सोचा भी नहीं होगा, आकर इक्टठी होने लगती है। जिस किसी से मेल नहीं था, मेल हो जाता है; जिससे बैर नहीं था, बैर हो जाता है। मन की ये बातें चलती रहती हैं; ध्यान ही नहीं रहता कि हम बैठे थे क्या करने और करने लगे क्या? होश होता है, तो समझ में आता है कि हम तो संकल्प-विकल्प के चक्कर में पड़ गये। ऐसी ही प्रथम दशा होती है साधक की। हम भजन करने बैठते हैं, पर मन भजन में नहीं लगता। क्यों, ऐसा क्यों होता है? सत्संग के द्वारा हमें यह ज्ञान होता है कि विषय में तृप्ति नहीं है, सुख नहीं, चैन नहीं, कल्याण नहीं है; फिर भी यह मन उन विषयों के पीछे ही क्यों दौड़ लगाता है? उनकी तरफ ही उन्मुख हो उन्हें ही भोगने में क्यों पड़ा रहता है? जिस बात को जानते हैं कि नहीं करना चाहिए, फिर भी करते हैं। ऐसा होता क्यों है?
एक गरीब किसान है। उसके यहाँ एक गाय है। बेचारा गरीब किसान उस गाय के लिए रूखी-सूखी घास किसी प्रकार जुटाता है और उस गाय को खिलाता है। रूखी-सूखी घास भी वह गाय भरपेट नहीं पाती है। किसी प्रकार काम चलता है, दिन व्यतीत होते हैं। वह बेचारी गाय करेगी भी तो क्या? एक दिन एक सेठ जी उस किसान के यहाँ आते हैं। देखते हैं कि गाय की नस्ल तो अच्छी है। इस गाय को दूध भी अच्छा देना चाहिए और इससे जो बछड़े पैदा होंगे, वे भी अच्छी जाति के बैल बनेंगे। इसे खाने के लिए ठीक से नहीं मिलता है, इसीलिए यह इतनी दुबली-पतली है। सेठजी सोचते हैं कि यदि यह मेरे यहाँ चली जाए, तो इसे खाने के लिए हरी-हरी घास और बढ़िया दाना, खल्ली आदि मिला करेगा और यह वहीं सुखपूर्वक रह सकेगी। सेठजी उस किसान से उक्त गाय बेच देने को कहते हैं और आपस में सौदा तय हो जाता है तथा गाय को सेठजी अपने यहाँ ले जाते हैं। आखिर सेठजी ही ठहरे। गाय को हरी-हरी घास, दाना, खल्ली आदि खाने के लिए देते हैं तथा गाय के रहने के लिए घर भी होता है। किसान के यहाँ तो उस गाय के लिए रूखी-सूखी घास, रूखा-सूखा भोजन आधा पेट भी नहीं जूट पाता था, किन्तु सेठजी के यहाँ उसको भरपेट अच्छा दाना, खल्ली तथा हरी-हरी घास खाने के लिए बराबर मिलने लगी। संयोग से एक दिन उस गाय की रस्सी खुल जाती है, तो वह गाय क्या करती है? सीधे अपने पुराने मालिक के घर पर जाकर ठंढी साँस लेती है और वह गाय उस गरीब किसान के यहाँ रहने में सुख मानती है। वह गाय यह नहीं सोचती है कि मुझे इस किसान के यहाँ तो भरपेट सूखी घास भी नसीब नहीं होगी और उन सेठजी के यहाँ तो हरी-हरी घास, दाना, खल्ली आदि भरपेट खाने को मिलता था। सेठजी फिर उस किसान के यहाँ जाते हैं और गाय को खड़ी देखकर उसको पकड़ फिर अपने यहाँ लाकर मजबूत रस्सी से मजबूत खूँटे में बाँध देते हैं। अब वह विवश होकर सेठजी के यहाँ अच्छी खासी रसदार हरी-हरी घास, दाना, खल्ली खाने लगती है। अब जब वह गाय उन्हीं सेठजी के यहाँ रहते-रहते अभ्यस्त हो जाती है, तब उस गाय की रस्सी को यदि जानकर भी खोल दिया जाए, तो वह गाय वहाँ से हटकर न तो उस किसान के यहाँ ही जाएगी और न और किसी के यहाँ। अब वह उन सेठजी के यहाँ ही रहना पसंद करती है। यही हालत इस मन की है। जन्म-जन्मान्तर की परत इसपर पड़ी है। इस मन को विषय का रस मिल चुका है। अब ईश्वर-भजन में क्या सुख है, उस सुख का आनंद जब इस मन को मिलेगा, तब यह मन उस सुख की ओर मुड़ सकेगा। इसीलिए साधकरूपी सेठ मन को घुमा-घुमाकर लाता है, लक्ष्य की ओर लगाता है। सुषुम्ना रूपी मजबूत खूँटे में उसे बाँधता है; सुरत की डोर से बाँधता है। अब यह मन भजन करता है। भजन करते- करते जब इस मन को भजन का स्वाद आने लगता है, तब फिर यह मन उस भजन के स्वाद को भूलकर अन्यत्र कहीं नहीं जाता है। वही गोस्वामीजी कहते हैं-‘ऐसी मूढ़ता या मन की।’ क्या मूढ़ता है? क्या मूर्खता है? ‘परिहरि राम-भगति सुर-सरिता, आस करत ओस कन की ।’ गरमी पड़ रही है; प्यास लगी हुई है; उस प्यास को हम बुझाना चाहते हैं और उस प्यास को बुझाने के लिए हम घास पर पड़ी चंद ओस की बूँदों को चाटना चाहते हैं और चाहते हैं कि उस ओस कणों को चाट-चाटकर हम प्यास बुझा लें। कहीं ओस को चाटने से भी प्यास बुझती है? अगर प्यास ही बुझानी है, तो पानी लोटे में अथवा गिलास में लेकर पियें अथवा गंगाजी के किनारे जाकर दोनों हाथों की अंजलि बनाकर जितना मन हो, उतना पानी पियें और प्यास बुझाएँ। गंगाजी में जाकर डुबकी लगाकर स्नान करके शांति प्राप्त करें, गर्मी मिटाएँ और प्यास बुझाएँ। सो हम करना चाहें नहीं और चाहें कि ओस-कण के ऊपर उलट-पलट कर गर्मी शांत कर लें अथवा चाट-चाटकर प्यास बुझा लें, सो कब होने को है? अर्थात् नहीं होने को है। उसी के लिए गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज समझाकर कहते हैं कि यदि सुख प्राप्त करना चाहते हो, शांति चाहते हो, आनंद चाहते हो, तो ईश्वर की भक्ति करो। हम सुख चाहते हैं, शांति चाहते हैं, आनंद चाहते हैं विषयों से। उसी के लिए गोस्वामीजी कहते हैं कि यह मूर्खता है हमारी। यह मन की मूढ़ता है, जो ईश्वर-भक्तिरूपी गंगा की धारा को छोड़कर ओसरूपी विषय की बूँदों से अपनी इच्छा की पूर्ति करना चाहते है। उसी तरह से सुख-शांति विषयोपभोग में नहीं है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज लिखते हैं-‘बुझै न काम अगिनि तुलसी कहुँ, विषय भोग बहु घी ते।’ यदि अग्नि प्रज्वलित हो और उसे बुझाने के लिए हम चाहें कि उसमें घी की आहुति दें, तो क्या वह अग्नि बुझेगी? आग को बुझाना है, तो उसपर पानी डालो। हमारी कामाग्नि को विषय का भोग देकर शांत नहीं किया जा सकता। विषय-भोग से यह कामाग्नि शांत कभी नहीं होगी; बल्कि और ज्यादा लहकेगी, दहकेगी। दूसरी उपमा गोस्वामीजी चातक पक्षी की देते हैं। चातक एक पक्षी होता है। वह समुद्र, तालाब, नदी आदि का जल नहीं पीता। आश्विन मास में जब स्वाति नक्षत्र आता है, तो वह एकटक लगाकर ऊपर मुँह करके बादल की ओर निहारता रहता है। स्वाति नक्षत्र के दिनों में जब बादल से बूँदें गिरती हैं, तो वह उन बूँदों को ग्रहण करता है। इसी चातक पक्षी की उपमा देते हुए गोस्वामीजी कहते हैं-
“ धूम-समूह निरखि चातक ज्यों,
तृषित जानि मति घन की ।
नहिं तहँ सीतलता न बारि पुनि,
हानि होत लोचन की ।।”
धुएँ का बादल है। प्यासा पपीहा समझता है कि स्वाति की बूँद गिरनेवाली है। इसलिए वह एकटक लगाकर उस बूँद के गिरने की प्रतीक्षा मे ऊपर देखता रहता है; परन्तु वहाँ न तो पानी है और न शीतलता ही। फिर भी वह आशा लगाकर ऊपर की ओर ही निहारता है। उसका वह परिश्रम व्यर्थ ही जाता है; क्योंकि वह धुआँ बादल-सा भासता है, वास्तव में बादल है नहीं। उसी तरह अज्ञजन को विषय-भोग में सुख भासता है; परन्तु वास्तव में वहाँ सुख है नहीं। विषय-भोग से क्या कभी किसी की तृप्ति हुई है? जीव विषयरूपी बादल से तृप्ति चाहता है। इसलिए अतृप्त जीवन ही बिताकर वह संसार से चलता बनता है। गोस्वामीजी तीसरी उपमा देकर समझाते हैं-
“ ज्यों गच काँच विलोकि स्येन जड़ ,
छाँह आपने तन की ।
टूटत अति आतुर अहार बस ,
छति बिसारि आनन की ।।”
एक बाज पक्षी है, जो आसमान में उड़ते हुए काँच के चबूतरे में अपनी छाया देखता है। वह समझता है कि नीचे एक पक्षी है। उस पक्षी को पकड़ने के लिए जोर से उस काँच के चबूतरे पर चोंच और पंजे से झपट्टा मारता है। वहाँ कोई चिड़िया है नहीं। काँच के चबूतरे की ठोकर से उसकी चोंच और पंजे में घाव हो जाता है। वह दुःखी होकर और ऊपर उड़ता है। फिर जैसे ही वह काँच के चबूतरे में अपनी परछाईं देखता है, तो वह समझता है कि वहाँ कोई चिड़िया है। वह सोचता है कि मेरा निशाना चूक गया। पुनः वह अपने मन से और सँभलकर झपट्टा मारता है। परिणामस्वरूप अपनी चोंच और पंजे को क्षत-विक्षत करता है। इस प्रकार बारम्बार वह बाज अपने ही शरीर में चोट खा-खाकर जब उड़ने लायक भी नही रह जाता है, तो वहीं पर अपना जीवन समाप्त करता है। इसी तरह विषयों को पाकर हम सुखी होना चाहते हैं; किन्तु विषयों में सुख है नहीं और हम अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके बलहीन होते हैं, शक्तिहीन होते हैं तथा अंत में अपनी जीवनलीला समाप्त करते हैं।
राजा ययाति ने अपने पुत्र से जवानी लेकर विषयों को भोगा; लेकिन तृप्त नहीं हो सके। अंत में पुत्र को जवानी वापस देते हुए कहा-‘मैंने समझा था कि विषयों से तृप्ति मिलेगी; किन्तु विषयों में तृप्ति कहाँ? विषयों को मैं क्या भोगूँगा? विषयों ने ही मुझको भोग लिया। मैं समझ रहा था कि मेरी तृष्णा भोग भोगते-भोगते मंद पड़ जाएगी; किन्तु यह मेरी भूल थी। यह तृष्णा न तो मंद ही पड़ी, न थकी ही और न समाप्त ही हुई। तृष्णा तो क्या थकेगी, मैं स्वयं ही थक गया, बूढ़ा हो गया; किन्तु यह तृष्णा युवती- की-युवती ही बनी रही। श्रीमदाद्य शंकराचार्यजी महाराज ने कहा है-
‘अंगं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातन्तुण्डम् । ’
“ कर धृत कम्पित शोभित दण्डं
तदपि न मुंचत्याशा भाण्डम् ।।”
“ पलित हो गये बाल शीश के गलित हुआ सब गात,
टूट गये त्यों ही क्रम-क्रम से मुँह के सारे दाँत ।
पकड़ा हुआ हाथ में कँपता कैसा फबता दण्ड ?
फिर भी नहीं छोड़ता आशा-भाण्ड अहो पाखण्ड ।।”
अंत में गोस्वामी तुलसीदासजी प्रार्थना करते हैं। वे प्रार्थना क्या करेंगे? हमलोगों की सीख के लिए कहते हैं-
“ कहँ लौं कहौं कुचाल कृपानिधि ,
जानत हौ गति जन की ।
तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख ,
करहु लाज निज पन की ।।”
हे भगवान! यह तुम्हारा भक्त है, जिसके तुम भगवान हो। कैसी दुर्दशा है इसकी? तुम्हारा यह भक्त बहुत दुःखी है। अपने भक्त की लाज रखो-रक्षा करो, बचाओ इसको।
यदि कल्याण चाहते हैं, सुख चाहते हैं, शांति चाहते हैं, चैन चाहते हैं, आराम चाहते हैं, तो निर्विषय की ओर चलें। वह निर्विषय तत्त्व है परमात्मा। यदि विषय से किसी को भी सुख मिला होता, तृप्ति हुई होती, तो इतिहास में कहीं तो चर्चा होती कि अमुक को विषय-भोग में शाश्वत सुख-सदा के लिए सुख मिला; लेकिन कहीं भी इसकी चर्चा नहीं है। इसीलिए हम सदा के सुख की प्राप्ति हेतु परमात्मा की ओर चलें। उनका भजन करें। संतों के बताये मार्ग पर उनके निर्देशानुकूल चलें। तभी पूर्ण संतोष, अमित तोष और परम कल्याण की प्राप्ति होगी।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 28-11-1986 ई0 को संतमत-सत्संग मंदिर, मुरली पहाड़ी, बाराहाट में रात्रिकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, दिसम्बर 1997 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
यद्यपि आज बुधवार है, तथापि विचारकर देखने से हमलोगों के लिए महामंगलवार है; क्योंकि गुरुवार है। गुरुवार यानी गुरु का दिन, गुरु-पूनम, गुरु-पूर्णिमा अर्थात् गुरु-पूजन का पावनतम दिन। यों तो गुरुभक्तों के लिए गुरु-पूजन के सभी दिन पावन ही होते हैं; किन्तु आज की तिथि अपनी विशेष महत्ता रखती है।
इस गुरु-शिष्य-परम्परा की प्रारम्भिक तिथि या मिती यद्यपि सुनिश्चित नहीं बताई जा सकती, फिर भी यह अनुचित या अतिशयोक्ति नहीं कि जबसे सृष्टि हुई है, तबसे ही यह प्रचलन प्रचलित हुआ हो।
दूसरी बात यह है कि आज महर्षि व्यासदेवजी की जन्मतिथि है। वे गुणवान, विद्वान, शीलवान, बुद्धिमान, ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी, तेजस्वी, मनस्वी, ओजस्वी, यशस्वी, वर्चस्वी, त्यागी, विरागी तथा ईश्वरानुरागी थे। समासरूप में वे सभी सद्गुणों से सम्पन्न थे। उनका यथार्थ में नाम था-कृष्ण-द्वयपायन। वे पराशर मुनि के पुत्र थे। उन्होंने वेदों का विभाग और संपादन किया था। कहा जाता है कि अठारहो पुराण, महाभारत, भागवत और वेदांत आदि की भी रचना उन्होंने ही की। वे ईरान भी गए थे। वहाँ के विद्वानों से शास्त्रर्थ होने पर वे विजयी हुए थे। इन कतिपय कारणों से उनको जगद्गुरु की संज्ञा दी गई।
जैसे सुर-गुरु बृहस्पतिजी के नाम पर बृहस्पतिवार को गुरुवार कहा जाने लगा, उसी भाँति जगद्गुरुजी का जन्म आषाढ़-पूर्णिमा को होने के कारण उसको गुरु-पूर्णिमा कहकर अभिहित किया गया। जगद्गुरु होने के कारण स्मृति के रूप में लोग उनकी जयंती मनाते हैं तथा इस अवसर पर गुरु-भक्तगण अपने-अपने गुरु का पूजन, अर्चन, वन्दन आदि किया करते हैं। गुरु की महत्ता, वक्ता की वाणी का अथवा लेखक की लेखनी का विषय नहीं।
यह स्वभावतः सिद्ध है कि भौतिक अथवा आध्यात्मिक, कोई भी काम बिना गुरु के सुसंपन्न नहीं हो सकता। इस दृष्टि से भी गुरु का स्थान विशिष्ट होना स्वाभाविक है। गुरु की विशेषता की बातें संत सुन्दरदासजी की सुन्दर वाणी में सुनिए-
“ गुरु बिन ज्ञान नहिं, गुरु बिन ध्यान नहिं,
गुरु बिन आतम विचार न लहतु है ।
गुरु बिन प्रेम नहिं, गुरु बिन नेम नहिं,
गुरु बिन सीलहु, सन्तोष न गहतु है ।।
गुरु बिन ध्यान नहिं, बुद्धि को प्रकास नहिं,
भ्रमहू को नास नहिं, संसय रहतु है ।
गुरु बिन बाट नहिं, कौड़ी बिन हाट नहिं,
सुन्दर प्रगट लोक, वेद यों कहतु है ।।”
तथा कविकुलकमलदिवाकर गोस्वामीजी की भी वाणी सुनिए-
“ बिनु गुरु होइ कि ज्ञान, ज्ञान कि होइ बिराग बिनु ।
गावहिँ वेद पुरान, सुख कि लहिय हरि भगति बिनु ।।”
वास्तव में गुरु शरीर को नहीं, ज्ञान को कहते हैं। जिस शरीर में ज्ञान रहता है, वह गुरु का शरीर कहलाता है। जो जिस विषय के विशेषज्ञ होते हैं, वे उस विषय के गुरु कहलाने के अधिकारी होते हैं। सामान्यतः भौतिक और आध्यात्मिक-ये दो प्रकार के गुरु होते हैं। ज्ञान-प्रदाता ‘गुरु’ और ज्ञान-ग्रहण करनेवाले ‘शिष्य’ कहलाते हैं। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ गुरु नाम है ज्ञान का, सिष्य सीख ले सोइ ।
ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरु सिष्य न कोइ ।।”
भौतिक ज्ञान-प्रदाता गुरु से आध्यात्मिक ज्ञान-प्रदायक गुरु का स्थान बहुत उच्च होता है। अद्वयतारकोपनिषद् में आया है-‘गु’ तम को और ‘रु’ तन्निरोधक को कहते हैं अर्थात् ‘गुरु’ शब्द का अर्थ है-जो अंधकार से प्रकाश में प्रतिष्ठित कर दे-तमसो मा ज्योतिर्गमय। गुरु को देखने के लिए पैनी दृष्टि चाहिए। गुरुभक्त अपने गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर के रूप में देखते हैं। इतना ही नहीं, वे साक्षात् परब्रह्म के रूप में भी उनके दर्शन और नमन करते हैं-
“ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवः महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।”
जैसे गुरु में ज्ञान और शुद्धाचरण का होना अनिवार्य है, वैसे ही शिष्य में श्रद्धा और विश्वास का होना अपरिहार्य है।
‘परमातम गुरु निकट विराजै, जागु-जागु मन मेरे ।’
-संत कबीर साहब
“ गुर की मूरति मन महि धिआनु ।
गुर कै शबदि मंत्र मनु मानु ।।
गुरु के चरन रिदै लै धारउ।
गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारउ ।।”
-गुरु नानकदेवजी
संत चरणदासजी महाराज की शिष्या परम भक्तिन सहजोबाई कहती हैं-
“ परमेसर सूँ गुरु बड़े, गावत वेद पुरान ।
सहजो हरि के मुक्ति है, गुरु के घर भगवान ।।”
जिस प्रकार खेत अच्छी तरह जुता हुआ हो और उसके जंगल साफ हों, तो उसमें जो बीज वपन होगा, वह फलदायक होगा; अन्यथा सतेज बीज होने पर भी यदि भूमि सुन्दर रूप से कर्षित नहीं हो, तो वृक्षोत्पत्ति की आशा दुराशा मात्र होगी। ठीक इसी भाँति सुयोग्य गुरु हों और शिष्य भी सुयोग्य हों, तो सरलतापूर्वक सफलता मिलती है, अन्यथा अच्छे गुरु के मिलने पर भी मूर्ख शिष्य सच्चे नहीं हो सकते, कच्चे ही रहते हैं। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ गुरु बेचारा क्या करे, जौं शिष्य माहीं चूक ।
भावै जौं परबोधिये, बाँस बजायी फूँक ।।”
गो0 तुलसीदासजी कहते हैं-
“ जौं गुरु मिलै बिरंचि सम, मूरख हृदय न चेत ।
जदपि सुधा बरसहिं जलद, फूलै फलै न बेत ।।”
यों तो यदि कोई महान गुरु अपने आत्मबल से शिष्य की आध्यात्मिक उन्नति करा दें, यह भी संभव है; किन्तु यह एक विशेष बात है, जो अपवाद स्वरूप है। सामान्य सिद्धांत तो यह है कि ‘सतगुरु शिष्य के बंधन काटे’ और ‘गुरु का शिष्य विकार ते हाटे ।’
दीपक घर के अंदर प्रकाश करता है, चन्द्रमा रात्रि को आलोक देता है और सूर्य दिन में अपनी किरण विकीर्णित कर बाह्य जगत् को प्रकाशित करता है; लेकिन पूरे गुरु अपने शिष्य के अंतरतम का निवारण कर उसे प्रकाशपुंज-आपूरित करते हैं। इतना ही नहीं, वे तीनों लोकों में व्याप्त ब्रह्म की प्राप्ति करा देने में भी सक्षम होते हैं। एक बंगाली महात्मा ने कितना अच्छा कहा है-
“ अखंड मंडलाकारे व्याप्तयिनी चराचरे ।
गुरु बिने त्रिभुवने बलउ के देखाबे तारे ।
एमन केबा आधे भवे व्याप्त ब्रह्म देखाइते ।”
गुरु के अनुग्रह से शिष्य को लौकिक आचार-व्यवहार का ज्ञान होता है, विज्ञान की प्राप्ति होती है और वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
यथार्थ में महत्तम गुरु वे होते हैं, जो अपने शिष्य को संसार-सागर से पार कर देते हैं।
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम और महायोगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने भी लोक-मर्यादा- रक्षार्थ गुरु-धारण किया था। उन अवतारों ने केवल गुरु-धारण किया था, ऐसी बात नहीं, वे उनके आज्ञानुवर्ती बन आवश्यकतानुकूल सभी प्रकार की सेवाएँ तो करते ही थे, बताई गई विधि के अनुकूल संध्या-वंदना भी किया करते थे। रामचरितमानस में रघुकुल-कमल- दिवाकर भगवान श्रीराम के लिए लिखा है-
“ निसि प्रवेश मुनि आयसु दीन्हा ।
सबहीं सन्ध्या बन्दन कीन्हा ।।”
तथा श्रीमद्भागवत, स्कन्ध 10, उत्तरार्द्ध अध्याय 70, श्लोक 4 में भगवान श्रीकृष्ण के लिए लिखा है-
“ ब्राह्मे मुहूर्त्ते उत्थाय वार्युपस्पृश्य माधवः ।
दध्यौ प्रसन्नकरण आत्मानं तमसः परम् ।।”
अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण नित्यप्रति ब्राह्म-मुहूर्त्त में उठ जाते और हाथ-मुँह धोकर तम के परे देदीप्यमान आत्मस्वरूप का ध्यान करने लगते। उस समय उनका रोम-रोम प्रसन्नता से खिल उठता था।
भव-सिंधु-उत्तीर्ण हेतु कृपासिंधु भगवान श्रीराम ने अपनी प्रजाओं को बुलाकर नर-तन की उत्कृष्टता और संत सद्गुरु की उपादेयता का जो उपदेश और आदेश दिया था, वह इस प्रकार है-
“ नरतन भव बारिधि कहँ बेरो।
सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ।।
करनधार सदगुर दृढ़ नावा।
दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ।।”
योगशिखोपनिषद् में भी ठीक इसी तरह कहा गया है-
“ कर्णधारं गुरुं प्राप्य तद्वाक्यं प्लववदृढम् ।
अभ्यासवासना शक्त्या तरन्ति भवसागरम् ।।”
अर्थात् गुरु को कर्णधार (मल्लाह) पाकर और उनके वाक्य को दृढ़ नौका पाकर अभ्यास (करने की) वासना की शक्ति से भव-सागर को लोग पार करते हैं।
श्रीमदाद्य शंकराचार्यजी महाराज ने भी कहा है-
“ गुरुचरणाम्बुज निर्भर भक्तः संसारादचिराद्भव मुक्तः ।
सेन्द्रिय मानस नियमादेवं द्रक्ष्यसि निज हृदयस्थन्देवम् ।।”
इसका भारती-भाषानुवाद पद्य में योगिवर श्रीभूपेन्द्रनाथ सान्यालजी महाराज ने इस प्रकार किया है-
“ श्री गुरुदेव चरण पंकज का होकर अविचल भक्त ।
इस असार संसृति से हो जा तू अविलम्ब विरक्त ।।”
और भी-
“ अपार संसार समुद्र मध्ये
समज्जतो मे शरणं किमस्ति ।
सद्गुरु कृपालु कृपया वदेतद्
विश्वेशपादाम्बुज दीर्घ नौका ।।”
शिष्य की जिज्ञासा है कि हे कृपालु गुरुदेव! आप कृपा कर यह बतलाएँ कि इस अपार संसार-समुद्र में मुझ डूबते हुए के लिए क्या सहारा है?
शिष्य की जिज्ञासा का समाधान करते हुए गुरु कहते हैं-विश्वेश्वर का चरणकमलरूपी सुदृढ़ जलयान ।
यह तो ऐसा ही लगता है, जैसा कि प्रकारांतर कर संत कबीर साहब ने ही कहा हो-
“ गुरु बतावै साध को, साध कहै गुरु पूज ।
दरस परस के खेल में, भई अगम की सूझ ।।
साधु मिलै साहब मिलै, अंतर रही न रेख ।
मनसा वाचा कर्मणा, साधू साहब एक ।।”
संत गरीबदासजी की दृष्टि बड़ी पैनी है। वे साधु, संत सद्गुरु और साहब यानी सर्वेश्वर में कोई अन्तर नहीं देखते। इसलिए वे कहते हैं-
“ साहब से सतगुरु भये, सतगुरु से भये साध ।
ये तीनों अंग एक हैं, गति कछु अगम अगाध ।।
साहब से सतगुरु भये, सतगुरु से भये संत ।
धर-धर भेष विलास अंग, खेलैं आद अरु अन्त ।।”
और गोस्वामी तुलसीदासजी के भी विमल विचार में-
“ संत भगवंत अंतर निरंतर नहिं,
किमपि मति विमल कह दास तुलसी ।”
संत ही सद्गुरु होते हैं। इसलिए ‘संत सद्गुरु’ शब्दों से अभिहित किए जाने योग्य वे ही होते हैं, जिनके लिए यह उपनिषद्-वाक्य सार्थक हो चुका हो-
“ भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।”
अर्थात् जिनके हृदय की ग्रन्थि टूट गई हो यानी जड़ और चेतन का पृथक्-पृथक् प्रत्यक्षीकरण हो चुका हो, जिनके सभी संशय छूट गए हों, जिनके बंधन देनेवाले सभी कर्म विनष्ट हो गए हों और जिन्होंने प्रकृति के परे परब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया हो, ऐसे जन ब्रह्मविद् या ब्रह्मवत् नहीं, बल्कि ब्रह्म ही हो जाते हैं। इतना ही नहीं, अनेक स्थलों पर हम संत सद्गुरु को भगवंत से भी विशेष रूप में पाते हैं। गुरु और गोविन्द दोनों का तुलनात्मक विवेचन करते हुए संत कबीर ने गुरु की ही गुरुता का उल्लेख किया है-
“ गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागौं पायँ ।
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविन्द दियो बतायँ ।।”
भक्तिमती सहजोबाई कहती हैं-
“ हरि किरपा जो होय तो, नाहीं होय तो नाहिं ।
पै गुरु किरपा दया बिनु, सकल बुद्धि बहि जाहिं ।।
सहजो कारज जगत के, गुरु बिन पूरे नाहिं ।
हरि तो गुरु बिन क्यों मिलै, समझ देख मन माहिं ।।”
संत सुन्दरदासजी की सूक्ति सुनिए-
“ गोविंद के किये जीव, जात है रसातल को ।
गुरु उपदेशै सो तो, छूटै जम फंद तैं ।।
गोविंद के किये जीव, वश परे कर्मन के ।
गुरु के निवारे सूँ, फिरत है स्वछंद तैं ।।
गोविंद के किये जीव, डूबत भवसागर में ।
सुंदर कहत गुरु, काढै़ दुख द्वन्द्व तैं ।।
औरहू कहाँ लौं कछु, मुख तें कहूँ बनाय ।
गुरु की तो महिमा, अधिक है गोविंद तें ।।”
हरि से गुरु की विशेषता बतलाती हुई सरलहृदया सहजोबाई सहज ही अपना हृदयोद्गार इन शब्दों में प्रकट करती हैं-
“ हरि ने मो सूँ आप छिपायौ।
गुरु दीपक दे ताहि दिखायौ ।।”
और हमारे गुरुदेव कहते हैं-
“ हरदम प्रभु रहैं संग, कबहुँ भव दुख न टरै ।
भव-दुख गुरु दें टारि, सकल जय जयति करै ।।”
भौतिक विज्ञान की दृष्टि से समस्त संसार कीटाणुओं से भरपूर है। इस मानव-शरीर में भी करोड़ों कीटाणु निवास करते हैं। और तो और, एक बूँद खून में भी सहस्त्रों कीड़े बसते हैं। इन सब कीटाणुओं के अपने-अपने पृथक्-पृथक् गुण-धर्म होते हैं। डॉक्टरों की राय में इनकी क्रिया-प्रतिक्रिया एवं संघर्ष के कारण ही शरीर स्वस्थ वा अस्वस्थ होता है। विचारणीय है-जिन्होंने इस विषय की शिक्षा नहीं पाई है, क्या वे सामान्य जन इन बातों से अवगत हो सकते हैं? कभी नहीं। किन्तु पैथोलॉजी के प्रवीण डॉक्टर अणुवीक्षण यन्त्र द्वारा परीक्षण कर सरलतापूर्वक मूत्र, थूक, खून आदि रोग के कीटाणुओं को देख पाते हैं। पश्चात् अनुकूल औषधि, उपचार और उचित परामर्श देकर उनके रोग को निर्मूल करते हैं।
इसी भाँति हम शिष्यों को, जिनको अनेक- अनेक जन्मों के दोष-दुर्गुणों का सही पता नहीं होता, सबको सद्गुरु अपनी अन्तर-दृष्टि से अवलोकन कर उनको यथोचित शिक्षा-दीक्षा एवं मार्गदर्शन देते हैं। तब ‘सतगुरु वैद्य बचन बिस्वासा’ के अनुकूल यदि एकनिष्ठ शिष्य गुरु का आज्ञानुवर्त्ती बन उनके आदेश और उपदेश का निष्कपट रूप से पालन करता है, तो उसपर गुरु अपनी कृपादृष्टि डालकर उसके जीवन को निहाल कर देते हैं; इसमें आश्चर्य ही क्या?
जबकि यह प्रत्यक्ष है कि एक धनी आदमी अपना धन देकर दूसरे को धनी बना सकता है और एक विद्वान अपनी विद्या का दान देकर दूसरे को विद्वान बना देता है, तब एक संत सद्गुरु, जो अध्यात्म-ज्ञान के शिखर पर आरूढ़ हों, अपने योगबल से शिष्य के योगबल को बढ़ा दें, इसमें संशय के लिए स्थान कहाँ?
पारस पत्थर अपने स्पर्श से लोहे को सोना बना सकता है। चंदन अपनी शीतलता और सुगंध से अन्य वृक्षों को शीतल और सुगन्धित कर चंदन बना सकता है। भृंग अपनी क्रिया-विशेष से कीट को अपनी कोटि में ला सकता है। तब यदि कोई संत सद्गुरु अपने श्रद्धालु शिष्य में अपनी यौगिक शक्ति का संचार कर उसे स्वसमान बना लें, तो इसमें विस्मय की कौन-सी बात है?
इसीलिए तो किसी ने ऐसा भी कहा है-
“ पारस और सन्त में, यही अन्तरो जान ।
यह लोहा सोना करे, वह कर ले आप समान ।।”
संत सुन्दरदासजी ने कहा-
“ लोह कूँ ज्यूँ पारस पखानहू पलटि लेत,
कंचन छुवत होत जग में प्रमाणिये ।
द्रुम कूँ ज्यूँ चंदन पलट ही लगाय वास,
आपके समान ताकूँ शीतलता आनिये ।।
कीट कूँ ज्यूँ भृंगहू पलटि के करत भृंग ,
सोऊ ऊड़ि जाय ताको अचरज न मानिये ।
सुन्दर कहत यह सगरे प्रसिद्ध जानिये ।।”
सद्गुरु अपने शिष्य को जैसा चाहें, बना सकते हैं। बात यह बिल्कुल यथार्थ है। एक बड़ी रोचक कथा है, मैं आपलोगों को सुनाना चाहूँगा। संत सद्गुरु किस प्रकार पतितपावन होते हैं और किस प्रकार गिरते हुए शिष्य को सँभालकर उसे वे निहाल कर देते हैं, तो सुनिए-
भगवान बुद्ध का नाम आपने सुना होगा। उनके मौसेरे भाई का नाम था आयुष्मान् नन्द। उनके मन में विषयों की ओर से विराग और आत्म-साक्षात्कार के लिए अनुराग हुआ, तो उन्होंने अपनी संतति, संपत्ति के संबंध का त्याग कर भगवान बुद्ध की शरण ली। किन्तु कभी-कभी उनके मन में अपनी पत्नी की स्मृति हो आती थी; क्योंकि प्रव्रज्या के लिए गृह से प्रस्थान करते समय उनकी प्रिया ने करुण स्वरों में उनसे कहा था-‘प्रियतम! जाओ, किन्तु इस पतिता पत्नी को भूल न जाना।’ यह वाक्य उनके कर्ण-कुहर में रह-रहकर गूँज उठता था। परिणाम यह हुआ कि पत्नी का परित्याग कर रहना दूभर हो गया। उन्होंने संन्यासियों से स्पष्ट कह दिया कि अब वे संन्यास को त्यागकर गृहवास करेंगे। भिक्षुओं ने तथागत के समक्ष यह बात रखी। भगवान ने आयुष्मान् नंद को बुलाकर पूछा-‘नन्द! क्या यह सच है कि तुम प्रव्रज्या का परित्याग करना चाहते हो?’ नन्द ने नम्रतापूर्वक नमन कर कहा-‘हाँ, भन्ते!’
भगवान ने अपने योगबल से नन्द को तावतिंस लोक ले जाकर दिखाया। वहाँ पाँच सौ महासुंदरी अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं। भगवान ने नन्द से पूछा-‘कहो नन्द! तुम्हारी भार्या का सौन्दर्य इन अप्सराओं के सामने कैसा है?’ नन्द ने कहा-‘भन्ते! इनके चरण-नख की सुन्दरता के सामने मेरी पत्नी का मुखमंडल भी अत्यंत तुच्छ है।’ भगवान ने कहा-‘देखो नन्द! यदि तुम एक वर्ष पर्यन्त दृढ़तापूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए साधना करो, तो मैं तुम्हें इन सभी अप्सराओं को देने का प्रतिभू होता हूँ।’ भगवान बुद्ध के विचार को नन्द ने आनन्द से स्वीकार कर लिया। पश्चात् सान्निध्य में रहकर उन्होंने एक वर्ष तक बड़ी तत्परता से ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए कड़ी साधना की। अन्तर्यामी तथागत ने एक दिन नन्द को बुलाकर कहा-‘नन्द! तुम्हारी तपस्या पूरी हो गई। अब बताओ, वे सभी अप्सराएँ मैं तुम्हें दूँ?’ नन्द ने हाथ जोड़कर कहा-‘भन्ते! अब मुझे एक भी नहीं चाहिए।’
यह कथा बतलाती है कि सच्चे सद्गुरु अपने शिष्यों की रक्षा किस भाँति करते हैं तथा उन्हें अधःपतन के गर्त से किस भाँति बचाते रहते हैं। वास्तव में सच्चे सद्गुरु की महिमा अनन्त है। वे अपने शिष्य के अनन्त लोचन का उन्मेष कराकर अनन्तस्वरूपी सर्वेश्वर का साक्षात्कार कराते हैं।
जैसे नवजात शिशु की रक्षा माँ किया करती है, उसी भाँति पग-पग पर अपने शिष्य की रक्षा संत सद्गुरु करते हैं। माता और पुत्र का संबंध तो अल्पकालिक होता है; किन्तु गुरु और शिष्य का संबंध जन्म-जन्मान्तर तक बना रहता है। संत चरणदासजी की दृष्टि में-
“ पितु सूँ माता सौ गुना, सुत को राखै प्यार ।
मन सेती सेवन करै, तन सूँ डाँट अरु गार ।।
माता सूँ हरि सौ गुना, जिनसे सौ गुरुदेव ।
प्यार करैं औगुण हरैं, चरणदास शुकदेव ।।”
और संत दादू दयालजी के वचन में-
“ दादू काढ़ै काल मुख, अन्धे लोचन देइ ।
दादू ऐसा गुरु मिल्या,जीव ब्रह्म करि लेइ ।।
सतगुरु मिलै तो पाइये, भक्ति मुक्ति भंडार ।
दादू सहजै देखिये, साहिब का दीदार ।।
साईं सतगुर सेइये, भक्ति मुक्ति फल होइ ।
अमर अभय पद पाइये, काल न लागै कोइ ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं कि सद्गुरु के दर्शन से सर्वेश्वर-साक्षात्कार की सर्वांगपूर्ण भक्ति की विधि मिलती है। इतना ही नहीं, उनकी अनुकम्पा से जागतिक खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने, रहने आदि की सारी सुविधाओं के साथ प्रसन्नतापूर्वक मुक्ति भी मिल जाती है।
“ नानक सतिगुर भेटिअै पूरी होवै जुगती ।
हसं दिआ खेलं दिआ पैनं दिया
खावं दिआ बिचे होवै मुकती ।।”
गुरु और शिष्य का संबंध कुम्हार और कुम्भ-जैसा है। कुशल कुम्हार कुम्भ का निर्माण बड़े ही कलात्मक ढंग से करता है। उसमें वह सुन्दरता और सुदृढ़ता का भी ध्यान रखता है। घड़े के गढ़ने की कला भी कैसी निराली है! ऊपर से थापी की चोट और भीतर से हाथ की ओट। क्यों? इसलिए कि कनक को अनल में जलाने पर ही वह कुन्दन बन जाता है।
“ सतगुरु तो ऐसा मिला, ताते लोह लुहार ।
कसनी दे कंचन किया, ताय लिया तत सार ।।”
गुरु स्वशिष्य की कठोरतम परीक्षा लेते हुए इस बात का सतत ध्यान रखते हैं कि उनका शिष्य सफलता पाने की जगह सन्तुलन न खो बैठे। संत कबीर साहब ने गुरु और शिष्य का कितना ही उत्तम रूपक बैठाया है। वे कहते हैं-
“ गुरु कुम्हार शिष कुम्भ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट ।
अंतर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट ।।”
ठीक उसी प्रकार की बात परम भक्तिन सहजोबाई कहती हैं-
“ सहजो सिष ऐसा भला, जैसे माटी मोय ।
आपा सौंपि कुम्हार कूँ, जो कछु होय सो होय ।।”
पहले मिट्टी अपने को सम्पूर्णतः कुम्भकार पर न्योछावर कर देती है। पीछे कुम्हार उसका सुधार कर जैसा चाहता है, वैसा बना लेता है। इसी भाँति जो शिष्य अपने को सम्पूर्णतः सद्गुरु पर समर्पण करता है, सद्गुरु उसका सुधार कर उद्धार कर देते हैं।
गुरुदेव के आदेश का पूर्ण रूप से पालन करना ही गुरु-पूर्णिमा का पूर्णरूपेण पर्व मनाना है। अतएव जितने अंश में हम उनकी आज्ञा का पालन कर पाएँगे, उतने ही अंश में इस त्योहार का मनाना माना जा सकेगा। जिस दिन हम उनके निर्देश का पूर्णरूप से पालन कर सकेंगे, यथार्थ में वही गुरु-पूर्णिमा का पावनतम पर्व होगा।
संत सद्गुरु के विमल वचन को अमल में लाकर हम अपने को निर्मल बनावें।
वस्तुतः यह लोक या परलोक, कहीं भी गुरु के समान और दूसरा उपकारी नहीं हो सकता।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर में
गुरु-पूर्णिमा के अवसर पर दिनांक 11-07-1987 ई0 को हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, जुलाई 2009 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आज की तिथि को कोई श्रीपंचमी कहते हैं, तो कोई वसंत पंचमी। वस्तुतः आज माघ शुक्ला पंचमी है। आज की तिथि में विद्या चाहनेवाले- विद्यार्थीगण विद्या-वरदा सरस्वती देवी जी की पूजा किया करते हैं। विद्या-वरदा देवी की जो मूर्ति होती है, प्रतिमा होती है या तस्वीर होती है, उस ओर यदि हम दृष्टिपात करते हैं, तो देखते हैं कि उनका वाहन हंस है। ‘हंस’ में यह क्षमता होती है कि वह नीर और क्षीर का विवेक करता है। यदि कोई क्षीर और नीर मिलाकर उसके आगे रख दे, तो उसमें से वह क्षीर को ग्रहण कर लेता है और नीर को छोड़ देता है। यह इस विषय की परिपुष्टि करता है कि जिस देवी के वाहन में यह क्षमता है, उस देवी के उपासक को कैसा होना चाहिए? जिस देवी से हम विद्या ग्रहण करें, तो हमें कैसा होना चाहिए। अर्थात् हममें ‘विद्या ददाति विनयं’ तथा सत्य-असत्य का विवेक होना चाहिए। सत्य को ग्रहण करना और असत्य का त्याग करना चाहिए। जो सत्य को ग्रहण करते हैं और असत्य का त्याग करते हैं, वे साधुवत् हो जाते हैं। तब वे सामान्य विद्यार्थी नहीं रह जाते। इसीलिए कबीर साहब ने कहा था-
“ साधू ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय ।
सार-सार को गहि रहै, थोथा देय उड़ाय ।।”
जो सार हो, उसको ग्रहण कर ले और जो असार हो, उसका त्याग कर दे। सरस्वती देवी जो श्वेत वस्त्र धारण किये हुई गौर वर्ण हैं। उनका यह गौर वर्ण और उज्ज्वल वस्त्र सात्विकता का प्रतीक है। अर्थात् विद्यार्थी को सात्विकी वृत्ति का होना चाहिए। आहार, विहार और व्यवहार सात्विक होना चाहिए; लेकिन वास्तविक सात्विक वृत्ति हमारी तबतक नहीं हो सकती, जबतक हम सत्वगुणी धारा को धारण नहीं करें। वह सत्वगुणी धारा क्या है, कहाँ है? वह सरस्वती की धारा है-ज्ञानमयी धारा है। अपने अंदर उसमें हम डुबकी लगावें। हमारे अंदर तीन धाराएँ हैं। ये तीनो धाराएँ क्रमशः दायीं, बायीं और मध्य में विराजती हैं। बायीं धार और दायीं धार, ये दोनों रजोगुणी और तमोगुणी धाराएँ हैं। मध्य की धारा सत्वगुणी है। रजोगुणी धारा में जबतक हम रहेंगे, उसमें चंचलता रहेगी। तमोगुणी धारा में जबतक हम रहेंगे, उसमें मूढ़ता बनी रहेगी। ज्ञान तो मिलता है बीच की धारा-यानी सात्विक धारा में। इसलिए एक बंगाली महात्मा संत ने कहा है-
“ बामे इड़ा नाड़ी दक्षिणे पिंगला
रजस् तमोगुणे करिते छे खेला ।
मध्ये सत्वगुणे सुषुम्ना विमला
धरऽ धरऽ ताँरे सादरे ।।”
उन्हीं दायीं और बायीं धाराओं को गंगा-यमुना की संज्ञा दी गयी है और बीच की धारा को सरस्वती की धारा कही गयी है। ज्ञानसंकलिनीतंत्र में आया है-
“ इड़ा भगवती गंगा पिंगला यमुना नदी ।
इड़ा पिंगलयोर्मध्ये सुषुम्ना च सरस्वती ।।
त्रिवेणीसंगमो यत्र तीर्थराजः स उच्यते ।
तत्र स्नानं प्रकुर्वीत सर्व्वपापैः प्रमुच्यते ।।”
इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना की चर्चा हम योगशिखोपनिषद् में भी पाते हैं, जो कृष्ण युजर्वेद का अंश है। इसमें सुषुम्ना की नाड़ियों में सर्वश्रेष्ठ और सत्त्व प्रधान बतलाया है-
“ एकोत्तरं नाडिशतं तासां मध्ये परा स्मृता ।
सुषुम्ना तु परे लीना विरजा ब्रह्मरूपिणी ।।
इड़ा तिष्ठति वामेन पिंगला दक्षिणेन तु ।
तयोर्मध्ये परं स्थानं यस्तद्वेद स वेदवित् ।।”
इड़ा बाईं ओर रहती है और पिंगला दाहिनी ओर। उन दोनों के बीच में जो स्थान है (सुषुम्ना), उसको जो जानता है, वही वेद जानता है।
जो सरस्वती की धारा में गोता लगाते हैं-डुबकी लगाते हैं, उनका हृदय पवित्र हो जाता है। पवित्र ज्ञान-उज्ज्वल ज्ञान की प्राप्ति होती है। उसका आचरण भी पवित्र हो जाता है। यह उसका प्रतीक हैै।
संत कबीर साहब कभी स्कूल, कॉलेज, मदरसा नहीं गये। उनसे किसी ने पूछा, “ आप इतने बड़े विद्वान कैसे हो गये?’ ‘मसि कागद छूओं नहीं, कलम गह्यो नहिं हाथ’ वाली बात आपके साथ चरितार्थ है।” इसके उत्तर में उन्होंने कहा था-
“ मैं मरजीवा समुँद का, डुबकी मारी एक ।
मूठी लाया ज्ञान की, जामें वस्तु अनेक ।।”
फिर उसने पूछा, ‘आप कहते हैं, आपने समुद्र में डुबकी लगायी, तो किस समुद्र में आपने डुबकी लगायी? अरब सागर में, लाल सागर में, हिन्द महासागर में, प्रशांत महासागर में वा एटलांटिक महासागर में? उन्होंने कहा, बाहर के सागर में मैंने डूबकी नहीं लगायी, मैं तो इस शरीर रूपी समुद्र के लिए कह रहा हूँ-
“ कबीर काया समुँद है, अन्त न पावै कोय ।
मिरतक होइ के जो रहै, मानिक लावै सोय ।।”
यह शरीर ही समुद्र है, इसमें डुबकी लगाते हैं। वह डुबकी लगाने का स्थान शरीर में कहाँ पर है? आप सरस्वतीजी के चित्र की ओर नजर कीजिए। आप देखेंगे कि उनके दोनों भौंओं के बीच में भाल पर एक लाल बिन्दी है। यह बिन्दी क्या है? यह विन्दु का प्रतीक है। जो कोई उस विन्दु में डुबकी लगाते हैं, वे ज्ञान सिन्धु की ओर अग्रसर होते हैं और जाते-जाते वे वहाँ तक जाते हैं, जिसके आगे गति नहीं। फिर तो वहाँ ऐसा ज्ञान मिलता है, जिस ज्ञान को प्राप्त कर लेने के पश्चात् अन्य किसी प्रकार का ज्ञान बाकी नहीं रह जाता। वह है आत्मज्ञान। इसीलिए स्वामी विवेकानन्दजी महाराज ने कहा था, ‘यदि विद्वान बनना चाहते हो, तो अपने मस्तिष्क का अध्ययन करो। तुम्हारा मस्तिष्क अनंत ज्ञान का भंडार और अछोर पुस्तकालय है।’ आंतरिक पुस्तक पढ़ने का आरंभ यहाँ से होता है, जहाँ तुम अभी बैठे हो। सुना कि बाबा देवी साहब कहते थे, ‘यह पुस्तक अधिक पन्ने की नहीं है। केवल तीन पन्ने की है। पहला पन्ना है अंधकार का, दूसरा पन्ना है प्रकाश का और तीसरा पन्ना है शब्द का। इन तीनों पन्नों को पढ़ लो, महाविद्वान हो जाओगे। उससे बढ़कर और कोई विद्वान हो ही नहीं सकता।’ उसी विन्दु के सिन्धु में डुबकी लगाए हुए थे स्वामी विवेकानंदजी महाराज। वे विद्यालय की शिक्षा बी0ए0 तक पढ़े थे। किन्तु उनकी योग्यता ऐसी थी कि जब वे विश्वधर्म सम्मेलन में अमेरिका गये और उनका प्रवचन लोगों ने सुना, तो सबने दाँतो-तले अँगुली दबायी थी कि ये कहाँ के विद्वान आ गये। और उन सबको एक स्वर में कहना पड़ा ‘भ्म पे समंतदमक इमलवदक समंतदपदहण्’ अर्थात् ये विद्या से बाहर के विद्वान हैं।
विद्या-वरदा सरस्वती लौकिक विद्या देती, अपरा विद्या देती है; लेकिन पारलौकिक विद्या-परा विद्या नहीं दे सकतीं। इस अध्यात्मज्ञान को प्राप्त करने के लिए विन्दु की सिन्धु में डुबकी लगाने के लिए हमें संत सद्गुरु के पास जाना होगा। सरस्वतीदेवी से संबंधित यह श्लोक सुप्रसिद्ध है-
“ सरस्वती महामयी वीणा पुस्तक धारिणी ।
हंसवाहन संयुक्ता विद्या दान करो तु मे ।।”
सरस्वतीजी के वक्षस्थल पर वीणा विराजित है और हाथ में पुस्तक। ये बाह्य उपकरण किसका प्रतीक है? आंतरिक नाद के। जो विन्दुध्यान करते हैं, उनको उस नाद की अनुभूति होती है। योगशिखोपनिषद् के द्वितीय अध्याय में लिखा है-
‘विन्दुपीठं विनिर्भिद्य नादलिंगमुपस्थितम्।’
इस विषय की परिपुष्टि संत वाणी इस भाँति करती है। उपनिषद् में जिसको विन्दु की संज्ञा दी गयी है, संतों ने उसको कहीं विन्दु, कहीं तिल, कहीं तारा आदि कहकर अभिहित किया है। यथा-
‘विन्दु में तहँ नाद बोलै, रैन दिवस सुहावनं ।’
-संत पलटू साहब
“ प्रथमहिं सुरत जमावै तिल पर, मूलमंत्र गहि लावै ।
गगन गराजै दामिनि दमकै, अनहद नाद बजावै ।।”
संत राधास्वामी साहबजी महाराज के वचन में है-
“ तू तो सुरत जमा नभ द्वार ।
शब्द मिलै छूटै जंजार ।।
शब्द भेद तू जान गँवार ।
क्यों भरमै तू मन की लार ।।
सुरत खैंच तक तिल का द्वार ।
दहिनी दिशा शब्द की धार ।।”
जब हम अपने प्रातः स्मरणीय परम पूज्य अनंत श्रीविभूषित श्रीसद्गुरु महाराज जी के साहित्य का अवलोकन करते हैं, तो उनके वचन में भी हम इसी का गुंजन पाते हैं। यथा-
“ तिल द्वार तक के सीधे, सुरत को खैंच ला ।
अनहद धुनों को सुन-सुन, चढ़-चढ़ के खोजना ।।”
और हाथरस-निवासी संत तुलसी साहब कहते हैं-
“ गगन द्वार दीसे एक तारा ।
अनहद नाद सुनै झनकारा ।।”
कितना गिनाया जाए, संतों की वाणियों में विन्दु और नाद की चर्चा भरी पड़ी है।
भगवान बुद्ध को जब वैराग्य हुआ, तो वे राजपाट, धन-दौलत, पत्नी-पुत्र, घर-वार, परिवार आदि सबका त्याग कर शांति की खोज में यत्र-तत्र घूमने लगे। कहीं शांति नहीं मिली। एक दिन वे आँखें बंद कर मौन बैठे थे। बैठे-बैठे उनको तन्द्रा आ गयी, पश्चात् उन्होंने स्वप्न में देखा, इन्द्र आये हैं। उनके हाथ में तानपूरा है, जिसमें तीन तार लगे हैं। पहला तार कसा हुआ था, उसकी आवाज कर्कश थी, दूसरी ओर का तार बहुत ढीला था, उसकी आवाज घड़ड़-घड़ड़ होती थी, सुनने में अच्छी नहीं लगती थी। तीसरा तार जो मध्य में था, वह न बहुत ढीला था, न बहुत कसा हुआ ही। उसकी ध्वनि बहुत मधुर थी। उन्होंने समझा, सांसारिक लोगों का तार बहुत ढीला होता है और मैंने अपने तार को बहुत कसा। इसलिए न तो उनलोगों को शांति मिलती है और न मुझे ही शांति मिली। मज्झिम मग्ग को अपनाना चाहिए। उसी मध्यम मार्ग को अपनाने पर उनको शांति मिली।
यह मध्यम मार्ग क्या है? इड़ा और पिंगला के बीच में स्थित सुषुम्ना है। उस मध्य के तार को हम पकड़ें, उस तार में ही सार भरा हुआ है, अमृत भरा हुआ है। जो कोई उस तार को पकड़ते हैं, वे ही उस शब्द-धार को पकड़ते हैं और चलते-चलते एक-न-एक दिन भव-पार कर जाते हैं। उनका उद्धार हो जाता है। लेकिन उस शब्द-धार को पकड़ने वा पार करने की कला सरस्वती जी नहीं जानती है। इसीलिए शास्त्र में लिखा है-
“ नादाब्धेस्तु परं पारं न जानाति सरस्वती ।
अद्यापि मज्जन भयात् तुम्बं वहति वक्षसि ।।”
अर्थात् नादरूपी समुद्र की सीमा सरस्वतीजी नहीं जानती, इसलिए आज भी डूबने के भय से हृदय मे पास तुम्बे को धारण की हुई हैं।
वैचारिक दृष्टि से अवलोकन करने पर हमारे अंदर ही सरस्वती जी हैं और उनकी वीणा-ध्वनि भी; किन्तु प्रत्यक्षता तो सत् साधना से ही संभव है, जिसका यत्न सरस्वतीजी नहीं बतला सकतीं। उसका यत्न तो संत सद्गुरु ही बतला सकते हैं। इसीलिए आपके सामने श्रद्धालु विद्यार्थियों ने नीचे में सरस्वतीजी का और ऊपर में पूज्य गुरुदेव का चित्र सजाया है। मानो नीचे में प्रकृति है और ऊपर में पुरुष विराजमान हैं।
जैसे वृक्ष की जड़ में पानी डालने से संपूर्ण वृक्ष हरा-भरा हो जाता है, उसी प्रकार एक संत सद्गुरु की पूजा में सभी देव-देवियों की पूजा हो जाती है। इतना ही नहीं, परम प्रभु परमात्मा का भी पूजन उसी में हो जाता है; क्योंकि-
“ देवी देव समस्त, पूरण ब्रह्म परम प्रभू ।
गुरु में करैं निवास, कहत हैं संत सभू ।।”
स्वामी श्रीलक्ष्मीनाथ परमहंसजी ने भी कहा है-
“ सकल देव गुरुदेव जगत में और न दूजो देवा ।
गुरु पूजे सब देवन पूजे, गुरुसेवा सब सेवा ।।”
सब देवों के देव गुरुदेव हैं। उनकी आराधना करें। उनकी बतायी हुई सद्युक्ति के अनुसार हम साधना करें। उनके आदेश और उपदेश के परिवेश में अपने को रखें, भवक्लेश निःशेष होंगे। लौकिक- पारलौकिक दोनों प्रकार के ज्ञान हो जाएँगे। परम कल्याण होगा यही परमाराध्यदेव के उपदेश का सार है। इन पंच पापों से हम बचें। ईश्वर पर विश्वास करें। उनका पूर्ण भरोसा रखें। बाह्याभ्यन्तर दोनों प्रकार के सत्संग करें। सदाचार का पालन करें और जीवन-यापन के लिए तो गुरुदेव का आदेश है-
“ जीवन बिताओ स्वावलंबी, भरम भाँडे़ फोड़िकर ।
संतों की आज्ञा है ये ‘मेँहीँ’ माथ धर छल छोड़िकर ।।”
सबके संस्कार एक-से नहीं होते। लौकिक विद्या को भी हमलोग जानें और पारलौकिक विद्या को भी; यही गुरु महाराज के आदेश हैं । ‘सा विद्या या विमुक्तये’। वस्तुतः विद्या वह है, जो मुक्ति प्रदान करे। यही थोड़ा-सा आपलोगों की सेवा में कहा। धन्यवाद!
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन 23-1-1988 को महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट,
भागलपुर में सरस्वती पूजा के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, फरवरी 1988 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं बहनो!
जब बच्चा अपने पिता के कंधे पर बैठ जाता है, तब दूर से देखनेवाले को वह बड़ा मालूम पड़ता है; किन्तु वस्तुतः बात ऐसी नहीं होती। छोटे छोटे और बड़े बड़े ही रहते हैं। उसी तरह से इस अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के वार्षिक महाधिवेशन में आपलोगों ने मुझे इस ऊँचे आसन पर आसीन किया है, वास्तव में बड़े आपलोग हैं और मैं बच्चा हूँ। आप ने मुझे अपने कंधे पर बैठा लिया है, इसलिए मैं ऊँचा दीख रहा हूँ। (करतल ध्वनि और सद्गुरु महाराज की जय का नारा)
विश्व-धर्म-सम्मेलन में जब स्वामी विवेकानंदजी महाराज अमेरिका गये थे, उस समय वहाँ दूर-दूर से देश-विदेश के विभिन्न धर्मों के दिग्गज विद्वान इकट्ठे हुए थे। जिस-जिस धर्म के सज्जन वहाँ समवेत थे, उनकी धर्म-पुस्तकें वहाँ सजायी गयी थी। लोगों की दृष्टि में भारत हेय था, इसलिए वहाँ के लोगों ने भारत के सर्वोच्च, सर्वमान्य ग्रंथ वेद को सबसे नीचे रखा था। स्वामी विवेकानंदजी महाराज जब वहाँ पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि वेद को सबसे नीचे रखा गया है। कैसी भावना है इन लोगों की, मन में सोचा; किन्तु कहा- ‘पुस्तकों की सजावट देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है। वेद भगवान को सबसे नीचे रखा गया है, इसलिए कि समस्त ज्ञानों की आधार वेद है। यदि वेद को नीचे से हटा दिया जाए, तो सारे धर्मग्रंथ नीचे गिर जाएँगे।’ उसी तरह आपलोगों ने मुझे सबसे ऊँचे में बैठाया है; किन्तु आधार तो आपलोग ही हैं। यदि आपलोग अपने हाथों को खींच लें, तो मैं लड़खड़ाकर कहाँ गिर जाऊँगा, पता नहीं।
अभी सुनने में आया है कि इस समय के सत्संग का विषय ‘ईश्वर-स्वरूप’ रखा गया है; लेकिन ईश्वर-स्वरूप के संबंध में कौन कह सकता है? जिन्होंने उनके दर्शन किये हैं। मान लीजिए, जितने लोग यहाँ बैठे हुए हैं, उनसे कहा जाए कि अमेरिका के संबंध में कहिये, तो अमेरिका के संबंध में ठीक-ठीक कौन कह सकेंगे? वे ही कह सकेंगे, जो अमेरिका गये हुए हैं। बाकी लोग तो किताबी ज्ञान अथवा सुनी-सुनायी बात ही कह सकेंगे। उसी तरह जिनको ईश्वर के दर्शन नहीं हुए, उनसे ईश्वर स्वरूप के संबंध में कहलाया जाए, तो वे क्या कहेंगे? जो उन्होंने श्रवण-मनन या अध्ययन किया है। पोथी-पोथे का थोथा ज्ञान होगा। यानी अध्ययन के आधार पर कहेगा, चाहे जैसा कुछ भी हो। स्पष्टवादी संत कबीर साहब ने बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा है-
“ ज्यों अँधरे को हाथिया, सब काहु का ज्ञान ।
अपनी अपनी कहत है, काको धरिये ध्यान ।।
अँधरन को हाथी सही, है साचे सगरे ।
हाथन की टोई कहै, आँखिन के अँधरे ।।”
संत कबीर साहब ने एक कथा कही है-एक गाँव में हाथी चला गया। उस गाँव में कुछ ऐसे लोग भी बसते थे, जो जन्मांध थे। उनलोगों ने सुना कि गाँव में हाथी आया है। बड़े उल्लसित होकर वे लोग देखने चले और वहाँ पहुँचकर अपने-अपने हाथों से हाथी को टटोलने लगे। किसी ने उसकी पूँछ पकड़कर अन्य लोगों से पूछा, ‘यही हाथी है?’ उत्तर मिला, ‘हाँ, यही हाथी है।’ उसको हाथी के पूँछ का ज्ञान हुआ। दूसरे अंधे ने हाथी का पाँव पकड़ा और पूछा, ‘यही हाथी है?’ उत्तर मिला, ‘हाँ-हाँ, यही हाथी है।’ उसको उसके पाँव का ज्ञान हुआ। तीसरे ने हाथी की सूँड़ पकड़ी और पूछा, ‘यही हाथी है?’ लोगों ने कहा, ‘हाँ, यही हाथी है।’ उसको सूड़ का ज्ञान हुआ। चौथे ने कान पकड़ा और पूछा, ‘यही हाथी है?’ कहा गया, ‘हाँ-हाँ, यही हाथी है।’ उसको हाथी के कान का ज्ञान हुआ। इसी प्रकार पाँचवें ने हाथी का पेट पकड़ा और पूछा, ‘क्या यही हाथी है?’ लोगों ने कहा, ‘हाँ, यही हाथी है।’ उसको हाथी के पेट का ज्ञान हुआ। जब पाँचों अंधे वापस जाकर एक जगह इकट्ठे हुए, तो आपस में उनलोगों ने हाथी देखने की चर्चा चलायी। सबने एक स्वर से कहा, ‘हाँ, हमने हाथी देखा है।’ उनमें से किसी एक ने पूछा, ‘कहो, हाथी कैसा होता है?’ जिसने पूँछ पकड़ी थी, उसने कहा, हाथी लाठी जैसा होता है। जिसने हाथी का पाँव पकड़ा था, उसने कहा, हाथी स्तम्भ जैसा होता है। जिसने हाथी का कान पकड़ा था, उसने कहा, हाथी सूप-डगरा जैसा होता है। जिसने हाथी का पेट पकड़ा था, उसने कहा, नहीं जी, हाथी तो कोठी जैसा होता है। जैसा कि धान-चावल रखने की बड़ी कोठी होती है। इस प्रकार वे सब आपस में लड़ने-झगड़ने लगे। उसी समय एक नेत्रधारी सज्जन उधर से गुजर रहे थे। उन्होंने पूछा, भाई! आपलोग आपस में किसलिए झगड़ रहे हैं? उनमें से एक ने कहा, ‘देखिये न बाबूजी! ये लोग मेरी बात को मानते नहीं हैं। मैं कहता हूँ कि हाथी लाठी जैसा होता है, तो यह कहता है कि नहीं, हाथी स्तम्भ जैसा होता है। तीसरा कहता है, सूप-डगरा जैसा होता है। इस प्रकार से क्रम-क्रम से अंधों की बातों को सुनकर उक्त सज्जन ने कहा, ‘मेरी बात सुनो! मैं तुमलोगों का झगड़ा समाप्त करता हूँ। देखो! तुमलोगों को आँख तो हैं नहीं। जो कोई कहते हो कि हाथी लाठी-जैसा होता है, वह हाथी की पूँछ है। जो कहते हो, हाथी स्तम्भ होता है, वह हाथी का पैर है। जो हाथी को सूप अथवा डगरा जैसा बतलाते हो, वह हाथी का कान है। जो हाथी को कोठी जैसा कहते हो, वह हाथी का पेट है और जो कहते हो कि हाथी ऊपर से मोटा और नीचे से पतला होता जाता है, वह हाथी का सूँड़ है। ये सब हाथी के अंग हैं, अवयव हैं। इस प्रकार पूँछ, पैर, पेट, कान और सूँड़; इन पाँचों चीजों को मिलाने पर जो आकार-प्रकार, आकृति वा रूप होता है, उसको हाथी कहते हैं।
उसी तरह हमलोग कहते हैं-ईश्वर है, ईश्वर है; लेकिन क्या ईश्वर इन्द्रियों का विषय है? क्या किसी ने किसी इन्द्रिय से आजतक ईश्वर को देखा है? ईश्वर देखनेवाली केवल चेतन आत्मा है। चेतन आत्मा ही ईश्वर को देख सकती है, परख सकती है, पहचान सकती है, उससे मिल सकती है अथवा साक्षात्कार कर सकती है। अन्य किसी में भी यह क्षमता नहीं है।
विचारणीय विषय है कि प्रभु को पानेवाली तो है चेतन आत्मा और उसे बतानेवाली है वागिन्द्रिय। जिसने जिसको कभी देखा नहीं, उसके संबंध में वह क्या बता सकती है? ऐसी स्थिति में ईश्वर के संबंध में क्या कहा जा सकता है? इस विषय की एक बड़ी अच्छी रोचक कथा स्मरण हो आयी है, सुनिये-
किसी जंगल में एक साधु बाबा अपनी झोपड़ी में बैठे हुए थे। एक व्याधे ने एक हिरण पर तीर चलाया। वह शरविद्ध हिरण उस तीर की पीड़ा से विकल हो बेपीर भागने लगा और पास की एक झाड़ी में जा छिपा। साधु बाबा ने उस भागकर छिपते हुए हिरण को देखा। इतने में ही वह व्याधा आकर उस साधु बाबा से पूछता है, बाबा! क्या अभी आपने एक शर-विद्ध हिरण को भागते देखा है? साधु बाबा ने सोचा, यदि मैं सच कहूँ, तो एक निरपराध हिरण की हत्या होगी और मझे हिंसा का पाप लगेगा। यदि मिथ्या भाषण करता हूँ, तो भी पाप का भागी बनता हूँ। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
“ नहिं असत्य सम पातक पुंजा ।
गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा ।।”
ऐसा सोचकर साधु बाबा बड़े धर्मसंकट में पड़ गये। किन्तु अविलंब ही उस प्रत्युत्पन्नमति साधु बाबा ने कहा, भाई व्याध! देखो जिसने देखा है, वह तो बोल नहीं सकता और जो बोल सकता है, उसने देखा ही नहीं। मैं बतलाऊँ तो क्या? तात्पर्य यह कि देखा है नेत्र ने, यह बोल नहीं सकता। बोलनेवाला है मुँह, उसने देखा ही नहीं। ईश्वर के संबंध में भी ठीक इसी भाँति की बात है। कबीर साहब ने कहा है-
“ जो देखै सो कहै नहिं, कहै सो देखै नाहिं ।
सुनै सो समझावै नहीं, रसना दृग सरवन काहि ।।”
देखनेवाला कोई और है और कहनेवाला कोई और इसलिए जो कहा जाएगा, यह सही-सही कहा जाएगा, यह बात यथार्थ नहीं है। इसीलिए संत कबीर साहब ने कहा था-
‘भक्ति प्राण से होत है---------------------।’
यथार्थतः भक्ति तो प्राण अर्थात् चेतन आत्मा करती है, दूसरा कौन करेगा? ईश्वर से मिलाप चेतन का होगा और किसी का नहीं। इसीलिए जिनकी चेतन आत्मा ने प्रभु-दर्शन किये हैं, जिनको संत की संज्ञा से हम अभिहित करते हैं, वे ही कुछ बतला सकते हैं। संत कबीर साहब की वाणी है-
“ उतते कोइ न बाहुरा, जा से पूँछू जाय ।
इतते सबही जात हैं, भार लदाय लदाय ।।”
सब-के-सब इधर से जाते दीखते हैं। उधर से लौट आकर कोई कहता कि हम जाकर देख आये हैं, तब तो कोई बात होती; लेकिन ऐसा देखा-सुना नहीं जाता। यदि जिज्ञासा हो कि क्या उस प्रभु के दर्शन करके आजतक कोई नहीं आए? तो इसके उत्तर में संत कबीर साहब कहते हैं-
“ उतते सद्गुरु आइया, जाकी मति है धीर ।
भवसागर के जीव को, खेइ उतारै तीर ।।”
अतएव ईश्वर के संबंध में यदि कोई कह सकते हैं, तो वे हैं संत सद्गुरु। ऐसी स्थिति में आप कह सकते हैं-स्वानुभूति नहीं, तो संत-सद्गुरु की अनुभूति, जो सद्ग्रंथों में वर्णित है, कहिये। अस्तु! सामवेद का एक मंत्र श्रवण कीजिए-
“ ओ3म् स योजत उरुगायस्य जूतिं
वृथा क्रीडन्तं मिमिते न गावः।
परीणसं कृणुते तिग्म शृंगो
दिवा हरिर्ददृशे नक्तमृज्रः।।”
अर्थात् हे मनुष्यो ! हाथ, पैर, गुदा, लिंग, रसना, कान, त्वचा, आँखें, नाक और मन-बुद्धि आदि इन्द्रियों के द्वारा ईश्वर को प्रत्यक्ष करने की चेष्टा करना, झूठ ही एक खेल करना है; क्योंकि इनसे वह नहीं जाना जा सकता। वह तो इन्द्रियातीत है।
विश्व के प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में परम प्रभु परमात्मा को ‘अवाघ्मनसगोचर’ तथा ‘एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति’ कहकर घोषित किया गया है।
वेद के पश्चात् हमें उपनिषद् के ऋषि से जिज्ञासा करना चाहिए। वैदिक कालिक ऋषि की ईश्वर संबंधी उक्ति तो यह है, उपनिषद् काल के ऋषि-मनीषी इसके संबंध में क्या कहते हैं? केनोपनिषद् में आया है-
“ यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।। 5।। “
अर्थात् जो मन से मनन नहीं किया जाता, बल्कि जिससे मन मनन किया हुआ कहा जाता है, उसी को तू ब्रह्म जान। जिस इस (देशकालाविच्छिन्न वस्तु) की लोक उपासना करते हैं, वह ब्रह्म नहीं है।।
कठोपनिषद् अध्याय 2, वल्ली 2 में लिखा है, नचिकेता की आत्मज्ञान संबंधी जिज्ञासा पर यमराज ने उत्तर दिया है-
“ वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।”
अर्थात् जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अन्तरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है।।
आप देखेंगे, जब आप गाड़ी के चक्के में हवा देते हैं, तो हवा का रूप चक्राकार होता है, फुटबॉल में वही हवा गोलाकार हो जाती है और लंबे बैलून में वह हवा बैलूनाकार अर्थात् लंबी हो जाती है; किन्तु वास्तव में हवा का रूप न तो चक्राकार है, न गोलाकार और न लंबाकार ही। बचपन में जब मैं छोटा था, एक किताब में पढ़ा था। एक बच्चा अपनी माँ से पूछता है-
“ होती कैसी हवा जरा तू इसका भेद बता दे ,
पाँव पड़ूँ और शीश नवाऊँ मैया मुझे बता दे ।
पत्तों के हिलने-डूलने से जो इससे हवा निकलती है ,
तो उसमें हवा कहाँ से आती मैया मुझे बता दे।।”
हवा में क्या रूप है? हवा का कोई रूप नहीं है। वह जिस वस्तु में रहती है, उसी का रूप धारण कर लेती है। उसी तरह ईश्वर सबमें है और सबमें रहकर, सर्वाकार होकर भी उससे कितना अधिक बाहर है, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती; क्योंकि वह स्वरूपतः अनंत है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने विनय-पत्रिका में लिखा है-
“ अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा ,
वसत इति वासना धूप दीजै ।।”
गोस्वामीजी की दृष्टि में अचर-चर सभी रूप ईश्वर के हैं। यदि जिज्ञासा हो कि ऐसा क्यों? तो उत्तर में निवेदन है-देखिए, यह शरीर हमारा है। कोई पूछे कि यह किसका रूप है? तो हम कहेंगे, हमारा; क्योंकि जिस शरीर में जो रहता है, वह उसका रूप कहलाता है। इसी प्रकार सब रूपों में रहने के कारण परमात्मा सर्वरूपी और उसके परे रहने के कारण अरूपी भी कहलाते हैं। हमारे परम पूज्य गुरुदेव की वाणी में है-
“ सर्व रूपी हो कहाते फिर अरूपी हो गये ।
सूक्ष्मतर मन बुद्धि हू से क्यों गहे जाते नहीं ।।”
ज्ञातव्य है कि एक होता है रूप, दूसरा होता है सरूप और तीसरा होता है स्वरूप। रूप किसको कहते हैं? जो आँखों से देखा जाता है। सरूप अर्थात् जो रूप के सहित रहता है। और स्वरूप कहते हैं निजरूप अर्थात् आत्म-स्वरूप को। निजरूप की निसबत गोस्वामीजी ने इस भाँति कहा है-
“ अनुराग सो निजरूप जो, जग तें विलच्छन देखिये ।
सन्तोष सम सीतल सदा दम, देहवन्त न लेखिये ।।
निर्मल निरामय एकरस, तेहि हरष सोक न व्यापई ।
त्रयलोक पावन सो सदा, जाकी दसा ऐसी भई ।।”
श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 15 में तीन पुरुष बतलाये गये हैं-क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष और पुरुषोत्तम। यथा-
“ द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।।
उत्तमः पुरुषत्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य विभर्त्यव्ययः ईश्वरः ।।”
अर्थात् इस संसार में नाशवान् और अविनाशी, ये दो प्रकार के पुरुष हैं। इनमें संपूर्ण भूत प्राणियों के शरीर तो नाशवान् और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है। इन दोनों से उत्तम पुरुष भिन्न ही है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर-परमात्मा कहलाता है।
क्षर अर्थात् नाशवान अक्षर अर्थात् जिसका नाश नहीं होता। ‘न क्षरति इति अक्षरः।’ अर्थात् चेतन आत्मा। और इन दोनों से जो परे है, वह है पुरुषोत्तम। क्षर, अक्षर के परे पुरुषोत्तम। क्षर असत्य है। अक्षर सत्य है। उन दोनों से परे जो है, वह परम प्रभु परमात्मा है। क्षर सगुण है, अक्षर निर्गुण हैै। इस सगुण, निर्गुण के जो परे है, वह परम प्रभु परमात्मा है। इसी ईश्वर की स्तुति में हमलोग नित्य पाठ करते हैं-
“ सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर, औरु अक्षर पार में ।
निर्गुण सगुण के पार में, सत् असत् हू के पार में ।।”
और संत कबीर साहब ने कहा है-
“ सर्गुन की सेवा करो, निर्गुन का करु ज्ञान ।
निर्गुन सर्गुन के परे तहैं हमारा ध्यान ।।”
तथा-
“ छर परिहरि अच्छर लौ लावै, तब निःअच्छर पावै ।
अच्छर गहै विवेक करि, पावै तेहि से भिन्न ।
कहै कबीर निःअच्छरहि, लहै पारसी चीन्ह ।।”
यह है ईश्वर का स्वरूप। और भी लीजिए-
“ नैना बैन अगोचरी, श्रवना करनी सार ।
बोलन कै सुख कारनै, कहिये सिरजनहार ।।”
शांडिल्योपनिषद् में आया है-‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।’ जहाँ से मन और वाणी लौट आते हैं यानी कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय की तो बात ही क्या, अंतरिन्द्रिय-मन की भी पहुँच वहाँ नहीं है; क्योंकि मन जड़ है। जड़ के परे चेतन है और चेतन के परे आत्मस्वरूप है। कठोपनिषद् के ऋषि कहते हैं-
“ इन्द्रियेभ्यः परं मनो मनसः सत्त्वमुत्तमम् ।
सत्त्वादधि महानात्मा महतोऽव्यक्तमुत्तमम् ।।
अव्यक्तात्तु परः पुरुषो व्यापकोऽलिंग एव च ।
यं ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृतत्वं च गच्छति ।।”
आगे चलकर हम गुरु नानक साहब से पूछते हैं, इस संबंध में आपका क्या ख्याल है? वे कहते हैं-
“ अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।
जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।।”
“ साचे सचिआर विटहु कुरबाणु ।
ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ, साचे सबदि नीसाणु ।।
ना तिसु मात पिता सुत बंधप, ना तिसु काम न नारी ।
अकुल निरंजन अपर परंपरु, सगली जोति तुमारी ।।
घट-घट अंतरि ब्रह्मु लुकाइआ, घटि-घटि जोति सबाई ।
बजर कपाट मुकते गुरमती, निरभै ताड़ी लाई ।।
जंत उपाइ कालु सिरिजंता, वसगति जुगति सबाई ।
सतिगुरु सेवि पदारथु पावहि, छूटहि सबदु कमाई ।।
सूचै भाडै साचु समावै, बिरले सूचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ, नानक सरणि तुमारी ।।”
महायोगी गोरखनाथजी महाराज की वाणी में हम पढ़ते हैं-
‘बस्ती न शुन्यं शुन्यं न बस्ती, अगम अगोचर ऐसा ।
“ गगन सिखर मँहि बालक बोलहिँ,
वाका नाँव धरहुगे कैसा ।।”
राजयोगी टीकारामनाथजी महाराज के शब्दों में हम पाते हैं-
“ विराजैं रोम रोम में राम, नहिं कहुँ दूजो धाम ।
अगम अपार अनादि अगोचर, सज्जन मनोभिराम ।।”
रामचरितमानस में गोस्वामीजी ने लिखा है-‘वचन अगोचर बुद्धि पर ।’
संत सूरदासजी की वाणी में है-
‘मन वाणी को अगम अगोचर सोइ जानै जो पावै ।’
और हमारे गुरुदेव क्या कहते हैं? इन्हीं संतों से बिल्कुल मिली-जुली वाणी कहते हैं; यथा-
“ है मन बुद्धि वाणी को अगम अगोचर ।
बताया हो चुप जिसका वाह्व मुनिवर ।।”
तथा-‘जो परम तत्त्व आदि-अन्त-रहित, असीम, अजन्मा, अगोचर, सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे है, उसे ही सर्वेश्वर-सर्वाधार मानना चाहिए।’
इस प्रकार वेद, उपनिषद्, महायोगी गोरखनाथजी महाराज, राजयोगी टीकारामजी महाराज, संत सूरदासजी महाराज, गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज, संत कबीर साहब, गुरु नानकदेवजी महाराज और हमारे परम पूज्य गुरुदेवजी महाराज की वाणी में ईश्वर के लिए ‘अगोचर’ शब्द का प्रयोग पाते हैं। ‘अगोचर’ अर्थात् इन्द्रियों से जो ग्रहण नहीं-प्रत्यक्ष न हो, इन्द्रियातीत। यथार्थतः यह है आत्मस्वरूप। और भी लीजिए गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज का कथन है-
“ ब्यापक ब्याप्य अखण्ड अनन्ता ।
अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता ।
सबदरसी अनवद्य अजीता ।।
निर्मल निराकार निर्मोहा ।
नित्य निरंजन सुख सन्दोहा ।।
प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी ।
ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
इहाँ मोह कर कारन नाहीं ।
रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ।।”
प्रकृति के पार और सब उरवासी भी; ऐसे हैं प्रभु। सर्वेश्वर के संदर्भ में संत सूरदासजी महाराज से पूछिये, वे क्या कहते हैं-
“ अविगत गति कछु कहत न आवै ।
ज्यों गूँगहिं मीठे फल को रस, अन्तरगत ही भावै ।।”
बड़ी विचित्र बात ये कहते हैं। कहते हैं-‘अविगत’, अ=नहीं, विगत=विहीन अर्थात् ये कहीं से हीन नहीं है। तात्पर्य यह कि वह सर्वव्यापक है। उसके बारे में कुछ कहना तो वैसा ही होगा, जैसे कि गूँगे को मीठा फल खिलाकर पूछा जाय कि कैसा स्वाद लगा? तो वह वचनहीन बेचारा क्या बतलावेगा? वह बोल तो सकता नहीं है, फिर उस फल के स्वाद को कहे तो कैसे? संत तुकारामजी महाराज की वाणी में भी ईश्वर के लिए हम गूँगे की उपमा पाते हैं-
“ गूँगे का गुड़ है भगवान ।
बाहर भीतर एक समान ।।”
संत कबीर साहब ने कहा था-
“ जों गूँगे के सैन को, गूँगा ही पहचान ।
तैसे आतम ज्ञान को, ज्ञानीजन ही जान ।।”
यदि हम विवेक विलोचन से सृष्टि की ओर दृष्टि करें, तो इस विषय की परिपुष्टि हो जाएगी कि सांसारिक सभी पदार्थ सांत है। सारे सांतों के पार में क्या है? तब ऐसा प्रश्न होगा। सारे सांतों के पार में अनंत है, उत्तर होगा। यदि कोई पूछे कि अनंत के पार में क्या होगा? तो कहा जाएगा कि वह बेचारा ‘अनंत’ शब्द का अर्थ नहीं जानता है। ‘अनंत’ शब्द का अर्थ होता है-जिसका अंत न हो। जिसका अंत नहीं, उसके पार में क्या होगा? ‘अनंत’ एक से अधिक हो नहीं सकता। इसलिए अनंत स्वरूपी सर्वेश्वर एक है। उसी एक सर्वेश्वर-सर्वाधार को ईसाई गॉड, मुसलमान खुदा या अल्लाह, पारसी अहुरमज्द, चीनी तितीन, जरथुस्त्र जेहोवा आदि अपनी-अपनी भाषा के अनुरूप नाम से अभिहित करते हैं। वास्तव में संतों की वाणियों में भाषान्तर है, भावान्तर या तत्त्वान्तर नहीं।
कितना गूढ़ ज्ञान है यह। यह तो परमाराध्य गुरुदेवजी महाराज की हमलोगों पर महती अनुकम्पा है, जो इस संबंध में कुछ भी जान पाये हैं। ऐसा लगता है, जैसे इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा था-
“ मोरे मन प्रभु अस विस्वासा ।
राम तें अधिक राम कर दासा ।।”
किसी ने पूछा-यह बात कैसी है, सेव्य से बढ़कर सेवक कैसे हो सकता है? कहाँ तो परम प्रभु परमात्मा और कहाँ दास! इसका उत्तर गोस्वामीजी ने बड़े उत्तम ढंग से दिया-
“ राम सिन्धु घन सज्जन धीरा ।
चन्दन तरु हरि संत समीरा ।।”
परमात्मा कैसे हैं? उनकी उपमा समुद्र से दी गयी है। जैसे समुद्र अथाह होता है, अगाध होता है, उसी भाँति परमात्मा अथाह है, अगाध है। अगर कोई समुद्र की यात्र करे और उसके पेय जल की व्यवस्था अलग से नहीं रहे, तो समुद्र में रहते हुए वह प्यासा मर जाएगा, जबकि उसके चतुर्दिक पानी-ही-पानी है। वास्तविक बात यह है कि समुद्र का जल खारा होता है, पीने योग्य नहीं होता। उसी तरह से ईश्वर का ज्ञान खारा होता है। खारा जल का वाष्प बनता है, वाष्प से फिर बादल बनते हैं, बादल से वर्षा होती है। उस वर्षा के पानी से हमारी खेती पटती है, हम पीते हैं और हमारी जान बचती है। इसी तरह सर्वव्यापी होने के कारण ईश्वर हमारी सभी दिशाओं में रहते हुए भी हम उनके स्वरूप-ज्ञान से अनभिज्ञ हैं, उनका प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है। फलतः हम आवागमन के चक्र में पड़े हुए हैं और ‘पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्’ के कष्ट का भोग भोग रहे हैं।
ईश्वर के खारे ज्ञान को संत-महात्मागण मीठा करके यानी गंभीर ज्ञान को सरल और सुबोध बनाकर सर्वसाधारण तक पहुँचाते हैं। इसीलिए गोस्वामीजी ने उपर्युक्त बातें कहीं। दूसरी बात यह कि समुद्र कहीं से आता वा कहीं जाता नहीं है। जहाँ रहता है, स्थिर रहता है। इसी प्रकार ईश्वर स्थिर रहते हैं, कहीं आते-जाते नहीं हैं; किन्तु संत लोग घूम-घूमकर ईश्वरीय ज्ञान का प्रचार-प्रसार कर विश्व का कल्याण करते हैं। गोस्वामीजी के शब्दों में हम कह सकेंगे-
“ विस्व उपकार हित व्यग्र चित्त सर्वदा,
त्यक्त मद मन्यु कृत पुण्य रासी ।
जत्र तिष्ठन्ति तत्रैव अज सर्व हरि,
सहित गच्छन्ति छीराब्धि वासी ।।”
भगवान श्रीराम वाल्मीकिजी के आश्रम में पधारते हैं और उनसे रहने योग्य स्थान की जिज्ञासा करते हैं। इसके उत्तर में वाल्मीकिजी नम्रतापूर्वक निवेदन करते हैं-
“ पूछेहु मोहि कि रहउँ कहँ, मैं पूछत सकुचाउँ ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि, तुम्हहिं देखावउँ ठाउँ ।।”
तथा-
“ राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति-नेति नित निगम कह ।।”
अर्थात् भगवन्! आप अपने रहने की जगह मुझसे पूछते हैं; किन्तु आपसे पूछते हुए मैं सकुचाता हूँ; क्योंकि आप तो सर्वत्र हैं। कौन-सा ऐसा स्थान है, जहाँ प्रभो! आप नहीं हैं। विचारणीय है कि सशरीर भगवान वाल्मीकि मुनि जी के सम्मुख खड़े हैं, फिर भी मुनिजी की दृष्टि कितनी पैनी है। वे उनके शरीर को नहीं देखकर स्वरूप को देखते हैं। जैसे किसी कुशल स्वर्णकार के सामने स्वर्ण अलंकार हो, तो वह अलंकार को नहीं, स्वर्ण को देखता है।
श्रीरामकृष्णपरमहंस जी महाराज बहुत कम-पढ़े लिखे थे; लेकिन वे थे पहुँचे हुए संत। उनसे किसी ने पूछा, ईश्वर कैसे होते हैं? तो उन्होंने बतलाया, जैसे बड़े घर की स्त्रियाँ होती हैं। वे पर्दे के अंदर रहा करती है। वे भीतर से सबको देख लेती है; किन्तु उन्हें कोई नहीं देख पाता। वैसे ही ईश्वर हमारे भीतर विराजमान हैं। वे हम सबको देखते हैं, पर इन आँखों से हम उन्हें नहीं देख पाते।
“ प्रकृति पार प्रभु सब उर वासी ।
ब्रह्म निरीह विरज अविनासी ।।”
गोस्वामीजी ने कहा। मात्र गोस्वामीजी ने ही नहीं, सभी संतों ने एक स्वर से कहा है-‘ईश्वर हमारे अंदर है।’ एक फकीर ने कहा, ‘बेहोशिये इंसान से यह ख्याल जुदा है। जाहिर में मुहम्मद बातिन में खुदा है।’ बातिन=भीतर। गुरु नानक साहब कहते हैं-
“ काहे रे वन खोजन जाई ।
सरब निवासी सदा अलेपा, तोही संग समाई ।।”
मुंडक उपनिषद् के एक श्लोक का पद्यानुवाद किसी सुभाषितकार ने किया है-
“ एक वृक्ष पर दो पक्षी अति सख्य भाव से थे रहते ।
खाते एक फलों को थे और एक बिना खाये हँसते ।।”
अर्थात् एक वृक्ष पर दो पक्षी बैठे हुए हैं। उनमें से एक भोक्ता है और दूसरा द्रष्टा। जीव भोक्ता है और परम प्रभु परमात्मा द्रष्टा है। इस शरीर में जीव और पीव हम दोनों रहते हैं। हम भीतर हैं और हमारे प्रभु भी भीतर हैं। संतजन कहते हैं जब हम दोनों भीतर ही हैं, तो उनको खोजने के लिए बाहर कहाँ जाओ? कबीर साहब ने कहा-
‘मोको कहाँ ढूँढ़ो बन्दे, मैं तो तेरे पास में ।’
यह तो बहुत सीधी-सी बात है। इतना बड़ा विशाल पंडाल बना है। हम सभी इस पंडाल के भीतर बैठे हैं। हम एक-दूसरे से मिलने के लिए पंडाल के भीतर-भीतर चलेंगे अथवा पंडाल के बाहर-बाहर। उत्तर मिलेगा, भीतर ही भीतर। जब परम प्रभु परमात्मा सब उरवासी हैं, तो उनकी खोज हम वनवासी बनकर क्यों करें? घर-वासी होकर राजी-खुशी से घटवासी की खोज करें। उपर्युक्त मत से हमारे गुरुदेवजी महाराज पूर्ण सहमत हैं, उनकी वाणी है-
“ घट पट तिहू के पार में साईं बसे हिय अंतरे ।
जों मिलन को चाहता, चट पट से कर संग संत रे ।।”
अतएव ईश्वर-प्राप्ति के लिए बाहर जाने की कतई आवश्यकता नहीं।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के 77वें वार्षिक महाधिवेशन, दिनांक 5-2-1988 ई0 को मणियारपुर, बाँका में प्रातःकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जुलाई 1988 ई0)

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समादरणीय सज्जनवृन्द, करुणामयी माताओं तथा भक्तिमती बहनो!
मैं अभी पूर्णरूपेण स्वस्थ नहीं हूँ। अस्वस्थ हूँ। इसलिए अधिक देर तक आपलोगों का समय मैं नहीं लूँगा। और भी साधु-संत, महात्मागण जो आये हैं, उनलोगों के प्रवचन आपलोग सुनेंगे। स्वस्थ और अस्वस्थ इन दो शब्दों का प्रयोग किया। अस्वस्थ- अ=नहीं, स्व=अपना, स्थ=स्थित। अर्थात् जो स्व में स्थित नहीं है, वह अस्वस्थ है। मैं अभी स्व में स्थित नहीं हूँ, इन्द्रियों के घाटों में बरत रहा हूँ, अतः अस्वस्थ हूँ। जिस दिन इन्द्रियों के घाटों से सिमटकर मैं अपने में स्थित हो पाऊँगा, उस दिन अपने को स्वस्थ कहूँगा। अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के वार्षिक अधिवेशन के अवसर पर जो विशाल पंडाल बनाया गया है, इतना बृहत् आयोजन किया गया है और लाखों की संख्या में यत्र-तत्र लोग एकत्र हुए हैं, किसलिए? उन्हीं स्वस्थ संतजन महापुरुष के अमृतोपम वचन श्रवण करने के लिए।
आप मुझे साधु-वेश में देखकर यह न समझें कि मैं आपलोगों को कुछ उपदेश देने आया हूँ, बल्कि मैं तो संतों का संदेश देने आया हूँ। साथ ही आप ऐसा भी नहीं समझे कि मैं विशेष हूँ, इसलिए कुछ आदेश देने आया हूँ। नहीं, नहीं मैं तो आपलोगों को केवल कुछ याद दिलाने आया हूँ। यदा-कदा ऐसा देखा गया है कि बड़े लोगों में भी कभी वस्तु विशेष की विस्मृति हो जाती है। उसी विस्मृति को पुनः स्मृति पटल पर लाने के लिए कुछ कहने के लिए यहाँ उपस्थित हुआ हूँ।
आप रामायण पढ़ते हैं। सुनते हैं आजकल टी0भी0 (टेलीविजन) पर भी रामायण का बहुत प्रचार हो रहा है। उसमें भी आपलोग देखते हैं। सीता-हरण के पश्चात् समुद्र के किनारे में भगवान श्रीराम की वानरी सेना उपस्थित थी। सारी सेना नहीं, बल्कि वे प्रमुख-प्रमुख व्यक्ति जो सीताजी की खोज के लिए चले थे। जैसे जाम्बवन्त, हनुमान, अंगद आदि। समुद्र के उस पार जाकर सीताजी की खोज करनी थी। जितने वीरगण थे, उनके सामने यह समस्या खड़ी हुई कि शत योजन समुद्र का लंघन करे तो कौन? किसी ने कहा, मैं दस योजन तक जा सकता हूँ; किसी ने कहा, मैं बीस योजन तक जा सकता हूँ। इसी प्रकार किसी ने चालीस तो किसी ने पचास योजन तक जा सकता हूँ की बात कही, सब लोग अपने-अपने बलानुसार अनुमानतः समुद्रलंघन की बात कर रहे थे। अंगद ने कहा, मैं तो उस पार जा सकता हूँ; लेकिन उस ओर से लौटने में संदेह है। यथा-
“ अंगद कहा जाउँ मैं पारा ।
मन संशय कछु फिरती बारा ।।”
श्रीहनुमानजी बलवान होते हुए भी चुप बैठे थे; क्योंकि वे अपने बल को भूल गये थे। जाम्बवन्तजी ने उनको शक्ति की याद दिलायी। जाम्बवन्त ने कहा-
“ कहइ रीछपति सुनु हनुमाना ।
का चुप साधि रहेहु बलवाना ।।
पवन तनय बल पवन समाना ।
बुधि विवेक विग्यान निधाना ।।
कवन सो काज कठिन जग माहीं ।
जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं ।।
राज काज हित तव अवतारा ।
सुनतहि भयउ पर्वताकारा ।।”
श्रीजाम्बवन्त के वचन सुनने भर की देर थी, फिर तो श्रीहनुमानजी का तन ‘कनक भूधराकार सरीरा’ में परिवर्तित हो गया और वे सिंह-सदृश गर्जन करते हुए शूर के स्वर में जाम्बवान से कहने लगे, मैं इस खारे समुद्र को खेल में ही लाँघ सकता हूँ। सहायकों सहित रावण को मारकर त्रिकूट पर्वत को उखाड़कर यहाँ ला सकता हूँ। हे जाम्बवान! मैं तुमसे पूछता हूँ कि तुम उचित सीख देना कि मुझे क्या करना चाहिए। पुनः उन्होंने अपने संगी-साथी वानर-भालुओं से कहा-
“ तब लगि मोहि परिखेहु भाई ।
सहि दुख कन्द मूल फल खाई ।।”
अर्थात् हे भाई! जबतक मैं सीता माताजी को देखकर लौट न आऊँ, तबतक मेरी प्रतीक्षा करना। चाहे कन्द, मूल, फल जो कुछ मिले, खाकर रहना। यदि कन्द, मूल, फल नहीं मिले, तो पत्ते खाकर रहना। यदि वह भी नहीं मिले, तो भूखे भी रहकर दुःख सहकर रहना। इतना कहकर वे श्रीसीताजी की खोज करने के लिए सौ योजन समुद्र को लाँघ जाते हैं। श्रीसीता माताजी का पता लगाकर उनसे बातचीत करके, लंका-दहन तथा लंकापति रावण का मान-मर्दन करके लौट आते हैं। सारी बातें भगवान श्रीराम को सुनाते हैं। ऐसे रामदूत ‘अतुलित बलधामा’ श्रीहनुमान थे। वे भगवान के भक्त भी थे। इसके अतिरिक्त जिस समय भगवान श्रीराम अधीर हो जाते थे, तो हनुमानजी धैर्य बँधाते थे और भगवान के ऐन मौके पर काम आते थे। उसी तरह से हमलोग भी तो मन-निग्रह के समर-क्षेत्र में सम्मुख समर करनेवाले यत्र-तत्र से एकत्र वीरगण हैं। इस असार-संसार में मन-माया से युद्ध करनेवाले आप सब लोग योद्धा हैं। आपलोगों के समक्ष मैं क्या कहूँ! मैं केवल याद दिलाने आया हूँ। संत-वचन सुनाने आया हूँ।
“ आओ वीरो मर्द बनो,
अब जेल तुम्हें तजना होगा ।”
मैं कहानी कहने नहीं, पिहानी सुनाने नहीं, रूहानी तरक्की के लिए केवल संतवाणी सुनाने आया हूँ। संतवाणी क्या है? सुधा है, अमृत है। किसी सुभाषितकार ने कितना अच्छा कहा है-
“ संत वचन वह सुधा, देव भी जिसके सदा भिखारी ।
संतवचन वह धन जिसका है, नर प्रधान अधिकारी ।।”
जो संत-वचन रूपी पीयूष का पान करता है, वह निष्पाप हो जाता है-अमर हो जाता है। मैं आपलोगों को वही अमरवाणी सुनाने आया हूँ। अमरता की ओर अग्रसर करने-अमृतत्व का संदेश देने आया हूँ।
“ मर्त्य से अमर बन जाता जिससे, वह संजीवन रज है ।
संत वचन सब भव रोगों का, रामवाण भेषज है ।।”
और क्या?
“ वेद शास्त्र अनुभूति तपस्या का जिसमें संचय है ।
संतों का वर वरद वचन वह मंगलमय निर्भय है ।।
क्यों कर्तव्य मूढ़ नर बैठा, बन चिंता वाहन ।
संत वचन के सुधा-सिन्धु में, कर संतत अवगाहन ।।”
संत वचन में डुबकी लगाओ, गोता लगाओ, चमत्कार देखोगे।
“ दूर असत से कर सत-पथ की ओर ले जाने वाला ।
और मर्त्य से हटा, अमरता तक पहुँचाने वाला ।।
तम से परे ज्योति के जग में, होता जो जगमग है ।
सच्चिन्मय वह परमधाम का, संतवचन शुचि मग है ।।
कौन बताये संतों की वाणी में कितना बल है ।
दासी सुत देवर्षि बन गया जीवन हुआ सफल है ।।
उन्हीं संत की वाणी ने, यह चमत्कार दिखलाया ।
दैत्य वंश में देवोपम प्रीांद प्रकट हो आया ।।”
कितनी बार? एक-दो बार नहीं, असंख्य बार संतों ने अपने ज्ञानालोक से जगत् को आलोकित किया है, गिरे को उठाया है, पतित को पावन किया है।
“ अगणित बार संतवाणी ने निज प्रभाव प्र्रगटाया ।
जिसे मानकर बालक ध्रुव ने हरि का ध्रुव पद पाया ।।
एक लुटेरा था जिसने भी सुनी संत की वाणी ।
वाल्मीकि बन गया आदिकवि भुवन विदित विज्ञानी ।।”
कविता की पहली पंक्ति में कवि ने बड़ी मार्मिक बात कही है। उन्होंने बताया है कि संत- वचन सुधा है। सुधा यानी अमृत। वह अमृत क्या है? गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने श्रीरामचरितमानस (किष्किन्धाकांड) में कहा है-
“ सुधा बरसि कपि भालु जिआए ।
हरषि उठे सब प्रभु पहिं आए ।।
सुधा वृष्टि भै दुहु दल ऊपर ।
जिये भालू कपि नहिं रजनीचर ।।”
इन्द्र ने अमृत बरसाकर वानर-भालुओं को जिला दिया। सब हर्षित होकर उठे और पास आये। अमृत की वर्षा दोनों ही दलों पर हुई; पर रीछ-वानर ही जीवित हुए, राक्षस नहीं।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जो राम के भक्त होते हैं, उन्हीं को अमृत अमरता दिलाता है और जो रजनीचर होते हैं यानी राक्षसी वृत्ति के होते हैं, उनको नहीं। यह तो प्रत्यक्ष ही है कि रीछ-वानरगण भगवान के भक्त थे और राक्षसगण अभक्त। अतएव यदि हमें अमृतपान करना है, तो हम भी भगवान के भक्त बनें। भगवान के भक्त बनकर रहेंगे, तो निश्चित ही अमृत प्राप्त करेंगे, अन्यथा यदि राक्षसी वृत्ति रही, तो उससे वंचित ही रहेंगे, यह भी सुनिश्चित है। दूसरी एक बात और भी-वह यह कि भगवान श्रीराम के दल के लोग कंद, मूल, फल भोजन करनेवाले- शाकाहारी सात्विक भोजी थे और रावण दल के लोग-‘महिष खाय अरु मदिरा पाना ।’
तामसी भोजन करनेवाले थे। इस दृष्टि से भी अमृतपान के इच्छुक को सत्वगुणी भोजन करना चाहिए। रामचरितमानस के अयोध्याकांड में अमृत की चर्चा गोस्वामीजी ने इस भाँति की है-
“ सुनिय सुधा देखिय गरल, सब विधि काल कराल ।
जहँ तहँ काक उलूक बक, मानस सुकृत मराल ।।”
सुधा के लिए तो हम सुनते हैं; लेकिन देखते गरल है। यहाँ लाखों की संख्या में लोग उपस्थित हैं। क्या इनमें से कोई कह सकते हैं कि उन्होंने अमृत देखा है अथवा फलाँ आदमी ने अमृत पान कर अमरत्व प्राप्त किया है? मैं समझता हूँ कि कोई नहीं कह सकेंगे। यदि मैं पूछ दूँ-क्या आपमें से किसी ने विष देखा है अथवा किसी ने विष पान किया और मर गया, इसकी जानकारी है? तो मैं समझता हूँ, इसके उत्तर में ‘हाँ’ कहने के लिए हजारों लोग खड़े हो जाएँगे। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा, ‘सुनिय सुधा, लेकिन देखिय गरल’। इसी भाँति उल्लू, बगुला और काग सब जगह मिलते हैं; परन्तु हंस के लिए सुना जाता है कि वह मानसरोवर में रहता है।
वस्तुतः अमृत के लिए सुनते हैं; लेकिन देखते विष हैं। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि क्या अमृत सुनने मात्र के लिए ही है या यथार्थ में कुछ है भी? संतों ने कहा-‘अवश्य है।’ अमृत के संबंध में अथर्ववेद में एक मंत्र आया है-
“ ब्रह्मैवेदममृतं पुरस्ताद्ब्रह्म
पश्चाद्ब्रह्म दक्षिणतश्चोत्तरेण ।
अधश्चोर्ध्वं च प्रसृतं ब्रह्मैवेदं
विश्वमिदं वरिष्ठम् ।।11।।”
यह अमृत ब्रह्म ही आगे है, ब्रह्म ही पीछे है, ब्रह्म ही दायीं-बायीं ओर है तथा ब्रह्म ही नीचे-ऊपर फैला हुआ है। यह सारा जगत् सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म ही है।
तात्पर्य यह कि-ब्रह्म ही अमृत है। उसको जो कोई मानता है, अमृतत्व को प्राप्त करता है। जाबालदर्शनोपनिषद् (सामवेद) का एक मंत्र है-
“ नासाग्रे शशभृद्बिम्बे विन्दुमध्ये तुरीयकम् ।
स्त्रवन्तममृतं पश्येन्नेत्रभ्यां सुसमाहितः ।।”
अर्थात् नाक के आगे चन्द्र-बिम्ब-विन्दु के मध्य में, उस तुरीय और चूते हुए अमृत को अच्छी तरह समाधिस्थ होकर आँखों से देखे।
‘नादाभिव्यक्तिरित्येतच्चिह्नं तत्सिद्धिसूचकम् ।’
अर्थ-नाद का प्रकट होना, उस ब्रह्मसिद्धि का सूचक है। कहने का भाव यह कि वह अमृत दो रूपों में है, जिसको हम आंतरिक आँख और सुरत के कान से प्राप्त कर सकते हैं।
बहुत वर्ष पहले की बात है, डॉ0 एन0एल0 मोदी साहब सपरिवार तथा डॉ0 शारदा प्रसाद सिंहजी सपरिवार, दो-तीन गाड़ियों में हमलोग पटना से राजगृह गये थे। वहीं भेंट हुई थी भिक्षु जगदीश काश्यपजी से। वे हमलोगों को अपने बासे पर ले गये। आपस में वार्तालाप हुआ। बातचीत के सिलसिले में श्रीकाश्यपजी ने अपनी निस्बत कहा, ‘उन्होंने भगवान बुद्ध की सेवा 20,000 पृष्ठों में की है।’ वास्तव में त्रिपिटक का अनुवाद उन्होंने किया था। मैंने काश्यपजी से कहा, ‘त्रिपिटक का अनुवाद करके आपने भगवान बुद्ध की सेवा तो अवश्य की है; किन्तु कुछ और भी बाकी है-
“ नत्थि झानं अपञ्ञस्स पञ्ञा नत्थि अझायतो ।
यम्हि झानञ्च पञ्ञा च स वे निब्बाण सन्ति के ।।”
उन्होंने स्वीकार करते हुए कहा, ‘हाँ, यह बात तो आप ठीक ही कहते हैं।’ डॉक्टर साहब ने पूछा, ‘बाबा ने जो कुछ कहा, सुनकर आपने स्वीकृति भी दे दी; परन्तु हमलोग तो कुछ समझ नहीं पाये कि बाबा ने क्या कहा और आपने कैसे स्वीकार कर लिया?’ ‘विद्या ददाति विनयम्।’ को चरितार्थ करते हुए बहुत ही विनीत भाव में काश्यपजी ने उत्तर दिया, ‘इन्होंने मुझसे यही बात कही कि आपने ज्ञान से तो भगवान की सेवा की है; लेकिन ध्यान से नहीं। इसलिए आप ध्यान से भी कीजिए, तब पूरी सेवा होगी।’ इतना कहकर वे चुप हो गये। तत्पश्चात् मैंने पूछा, ‘बौद्धपंथ में एकांगी और उभयांगी दो तरह की समाधियों का उल्लेख मिलता है। एकांगी समाधि में दिव्यदर्शन होते हैं, दिव्य श्रवण नहीं और उभयांगी समाधि में दिव्य दर्शन और दिव्य श्रवण दोनों होते हैं। कहिये यह क्या बात है?’ उन्होंने पूछा,‘आपने कहाँ पढ़ा?’ मैंने कहा, ‘आपने जो त्रिपिटक का अनुवाद किया है, उसी पुस्तक में।’ उन्होंने कहा, ‘स्मरण नहीं आ रहा है।’ मैंने जिज्ञासा की, ‘अच्छा, ये दोनों प्रकार की समाधियाँ क्या हैं तथा कैसे होती हैं?’ इसके उत्तर में वे मौन रहे।
वास्तविक बात यह है कि जब कोई दृष्टि साधन की साधना करते हैं, तो उनको दिव्य दर्शन होते हैं और जब कोई नादानुसंधान की क्रिया करते हैं, तो दिव्यदर्शन और दिव्यश्रवण दोनों के ज्ञाता होते हैं।
दिव्य दर्शन अंतर्ज्योति रूप में और दिव्य श्रवण अंतर्नाद रूप में होते हैं। छान्दोग्योपनिषद् में ऋषि ने कहा है-‘तदेतद्दृष्टं च श्रुतं चेत्युपासीत चक्षुष्यः श्रुतो भवति य एवं वेद य एवं वेद----।’ इस प्रकार उसे देखा और सुना भी। अतएव चक्षुस्य और श्रुत दोनों से उसकी उपासना करनी चाहिए। यह ब्रह्मज्योति रूप में और शब्दरूप में है। ज्योति आँख से गोचर होती है और शब्द कान से सुने जाते हैं। लेकिन उसके लिए यह आँख और यह कान पर्याप्त नहीं है। तब फिर उसको किस तरह प्राप्त कर सकेंगे, यह जिज्ञासा होती है। इसके उत्तर में संत कबीर साहब कहते हैं।
“ बंद कर दृष्टि को फेरि अंदर करै,
घट का पाट गुरुदेव खोलै ।”
और हमारे परम पूज्य गुरुदेव के वचन में है-
‘बाहर के पट बंद करो हो, अंतरपट खोलो भाई ।’
अर्थात् हम अपने को बहिर्मुख से अंतर्मुख करें। तभी अंतर की दिव्य ज्योति और दिव्य नाद की अनुभूति कर सकेंगे। इन्हीं दो रूपों में अमृत की चर्चा उपनिषद् में की गयी है।
वेद उपनिषद् से प्राप्त ज्ञान के बाद हम संतों से भी जानना चाहेंगे कि अमृत के संबंध में उनकी राय क्या है? सर्वप्रथम हम संत कबीर साहब से जिज्ञासा करें, वे क्या कहते हैं। संत कबीर साहब कहते हैं कि क्या बताऊँ, मैं तो चोरों के नगर में आ गया हूँ। अमृत की वर्षा तो सत्संग में होती है; किन्तु अज्ञ जन इससे अनभिज्ञ रहते हैं-
“ मैं तो आन पड़ी चोरन के नगर, सतसंग बिना जिय तरसे ।।
इस सतसंग में लाभ बहुत है, तुरत मिलावै गुरु से ।
मूरख जन कोइ सार न जानै, सतसंग में अमृत बरसे ।।”
सत्संग में अमृत की बरसा होती है। अब हम गुरु नानकदेवजी महाराज से निवेदन करना चाहेंगे कि अमृत के संदर्भ में वे अपनी कुछ अनुभूति बतलायें। गुरुग्रंथ साहब में लिखा है-
‘रामो रम रामो सुनि मनु भीजै ।
हरि हरि नामु अंम्रितु रस मीठा गुर मति सहिजै पीजै ।।’
अर्थात् प्रभु का नाम अमृत है; लेकिन उस रामनाम को तबतक जान नहीं सकते, नामामृत का पान नहीं कर सकते, जबतक हम गुरुमुख नहीं होते। अतएव हम अपने को, अपनी बुद्धि को, अपने विचारों को गुरु के आदेश और उपदेश के परिवेश में रखें और अमृत रस को चखें।
इनसे मिलती-जुलती बातें हम महायोगी गोरखनाथजी की वाणी में पाते हैं। वे कहते हैं- अंतराकाश में उलटा कुआँ है, वहाँ अमृत का वासा है। यद्यपि वह अपने निकट ही है, फिर भी समस्या यह विकट है कि जो सगुरा है, वह तो उस अमृत को भर-भरकर, छक-छक कर पीता है और जो निगुरा है, वह पिपासित जाता है।
“ गगन मंडल में औंधा कूँवाँ, तहाँ अमृत का वासा ।
सगुरा होइ सू भर भर पीया, निगुरा जाय पियासा ।।”
पुनः गुरु नानकदेवजी महाराज फरमाते हैं-
“ कासट महि जिउ है बैसंतरु मथि संजमि काढ़ि कढ़ीजै ।
राम नामु है जोति सबाई ततु गुरमति काढ़ि लईजै ।।
नउ दरवाजे नवै दर फीके रसु अंम्रितु दसवै चुईजै ।
क्रिपा क्रिपा किरपा करि पिआरे गुर शबदी हरिरसु पीजै ।।”
जिस तरह काठ में अग्नि रहती है; किन्तु प्रकट करने के लिए कुछ क्रिया करनी पड़ती है, उसी तरह वह ब्रह्मज्योति और ब्रह्मनाद-दो रूपों में सबके अंदर है; लेकिन गुरु-द्वारा प्राप्त यत्न से और ध्यान के मंथन से उसकी प्राप्ति होती है। स्वामी ब्रह्मानंदजी ने कहा है-
“ जिमि दूध के मथन से, निकसत है घीउ जतन से ।
तिमि ध्यान के लगन से, पारब्रह्म ले निहारा ।। “
संत गुलाल साहब ने अमृत को ‘अमिय’ शब्द से अभिहित किया है-
“ उलटि देखो घट में जोति पसार ।
बिनु बाजे तहँ धुनि सब होवै, विगसि कमल कचनार ।।
पैठि पताल सूर ससि बाँधौ, साधौ त्रिकुटी द्वार ।
गंग जमुन के वारपार बिच, भरतु है अमिय करार ।।”
संत गुलाल साहब उलटने की सीख देते हैं और अमृत पाने को लीक बताते हैं। कहते हैं उलटो अर्थात् बहिर्मुख से अंतर्मुख होओ। नव द्वारों से दसवें द्वार में जाओ। पुनः वे लक्ष्य स्थान बतला देते हैं, कहाँ पर है? ‘गंग जमुन के वारपार बिच।’
अविलंब हम गुरु नानकदेवजी महाराज के पास आते हैं, जिज्ञासा करते हैं-आप कहते है, अमृत पाने का यत्न गुरु बतलावेंगे और संत गुलाल साहब उलटने के लिए कहते हैं। ऐसा लगता है, जैसे उलटने से ही अमृत मिलता है। क्या यह सही है? यदि सही है तो क्या आपने भी उलटने की बात कही है? उत्तर में गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं, हाँ मैं भी उलटने के लिए कहता हूँ। देखो, सलोक महला 1 शब्द 14-
“ उलटि कमल अमृत भरिआ, इहु मन कतहुँ न जाइ ।
अजपा जाप न बीसरै आदि जुगादि समाइ ।।”
हमारा चंचल मन दसों दिशाओं में घूम रहा है। हम मन की वृत्तियों को समेटें। जब पूर्ण सिमटाव होगा, तो ऊर्ध्वगति होगी। ऊर्ध्वगति में आवरण-भेदन होता है। आवरण-भेदन में हम अंधकार से प्रकाश में जायेंगे, वहाँ ज्योति और नादरूप अमृत की अनुभूति कर पायेंगे। अब इसके बाद हम संत दरिया साहब के दरबार में दौड़कर पहुँचें और पूछें। वे अमृत के संबंध में क्या कहते हैं? इस विषय की परिपुष्टि वे इस भाँति करते हैं-
“ अमृत नीका कहै सब कोइ ।
पीये बिना अमर नहिं होइ ।।
कोइ कहै अमृत बसै पताल ।
नर्क अंत नित ग्रासै काल ।।
कोइ कहै अमृतसमुन्दर माहिं ।
बड़वानल क्यों सोखत ताहिं ।।
कोइ कहै अमृत ससि में बास ।
घटै बढै़ क्यों होइहै नास ।।”
पृथ्वी पाताल, समुद्र और शशि तक की खाक छान डाली; किन्तु कहीं भी अमृत का पता नहीं लगा। अब संत दरिया साहब स्वर्ग की ओर सरसरी निगाह से देखते हैं और पुनः कहते हैं-
“ कोइ कहै अमृत सुरगाँ माहिं ।
देव पियें क्यों खिर खिर जाहिं ।।
ये अमृत बातों की बात ।
अमृत है संतन के साथ ।।
दरिया अमृत नाम अनंत ।
जाको पीवि अमर भये संत ।।”
आप कहेंगे-वेद ने कहा, उपनिषद् ने कहा, संत ने कहा। क्या हमारे गुरु महाराज ने इस संबंध में कुछ नहीं कहा? अवश्य कहा है और बड़े ही मार्मिक ढंग से, सही स्थान का पता बता दिया है। वास्तविक अमृत क्या है, कहाँ है और मिलता कैसे है, उनकी वाणी में सुनिये-
“ सुखमन के झीना नाल से अमृत की धारा बही रही ।
मीन सूरत धार धर भाठा से सिरा चढ़ी रही ।।”
अर्थात् सुषुम्ना के सूक्ष्म नल से अमृत की धारा बह रही है; किन्तु मीनवृत्ति वाली सुरत, जो भाठे से सिरे-नीचे से ऊपर-पिंड से ब्रह्मांड में जा सकती है, वही उसको पा सकती है।
हमारे परमाराध्यदेवजी ने जिसको ‘झीना नाल’ कहा, प्रभु ईसा मसीह ने उसको ‘सकेत फाटक’ कहकर संकेत किया और कहा कि ‘सकेत फाटक से प्रवेश करो; क्योंकि चौड़ा है वह मार्ग जो मौत की ओर ले जाता है और सकेत है वह फाटक जो जीवन को पहुँचाता है।’
हमारे कुछ भाई लोग कहेंगे और कुछ बाई लोग भी कह सकती हैं, जिज्ञासा कर सकती हैं कि आपने संतों और सद्ग्रंथों की वाणियाँ तो सुनायीं; किन्तु क्या संतों में कोई माई नहीं हुईं, जिन्होने सुधा के संदर्भ में कुछ कहा हो? इसके उत्तर में मैं निवेदन करना चाहूँगा-क्यों नहीं! सहजोबाई, मीराबाई, दयाबाई आदि एक नहीं, अनेक माइयाँ हुई हैं; परन्तु समायाभाव के कारण अधिक की नहीं, मात्र एक-दो की चर्चा करना चाहूँगा।
सर्वप्रथम आप मीराबाई को ही लीजिए, जिसके परिवार वाले ने उनको मार डालने के लिए विष का प्याला पिलाया था। परिणाम क्या हुआ? वे विष पीती हैं और अमृत का फल लेती हैं। अर्थात् उनपर जहर का असर नहीं करता। मृत होने के बदले वे अमरत्व प्राप्त करती हैं। क्यों? इसलिए कि विषपान के पूर्व वे रामनामामृत पान कर चुकी थी। उनके ही श्रीमुख से निःसृत पीयूष-वाणी का पान आप अपने कर्णपुट से कीजिए-
“ मनुआँ रामनाम रस पीजै ।
तजि कुसंग सतसंग बैठ नित हरि चर्चा सुन लीजै ।।”
रामचरितमानस में गोस्वामीजी ने लिखा है कि कागभुशुण्डिजी से गरुड़जी ने कहा था-
“ राम भक्ति चिन्तामणि सुन्दर ।
बसइ गरुड़ जाके उर अन्तर ।।
परम प्रकाश रूप दिन राती ।
नहिं कछु चहिय दिया घृत बाती ।।
गरल सुधा सम अरि हित होई ।
तेहि मणि बिन सुख पाव न कोई ।।”
परम भक्तिन मीराबाईजी ने जिसको ‘राम नाम-रस’ कहा, उसी को गुरुभक्तिन सहजोबाई ने ‘हरि-रस’ कहा। साथ ही, उन्होंने यह भी बताया कि उस सुधा-रस की उपलब्धि कहाँ हुई, कैसे हुई और उसको पाकर वह किस प्रकार आठ पहर झूमती रहतीं? सहजोबाई कहती हैं-
“ भया जी हरिरस पी मतवारा ।
आठ पहर झूमत ही बीते, डारि दियो सब भारा ।।
इड़ा पिंगला ऊपर पहुँचे, सुखमन पाट उघारा ।
पीवन लगे सुधा रस जब ही, दुर्जन पड़ी बिडारा ।।
गंग जमुन बिच आसन मार्यो, चमक चमक चमकारा ।
भँवर गुफा में दृढ़ ह्वै बैठे, देख्यो अधिक उजारा ।।
चित स्थिर चंचल मन थाका, पाँचो का बल हारा ।
चरनदास किरपा सूँ सहजो, भरम करम भयो छारा ।।”
वह कहती हैं-मैंने अमृत का पान किया, झूमने लगी और आठों पहर झूमती रही। जैसे कोई नशेबाज नशा-पान कर झूमता हो। स्मरण रहे-गाँजा, भाँग, शराबादिक सांसारिक नशीली चीजों का नशा तो थोड़ी देर रहता है, फिर उतर जाता है; किन्तु वह पारमार्थिक नशा जो नाम-भजन में होता है, दिन-रात- आठो पहर रहता है। गुरु नानकदेवजी महाराज इसके कायल हैं, वे कहते हैं-
‘नाम खुमारी नानका चढ़ी रहै दिन रात ।’
यह नाम की खुमारी है। मीराबाई के पद्य में इस खुमारी की चर्चा हम पाते हैं। यथा-
“ लागी मोहे राम खुमारी रे ।
रिमझिम बरसे मेहरा भीजै तन सारी रे ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज ने बतलाया कि अमृत की वर्षा दो रूपों में अर्थात् ज्योति रूप में और शब्दरूप में होती है। जो इन दोनों रूपों में अमृत को पा लेते हैं, वे प्रभु को पा लेते हैं और दिन-रात उनके साथ आनंद करते रहते हैं-
“ रिमझिम बरसै अमृत धारा ।
मनु पीवै सुनि शबदु विचारा ।।
अनद विनोद करै दिन राती ।
सदा सदा करि हरि केला जीउ ।।”
और भी लीजिए, वे अमृत का और भी कितना स्पष्टीकरण करते हैं-
“ घर ही महि अंम्रित भरपूर है मनुखा सादु न पाइआ ।
जिउ कस्तूरी मिरगु न जाणै भ्रमदा भरम भुलाइआ ।।
अंम्रितु तजि विखु संग्रहै करतै आपि खुआइआ ।
गुरमुखि विरले सोझी पाई तिना अंदरि ब्रह्मु दिखाइआ ।।
तनु मनु सीतलु होइआ रसना हरि सादु आइआ ।
शबदे ही नाऊ ऊपजै शबद मेलि मिलाइआ ।।
बिनु शबदै सभु जगु बउराना बिरथा जनमु गवाइआ ।
अंम्रित एको शबदु है नानक गुरमुखि पाइआ ।।”
इस विषय से सभी विज्ञजन अभिज्ञ हैं कि जबतक शरीर में गर्मी रहती है और सभी नाड़ियाँ ठीक-ठीक कार्यरत रहती हैं, तबतक शरीर जीवित रहता है और इसके अभाव में शरीर मृत हो जाता है।
अतएव हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जिस दिन, जिस समय, जिस तिथि में, जिस किसी भी क्षण इन दोनों की स्थिति नहीं रहेगी, जीवन की स्थिति विलीन हो जाएगी।
प्रायः देखा जाता है कि हमारे यहाँ जब कोई बीमार हो जाते हैं, प्राण-प्रयाण की स्थिति आ जाती है, तो हम डॉक्टरों को बुलाते हैं। वे आते हैं। थर्मामीटर लगाते हैं, नाड़ी की गति और हृदय की धड़कन आदि की जाँच करते हैं। देखते हैं कि शरीर में गर्मी है, नाड़ी ठीक चल रही है, हृदय का स्पन्दन ठीक है, तो वे कहते हैं, ‘डरने की कोई बात नहीं है।’
जबतक ज्योति और नाद शरीर में है, शरीर अमर है। जिस प्रकार जागतिक समस्त कार्य हम प्रकाश और शब्द में संपादन करते हैं। उसी प्रकार पारलौकिक साधन के लिए भी प्रकाश और शब्द अत्यन्त अपेक्षित है। नाद के सहारे ही हम परमात्मा तक पहुँचकर अमरत्व को प्राप्त कर सकते हैं। ईश्वर-प्राप्ति का और दूसरा मार्ग नहीं है।
हमारे प्रातःस्मरणीय परम पूज्य गुरुदेव कहा करते थे,‘जिस प्रकार पिता अपनी संतान को दोनों हाथों से उठाकर अपनी गोद में बैठा लेते हैं, उसी प्रकार आंतरिक ज्योति और आंतरिक नाद ये दोनों मानो परम प्रभु परमात्मा के दोनों हाथ हैं। इन दोनों का सहारा जिनको मिल जाता है, वे परम प्रभु की गोद में जा विराजते हैं।’
क्या वैदिक, क्या ईसाई, क्या इस्लाम या क्या अन्यान्य धर्म, सभी में हम ज्योति और नाद की चर्चा पाते हैं। अतएव ये ही दोनों रूप हैं अमृत के। जिस धर्म में अंतर्ज्योति और अंतर्नाद की उपासना है, वह धर्म जीवित है, अमर है। उसी ज्योति और नाद की उपासना विधि-साधन विधि संत सद्गुरु बतलाते हैं।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के 77वें वार्षिक महाधिवेशन, दिनांक 5-2-1988 ई0 को मणियारपुर में हुआ था। (शान्ति-सन्दंश, मार्च 1988 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द माताओ एवं बहनो!
अभी आप पूर्ववक्ताओं से प्रवचन सुन रहे थे। उन वक्ताओं के फरमान से आपलोगों की अरमान पूरी हो गयी होगी; लेकिन फिर भी आपलोगों का ध्यान मेरे व्याख्यान सुनने की ओर है। यह आपलोगों की विशेषता है, महानता है; क्योंकि आपलोग महान हैं। मैं आपलोगों को धन्यवाद देता हूँ और बाद में संतमत का ज्ञान सुनाता हूँ। संतमत का ज्ञान क्या है? वह तो अंनतस्वरूपी सर्वेश्वर का ज्ञान होने के कारण अनंत है, गहन है, गंभीर है।
अभी आपलोगों ने रामचरितमानस का पाठ सुना। रामचरितमानस को जन साधारण ‘रामायण’ की संज्ञा से अभिहित करते हैं। वस्तुतः राम के चरित्र की रचना कर शिवजी ने अपने मानस पटल पर अटल कर रखा था, जिसको सुसमय पाकर उन्होंने पार्वती जी से कहा। यथा-
“ रचि महेश निज मानस राखा ।
पाइ सुसमय शिवा सन भाखा ।।
रामचरितमानस एहि नामा ।
सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा ।।”
रामचरितमानस अर्थात् राम के चरित्र का मानसरोवर। सरोवर में निर्मल जल भरा रहता है, कमल के फूल खिले रहते हैं, उसमें हरे भरे सुंदर-सुंदर पत्ते सुशोभित होते हैं। शतदल अपने सौरभ से आस-पास को सुरभित करते हैं। पप्र-पराग से अनुराग रखनेवाले मधुकर उसपर गुंजन करते रहते हैं। सरोवर के समीप बैठनेवालों का उन मनमोहक दृश्यों के अवलोकन से मनोरंजन होता है, तन-मन पुलकायमान हो जाता है।
रामचरितमानस में सगुण साकार राम-कथा स्वच्छ जल है। उनकी महिमा-विभूति शतदल (कमल) है और मन मधुकर है।
“ लीला सगुन जो कहहिं बखानी ।
सोइ स्वच्छता करइ मल हानी ।।”
यह उसका बहिरंग है। लेकिन उसके अंतरंग की अभिज्ञता के लिए कुछ और ढंग अपनाना होगा।
“ रघुपति महिमा अगुन अबाधा ।
बरनब सोइ बर बारि अगाधा ।।”
राम के निर्गुण स्वरूप का वर्णन जल की अगाधता है। अल्पजल से स्वल्प मल दूर होता है; किन्तु अगाध जल से मन बिल्कुल निर्मल हो जाता है।
दूसरी बात यह है कि जबतक कोई जल में जाल नहीं डालता, तबतक उसके भीतर के माल का हाल नहीं जान सकता; क्योंकि जलचर जलगर्भ में छिपे रहते हैं। वे सरलतापूर्वक देखे नहीं जाते। कवि ने रामचरितमानस के अंदर काव्य के नवरस, जप, तप, योग और विराग को जलचर बनाकर रखा है। यथा-
“ नव रस जप तप जोग बिरागा ।
ते सब जलचर चारु तड़ागा ।।”
काव्य के नवरस-शृंगार रस, करुण रस, हास्य रस, रौद्र रस, वीर रस, भयानक रस, वीभत्स रस, अद्भुत रस और शांत रस।
जप-वाचिक, उपांशु, श्वास और मानस। ईश्वर-संबंधी नाम, जिसको मुँह से जपा जाता है, जिसमें होठ हिलते और जिभ्या हिलती है, दूसरे लोग भी सुन पाते हैं, वाचिक जप कहलाता है। जिसमें सभी क्रियाएँ उपर्युक्त प्रकार से ही होती है; किन्तु उच्चारण धीमे स्वर से होता है, उसको मात्र स्वयं सुन सकते हैं, दूसरे नहीं, यह उपांशु जप कहलाता है।
तीसरे प्रकार के जप में होठ या जिभ्या में स्पंदन नहीं होता, श्वास के आने-जाने में जप के शब्द पर ध्यान रहता है, यह श्वास जप कहलाता है। मानस जप तो जपों का प्राण ही है। इसमें मन से मंत्रवृति होती रहती है। इसमें होठ-जिभ्या की अपेक्षा नहीं, उपेक्षा रहती है। उपर्युक्त जपों में क्रमशः एक दूसरे से विशेष महत्व रखता है। वाचिक जप से दश गुणा उपांशु में, सौ गुणा श्वास और सहस्त्रगुणा लाभ मानस में होता है। इससे सिद्धि भी मिलती है। यथा-‘जपात् सिद्धिः।’ काकभुशुण्डिजी पाकर वृक्ष के नीचे जाप-यज्ञ करते थे (मानस, उत्तरकांड) जप का शब्द जितना छोटा होता है, उतना ही अधिक प्रभावशाली होता है।
“ मंत्र परम लघु जासु वश, विधि हरिहर सुर सर्व ।
महामत्त गजराज कहँ, वश कर अंकुश खर्व ।।”
हमारे परम पूज्य गुरुदेवजी की वाणी में है-
‘गुरु जाप जपन साँचो तप, सकल काज सारणं।’
तप-तीन प्रकार के होते हैं। कायिक, वाचिक तथा मानसिक। श्रीमद्भगवद्गीता अ0 17 में लिखा है-
“ देवद्विजगुरु प्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शरीरं तप उच्यते ।।”
देवता, ब्राह्मण, गुरु (यहाँ ‘गुरु’ शब्द से माता, पिता, आचार्य, बुद्ध एवं अपने से जो किसी प्रकार भी बड़े हों, उन सबको समझना चाहिए।) और ज्ञानी जनों का पूजन एवं पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा, यह शरीर-संबंधी तप कहा जाता है।
“ अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् ।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाघ्मयं तप उच्यते ।।”
जो उद्वेग को न करनेवाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है (मन और इन्द्रियों द्वारा जैसे अनुभव किया हो, ठीक वैसा ही कहने का यथार्थ नाम भाषण है।) और जो वेद-शास्त्रें के पढ़ने का एवं परमेश्वर के नाम जपने का अभ्यास है, वह निःसंदेह वाणी संबंधी तप कहा जाता है।
“ मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्म विनिग्रहः ।
भाव संशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ।।16।।”
मन की प्रसन्नता और शांत भाव एवं भगवत् चिंतन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अंतःकरण की पवित्रता, ऐसे यह मन-संबंधी तप कहा जाता है। तपः किं? ‘विषय भोग परिहरई।’ विषय पंच है-रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द। आँख से रूप का, जिभ्या से रस का, नासिका से गंध का, त्वचा से स्पर्श का और कान से शब्द का ग्रहण होता है। इस प्रकार एक-एक इन्द्रिय से एक-एक विषय का भोग होता है। जिस प्रकार शीशे में पारा लगा रहने पर उसमें रूप देखा जाता है, उसी प्रकार इन्द्रियों के साथ मन का योग रहने से इन्द्रियाँ विषयों का उपभोग करती हैं। अकेला मन भी कुछ नहीं कर सकता; क्योंकि यह जड़ है। इस जड़ मन के साथ चेतन संयुक्त रहने पर ही मन इन्द्रियों को विषयों की ओर प्रेरित करता है। और आत्मसंयम सर्वव्यापी होने के कारण सर्वत्र है। चेतन में भी व्यापक है। अतएव आत्मसंयम सर्वोत्तम तप है।
योग-श्रीमद्भगवद्गीता के अष्टादश अध्यायों में अठारह प्रकार की योगों का वर्णन है। इन योगों के अतिरिक्त और प्रकार के भी योग हैं। यथा मानस योग=मानस जप और मानस ध्यान, दृष्टियोग, शब्दयोग, समत्वयोग, लययोग आदि।
‘योगःकर्मसु कौशलम्। चित्तवृत्तिनिरोधः इति योगः।’
रामचरितमानस में आया है कि काकभुशुण्डिजी आम्रवृक्ष की छाया में बैठकर मानस ध्यान करते थे। मानस जप और मानस पूजा (ध्यान) मानस योग है।
“ आम छाँह कर मानस पूजा ।
तजि हरि भजन काज नहिं दूजा ।।”
दृष्टिसाधन की क्रिया सूक्ष्म साधना है। इसको बहुत गोपनीय रखा गया है। भगवान श्रीराम ने अपनी प्रजा को उपदेश देते हुए सांकेतिक शब्दों में कहा था-
“ औरउ एक गुप्त मत, सबहिं कहउँ कर जोरि ।
शंकर भजन बिना नर, भगति न पावइ मोरि ।।”
(उत्तरकांड)
“ श्री गुर पद नख मनि गन जोती ।
सुमिरत दिब्य दृष्टि हिय होती ।।”
(बालकांड)
“ लोचन चातक जिन्ह करि राखे ।
रहहिं दरस जलधर अभिलाषे ।।
निदरहिं सरित सिन्धु सर भारी ।
रूप बिन्दु जल होहिं सुखारी ।।”
(अयोध्याकांड)
शब्दयोग की चर्चा भी रामचरितमानस में हम पाते हैं। चूँकि गोस्वामी जी महाराज संत कवि थे। इसलिए उन्होंने पाण्डित्यपूर्ण भाषा में अपनी अनुभूति कही है-
“ जाके श्रवण समुद्र समाना ।
कथा तुम्हरि सुभग सरि नाना ।।
भरहिं निरन्तर होहिं न पूरे ।
तिन्ह कहँ हिय तुम्ह कहँ गृह रूरे ।।”
इन चौपाइयों तथा दोहों से सही ज्ञान के लिए हमारे परम पूज्य गुरुदेवकृत ‘रामचरित मानस-सार सटीक’ का अध्ययन अत्यन्त अपेक्षित है।
विराग-अर्थात् वैराग्य या त्याग। गोस्वामी जी के शब्दों में हम कह सकेंगे-
“ कहिय तात सो परम विरागी ।
तृण सम सिद्धि तीन गुण त्यागी ।।”
तात्पर्य यह कि जो अष्ट सिद्धियों को तृण सम जान त्रिगुण के परे निर्गुण का अनुरागी हो, वह परम विरागी है। साथ ही, गोस्वामी तुलसीदासजी ने यह भी कहा है कि इस ‘रामचरितमानस’ को देखने के लिए यह चर्मचक्षु पर्याप्त नहीं है, इसके लिए मानस चक्षु चाहिए।
“ यहि मानस मानस चखु चाही ।
भइ कवि बुद्धि विमल अवगाही ।।”
पुस्तक-प्रणेता ने जिस दृष्टि को अपनाकर पुस्तक-प्रणयन किया है, अध्येता के लिए भी वह दृष्टि अपनाना अत्यन्त अपेक्षित है, अन्यथा उसके सही मर्म से अनभिज्ञ रहकर भ्रम पालते रहेंगे। वस्तुतः वह कौन-सी दृष्टि है? कवि का कथन है-
“ गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन ।
नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन ।।
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन ।
बरनउँ रामचरित भव मोचन ।।”
इसी तरह संतमत का ज्ञान इतना गहन-गंभीर है कि जबतक उसमें गोता न लगाया जाए, वास्तविक बात समझ में नहीं आती। एक मधुर प्रसंग सुनिये-
जब भगवान श्रीराम, लंकापति रावण का संहार कर अयोध्या आये और उनका राज्याभिषेक हुआ, तब एक दिन अपने अनुचर तथा सहचर के साथ एक जगह पर बैठे हुए थे। हनुमान, अंगद, जाम्बवान, सुग्रीव आदि भी वहाँ उपस्थित थे। भगवान श्रीराम ने मनोरंजन के लिए सबसे एक प्रश्न किया, आपलोग समुद्र के इस पार से उस पार चले गये और उस पार से इस पार भी आ गए। अब यह बतलाइये कि आपलोगों ने जो समुद्र-लंघन किया, उसकी गहराई कितनी थी? किसी को गहराई का पता नहीं था, इसलिए सबके-सब एक-दूसरे का मुँह देखते हुए मौन धारण किये रहे। भगवान श्रीराम ने कहा, ‘हनुमान! ये लोग तो एक बार गये और आये; लेकिन तुम तो पहले भी एक बार गये और आये थे, तुम्हीं बतलाओ।’ हनुमान ने कहा, ‘भगवन्! मेरा काम तो जाने और आने का तथा श्रीसीता माता जी के पता लगाने का था। बीच में क्या था, मुझे क्या पता! गहराई का पता तो मंदराचल ही बता सकता है, जिसने समुद्र का मंथन किया था।
इस भाँति शास्त्र के पन्नों को हम इस पार से उस पार तक उल्टा दें यानी उलटा-पलटा कर पढ़ लें, यह बात सहज है; किन्तु उसके भीतर क्या है, उसमें क्या राज है, यह समझना इतना आसान नहीं और समझाना तो और भी दुरूह है। दूसरी बात है, गहराई का पता वाक्य ज्ञान से नहीं लगता, इसके लिए ध्यान की अनिवार्य आवश्यकता है। भगवान बुद्ध ने कहा है-
“ नत्थि झानं अपञ्ञस्स पञ्ञा नत्थि अझायतो । यम्हि झानञ्च पञ्ञा च स वे निब्बाण सन्ति के ।।”
प्रज्ञाविहीन (पुरुष) को ध्यान नहीं होता है, और ध्यान (एकाग्रता) न करनेवाले को प्रज्ञा नहीं हो सकती। जिसमें ध्यान और प्रज्ञा (दोनों) हैं, वही निर्वाण के समीप है।
अर्थात ज्ञान के बिना ध्यान नहीं और ध्यान के बिना ज्ञान नहीं। जो ज्ञान और ध्यान दोनों रखता है, निर्वाण के समीप है। तात्पर्य यह कि ज्ञान चाहिए और ध्यान भी। इन दोनों का एक दूसरे से घनिष्ठ संबंध है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
“ जाने बिनु न होइ परतीती ।
बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ।।
प्रीति बिना नहिं भगति दृढ़ाई ।
जिमि खगेस जल के चिकनाई ।।”
पहले जानना होगा कि प्राप्तव्य क्या है तथा उसके लिए करना क्या है। इसके लिए प्रथम ज्ञान की आवश्यकता है। लेकिन इसकी परिपुष्टि तबतक नहीं हो पाती, जबतक विन्दु-ध्यान और नाद-ध्यान नहीं किया जाता। अन्यान्य बहुत-सी बातें हम कह सकते हैं; लेकिन गंभीरतम ज्ञान की बात तो कायारूपी समुद्र में गोता लगाने के पश्चात् ही कही जा सकती है। संत कबीर साहब कुछ पढ़े-लिखे नहीं थे; किन्तु साधना के बल पर वे पते की बात कहते हैं-
“ कबीर काया समुँद है, अन्त न पावै कोय ।
मिरतक होइ के जो रहै, मानिक लावै सोय ।।
मैं मरजीवा समुँद का, डुबकी मारी एक ।
मूठी लाया ज्ञान की, जामें वस्तु अनेक ।।”
यह संतमत का ज्ञान है। संतों का ज्ञान संतमत का ज्ञान है। संत किसे कहते हैं? साधु-संत सा सुन्दर वेश बना लेने, लंबा लेक्चर देने, वाक्य-ज्ञान की कुशलता दिखलाने अथवा चाटुकारिता की भाषा अपनाने से कोई संत नहीं हो जाता। घर-वार, कार-बार, रोजगार का परिहार करने से भी कोई संत नहीं होता। संतों के सद्गुणों से अपने को गुणान्वित किये बिना कोई संत नहीं कहला सकता।
जो कोई कहते हैं, ‘जिसका हम ध्यान करेंगे, उसका गुण हममें आ जायेगा।’ उनसे मेरा निवेदन है, जरा ठंढे दिल-दिमाग से सोचकर देखें, क्या यह संभव है? यदि हम एक प्रोफेसर का ध्यान करें, तो क्या हम प्रोफेसर बन जायेंगे? वकील का ध्यान करने से वकील बन जायेंगे? डॉक्टर का ध्यान करने मात्र से ही डॉक्टर बन जायेंगे? अथवा एक इंजीनियर का ध्यान करने से हम इंजीनियर बन जायेंगे? कदापि नहीं। जिस ज्ञान की हमें अपेक्षा है, उस ज्ञान से संबंधित विद्वान के पास जाना होगा। वे जैसा बतलायेंगे, उसके अनुकूल चलना होगा, अभ्यास करना होगा। करते-करते जितना करना चाहिए, उतना पूरा कर लेंगे, तब एक दिन हम उस विषय का विद्वान बन जायेंगे। आर्ट्स, कॉमर्स, साइन्स प्रभृति जिस विषय के हम प्रोफेसर बनना चाहते हैं, उस विषय के प्रोफेसर के पास जायेंगे। वे जो पाठ देंगे, हम पढ़ेंगे, सीखेंगे, याद करेंगे, उसको प्रैक्टिल में उतारेंगे, तब कहीं जाकर प्रोफेसर बन सकेंगे। डॉक्टर बनना है, तो डॉक्टर के पास जायेंगे। वे जैसा सिखलायेंगे, उसे सीखेंगे, थ्योरीटिकल के बाद प्रैक्टिकल में उतारेंगे। वर्षों अभ्यास करते-करते जहाँ तक उसकी शिक्षा है, उसको पूरी कर कहीं डॉक्टर बन सकेंगे। केवल थ्योरी से काम नहीं चलेगा। केवल थ्योरी का ज्ञान रहे और रोगी के ऑपरेशन का समय आवे, तो क्या करेंगे? किताब का पन्ना उलटना शुरू करेंगे? ऐसे डॉक्टर से ऑपरेशन कराने का परिणाम क्या होगा? ऑपरेशन के बाद कैंची पेट में ही छूट जाएगी, रोगी मरे अथवा जिये, कोई चिंता नहीं, उनको फीस चाहिए। इन्हीं सब बातों को दृष्टि में रखते हुए अध्यात्मज्ञान-प्राप्त्यर्थ भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था। देखिये गीता अध्याय 4 में लिखा है-
“ तद्विद्धि प्रणिपातेन प्ररिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।”
उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ। उनको भली भाँति दंडवत् प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म-तत्त्व को भली भाँति जाननेवाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।
अतएव हम दृढ़तापूर्वक समझ लें कि संतमत का ज्ञान केवल आख्यान देने या सुनने तक ही सीमित नहीं है। परोक्षज्ञान के पश्चात् अपरोक्ष ज्ञान के लिए ध्यान और चरित्र-निर्माण अत्यावश्यक है।
हाँ, तो मैं संत के संबंध में कह रहा था। गोस्वामी तुलसीदासजी ने उनके ये लक्षण बतलाये हैं-
“ षट विकार जित अनघ अकामा ।
अचल अकिंचन सुचि सुखधामा ।।
अमित बोध अनीह मित भोगी ।
सत्य सार कवि कोविद योगी ।।”
षट् विकार-काम, क्रोध, लोभ, मोह और मात्सर्य। जो इन षट् विकारों के शिकार नहीं होते, वे संत कहलाते हैं। इन षट् विकारों में से एक भी विकार यदि है, तो वे संत नहीं कहला सकते। अर्थात् जो काम के दाम में अपने को बँधने नहीं देते या यों समझिये, काम का दामन जिनको बाँध नहीं सकता, वे संत कहलाते हैं। क्रोध जिनको अबोध कर प्रतिशोध की भावना उत्पन्न नहीं कर सकता, उन्हीं को संत की संज्ञा दी जाती है। आपको स्मरण हो आया होगा, यदि आपने प्रभु ईसा मसीह की जीवनी पढ़ी-सुनी होगी। क्या हुआ, प्रभु ईसा मसीह को क्रॉस पर लटकाया गया। लोकदृष्टि में उनकी बड़ी दयनीय दशा थी। उनके कष्ट का पारावार नहीं था। मृत्यु के मुख में वे झोंक दिये गये थे। इसपर भी उन्होंने क्या कहा? ‘व्ए उल God ’ हे मेरे ईश्वर! जो मेरे साथ इस तरह का व्यवहार कर रहा है, वे नहीं जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं? वे अज्ञानता के कारण ऐसा कर रहे हैं। अतः हे प्रभो! उनकी अज्ञानता के कारण उनके अपराध को क्षमा करना।
दूर की बात जाने दीजिए, अपने निकट की बात लीजिए। महात्मा गाँधीजी ने कहा था, ‘जिस सत्य का आचरण करने के लिए चला हूँ, जिस सत्य को मैंने ग्रहण किया है, अगर कोई गोली के छर्रों से मेरे शरीर को छलनी बना दे और उसपर भी मेरे मन में उनके प्रति कोई विकार उत्पन्न नहीं हो और अंत समय में भगवान का नाम मेरे मुँह से उच्चारण होता रहे, तो मैं समझूँगा कि मेरा जीवन सफल है।’ क्या हुआ? अंत समय उनके शरीर को गोली के छर्रों से छलनी बना दिया गया था। किन्तु उनके मन में अपकार करनेवाले के प्रति कोई विकार उत्पन्न नहीं हुआ; बल्कि निर्विकार रूप से भगवान के नाम का उच्चारण करते हुए उन्होंने शरीर त्याग किया।
आज मरकर भी वे अमर हैं, उनका नाम अमर है। उनका वेश संत का नहीं था। गेरुआ वस्त्रधारी वे नहीं थे। दाढ़ी उनकी बढ़ी हुई नहीं थी। उनके सिर पर न तो बढ़े हुए बाल थे, न शरीर पर गैरिक लाल थे, न चंदन-चर्चित भाल था, न गले में सुंदर माल था। फिर भी बहुत बड़े महात्मा थे। वास्तव में कर्म से, आचरण से ही कोई संत-महात्मा होते हैं, वेश से नहीं। हमारे गुरुदेवजी महाराज कहा करते थे, ‘चाहे गृहस्थ-वेश में रहो अथवा साधु वेश में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जो ईश्वर-भजन करता है, सदाचार का पालन करता है, वह भक्त होता है, साधु होता है।’ आज हम अपने-अपने हृदय पर हथेली रखकर विचार करें। अपनी गिनती करा देंगे कि हम इतने वर्षों से सत्संगी हैं, पर जरा विचार करके देखिये कि इतने वर्षों से हमने क्या किया? हमारा हृदय कितना परिवर्तन हुआ? हमारे व्यवहार में कहाँ तक सुधार आया? यदि संन्यासी का भाव हममें नहीं है, तो हम संसार के भार हैं। यदि हमारे अंदर आज भी मार-पीट, खून-खराबी की भावना भरी पड़ी है, तो हम संन्यासी नहीं। ऐसे व्यक्ति का संन्यासी का वेश लेना संन्यास को कलंकित करना है, साधु-संतों के समाज को लज्जित करना है। साधु-संत तो वे कहलाते हैं-‘जिनके हृदय में लोभ क्षोभ उत्पन्न नहीं कर सकता। मोह जिनको बेसोह नहीं कर सकता। जो किसी से डाह नहीं करते, बल्कि जो उनसे डाह करते हैं, उनकी वे परवाह नहीं करते। ऐसे निरहंकारी, क्षमाव्रतधारी, पर-उपकारी, सदाचारी, ब्रह्मचारी होते हैं संत। वे झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों का परित्याग और प्रभुपद में अनुराग किये हुए होते हैं। वे अकामी होते हैं। उन्हें किसी प्रकार की कोई कामना नहीं होती।
बहुत बड़े सेठ, राजा या महाराजा होने से चाह मिट जाती है, ऐसी बात नहीं है। एक महात्माजी के व्याख्यान में मैंने यह आख्यान सुना था-
बादशाह अकबर के दरबार में एक फकीर साहब पहुँचे। उन्होंने सुन रखा था, बादशाह बड़े दानी हैं। जिस समय वे वहाँ पहुँचे, बादशाह के नमाज पढ़ने का समय था। वास्तव में जो टेकी मुसलमान होते हैं, वे निश्चित समयों पर अवश्य नमाज पढ़ते हैं। उन्होंने कबीर साहब से कहा, ‘थोड़ी देर बैठा जाए, मैं जरा नमाज गुजार लूँ, फिर आपके खिदमत में हाजिर होऊँगा। बगल में ही चादर बिछा दी और नमाज पढ़ने लगे। नमाज गुजार लेने के बाद खुदा से दुआ के लिए अरदास करने लगे, ‘या अल्लाह परवरदिगार! मुझे तन्दुरुस्ती दे, मेरी औलाद को खुदकिस्मत बना, मेरी फौज को कामयाबी दे, मेरी दौलत में बरक्कत कर आदि। इस प्रकार प्रार्थना में वे कह ही रहे थे कि फकीर साहब वहाँ से उठ कर चलते बने। नमाज पूरा कर बादशाह ने देखा कि फकीर साहब नहीं हैं, तो वे इधर-उधर देखने लगे। मालूम हुआ कि फकीर साहब दरवाजे से निकलकर बाहर होने ही वाले हैं। वे अतिशीघ्र उनके निकट पहुँचकर नम्रतापूर्वक पूछने लगे, ‘फकीर साहब मुझसे क्या खता हो गयी, जो आप नाराज होकर चल दिये? आप तो आये थे मुझसे कुछ बात करने के लिए, फिर क्या बात हो गयी?’ फकीर साहब ने कहा, ‘खता तुमसे नहीं, मुझसे हुई है। मैं तो सुनकर आया था कि तुम बड़े दानवीर हो, लेकिन यहाँ आने पर देखा कि तुम स्वयं भिखमँगे हो; किसी से माँग रहे हो। जो स्वयं किसी से माँग रहा हो, वह दूसरे को क्या देगा? जिससे तुम माँग रहे हो, उसी से मैं भी माँग लूँगा। यही सोचकर चलता बना।’ कहने का तात्पर्य यह कि उतने बड़े बादशाह होने पर भी माँग नहीं गयी। संतजन बादशाहों के भी बादशाह होते हैं, उनके अंदर किसी प्रकार की माँग नहीं रहती। वे पूर्णकाम होते हैं। इसीलिए कबीर साहब ने कहा-
“ चाह गयी चिंता मिटी, मनुवाँ बेपरवाह ।
जाको कछु न चाहिये, सोई शाहंशाह ।।”
संत जन अपने धर्म पर दृढ़ रहते हैं। उनको कोई किसी प्रकार डिगा नहीं सकता, कोई हिला नहीं सकता। गो0 तुलसीदासजी ने लिखा-‘बट विश्वास अचल निज धर्मा ।’
संत शम्स तबरेज की खाल खींच ली गयी। मंसूर को शूली पर चढ़ा दिया गया। ईसा मसीह को क्रॉस पर चढ़ाकर जान ली गयी। मीराबाई और सुकरात को जहर का प्याला पिलाया गया। आर्य-समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंदजी महाराज के प्राण लेने में क्रूरकर्मियों ने कोर-कसर नहीं रखी। संत पलटू साहब को आग में डालकर जला दिया गया। हमारे पूज्य गुरुदेव को भी दुष्टों ने जलाकर मारने की चेष्टा की थी; किन्तु सफलता नहीं मिली।
सिक्ख धर्म के दस गुरुओं की रोमांचक कहानी पढ़कर आप चकित हो जायेंगे कि अपनी कितनी कुर्बानियाँ उन संतों ने की है। संतों की बात जाने दीजिए, संत संतान को भी कोई धर्म से डिगा नहीं सका। संत जन अपरिग्रही, पवित्र और सुख-निधान होते हैं। अमित बोध अर्थात् वे ज्ञान में अगाध होते हैं। उनके ज्ञान की कोई थाह नहीं पा सकता। यह ज्ञान कहाँ से आता है? ज्ञान की दिशा आँख से ऊपर है और आँख से नीचे अज्ञान की दिशा है। इसलिए जबतक हम आँख से ऊपर रहेंगे, तबतक ज्ञान की दिशा में और आँख से नीचे रहने पर अज्ञान दशा में रहेंगे। दूसरी बात-आँख से ऊपर पवित्रता है तथा आँख से नीचे अपवित्रता है। इसलिए जैसे-जैसे हम आँख से ऊपर की ओर जाएँगे, आत्मोन्नति और पवित्रता की ओर जाएँगे तथा जैसे-जैसे हम आँख से नीचे की ओर जाते हैं, अधिकाधिक अज्ञानता और अपवित्रता की ओर जाएँगे। आँख से जितनी दूरी की चीजों को हम देख सकते हैं, कान से उतनी दूर के शब्दों को नहीं सुन सकते हैं। क्यों? इसलिए कि आँख से कान नीचे है। कान से नीचे नाक है। इसलिए कान से जितनी दूर की आवाज को हम सुन सकते हैं, नाक से उतनी दूर की गंध को हम ग्रहण नहीं कर सकते हैं। नाक से नीचे मुँह है, इसलिए नाक से जितनी दूर की गंध को हम ग्रहण कर सकते हैं, उतनी दूर पर रखी किसी चीज का रसास्वादन नहीं कर सकते। मान लीजिए, टेबुल पर एक गिलास में दूध रखा हुआ है। कोई हमसे पूछे कि बताइये, इस दूध में चीनी मिली हुई है अथवा नहीं? तो हम जबतक उस गिलास से एक बूँद दूध जीभ पर नहीं डालेंगे, तबतक बता नहीं सकते। इससे यह सिद्ध होता है कि जैसे-जैसे हम नीचे की ओर जाते हैं, वैसे-वैसे हमारी ज्ञानहीनता होती जाती है। तब हम इसपर विचार करें कि ज्यों-ज्यों हम नीचे की ओर जाते हैं, त्यों-त्यों अपवित्रता कैसे बढ़ती जाती है? मान लीजिए, कोई हमारे दोस्त हैं, मित्र हैं। वे दुःखी हैं-पीड़ित हैं, गंभीर चिंता के कारण अधीर होकर रो रहे हैं, उनकी आँखों से अजस्त्र अश्रुधारा प्रवाहित हो रही है। उन्हें हम ढाढ़स दिलाते हैं, समझाते-बुझाते हैं और अपने रुमाल से उनके आँसू पोंछते हैं। किन्तु आँख से नीचे कान है। उनके ही कान से गुज्जू निकलता है, तो हम अपने कपड़े से उसे नहीं पोंछते। कान के नीचे नाक होती है, उनके नाक से नेटा निकले तो उसको हम अपने कपड़े से नहीं पोंछते। नाक से नीचे जिभ्या का स्थान है। सामने में भोजन की सामग्री रखी हो और जिभ्या से यदि एक बूँद जल उसके ऊपर गिर जाय, तो सारी सामग्री जूठी हो जाएगी। जिभ्या से नीचे की दोनों इन्द्रियों के लिए तो कहना ही क्या! दोनों में से किसी एक इन्द्रिय से यदि एक बूँद गिर जाए, तब तो तोबा-तोबा होने लग जाएगा।
इस तरह हम देखते हैं कि आँख से नीचे के स्थान क्रमशः अपवित्रता और अज्ञानता से भरे पड़े हैं। और भी लीजिए, जाग्रत अवस्था में हम आँख में रहते हैं, तो बाह्य संसार का ज्ञान रहता है। स्वप्नावस्था में आँख से नीचे कंठ में चले जाते हैं, तो बाह्य संसार के ज्ञान से विस्मृत हो जाते हैं। उस समय हम मानसिक जगत् में विचरण करते हैं। सुषुप्ति के समय हम कंठ से नीचे हृदय में चले जाते हैं। उस समय न बाह्य संसार का ज्ञान रहता है और न मानसिक जगत् का ही; बेहोशी की अवस्था में पड़े रहते हैं। फिर हृदय से ऊपर कंठ में आने पर मनोमय जगत् का और उससे ऊपर आँख में आने पर बाह्य जगत् का ज्ञान होता है। संत जन का कथन है-यदि आँख से अपने को ऊपर उठा सको, तो पिंड को कौन कहे, ब्रह्मांड का ज्ञान हो जाएगा। ज्ञानसंकलिनी तंत्र में लिखा है-
“ ब्रह्माण्डलक्षणं सर्व्व देहमध्ये व्यवस्थितम् ।
साकारश्च विनश्यन्ति निराकारो न नश्यति ।।”
वह ज्ञान ही असल में ज्ञान है। वह ज्ञान इस जागतिक ज्ञान से बहुत विलक्षण है, अद्भुत है। संत जन आँख से ऊपर के ज्ञान में निष्णात होने के कारण समस्त पिंड-ब्रह्मांड के ज्ञान में पारंगत होते हैं। स्कूल और कॉलेज का जो नॉलेज है, वह आँख से नीचे का है। हम देखते हैं कि हमारे देश के कितने लोग विदेश की शिक्षा प्राप्त कर अपने देश लौट आते हैं। लेकिन क्या करते हैं? बोलते हैं फूस और लेते हैं घूस तथा करते हैं-अत्याचार, अनाचार, दुराचार, व्यभिचार आदि न जाने कितने-कितने कदाचार। आज देश में घूस का इतना बोलवाला हो गया है कि क्या कहना! नीचे से ऊपर प्रायः सभी जगहों में घूस घुस चुका है। घूस को संस्कृत भाषा में ‘उत्कोच’ कहते हैं। ‘उत्कोच’ अर्थात् जो ऊपर से कोंच दिया जाए। आज यही यहाँ होता है। क्या यही विद्वानों की, ज्ञानवानों की, सुशिक्षितों की और सज्जनों की परिभाषा है? यह विद्या-प्राप्त-जन की परिभाषा नहीं है।
‘सा विद्या या विमुक्तये’-विद्या वह है, जिससे मुक्ति मिलती है। जबतक हम आँख से नीचे की विद्या में रहेंगे, इसी हालत में रहेंगे।
यदि हम विद्वान बनना चाहते हैं, ज्ञानवान बनना चाहते हैं, अपने को मानवीय गुणों से सुसम्पन्न करना चाहते हैं, तो आँख से ऊपर का ज्ञान प्राप्त करें। इसका अर्थ यह नहीं हो जाता कि स्कूल-कॉलेज के ज्ञान को हम तिलांजलि दे दें। स्कूल-कॉलेज के ज्ञान के साथ-साथ अध्यात्म-ज्ञान को भी सम्मिलित कर दें तो सोने में सुगंध हो जाएगा। विवेकानंदजी महाराज मात्र बी0ए0 पढ़े हुए थे। आज भी हमारे घरों में बी0ए0 और एम0ए0 की डिग्री प्राप्त किये हुए कितनी ही बहु-बेटियाँ होंगी, लड़कों के लिए तो कहना ही क्या; किन्तु वह ओज, वह तेज, वह प्रभाव किसी में क्यों नहीं है? इसलिए कि स्वामी विवेकानंदजी महाराज को कॉलेज-शिक्षा के बाद आँख के ऊपर का भी नॉलेज था। संत कबीर साहब ने कहा है-
‘त्रिकुटी महल में विद्या सारा ।’
अमेरिका में विश्वधर्म-सम्मेलन के अवसर पर विभिन्न देशों के विद्वानों ने जब स्वामी विवेकानंदजी महाराज से प्रवचन सुना, तो उनलोगों ने दाँतों तले अंगुली दबायी और कहा-‘भ्म पे समंतदमक इमलवदक समंतदपदहण्’ अर्थात् वह विद्या से बाहर का विद्वान है। आज हमें विद्वान बनना है, ज्ञानवान बनना है तो हमें आँख से ऊपर का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। यह आँख से ऊपर का ज्ञान कैसे प्राप्त किया जाता है? विन्दु-ध्यान और नाद ध्यान के अभ्यास से। विन्दु-ध्यान का दूर-दर्शन और नाद-ध्यान से दूर-श्रवण होता है। इस प्रकार विन्दु-ध्यान और नाद-ध्यान का अभ्यास कर, उसमें कुशलता प्राप्त करनेवाले किसी भी जगह बैठकर किसी भी जगह की, किसी भी प्रकार की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। पिंड वा ब्रह्मांड, बाह्य जगत वा अंतर्जगत् की कोई भी बात उनसे छिपी नहीं रहती।
विन्दु-ध्यान की महिमा बतलाते हुए गोस्वामीजी ने लिखा है-
“ यथा सुअंजन आंजि दृग, साधक सिद्ध सुजान ।
कौतुक देखहिं सैल बन, भूतल भूरि निधान ।।”
शब्द-साधना के द्वारा प्रथम ‘शम’ की प्राप्ति होती है, फिर ‘सम’ की। फिर तो शब्द-ब्रह्म की ऐसी महिमा है कि वह पार-ब्रह्म परमात्मा तक पहुँचा देता है। यह ज्ञान हमको दूसरा कोई नहीं बतला सकता। यह ज्ञान तो हमें वे ही बतला सकते हैं, जिन्होंने संत-साधना के अनुकूल ध्यानाभ्यास किया है, सदाचार का पालन किया है और उस सत्यतत्व का साक्षात्कार किया है। पोथा-पोथी का थोथा ज्ञान अपनी वाचालता के कारण कोई भी भले ही कुछ बतला दे, यह दूसरी बात है; किन्तु उस ज्ञान से हमारा कल्याण नहीं होगा। अवश्य ही खद्योत-ज्ञान से हमारा मनोरंजन हो सकता है; किन्तु उससे तम का नाश नहीं हो सकता। वह हमारा भवदुःख भंजन का कारण नहीं हो सकता। भव-दुख-भंजक ज्ञान हेतु हमें संतों की शरण में जाना चाहिए, जो अहैतुक कृपा कर हमको परम प्रभु तक पहुँचने का सेतु बता सकते हैं। उनसे ज्ञान प्राप्त कर उनके आदेशानुकूल हमें आचरण करना चाहिए।
“ संत शरण जो पड़ा, ताहि का लगा ठिकाना ।
और कहीं नहिं कुशल सकल वैराट चबाना ।।”
‘संत’ की परिभाषा संत की भाषा में सुनिये-‘शान्ति स्थिरता वा निश्चलता को कहते हैं । शान्ति को जो प्राप्त कर लेते हैं, सन्त कहलाते हैं ।’ और भी सुनिये संत कैसे होते हैं? वे अनीह अर्थात् इच्छा-रहित होते हैं। उनको कुछ नहीं चाहिए। वे मितभोगी होते हैं। संसार में रहना है, इसलिए सीमित आवश्यकता रखते हैं उनमें किसी प्रकार का व्यसन नहीं होता; किन्तु जागतिक जीवन-यापन के लिए कुछ अशन, वसन और शयन के लिए कुछ जगह तो चाहिए ही, फिर भी सबमें वे मितभोगी होकर रहते हैं। सत्य सार=सत्य के वे सारस्वरूप होते हैं। असत्य की ओर वे जाते नहीं। कवि होते हैं। पंडित होते हैं, योगी होते हैं।
योगी किसे कहते हैं? जो योग करते हैं, योगी कहलाते हैं। योग क्या है? योग का अर्थ है मिलाप। वे जीव को पीव से मिलाते हैं। वे महाधीर योगी, विषय-रस-वियोगी, हृदय अति अरोगी और परम शांति भोगी होते हैं।
योगी-जो अपने को संजोकर, इन्द्रियों को काबू कर और मन को अपने वश कर रखते हैं। ऐसे संत होते हैं। लेकिन जिनकी इन्द्रियाँ बे-लगाम हैं, मन बे-काबू है, जिभ्या पर नियंत्रण नहीं है, हृदय पवित्र नहीं है, ऐसे वेशधारी महात्मा से अलग रहने में ही मंगल है, अन्यथा पग-पग पर डर है। संत कबीर साहब ने बहुत पूर्व से चेतावनी दे रखी है-
“ जाकी जिभ्या बन्ध नहीं, हिरदे नाहीं साँच ।
ताके संग न चालिये, घालै बटिया काँच ।।”
कब खायँ, क्या खायँ, खाने के लिए जियें अथवा जीने के लिए खायँ, उचित विचार नहीं, सत्य आचार नहीं, साँच-झूठ के बीच रेखा नहीं। ऐसे लोग क्या संत हो सकते हैं?
“ कपड़े रंग कर जो न कपट का जाल बिछावै ।
तन पर जो न विभूति, पेट के लिए लगावै ।।
हमें चाहिये सच्चा दिल वाला वह साधू ।
देश जाति जग हितकर जो निज जनम बनावै ।।”
तथा-
“ आँखों को खोल, भरम का परदा डालै ।
जी का सारा मैल कान को फूँक निकालै ।।
गुरू चाहिए हमें ठीक पारस के ऐसा ।
जो लोहे कसर मिटा सोना कर डालै ।।”
माननीय डॉ0 सम्पूर्णानन्द की भाषा में-मैं तो इस (संत) शब्द को योगी के अर्थ में ही लेता हूँ।------प्राचीन परम्परा को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि कोई व्यक्ति संत कहलाने का अधिकारी तब ही होगा, जब उसके लिए-‘भिद्यते हृदयग्रंथिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।’ यह उपनिषद्-वाक्य सार्थक हो चुका हो। इसके पहले वह कितना ही बड़ा भक्त या उपासक क्यों न हो, विद्वान, महात्मा, साधु, सज्जन या और चाहे जो कहलाये, पर संत नहीं कहला सकता।’ गुरु नानकदेवजी महाराज ने योगी की परिभाषा इस प्रकार दी है-
“ जोगु न खिंथा जोग न डंडै, जोगु न भसम चड़ाईअै ।
जोगु न मुंदी मूंड़ि मूंड़ाइअै, जोग न सिंञी वाईअै ।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै, जोग जुगति इव पाईअै ।।
गली जोगु न होई ।
एक द्रिसटि करि समसरि जाणै, जोगी कहीअै सोई ।।
जोग न बाहरि मड़ी मसाणी, जोग न ताड़ी लाईअै ।
जोगु न देसि दिसंतरि भविअै, जोग न तीरथि नाईअै ।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै, जोग जुगति इव पाईअै ।।
सतिगुरु भेटै ता सहसा तूटै, धावतु वरजि रहाईअै ।
निझरु झरै सहज धुनि लागै, घर ही परचा पाईअै ।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै, जोग जुगति इव पाईअै ।।
नानक जीवतिया मरि रहीअै, अैसा जोगु कमाईअै ।
बाजे बाझहु सिंञी बाजे, तउ निरभउ पदु पाईअै ।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै, जोग जुगति इव पाईअै ।।”
गुदड़ी पहन ली, इसलिए वह योगी है, ऐसी बात नहीं। कमंडल लेकर घूम रहा है, इसलिए वह योगी है; ऐसी बात भी नहीं। देह पर विभूति लगा ली है, लंबी दाढ़ी बढ़ा ली है, जटा बढ़ा ली है, कमर में मूँज की करधनी पहन ली है, इसलिए वह योगी है; बात भी सही नहीं। सिर के बाल मुँड़ा लेने से भी कोई योगी नहीं होता। संत कबीर साहब ने कहा-
“ मुँड़ मुँड़ाये हरि मिलै, तो सब कोइ लेय मुँड़ाय ।
बार बार के मुँड़ते, भेंड़ बैकुण्ठ न जाय ।।”
वास्तव में बाहरी वेश-भूषा से कोई साधु या संत नहीं होता। जो लोग माया में रहकर माया-रहित होकर रहते हैं, वे साधु संत कहलाते हैं।
श्रीरामकृष्ण परमहंसजी महाराज ने कहा था-‘जल में नाव रहे, कोई हानि की बात नहीं; किन्तु नाव में जल नहीं आना चाहिए, नहीं तो वह नाव को डुबो देगा। उसी तरह भक्त संसार में रहे, कोई हानि की बात नहीं है; किन्तु भक्त में सांसारिकता नहीं आनी चाहिए, नहीं तो वह उसको डुबो देगी।
“ जैसे जल महि कमलु निरालमु, मुरगाई नैसाणै ।
सुरति सबदि भवसागरु तरीअै, नानक नामु बखाणै ।।”
गुरु नानकदेव जी महाराज कहते हैं-जल में कमलवत् रहो और सुरत-शब्द की साधना भी करो। सुरत-शब्द यानी नादानुसंधान। पुनः उन्होंने कहा-
‘एक द्रिसटि करि समसरि जाणै ,
जोगी कहीअै सोई ।’
जो अपनी दृष्टिधारों को मिलाकर एक करता है, वह योगी कहलाता है, चाहे वह गृहस्थ हो अथवा विरक्त। लेकिन जबतक अपनी दृष्टिधारों को मिलाकर एक नहीं कर पाता, तबतक योगी नहीं कहला सकता। वैसे जबसे हम विद्यालय में जाना प्रारंभ करते हैं, तबसे विद्यार्थी कहलाने लगते हैं। जबतक एम0ए0 पास नहीं कर लेते, विद्यार्थी ही कहलाते हैं। जब एम0ए0 पास कर लेते हैं, तब मास्टर हो जाते हैं। एम0ए0 यानी मास्टर ऑफ आर्ट्स। उसी तरह जबसे हम योग-साधना का आरंभ करते हैं, तबसे ही योगी की संज्ञा हो, यह बात अलग है; किन्तु योग की पूर्णता में पूर्ण योगी होते हैं। फिर भी, युग दृष्टिधारों को मिलाकर एक करने की क्षमता जिनमें हो, वे योगी कहलाने के अधिकारी हो सकते हैं। संत तुलसी साहब की वाणी घट-रामायण में है। उन्होंने लिखा है-
“ तिल परमाने लगे कपाटा ।
मकर तार जहँ जीव का बाटा ।।
इतना भेद जाने जो कोई ।
तुलसीदास साध है सोई ।।”
तिल छोटा होता है और उसका रंग काला होता है। इसी प्रकार साधक को प्रथम छोटा-सा काला चिह्न दिखाई देता है। तिल का रंग उजला भी होता है। जब साधक उस काले तिल पर अपनी दृष्टि टिकाकर कुछ देर रख सकता है, तब उसे श्वेत विन्दु के दर्शन होते हैं। काले तिल को ही कपाट कहा गया है। संत वाणी में इसकी भरपूर चर्चा मिलती है-
‘गुरु मिलि ताके खुले कपाट,
बहुरि न आवै योनी बाट ।।’
‘बन्द कर दृष्टि को फेरि अंदर करै,
घट का पाट गुरुदेव खोलै ।’
(संत कबीर साहब)
‘बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ।’
(गुरु नानकदेवजी महाराज)
‘खोलि कपाट महल के दीन्हे, थिर स्थान बताया।’
(संत दादू दयाल साहबजी)
“ जानि ले जानि ले सत्त पहिचानि ले,
सुरति साँची बसै दीद दाना ।
खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै,
पलक परवीन दिव दृष्टि ताना ।।”
(संत दरिया साहब बिहारी)
हम अपने पूज्य गुरुदेव की वाणी में पाते हैं-
‘वज्र कपाट खुलै तम टूटै, ब्रह्मज्योति झलकान ।’
अन्यान्य संतों ने जिसको पाट, कपाट या वज्र कपाट कहा है, संत शिवनारायण स्वामीजी महाराज ने उसको केवाड़ और ‘ताला- कुंजी’ की संज्ञा दी है। यथा-
“ लागी है कुंजी केवाड़ी ताला ।
लखाई हंसा जाको गुरु मिला ।।”
वह कपाट तिल के समान है। तिल कहने का मतलब छोटे-से-छोटा। जो कोई उस तिल में पिल जाएँगे, वे कभी-न-कभी अवश्य ईश्वर से जाकर मिल जायेंगे। हमारे गुरुदेव इसके साक्षी हैं। वे कहते हैं-
“ स्थूल सूक्ष्म कारण महाकारण, कैवल्यहु के पार ।
सुष्मन तिल हो पिल तन भीतर, होंगे सबसे न्यार ।।
ब्रह्म-ज्योति ब्रह्म-ध्वनि को धरि-धरि, ले चेतन आधार ।
तन में पिल पाँचो तन पारा, जा पाओ प्रभु सार ।।”
यह छोटा-सा तिल क्या है? यही वज्र कपाट है। सोचकर देख लीजिए, यह कैसा वज्र कपाट है? आज भजन-भेद लिये हमें कितने दिन हो गये हैं। वह वज्र कपाट (तिल कपाट) आज तक टूटा है या नहीं? संत तुलसी साहब एक और बात कहते हैं, ‘मकर तार जहँ जीव का बाटा।’ मकर-तार यानी मकड़े का तार। यह कैसा होता है? वह बहुत पतला होता है, बारीक होता है, महीन होता है। उसी पतले तार के सहारे मकड़ा ऊपर से नीचे आता है और नीचे से ऊपर जाता है। उसी तरह यह जीवात्मा परमात्म-धाम से शब्द के सहारे इस शरीर और संसार में आया है। पुनः उसी शब्द-धार को पकड़कर वह संसार को पार करके परमात्म-धाम में पहुँचेगा। इस उपमा-उपमेय के द्वारा संत तुलसी साहब दृष्टियोग और शब्द योग-नादानुसंधान की क्रिया का संकेत करते हैं।
जबतक उस तार का पता नहीं मिलेगा, तबतक कोई भव-पार नहीं हो सकता है, चाहे वह कितना कारबार कर ले या लोक-व्यवहार सीख ले। (सद्गुरु महाराज की जय ध्वनि)
हमलोग तुलसी साहब की आरती प्रतिदिन पढ़ते हैं, जिसमें एक कड़ी यह भी आती है, ‘उलटि अलल तुलसी तन तीजै।’ यह पंक्ति भी हमें अंतर्मुख होकर उलटने की ओर इंगित करती है। संतवाणी में तो ‘अलल’ शब्द का प्रयोग हुआ है; किन्तु वेद में ‘अलज’ शब्द आया है।
अलल एक पक्षी होता है। वह घोंसला नहीं बनाता, आकाश में ही रहता है। वहाँ-आकाश में ही नर-मादा का संयोग होता है। वहाँ से ही वह अंडा देती है। वह अंडा जैसे-जैसे नीचे की ओर आता है, वैसे-वैसे शनैः शनैः वह पुष्ट होता जाता है। और भी नीचे आने पर पूरा पुष्ट होकर अंडा फूट जाता है। उसमें से बच्चा निकलता है। नीचे आते-आते उसके डैने भी निकल आते हैं। और नीचे आने पर आँखें खुलती हैं, तो वह समझता है कि यहाँ उसका घर नहीं है। वहाँ से ही वह उलटकर अपने स्थान-आकाश में पहुँच जाता है। उसी तरह यह जीवात्मा जो परम प्रभु परमात्मा का अभिन्न अंश है, परम धाम के शब्द के आधार पर पिंड में आया हुआ है। अब वह उसी शब्द धार को पकड़े और उसी के सहारे जाते-जाते सर्वेश्वर सर्वाधार परम प्रभु परमात्मा से मिल जाए। किन्तु यह मिलन होगा कैसे? इसके लिए संत सद्गुरु की आवश्यकता पड़ती है। किसी शायर ने कहा है-
“ जो बात दया से ना होती, वह बात दुआ से होती है ।
मिल जाते जब पूरे मुर्शिद, तो बात खुदा से होती है ।।”
हमारी बात खुदा से क्यों नहीं होती है? इसलिए कि हम खुदा से जुदा हो गये हैं। यह जीव पीव से अलग हो गया है। अब यह जीव पीव से कैसे मिले, इसी का यत्न सद्गुरु बतलाते हैं।
यह रूह खुदा से अलग हो गयी है। यह रूह खुदा अर्थात् परमात्मा से कैसे मिले, इसी का यत्न संत सद्गुरु बतलाते हैं। सबसे पहले तो सवाल यह है कि आखिर यह खुदा से जुदा हुई तो कैसे? दोनों को पृथक-पृथक करनेवाला कौन है? इसके जवाब में शायर कहते हैं-
“ खुदा जुदा की एक सूरत नुकता भेद बताता है ।
नुकता ऊपर नुकता नीचे नुकता आता जाता है ।।
नुकते के हेर फेर से तुमसे जुदा हुआ ।
नुकता जो धरा सर पर खुद ही खुदा हुआ ।।”
नुकता अर्थात् विन्दु। फारसी भाषा में ‘जिम’ और ‘खे’ का रूप करीब-करीब एक-सा होता है। अंतर इतना ही है-‘जिम’ के पेट में विन्दु (नुक्ता) रहता है और ‘खे’ के ऊपर। इसी नुक्ते के नीचे रहने से जुदा और ऊपर रहने से खुदा शब्द बनता है। इसी तरह जबतक हमारी वृत्ति नीचे है, तब हम जुदा हैं और जब हमारी वृत्ति ऊपर उठ जाएगी, जिससे ऊपर उठा नहीं जा सकता, तब हम खुद ही खुदा हो जाएँगे। लेकिन कब? इसका उत्तर शायर देता है, ‘मिल जाते जब पूरे मुर्शिद।’ अर्थात् जब पूरे गुरु मिल जाते हैं।
संत तुलसी साहब कहते हैं-
“ मुर्शिदे कामिल से मिल, सिदक और सबूरी से तकी ।
जो तुझे देगा फहम, शहरग के पाने के लिए ।।”
शहरग अर्थात् सुषुम्ना। ध्यानाभ्यास करते- करते जिसका सुषुम्ना-मार्ग उन्मुक्त हो जाता है, उसका अंदर का कान खुल जाता है और उसे आवाजेगैब सुनायी पड़ती है, जिसके सहारे क्रमशः आगे बढ़ते-बढ़ते वह अल्लाह ताला को पा लेता है।
संत तुलसी साहब कहते हैं-
“ गोश बातिन हो कुशादा, जो करे कुछ दिन अमल ।
ला इलाह अल्लाह हो, अकबर पै जाने के लिए ।।”
फकीर का फरमान है, अगर अल्लाह से मिलना चाहते हो, तो पहले ‘नुक्ता’ को पकड़ो यानी विन्दु को धारण करो। जो कोई विन्दु को धारण करता है, वही एक दिन भवसिन्धु को पार कर जाता है। जो कोई आंतरिक साधना सारधार-चेतनधार को धारण करता है, वही भव पार होता है और सर्वाधार परमात्मा को पाता है। इसलिए संतमत की साधना में विन्दु और नाद की उपासना बतायी जाती है।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के 77वें वार्षिक
महाधिवेशन, दिनांक 6-2-1988 ई0 को मणियारपुर, बाँका में प्रातःकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्दंश, अगस्त+सितम्बर 1988 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द माताओ एव बहनो!
यदि आप अस्पतालों में लोगों की अधिक भीड़ देखें, तो यह समझें कि उस क्षेत्र के लोगों के शारीरिक स्वास्थ्य का पतन हो चुका है। यदि आप कचहरियों में लोगों की अधिक भीड़ देखें तो यह समझ लें कि उसे क्षेत्र के लोगों को नैतिक पतन हो चुका है। यदि आप सिनेमाघरों में लोगों की खचाखच भीड़ देखें, तो यह समझ लें कि उस क्षेत्र का चारित्रिक पतन हो चुका है। किन्तु यदि सत्संग के नाम पर इस प्रकार उमड़ती हुई लाखों की भीड़-जैसा कि आप देख रहे हैं, देखें तो यह समझ लें कि उस क्षेत्र के लोगों की आध्यात्मिक उन्नति हो रही है। (श्रोतागण की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय का नारा)
आपलोगों की इस महती उपस्थिति को देखकर मेरे मन में अत्यधिक प्रसन्नता होती है और आपलोगों को धन्यवाद दिये बिना मन मानता नहीं है। इसलिए आपलोगों को अनेकानेक धन्यवाद देता हूँ। हमारे प्रातः स्मरणीय परमपूज्य अनंत श्रीविभूषित श्रीसद्गुरु महाराज जी कहा करते थे-जिस देश का आध्यात्मिक स्तर उत्तम और ऊँचा होगा, उस देश के लोग सदाचारी होंगे। जिस देश के लोग सदाचारी होंगे, वहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी। और जहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी, वहाँ की राजनीति बुरी नहीं हो सकती।’ आपलोग जो इस सत्संग के आयोजन में यत्र-तत्र से यहाँ एकत्र हुए हैं, इसमें उसी आध्यात्मिकता की प्राथमिकता है। जहाँ आध्यात्मिक ज्ञान बढ़ेगा, वहाँ सबका कल्याण होगा, यह सुनिश्चित है। लेकिन यह ज्ञान बड़ा ही रूखा-फीका होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
“ साधु चरित सुभ सरिस कपासू ।
निरस बिसद गुन मय फल जासू ।।”
साधु संतों का चरित कपास की भाँति नीरस होता है। उसमें आपको जरा-सा भी रस नहीं मिलेगा। किन्तु नीरस होने पर भी वह विशद फल-प्रद होता है। वह हमारी प्रतिष्ठा की रक्षा करता है। उसके लिए वह अपने को धुनाकर चूर-चूर करता है। आपने देखा होगा, उसके शरीर को जर्जर कर देने के बाद उसके जर्रे-जर्रे को बटोरकर पूनी बनाते हैं। उसके बाद उसको चरखे पर चढ़ाकर पतला तार-सा बनाया जाता है। पुनः करघे पर चढ़ाकर उसके एक-एक तार को ठोका जाता है। ठोकने के बाद उसको कसा जाता है। ऐसा कसा जाता है कि वह वस्त्र बन जाता है, जिसे धारण करने पर हमलोगों का जरा-सा भी अंग देखने में नहीं आता। इस प्रकार अनेक प्रकार के कष्टों को सहकर वह हमलोगों की जाड़े, गर्मी तथा बरसात से रक्षा करता है। इसी प्रकार संत जन अनेक प्रकार के कष्टों को सहकर जागतिक जीवों का कल्याण करते हैं। त्रितापों-दैहिक, दैविक तथा भौतिक तापों से हमें त्रण दिलाते हैं। उनकी वाणी रूई की तरह नीरस होती है। सरस बात, जिससे मनोरंजन हो तो सुनने के लिए बहुतेरे लोग होते हैं; लेकिन रसहीन वचन, जिससे आत्मकल्याण हो, जो भवदुःख भंजन का कारण हो, सुनने के लिए बहुत कम लोग चाहते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
“ प्रिय बानी जे कहहिं जे सुनहीं ।
ऐसे नर निकाय जग अहहीं ।।
वचन परम हित सुनत कठोरे ।
कहहिं जे सुनहिं ते नर प्रभु थोरे ।।”
मीठी-मीठी बातें बहुत अच्छी लगती है और ऐसा कहने और सुननेवालों की संख्या बहुत अधिक होती है। जो मीठी-मीठी मनोहर कहानियों में उलझे रहते हैं और जीवनोपयोगी सच्ची और कड़वी बातें सुनना नहीं चाहते- इसका परिणाम क्या होता है? सुनिये, संत दरिया साहब कहते हैं-
“ मीठे राचे लोग सब, मीठे उपजै रोग ।
कडुआ लागै नीम सा, दरिया दुर्लभ जोग ।।”
यह ज्ञान, ध्यान और योग की जो बातें होती हैं, बड़ी कड़वी मालूम होती है। विचारणीय है-जब किसी को मलेरिया बुखार होता है, उसमें कड़वी दवाई-कुनैन पिलायी जाती है। वहाँ कड़वी दवाई ही काम आती है। उसी तरह भवरोग-ग्रसित हम निरीह प्राणियों के रोग-निवाराणार्थ कड़वी दवाई ही चाहिए। मीठी दवाई से काम नहीं चलेगा। संतों ने देखा कि कड़वी दवाई सब लोग लेना पसंद नहीं करेंगे, तो उन्होंने क्या किया?
जैसे ऐलोपैथिक औषधि बनानेवाले आजकल क्या करते हैं-कड़वी दवाई को या तो कैप्सुल में भर देते हैं अथवा उसके ऊपर सुगर कोटेड कर देते हैं, उसी तरह संत लोग भीतर में ज्ञान और योग को रखते हैं तथा ऊपर से भक्ति का मिठास देते हैं। भीतर में तो ज्ञान और योग है; लेकिन ऊपर में भक्ति का मिठास है। इसलिए कहते हैं भक्तियोग। वास्तव में ज्ञान, भक्ति और योग; इन तीनों की आवश्यकता है। संतमत इसी ज्ञान-योग-युक्त ईश्वर-भक्ति का प्रचार करता है। यदि कहा जाए कि ईश्वर-भक्ति की क्या आवश्यकता है? तो उत्तर में निवेदन है कि बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता। अभी आपलोग सुन रहे थे कि प्राणिमात्र सुख की कामना करते हैं। प्रश्न होता है सुख चाहिए, क्यों? हमें पीने के लिए पानी चाहिए, क्यों? इसलिए कि गर्मी से विकल हैं। हमें गर्मी चाहिए, क्यों? इसलिए कि हम ठंढ से व्याकुल हैं। वास्तविक बात तो यह है कि जिसकी आवश्यकता होती है, उसी की पूर्ति के लिए कुछ उपाय होता है, कोई काम होता है। इसी प्रकार हम जो सुख चाहते हैं, इसकी आवश्यकता क्या है? उत्तर होता है-इसलिए कि हम दुःख में हैं। अगर हम दुःख में नहीं हों, तो सुख चाहने का कोई प्रश्न ही नहीं है।
यदि कोई कहे कि हमारे घर बाल-बच्चों से भरे हैं, काफी जमीन-जायदाद है, उत्तम कारबार है। अच्छा रोजगार है, ऊँचे पद पर हम प्रतिष्ठित हैं, हम दुःखी कहाँ हैं; लेकिन जरा अपने हृदय को टटोलकर हम देखें। क्या हम पद-प्रतिष्ठा, पैसे और पुत्र-परिवार से पूर्णरूपेण संतुष्ट हैं? क्या अब प्राप्त पद से ऊँचे पद, प्राप्त प्रतिष्ठा से ऊँची प्रतिष्ठा प्राप्त पैसे से अधिक अथवा प्राप्त पुत्र-परिवार से अधिक पुत्र-परिवार की चाहना नहीं है? क्या अब किसी प्रकार की वासना और कामना नहीं रही है? संतवाणी झूठी नहीं होती। संत सुंदरदासजी महाराज ने कहा है-
“ जो दस बीस पचास भये सत ,
होइ हजार तु लाख मँगैगी ।
कोटि अरब्ब खरब्ब असंख्य ,
पृथ्वीपति होन की चाह जगैगी ।।
स्वर्ग पताल को राज कराैं ,
तृस्ना अधिकी अति आग लगैगी ।
सुन्दर एक संतोष बिना सठ ,
तेरी तो भूख कभी न भगैगी ।।”
यह आग कहाँ बुझेगी, कामाग्नि का अंत कहाँ होगा? गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज के शब्दों में सुनिये-
“ बिनु संतोष न काम नसाहीं ।
काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं ।।
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा ।
थल विहीन तरु कबहुँ कि जामा ।।”
मान लिया, सारी चीजें आपके पास है; किन्तु क्या आपकी किसी प्रकार की कोई कामना नहीं है? क्या आपकी कामना नष्ट हो गयी? क्या कोई चाहना नहीं, कोई इच्छा नहीं है? यह संभव नहीं कि आपको किसी प्रकार की कामना-चाहना नहीं हो। जबतक किसी प्रकार की चाहना है, जबतक किसी प्रकार की कामना है, जबतक किसी प्रकार की अभिलाषा है, तबतक आप सुखी कहाँ? इन कामनाओं को नष्ट करनेवाला, विनष्ट करनेवाला क्या है?
गोस्वामीजी कहते हैं, जैसे बिना मिट्टी के वृक्ष नहीं जमता, उसी तरह जबतक ईश्वर-भजन नहीं करो, तबतक स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता। इसलिए आवश्यकता है ईश्वर-भक्ति की। इसका अर्थ यह नहीं हो जाता कि आप जिस किसी को ही ईश्वर मान लें और उसकी भक्ति शुरू कर दें। ऐसा करने से तो उसका वैसा ही फल होगा, जैसे किसी ने पीतल के चमकते हुए सिक्के को सोने का सिक्का मान लिया हो। मौका पड़ने पर जब वह उसको बाजार में बेचना चाहेगा, तो कीमत किसकी मिलेगी-सोने की वा पीतल की? उत्तर मिलेगा-पीतल की, सोने की नहीं। इसलिए ईश्वर के स्वरूप को संतों और सद्ग्रंथों से पहले समझिये, उसके बाद उसकी भक्ति कीजिए।
विश्व का सबसे प्राचीन ग्रंथ है ऋग्वेद, उसमें एक मंत्र आया है-
‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति।’
वह प्रभु एक है; लेकिन विद्वज्जन उसे बहुत-से नामों से अभिहित करते हैं। ईसाई उसे गॉड या स्वर्गस्थ पिता कहते हैं। मुसलमान उसे अल्लाह या खुदा कहते हैं। (यह ‘खुदा’ शब्द हमलोगों के संस्कृत शब्द ‘स्वयंभू’ का पर्याय है।) पारसी उसे अहुरमज्द कहते हैं। चीनी उसे तितीन कहते हैं। यहुदी उसे जेहोवा कहते हैं और वैदिक धर्मावलंबी उसे ब्रह्म, परमात्मा या ईश्वर कहते हैं। कोई उसे स्त्री रूप में पूजते हैं, कोई उसे पुरुष रूप में पूजते हैं। वास्तव में वह न स्त्री है और न पुरुष ही। कोई उसे सगुण रूप में पूजते हैं, कोई निर्गुण रूप में। यथार्थ में वह सगुण-निर्गुण से परे है, सभी नाम-रूपों से परे है। परम पूज्य गुरुदेव की वाणी में हमलोग नित्य पाठ करते हैं-
“ सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर, औरु अक्षर पार में ।
निर्गुण सगुण के पार में, सत् असत् हू के पार में ।।
सब नाम रूप के पार में, मन बुद्धि वच के पार में ।
गो गुण विषय पँच पार में, गति भाँति के हू पार में ।।”
और भी-‘जो परम तत्त्व आदि-अन्त-रहित, असीम, अजन्मा, अगोचर, सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे है, उसे ही सर्वेश्वर-सर्वाधार मानना चाहिए।’ परमतत्त्व! वह परमतत्त्व क्या है? पाँच तत्वों का हमारा शरीर है। इन पाँच तत्त्वों में से कोई भी परमतत्त्व नहीं है। जो सर्वोच्च, सर्वश्रेष्ठ तत्त्व है, वह परमतत्त्व है। वह क्या है? संत सुंदरदासजी महाराज ने इसकी बड़ी अच्छी व्याख्या की है-
“ भूमि पर अप आपहू के, परे पावक है ।
पावक के परे पुनि, वायुहू बहत है ।।
वायु के परे व्योम, व्योमहू के परे इन्द्री दश ।
इन्द्रिन के परे अन्तःकरण रहत है ।।
अन्तःकरण पर, तीनों गुण अहंकार ।
अहंकार पर, महतत्त्व कूँ लहत है ।।
महतत्त्व पर मूल माया, माया पर ब्रह्म ।
ताहितें परातपर, सुन्दर कहत है ।।”
वह जो परात्पर है, वही परमतत्त्व है। वह परमतत्त्व कैसा है? आदि-अंत-रहित है। जो सबसे पहले का होता है, वह सूक्ष्म होता है। और जो उसके बाद का होता है, वह उसकी अपेक्षा स्थूल होता है। इसलिए पहले वाला तत्त्व उसके पीछे वाले तत्त्व में स्वाभाविक ही व्यापक होकर अपना मंडल ऊपर रखता है। थोड़ा-सा मस्तिष्क का व्यायाम करना पड़ेगा। सामान्य जन इन पाँच तत्त्वों को जानते हैं-क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर। इन पाँच तत्त्वों में से सबसे पहला तत्व आप क्या मानेंगे? आकाश। क्यों? इसलिए कि बिना आकाश के यानी अवकाश के कोई चीज रह ही कहाँ सकती है? इसलिए इन पाँच तत्त्वों में सबसे पहले का तत्त्व आकाश माना गया है। वह अपने से पीछे के चार तत्त्वों में व्यापक रहकर अपना मंडल ऊपर रखता है। इसको समझने में यदि कठिनाई हो, तो इसकी सत्यता की प्रत्यक्षता के लिए आप ऐसा करके देखिये। थोड़ी-सी मिट्टी को पानी में घोलकर एक काँच के गिलास में रख दीजिए। कुछ घंटों के बाद आप देखेंगे कि मिट्टी का अंश नीचे में जमा हुआ है और उसके ऊपर में पानी है। इसका अर्थ यह नहीं कि मिट्टी में पानी नहीं है। मिट्टी में व्यापक होकर भी उसके ऊपर पानी है। चूँकि मिट्टी से पूर्व का जल तत्त्व है, इसलिए वह मिट्टी में व्यापक होकर अपना मंडल ऊपर रखता है। इसी प्रकार परम प्रभु परमात्मा सबसे पहले का होने के कारण सबसे व्यापक होकर सबसे ऊपर है। इस दृष्टि से वह कहाँ होगा और कहाँ नहीं? हमारे पूज्य अनंत श्रीविभूषित श्रीसद्गुरुदेव जी महाराज कहते हैं-
“ प्रभुजी व्यापक जनु गगन रहाहीं ।”
गगन को यानी आकाश को कहीं से हटा नहीं सकते हैं। वह सर्वत्र ओत-प्रोत है। उसी तरह वह ईश्वर सर्वत्र है। ऐसी कोई जगह नहीं, जहाँ वह नहीं हो। गोस्वामीजी की भाषा में-‘कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं।’
जो प्रभु सर्वत्र हैं, वह क्या हमारे अंदर में नहीं हैं? अवश्य हैं। जब हमारे अंदर हमारे प्रभु हैं, तो उनकी भक्ति के लिए, उनकी खोज के लिए, उनको पाने के लिए बाहर जाने की जरूरत क्या है? अर्थात् अपने अंदर चलें। आंतरिक भक्ति करें। इसके बिना शाश्वत सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती। गो0 तुलसीदासजी महाराज ने बड़ी खरी, किन्तु खोटी नहीं, चोटी की बात कही है-
“ सिव अज सुक सनकादिक नारद ।
जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद ।।
सब कर मत खगनायक एहा ।
करिअ राम पद पंकज नेहा ।।
श्रुति पुरान सब ग्रन्थ कहाहीं ।
रघुपति भगति बिना सुख नाहीं ।।”
और भी लीजिए, वे चुनौती देते हुए कहते हैं-
“ कमठ पीठ जामहिं बरु बारा ।
बन्ध्या सुत बरु काहुहि मारा ।।
फूलहिं नभ बरु बहु बिधि फूला ।
जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला ।।”
तुम सुख चाह रहे हो न, सुनो! जैसे कछुए की पीठ पर बाल जम जाए, बन्ध्या का सुत किसी को मार डाले, मिट्टी में खिलनेवाले सभी फूल आकाश में खिलने लग जाएँ यानी ये अनहोनी बातें हो जाएँ; लेकिन बिना ईश्वर के भक्ति किये सुख नहीं मिल सकता। पुनः वे कहते हैं-
“ तृषा जाइ बरु मृगजल पाना ।
बरु जामहिं सस सीस बिषाना ।।
हिम ते प्रगट अनल बरु होई ।
बिमुख राम सुख पाव न कोई ।।”
मृग तृष्णा के जल से प्यास बुझ जाए, खरहे के सिर पर सींग जम जाए; लेकिन ईश्वर की भक्ति जबतक कोई नहीं करेगा, तबतक जैसा सुख वह खोज रहा है, नहीं मिलेगा। कहते-कहते गोस्वामीजी ने यह भी कह दिया-
“ अन्धकार बरु रबिहि नसावै ।
राम बिमुख न जीव सुख पावै ।।”
सज्जनो! यह हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि सूर्योदय होने से रात्रि का अंधकार समाप्त हो जाता है। गोस्वामीजी कहते हैं, यदि कोई कहे, इतना बड़ा अंधकार आया कि उसने सूर्य का ही नाश कर दिया, तो यह नहीं मानने योग्य बात मान ली जा सकती है; लेकिन यदि कोई कहे कि बिना ईश्वर की भक्ति किये किसी ने सुख पाया है, शाश्वत सुख पाया है, तो यह माननेयोग्य बात नहीं है। एक बड़ी मधुर छोटी-सी कथा है। कहते हैं-
एक बार अंधकार भगवान के पास गया और भगवान से उसने प्रार्थना की, ‘भगवन्! अपना दुःख क्या बतलाऊँ? देखते हैं उस सूर्य को, वह मेरा जानी दुश्मन है। कहीं मुझे टिकने नहीं देता है। जहाँ कहीं जाता हूँ, वहाँ मेरा वह पीछा करता है। क्या कहूँ-अपने देश में तो लुकता-छिपता हूँ ही, विदेश जाने पर भी मेरा पिंड नहीं छोड़ता। वहाँ भी पीछा करता है। वहाँ से भागकर मैं अपने देश वापस आता हूँ, तो थोड़ी देर के बाद उसको यहाँ उपस्थित पाता हूँ। भगवन्! मैं परेशान हूँ, मेरा कल्याण नहीं है। अंत में अब आपकी शरण में आया हूँ। आप कृपा करके सूर्य को बुलाकर समझा देने की कृपा करें।’ भगवान ने कहा, ‘यदि ऐसी बात है, तो मैं सूर्य को बुलाता हूँ।’ भगवान ने सूर्य को बुलवाया और कहा, ‘सुना है तुमने अंधकार के साथ दुश्मनी ठान ली है, तुम उसका पीछा करते हो, उसको चैन नहीं लेने देते हो, क्या बात है? सही-सही बतलाओ।’ सूर्य ने हाथ जोड़कर कहा, ‘भगवन्! आज पहला दिन है, जो श्रीमान् के श्रीमुख से सुनने को मिला है कि अंधकार भी कोई चीज है। भगवन्! आज तक मुझे कभी भी अंधकार से भेंट नहीं है। मैं उसे कष्ट पहुँचाऊँ तो कैसे? दुश्मनी ठानूँ तो कैसे? यदि आपको मेरी बात पर विश्वास नहीं है, तो आप अंधकार को मेरे सामने बुलवायें, मैं हाथ जोड़कर क्षमा-याचना कर लूँगा। आज तक अंधकार सूर्य के सामने आता ही है और सूर्य उससे माफी माँगता ही है। कहने का तात्पर्य यह कि जैसे दिनकर के प्रकाश से तम का विनाश होता है, उसी प्रकार ईश्वर-भक्ति से दुःख का नाश होगा और सुख की प्राप्ति होगी।
“ बारि मथें घृत होइ बरु, सिकता ते बरु तेल ।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ, यह सिद्धान्त अपेल ।।”
इसलिए ईश्वर के स्वरूप को जानकर उनकी सही भक्ति करो। यही संतों का संदेश है।
सामान्यतया लोग मोटी-मोटी भक्ति को ही ईश्वर की सर्वांगपूर्ण भक्ति समझते हैं। वे देव-विग्रह के समक्ष धूप, दीप, चंदन, नैवेद्य आदि अर्पण करके आरती उतार लेते हैं और समझते हैं कि भक्ति पूरी हो गयी। लेकिन बात ऐसी नहीं है। यह तो बच्चों के वर्णमाला सीखने जैसी बात है। भक्ति के संबंध में संत कबीर साहब ने कहा है-
“ भक्ति प्राण ते होत है, मन दे कीजै भाव ।
परमारथ परतीत में, यह तन जाव तो जाव ।।”
गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
“ तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवन्त ।
मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप्य अनंत ।।”
और संत सुंदरदासजी महाराज की वाणी में हम पढ़ते हैं-
“ श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै ।
रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तारै ।।
नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै ।
अंग बिना मिलि संग, बहुत आनन्द बढ़ावै ।।
बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिये रहै ।
मिलि परमातम सों आतमा, परा भक्ति सुन्दर कहै ।।”
हमारे प्रातःस्मरणीय परम पूज्य श्रीगुरुदेव जी महाराजी की वाणी में है-
“ क्षेत्र क्षर अक्षर के पार में, परमालौकिक जेह ।
मेँहीँ अन्तर वृत्ति करिके, भजहु निशि दिन तेह ।।
युग दृष्टि की एक तीक्ष्ण नोक से, चीरि तेजस विन्दु ।
सुनो अन्दर नाद ही, लखो सूर्य तारे इन्दु ।।
विहंग मीनी चाल चलि ज्यों, सरित सों सरित समाहि ।
त्यों नाद सों नादों में चलि, प्रभु पास भक्तन जाहि ।।
सन्तों का मेँहीँ मार्ग यह, ‘मेँहीँ’ सुनो दे कान ।
यहि परा भक्ति प्रसिद्ध मार्गहि, धरु हिय धरि ध्यान ।।”
यह पराभक्ति है, सर्वोत्कृष्ट भक्ति है। लेकिन भक्ति का आरंभ पराभक्ति से नहीं होता, वह तो अपरा भक्ति से होता है। जैसे जबतक कोई मोटे-मोटे अक्षरों को नहीं लिख लेता, तबतक महीन लिखने की योग्यता नहीं होती। जबतक सरलाक्षर नहीं सीख लेता, तबतक संयुक्ताक्षर लिखने की क्षमता उसमें नहीं आती। इसीलिए आवश्यकता है पहले मोटी भक्ति की। मोटी भक्ति के लिए कहा गया है कि पहले जप करो। लेकिन वह जप कैसा हो? जिसमें जप हो और जापक हो, उसके बीच में और कुछ नहीं हो। संत दूलनदासजी महाराज इसकी सही विधि इस प्रकार बतलाते हैं-
“ कोइ बिरला यहि विधि नाम कहै ।।
मंत्र अमोल नाम दुइ अच्छर, बिनु रसना रट लागि रहै ।।
होठ न डोलै जीभ न बोलै, सुरति धरनी दिढ़ाइ गहै ।।
दिन और राति रहै सुधि लागी, यहि माला यहि सुमिरन है ।।
जन दूलन सतगुरन बतायो, ताकी नाव पार निबहै ।।”
सुमिरण किस तरह करो तथा इससे क्या लाभ होता है? संत कबीर साहब ने कहा है-
“ सुमिरन से सुख होत है, सुमिरन से दुख जाय ।
कह कबीर सुमिरन किये, साईं माहिं समाय ।।
सुमिरन सुरत लगाइके, मुख ते कछू न बोल ।
बाहर का पट देइ कर, अन्तर का पट खोल ।।”
पुनः कबीर साहब कहते हैं-
“ भक्ति सब कोई करै, भरमना ना टरै ।
भक्ति जंजाल दुख द्वन्द्व भारी ।।”
लोग भक्ति करते हैं; लेकिन भ्रम मिटता नहीं। क्यों? इसलिए कि असली भक्ति जानते नहीं। शास्त्र में आया है-
“ पूजा कोटि समं स्तोत्रं, स्तोत्र कोटि समं जपः ।
जाप कोटि समं ध्यानं, कोटि समो लयः ।।”
यह सीढ़ी है। जैसे बाल वर्ग से विद्यालय में पढ़ने का प्रारंभ करते हैं। फिर प्रथम वर्ग, द्वितीय वर्ग, तृतीय वर्ग, चतुर्थ वर्ग पास करते हुए अपर पास करते हैं। पश्चात् मिड्ल, मैट्रिक पास करते हैं। तत्पश्चात् आई0ए0, बी0ए0, एम0ए0 पास करते हैं। जिस तरह विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय में पाठड्ढक्रम है, उसी तरह साधना के भी क्रम हैं। पूजा से स्तुति, स्तुति से जप, जप से ध्यान और ध्यान से लय विशेष है। पूजा में पूजा की विविध सामग्रियों में मन बिखरा रहता है। पूजा की अपेक्षा स्तुति में विशेष सिमटाव होता है; क्योंकि पूजा में पूजन की विविध साम्रगियों में मन बँटा रहता है। इसमें मन की स्थिरता नहीं होती, चंचलता रहती है। मन में चंचलता रहने पर भी पूजा की ओर मन लगा हुआ है, इष्टमूर्ति की ओर मन लगा हुआ है, भगवद्विग्रह की ओर मन लगा है। इसलिए अन्यान्य चिंतन की अपेक्षा इष्ट-विग्रह का पूजन अच्छा तो है ही।
स्तुति में बाह्य उपकरण की आवश्यकता नहीं होती। इस हेतु एकाग्रता में सरलता होती है और अपनी सुविधा के अनुकूल जहाँ भी कर सकते हैं। एक सत्संगी हैं बाबू रामप्रताप जी अग्रवाल। ये मुजफ्रफरपुर के रहनेवाले रिटायर्ड इंजीनियर हैं। अच्छे सत्संग-प्रेमी हैं। उनका नियम है नित्यप्रति प्रातःकाल ईशादि स्तुति करने का। एक बार वे सपत्नीक ट्रेन से यात्र कर रहे थे। उनकी धर्मपत्नी भी वास्तव में धर्ममति की हैं। प्रातः का समय था। ट्रेन में ही दोनों दम्पति ने नियमानुसार स्तुति आरंभ की। ईश-स्तुति, संत-स्तुति और सद्गुरु-स्तुति की। नाम-संकीर्तन के पश्चात् संतमत-सिद्धांत और संतमत की परिभाषा का पाठ किया। इस प्रकार सारे-के सारे पाठ समाप्त कर दोनों ने आरती का पाठ किया। उसी कम्पार्टमेंट में उनकी सीट के सामने वाली सीट पर दो साधु बाबा बैठे हुए थे, जो अच्छे पढ़े-लिखे थे। श्रीअग्रवाल जी ने सविनय हाथ जोड़कर उन दोनों बाबा से आग्रह किया, ‘बाबा! हमलोगों ने जो प्रातःकालिक नित्य नियम था, सो तो हमलोग कर चुके; अब आप अपने श्रीमुख से हमलोगों को कुछ ज्ञानोपदेश कीजिए।’ दोनों साधु बाबा बड़े सज्जन थे। इंजीनियर साहब के सात्त्विक आचार और आस्तिक विचार से वे लोग बड़े प्रभावित हुए थे। उन्होंने कहा, ‘भाई! आपने तो अपने पाठ-क्रम में सारे ज्ञान सुना दिये। अब मुझे कहने के लिए बाकी क्या रहा! झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों से बचना चाहिए, एक ईश्वर पर विश्वास करना, उनकी प्राप्ति अपने अंदर में होगी, सत्संग करना, ध्यान करना, गुरु-सेवा करनी आदि सारी बातें सुना दीं। प्रभु पाने की साधना मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि साधन और शब्द- साधन, सब तो तुमने बतला दिये। अब मेरे बताने के लिए क्या बचा, जो तुमको बतलाऊँगा। तुम किनके शिष्य हो? ये सारी बातें कहाँ तुमने सीखी है।’ रामप्रताप बाबू ने कहा, ‘हमारे गुरुदेव का नाम है परम पूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज और वे बिहार के रहनेवाले हैं तथा कुप्पाघाट भागलपुर में रहते हैं।’ साधु बाबा ने कहा, ‘अभी तो मैं जल्दी में हूँ। जहाँ जा रहा हूँ, वहाँ से लौटूँगा, तो मैं उन संतजी का दर्शन अवश्य करूँगा।’
हाँ, तो मैं स्तुति के संबंध में कह रहा था। जो ट्रेन में हो, उसको वहाँ पूजा की सामग्रियाँ-धूप, दीप, नैवेद्य आदि के जुटाने में कितनी कठिनाई होगी, विचार सकते हैं। यदि किसी प्रकार पूजन-सामग्रियाँ इकट्ठी करके पूजा भी की जाए, तो शास्त्र कहता है, ‘करोड़ों पूजा के समान एक स्तुति होती है। ‘पूजा कोटि समं स्तोत्रं।’ और करोड़ों स्तुति के समान एक जप होता है। क्यों? इसलिए कि स्तुति में अनेक शब्द होते हैं। अतएव उसमें भी पूर्ण सिमटाव नहीं हो पाता। अब उससे आगे बढ़ी। पुनः शास्त्रेक्ति है, ‘स्तोत्र कोटि समं जपः।’ यानी करोड़ों स्तुति के समान एक जप है। जप में बहुत-से शब्द नहीं होते। एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होती रहती है। जपों में मानस जप श्रेष्ठ है। जप की महिमा गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज बतलाते हैं-
“ मंत्र परम लघु जासु वश, विधि हरिहर सुर सर्व ।
महामत्त गजराज कहँ, वश कर अंकुश खर्व ।।”
परम लघु शब्द पर ध्यान दीजिए। एक तो ‘लघु’ शब्द होता है, जिसका अर्थ होता है-छोटा। किन्तु गोस्वामीजी के विचार में जप का शब्द परम लघु यानी अत्यन्त छोटा होना चाहिए। परम लघु मंत्र के जपने से उसके परिणाम और फल को लघु मत समझो। लघु की विशेषता मानस में है-
“ रवि मंडल देखत लघु लागा ।
उदय तासु त्रिभुवन तम भागा ।।”
परम लघु मंत्र का जप यदि एकाग्रतापूर्वक किया जाए, तो उसका महान फल होता है। जैसे अंकुश बहुत छोटा होता है; लेकिन वह महामत्त गजराज को काबू से लाता है। उसी तरह मानस जप मदमत्त मनरूप गजराज को वश में करता है। उससे सिद्धि मिलती है।
इसी पंडाल में कहीं बैठे होंगे एक सत्संगी सज्जन, जो अच्छे साधक भी हैं। रहते तो वे सादे वेश में हैं; किन्तु वास्तव में साधु हैं। उनका पूर्व नाम बाबू रामनंदन प्रसादजी वर्मा तथा वर्तमान नाम रामानंद स्वामीजी है। उनके ज्येष्ठ पुत्र का नाम-श्रीकृष्ण कुमार। वह एम0एस-सी0 तक पढ़ा हुआ है। वह मेरा पुत्रवत् प्रिय है। जिस समय वह आई0एस-सी0 में पढ़ रहा था, परम पूज्य गुरुदेव से उसने दीक्षा ली थी। उनकी अनुकम्पा से उसको जप में सिद्धि मिल गयी। शास्त्र में लिखा है, ‘जपात् सिद्धिः।’ उसको वह मिल गया था। जो कोई कुछ प्रश्न करते तो उसका उत्तर वह मुँह से नहीं देकर इस प्रकार देता था। वह लकड़ी के कोयले को पीसकर उसकी पुड़िया बनाकर अपने पास रखता था। जैसे ही जो कोई प्रश्न उससे करता थे, तो वह उस कोयले के चूर्ण को अपनी बायीं बाँह में पोत लेता था। प्रश्न का सही उत्तर नागरी लिपि में वहाँ आ जाता था। वह अक्षर परम पूज्य गुरुदेव के अक्षर-सा होता था।
मेरे कहने का मतलब यह कि कोई मंत्र जप एकाग्रतापूर्वक कर लेता है, तो उसको सिद्धि मिल जाती है। पांडवों की माता कुन्ती देवी को भी मंत्र सिद्ध था। वह जिस देवता का जब आह्वान करती थी, उसी समय वे देव उनके सामने उपस्थित हो जाते थे।
यह तो जप-सिद्धि की बात हुई; लेकिन जप के आरंभिक काल में क्या होता है, सो भी सुनिये-
आरंभ में जप करने के लिए बैठते हैं, तो मन में विविध बातें आती हैं। उनमें कितनी ऐसी बातें हैं, जो सबके सामने रखने योग्य नहीं होतीं। गुरुदेव से दीक्षित एक वाइस-प्रिंसिपल साहब थे। गुरुदेव उस समय सिकलीगढ़ धरहरा में थे। उनके दर्शन करने के लिये वे आये थे। गुरुदेव ने पूछने की कृपा की- “ भजन-ध्यान किया करते हैं?” उन्होंने हाथ जोड़कर उत्तर दिया- “ गुरुदेव! दीक्षा लेने के बाद कुछ दिनों तक तो किया था; किन्तु अब छोड़ दिया है।” गुरुदेव ने पुनः पूछने की कृपा की- “ क्यों?” उन्होंने कहा- “ गुरुदेव! क्या बतलाऊँ, जब ऑफिस के कामों में लगा रहता हूँ अथवा लड़कों को पढ़ाता हूँ, तब तो मन ठीक रहता है, लेकिन जब पूजा करने के लिये बैठता हूँ तो ऐसी गंदी-गंदी बातें आती हैं, जिनके विषय में तो मैंने कभी सोचा भी नहीं था। मैंने विचार किया कि जब ध्यान करने से ही गंदी-गंदी बातें सामने आती हैं, तो ध्यान करना ही नहीं चाहिये। इसलिये मैंने ध्यानाभ्यास करना छोड़ दिया।” परमाराध्यदेव ने उनको ध्यानाभ्यास की उपयोगिता समझाने की कृपा की। उनकी समझ में बात आ गयी।
शाम का समय था। मैं टहलने जा रहा था। वाइस-प्रिंसिपल साहब ने मुझसे पूछा- “ आप कहाँ जा रहे हैं?” मैंने कहा- “ टहलने जा रहा हूँ।” प्रिंसिपल साहब ने पूछा- “ मैं भी साथ चलूँ?” मैंने कहा- “ चलिये।” दोनों एक साथ चल पड़े। वहाँ सत्संग-मन्दिर के पीछे आम का बगीचा है। जब हमलोग वहाँ आये तो मैंने उनका नाम लेकर पूछा- “ फलाँने बाबू! गुरु महाराज जी के पूछने पर आपने जो उत्तर दिया, वह सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। आप तो कितने जानवर को आदमी बनाते हैं; कितने बन्दर को सुन्दर बनाते हैं, फिर आपने कैसे कह दिया कि ध्यानाभ्यास नहीं करते हैं।” उन्होंने बड़े ही सरल और सहज शब्दों में उत्तर दिया- “ क्या बताऊँ? झूठ तो कभी भी किसी से भी बोलना नहीं चाहिये, किन्तु हमलोग कभी-कभी, कहीं-कहीं झूठ बोल भी देते हैं। लेकिन जहाँ स्वयं गुरुदेव जी महाराज ही पूछ रहे हैं, तो उनके सामने झूठ कैसे बोलता! जो बात सच्ची थी, मैंने निवेदन कर दिया।” मैंने उनसे कहा- “ एक बात आप बतलाइये, आप कभी कपड़ा भी धोते हैं?” उन्होंने कहा- “ हाँ, कपड़ा प्रायः धोना ही पड़ता है।” मैंने पूछा- “ आप कपड़ा क्यों धोते हैं?” उन्होंने कहा, “ मैल साफ करने के लिये।” मैंने पूछा- “ आप जब कपड़ों में साबुन लगाते हैं, तो उससे क्या निकलता है?” उन्होंने कहा- “ मैल निकलती है।” मैंने कहा, यह कैसी उल्टी बात हो गयी? कपड़ा साफ होने के बजाय उससे मैल निकलने लगी। उन्होंने कहा- “ मैल नहीं निकलेगी, तो कपड़ा साफ कैसे होगा?” मैंने कहा- “ प्रिन्सिपल साहब! उसी तरह जब आप जप करने के लिये बैठते हैं, तो जन्म-जन्मांतर की जो मैल मन में बैठी हुई है, वह निकलती है, फिर आप घबड़ाते क्यों हैं? जबतक मन की मैल नहीं निकलेगी, मन साफ कैसे होगा?” मेरी बात सुनकर वाइस-प्रिन्सिपल साहब बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने प्रतिज्ञा की- “ बाबा! आज से मैं नित्य नियमित रूप से अवश्य त्रयकाल संध्या करूँगा।” (श्रोतागण द्वारा श्री सद्गुरु महाराज की जय जय का नारा)
एक दिन चीनी अपनी सहेली से बोली, ‘बहन! मुझसे बढ़कर अधिक और साफ कौन है?’ सहेली ने उत्तर दिया, ‘सुनो बहन! अपनी गंदगी अपने को दिखती नहीं है। अपने को तो दूसरे की गंदगी सूझती है। लोग अपने को बराबर पाक-साफ समझते हैं और दूसरे को ऊँगली उठाते हैं। संत तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
“ देखिके पर दोष रज सम, कहत गिरि सम सोय रे ।
दोष अपने मेरु सम, तिन्हें राखत गोय रे ।।”
सुनो, एक जापानी कहानी सुनाती हूँ-एक लड़की की शादी हुई। जब वह अपनी ससुराल जाने लगी, तो उसकी माँ ने उससे कहा, ‘बेटी! मेरी एक बात याद रखना। जब कोई तुम्हारी निंदा करे तुम पर ऊँगली उठाये, तो देख लेना कि उसकी ऊँगली तुम्हारे ऊपर ठीक बैठती है या नहीं? यानी ठीक बैठती है यानी सचमुच ही तुममें दुर्गुण है, दोष है, तो तुम अपने का सँभाल लेना, सुधार लेना; यदि नहीं तो यह समझ लेना कि वह तुमसे तीन गुणा अधिक अपने को दोषी साबित करता है; क्योंकि जब कोई किसी की ओर ऊँगली करता है, तो उसकी एक ऊँगली दूसरे की ओर और तीन ऊँगलियाँ अपने ओर इंगित करती है। इसीलिए तुम किसी की बुराई मत करना। और एक बात समझो। दूसरों की दिखाई जानेवाली ऊँगली टेढ़ी-मेढ़ी भी हो सकती है; किन्तु उसकी अपनी तरफ की ऊँगुलियाँ तो टस-से-मस नहीं कर सकतीं; क्योंकि उन ऊँगलियों को दृढ़ता के साथ अँगूठा पकड़े रहता है।’ हाँ, तो वह चीनी कह रही थी कि देखो, मैं कितनी साफ हूँ! सहेली ने कहा, ‘मैं अभी दिखला देती हूँ कि तुम कितनी साफ हो?’ उसने क्या किया? चीनी को पानी में घोल दिया और चूल्हे पर चढ़ाकर नीचे से आँच देना शुरू किया। जैसे-जैसे पानी गर्म होने लगा, बर्तन के ऊपरी हिस्से पर मैल तैरने लगी। सहेली ने कहा, ‘अब बताओ बहन! तुम तो कहती थी कि तुममें मैल नहीं है, तुम बहुत साफ हो। अब कहो, सही बात क्या है?’ चीनी ने कहा, ‘हाँ बहन! मुझे तो यह मालूम ही नहीं था। अब इस मैल को निकाल दो।’ सहेली ने क्या किया, दूध का छींटा दिया और मैल को छाँटकर अलग निकाल दिया। उसी तरह जब हम जप करने के लिए बैठते हैं, तो हमारे भीतर जो मैल जमी रहती है, वह बाहर आने लगती है। लेकिन यदि हम जप करने में जोर लगा दें और दृढ़ता के साथ जप करते रहें, तो वह दूध के छींटे की तरह काम करेगा। मैल कट- कटकर बाहर निकल जाएगी। तो यह जप की बात है। (मानस) जप के बाद आती है बारी (मानस) ध्यान की। जप से करोड़ गुणा ध्यान को बतलाया है-‘जाप कोटि समं ध्यानं ।’
ध्यान की सुप्रसिद्ध परिभाषा है-‘ध्यानं निर्विषयं मनः।’ किन्तु यह ध्यान आरंभिक नहीं है। पहले स्थूल ध्यान होता है, फिर सूक्ष्म ध्यान। पहले सगुण ध्यान किया जाता है, फिर निर्गुण ध्यान होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत, स्कंध 11, अध्याय 14, श्लोक 42-43 में कहा है-
“ इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो मनसाऽऽकृष्य तन्मनः।
बुद्ध्या सारथिना धीरः प्रणयेन्मयि सर्वतः।। 42।।”
अर्थात् बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि मन के द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से खींचकर उस मन को बुद्धि-रूपी सारथी की सहायता से सर्वांग-युक्त मुझमें ही लगा दे ।।42।।
“ तत्सर्वव्यापकं चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत्।
नान्यानि चिन्तयेद् भूयः सुस्मितं भावयेन्मुखम्।। 43।।”
अर्थात् सब ओर से फैले हुए चित्त को खींचकर एक स्थान में स्थिर करे और फिर अन्य अंगों का चिन्तन न करता हुआ केवल मेरे मुस्कान-युक्त मुख का ही ध्यान करे।।43।।
संतों के स्थूल ध्यान में अपने इष्ट की मूर्ति का ध्यान बतलाया गया है। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज के वचन में भी हम गुरुरूप का ध्यान पाते हैं। यथा-
“ गुर की मूरति मन महि धिआनु ।
गुर कै शबदि मंत्र मनु मानु ।।
गुरु के चरन रिदै लै धारउ ।
गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारउ ।।”
तथा-
संत शिवनारायण स्वामीजी की दृष्टि भी गुरु मूर्ति की ओर ही है-
“ निहारो यारो गुरु मूरति की ओर ।
गुरु मूरति सूरति बिच निरखो, तब उर होत इंजोर ।।”
जब हम अपने परम पूज्य गुरुदेवजी के अनुपम साहित्य का अध्ययन-मनन करते हैं, तो उन संतों की वाणियों से इनकी वाणी में अभिन्नता पाते हैं। इनके कथनानुसार प्रथम मानस जप करना चाहिए, पश्चात् मानस ध्यान। इस प्रकार की साधना से शीघ्रतापूर्वक सुरत का शुद्धिकरण होता है।
“ गुरु जाप मानस ध्यान मानस, कीजिए दृढ़ साधकर ।
इनका प्रथम अभ्यास कर, स्त्रुत शुद्ध करना चाहिए ।।”
(महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज)
स्थूल सगुण साकार के ध्यानाभ्यास से मन का इतना सिमटाव होता है कि वह सूक्ष्म सगुण साकार ध्यान करने के योग्य हो जाता है। सूक्ष्म सगुण साकार ध्यान विन्दुध्यान है। विन्दु उसको कहते हैं, जिसका स्थान होता है, परिमाण नहीं। इसलिए यह मन से बनाया नहीं जाता, देखने के कौशल से देखा जाता है। गुरु निर्देशित स्थान पर युगल नेत्रें की धाराएँ जुड़कर जब एक होती हैं, तब वहाँ स्वतः तेजोमय विन्दूदय होता है। तेजोविन्दूपनिषद् में लिखा है-‘तेजोविन्दुः परं ध्यानं विश्वात्महृदि संस्थितम्।’
संतों ने इस विषय को अपनी-अपनी भाषा में विभिन्न भाँति से समझाने की चेष्टा की है। संत कबीर साहब ने कहते हैं-
“ गगन मंडल के बीच में तहँवा झलके नूर ।
निगुरा महल न पावई, पहुँचेगा गुरु पूर ।।
बाँका परदा खोलि के, सन्मुख ले दीदार ।
बाल सनेही साइंयाँ, आदि अन्त का यार ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज की वाणी में है-
“ तारा चड़िआ लंमा किउ नदरि निहालिआ राम ।
सेवक पूर करंमा सतिगुर सबदि दिखालिआ राम ।।
गुर सबदि दिखालिआ सचु समालिआ
अहिनिसि देखि विचारिआ ।
धावतु पंच रहे घरु जाणिआ कामु क्रोध विषु मारिआ ।।
अंतरि जोति भई गुरु साखी चीने राम करंमा ।
नानक हउमै मारि पतीणे तारा चड़िया लंमा ।।”
गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा कि यह एक गुप्त मत है, जिसका उपदेश भगवान श्रीराम ने अपनी प्रजा को त्रेतायुग में दिया था। यथा-
“ औरउ एक गुप्त मत, सबहिं कहउँ कर जोरि ।
संकर भजन बिना नर, भगति न पावइ मोरि ।।”
हाथरस निवासी संत तुलसी साहब ने घटरामायण में लिखा है कि दृष्टि साधन क्रिया के द्वारा जो अपने अंतराकाश में तारा को पाता है, वह ‘अनहद झनकारा’ को भी सुनता है। अर्थात् जो अंतर्ज्योति का दर्शन करता है, वह अंतर्नाद का श्रवण करता है।
“ गगन द्वार दीसै एक तारा ।
अनहद नाद सुनै झनकारा ।।”
जब हम अपने गुरुदेव की वाणी पढ़ते हैं, तो उसमें बड़े स्पष्ट रूप से साधना संबंधी बातें पाते हैं। वे दृष्टि-साधना की क्रिया के बाद नादानुसंधान की विधि बताते हैं। उनका कथन है कि दोनों दृष्टियों की धारों को गुरु के बताये लक्ष्य स्थान पर स्थिर करने की कोशिश करो। जैसे जिसको कभी लिखने की आदत नहीं है, वह जब कुछ लिखना प्रारंभ करता है, तो उसका हाथ काँपता है। धीरे-धीरे लिखते-लिखते जब वह अभ्यस्त हो जाता है, तो फिर हाथ काँपता नहीं, स्थिर हो जाता है। उसी प्रकार दृष्टियोग के अभ्यास में पहले दृष्टि काँपती है; किन्तु नित्य नियमित रूप से साधना करते रहने से आप-ही-आप कम्पन छूट जाता है, दृष्टि स्थिर हो जाती है और आगे का रास्ता खुल जाता है।
“ दृष्टि योग अभ्यास अतिहि, करतहि करत ।
कँपनी सहजहि छुटै, प्रौढ़ होवै सुरत ।।
तिल दरवाजा टुटै, नजर के जोर से ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ लगे टकटकी खूब,
जोर बरजोर से ।।”
मानस जप, मानस ध्यान और दृष्टि-साधन काल में केवल मुँह और आँखें बंद करनी चाहिए। नादानुसंधान करते समय दोनों आँखों, दोनों कानों और मुँह को बंद करना चाहिए। दृष्टि साधन की क्रिया-द्वारा जब एकविन्दुता प्राप्त होती है, तो आंतरिक नाद की अनुभूति होने लगती है। उस समय सुरत को शब्द में लगाना चाहिए। शब्द-साधना करनेवाले को मालूम होता है कि जितने भी शब्द सुनने में आते हैं, वे सभी ऊपर की ओर से आ रहे हैं। शुद्धाचारी संत सद्गुरु से शब्द-साधना की दीक्षा पाकर केन्द्रीय शब्द को पकड़ना चाहिए। अपने अंदर स्थूल-सूक्ष्मादि भेद से पाँच मंडलों के पाँच केन्द्र हैं। शब्द में यह गुण होता है कि वह सुननेवाले को अपने केन्द्र की ओर आकर्षित करता है। प्रत्येक ऊपर के केन्द्रीय शब्द का संबंध उसके नीचे के केन्द्र से रहता है। जो स्थूल मंडल के केन्द्रीय शब्द को पकड़ेगा, वह उसके आकर्षण से आकर्षित हो सूक्ष्म के केन्द्र पर पहुँच जाएगा। इस प्रकार शनैः शनैः क्रम-क्रम से एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र में चलते हुए वह जड़ावरण को पार कर जाएगा। कैवल्य के केन्द्र में पहुँचकर वहाँ सारशब्द को ग्रहण कर परमप्रभु परमात्मा तक पहुँच जाएगा। परम प्रभु परमात्मा को प्राप्त कर वह त्रयतापों से मुक्त हो जाएगा, आवागमन के चक्र से छूट जाएगा। इसलिए सभी संतों और सद्ग्रंथों ने नादानुसंधान की प्रशंसा मुक्त कंठ से की है।
संत कबीर साहब कहते हैं-
‘शब्द गह्यो जीव संशय नाहीं, साहब भयो तेरो संग ।’
तथा-
“ साधो शब्द साधना कीजै ।
जेहि शब्द से प्रकट भये सब, सोई शब्द गहि लीजै ।।”
भगवान शंकराचार्य ने मन के लय को सर्वोत्तम साधन नादानुसंधान अपने ‘योगतारावलि’ ग्रंथ मेंं नीचे के श्लोकों में बताया है-
“ सदा शिवोक्तानि सपादलक्षलयावधनानि वसन्ति लोके ।
नादानुसंधानसमाधिमेकं मन्यामहे मान्यतमं लयानाम् ।
नादानुसंधान नमोऽस्तु तुभ्यं त्वां मन्महे तत्त्वपदं लयानाम् ।
भवत्प्रसादात् पवनेन साकं विलीयते विष्णु पदे मनो मे ।।”
“ सर्वचिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा ।
नाद एवानुसन्धेयो योगसाम्राज्यमिच्छता ।।”
“ योग-शास्त्र के प्रवर्त्तक भगवान शिवजी ने मन के लय होने के सवा लक्ष साधन बतलाए हैं, उन सबमें नादानुसंधान सुलभ और श्रेष्ठ है । हे नादानु- सन्धान! आपको नमस्कार है, आप परमपद में स्थित कराते हैं, आपके ही प्रसाद से मेरा प्राण-वायु और मन, ये दोनों विष्णु के परम पद में लय हो जाएँगे । योग-साम्राज्य में स्थित होने की इच्छा हो, तो सब चिन्ताओं को छोड़कर सावधान हो एकाग्र मन से अनहद नादों को सुनो।”
नादानुसंधान के द्वारा किस प्रकार सर्वेश्वर की प्राप्ति होती है और आवागमन के चक्र से छूटा जाता है, हमारे पूज्य गुरुदेव की अनुभूत पूत वाणी इस प्रकार है-
“ आगे शून्य समाधि, नाद ही नाद की ।
लहै सन्त का दास, जाहि सुधि आदि की ।।
मीठी मुरली सुनै सुरत के कान से ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ बड़ा कौतुहल होइ,
ध्वनिन के ध्यान से ।।
सद्गुरु भेदी मिलै सैन, ध्वनि ध्यान बतावै ।
अनुपम बदले नाहिं, शब्द सो सार कहावै ।।
सोहू ध्वनि हो लीन, अध्वनि में जाइके ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ अध्वनि अशब्द अनाम,
सन्त कहैं गाइ के ।।
सार शब्द ध्वनि संग, सुरत हो अकह में लीनी ।
अध्वनि अशब्द अनाम, परम पद गति की भीनी ।।
द्वैत द्वन्द्व सों रहित, सो प्रभु पद पाइके ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ सुरत न लौटइ,
बहुरि न जन्मइ आइके ।।”


महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के 77वें वार्षिक
महाधिवेशन, दिनांक 6-2-1988 ई0 को मणियारपुर, बाँका में अपराह्णकाल के
सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अक्टूबर+नवम्बर 1988 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द माताओ एवं बहनो!
‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।’
जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी विशेष महत्त्वपूर्ण होती है। यह गमहरिया ग्राम मेरी जन्मभूमि है। यहाँ मेरा जन्म हुआ, यहाँ की मिट्टी में खेला, बढ़ा, पढ़ा और आज परमाराध्य गुरुदेव की अनुकम्पा से इसी देश में और इस वेश में आपलोगों के समक्ष हूँ।
मुझ जैसे का, जो अभिनन्दनीय नहीं, आपलोगों ने अभिनन्दन किया है, यह आपलोगों के हृदय की विशालता-उदारता है। मैं आपलोगों का आभारी हूँ। वस्तुतः मेरे लिए आपलोग अभिवंदनीय है, इसलिए मैं आपलोगों का अभिवंदन करता हूँ।
अभी आपलोग श्रीशाही स्वामीजी का प्रवचन सुन रहे थे। मैं तो समझता हूँ, शाही स्वामीजी के शाही फरमान से आपलोगों की अरमान पूरी हो गयी होगी। फिर भी आपलोगों का ध्यान मेरी ओर है, यह इसलिए कि आपलोग महान हैं। आपलोग मुझे साधु- वेश में देख रहे हैं, इसलिए यह न समझें कि मैं आपलोगों से विशेष हूँ और कुछ आदेश या उपदेश करने आया हूँ, बल्कि मैं तो संतों का संदेश देने आया हूँ। साथ ही सभी आगत सज्जनों का स्वागत करता हुआ तथागत की वाणी में कुछ कहना चाहता हूँ।
भगवान बुद्ध ने कहा है, ‘हमारी वर्तमान हालत हमारे विचारों का फल है। उसकी बुनियाद हमारे विचारों पर है, वह हमारे विचारों से बनी है। मनुष्य अगर बुरी कल्पना से कुछ बोलता अथवा काम करता है, तो दुःख उसके पीछे-पीछे वैसे ही चलता है, जैसे बैलगाड़ी खींचनेवाले बैल के पीछे-पीछे उसका चक्का।’ पुनः उन्होंने कहा, ‘हमारी वर्तमान हालत हमारे विचारों का फल है। उसकी बुनियाद हमारे विचारों पर है, वह हमारे विचारों से बनी है। मनुष्य अगर अच्छी कल्पना से कुछ बोलता अथवा काम करता है, तो सुख उसके पीछे-पीछे वैसे ही चलता है, जैसे उसके शरीर की छाया, जो उसे कभी नहीं छोड़ती।’
अब हम विचार करें, हम सुख की हालत में हैं अथवा दुःख की हालत में। अगर दुःख की हालत में हैं, तो हमें समझना चाहिए, यह हमारे बुरे कर्म का फल है। इसलिए अब से हम कभी भी बुरा कर्म न करें; क्योंकि पूर्व में हमसे कितने कुकर्म और अधर्म हुए हैं, जिस कारण आज हम दुःखी हैं। यदि आज भी हम उन्हीं बुरे कर्मों में लगे रहेंगे, तो भविष्य में इससे भी भयानक स्थिति आ सकती है।
यदि आज हम अपने को सुख की हालत में पा रहे हैं, तो क्या प्राप्त सुख से और अधिक सुख की इच्छा हम नहीं करते? जितना सुख प्राप्त है, उससे हम संतुष्ट नहीं हैं और भी अधिक सुख की आकांक्षा रखते हैं, तो हमें समझना चाहिए कि पूर्व में हमने पुण्य कर्म किये थे, शुभ कर्म किये थे, अच्छे कर्म किये थे, जिस कारण आज हम सुखी हैं। आज भी हम अच्छे-अच्छे कर्मेां को करेंगे, तो भविष्य में अधिकतर सुख की स्थिति में रहेंगे, अधिकतम सुख की प्राप्ति होगी। इसलिए हमें अच्छे कर्मों, शुभ कर्मों को करना चाहिए। इसी की प्रेरणा भगवान बुद्ध ने हमलोगों को दी।
यह भी ज्ञातव्य है कि कोई भी किसी के किये कर्मों के फल का भागी नहीं होता। सभी अपने-अपने किये कर्मों का फल भोगते हैं। रामचरित- मानस के अयोध्याकांड में एक प्रसंग आया है-वनवास- काल में भगवान श्रीराम ओर जगज्जननी जानकीजी को जंगल में पत्ते की शय्या पर सोया देखकर निषादराज के मन में विषाद हुआ। उन्होंने कैकई को दोषी ठहराया। इसके समाधान में श्रीलक्ष्मणजी ने बड़ा ही मार्मिक उत्तर दिया था-
“ काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
निज कृत करम भोग सुनु भ्राता ।।”
कर्मफल-विषयक गो0 तुलसीदासजी की निजोक्ति है-
“ तुलसी यह तन खेत है, मन वच कर्म किसान ।
पाप पुण्य दुइ बीज है, बुवै सो लुणै निदान ।।”
जिस तरह से जिस खेत में हम गेहूँ बोते हैं, पक जाने पर उसमें गेहूँ काटते हैं। चना बोते हैं, तो चना पाते हैं। जिस खेत में धान बोते हैं, धान पाते हैं। आम का बगीचा लगाते हैं, तो आम का फल पाते हैं। तात्पर्य यह कि हम जिस तरह का बीज बोते हैं या लगाते हैं, उसी तरह का फल हम पाते हैं, यह प्रत्यक्ष है। इस संबंध में कुछ अधिक कहने की आवश्यकता नहीं। अवश्य ही विचारणीय विषय यह है कि हम आम की गुठली लगाते हैं; किन्तु जब वह वृक्ष का रूप धारण करता है, तब एक ही गुठली से हम अनेक आम्रफल पाते हैं। उसी तरह से जब हम कर्म करते हैं, तो कर्म का रूप भले ही थोड़ा हो; लेकिन उसका फल बहुत गुणा अधिक होकर मिलता है। चाहे अच्छे या बुरे जो कुछ कर्म हम करते हैं, परिणाम बहुत ही बृहत् रूप में आता है। आप महाभारत पढ़े होंगे अथवा आपने कहानी सुनी होगी। महारानी द्रौपदी को जब कौरवों की सभा में बुलाया गया और वह आयी, तो तनमद, धनमद और मनमद में भरा दुर्योधन दुःशासन को आदेश देता है कि इस नारी की साड़ी खींचकर नग्न कर दो। दुःशासन के शरीर में दस हजार हाथियों का बल था। साड़ी खींचते-खींचते उसका बाहुबल थक जाता है, बल का अंत हो जाता है; लेकिन वह द्रौपदी की साड़ी का अंत नहीं कर पाता है। एक ओर महाबलवान और दूसरी ओर एक अबला। अबला के सामने महा बलवाला कैसे परास्त हो जाता है! आखिर यह अद्भुत घटना कैसे घटी? इस चमत्कार से द्रौपदी की आर्त पुकार भरी थी। वह प्रार्थना करती थी, ‘द्वारिकानाथ! इस अनाथ अबला की रक्षा करो। प्रभो! प्रतिष्ठा का प्रश्न है, उत्तर तुम्हारे हाथ थी। पाँचो पति बैठे मौन हैं, मेरी रक्षा करनेवाले तुम्हारे सिवा अन्य कौन है? पतिदेव चिंतित हैं, द्रौपदी तुम्हारे चरणों में समर्पित है।’ पुनः भगवान से प्रार्थना करती है, ‘दुख हरो द्वारिकानाथ शरण मैं तेरी ।’
देखिये, फिर क्या होता है? किसी ने कहा है, ‘भक्त के पुकारने में देर होती है, भगवान के पधारने में नहीं।’ यही बात चरितार्थ होती है। द्रौपदी की हृदय-द्रावक करुण पुकार करुणानिधान भगवान सुनते हैं। पधारते हैं और द्रौपदी की रक्षा करते हैं। साड़ी इतनी अधिक बढ़ी, जिसकी कभी कल्पना नहीं की जा सकती। इसीलिए कि सुभाषितकार ने कहा-
“ साड़ी थी कि नारी थी, वा नारी थी कि साड़ी थी ।
नारी बीच साड़ी थी, कि साड़ी बीच नारी थी ।।”
किसी को पता नहीं चला। इतनी साड़ी बढ़ गयी, आखिर इसका कारण क्या था? जिस समय भगवान श्रीकृष्ण शिशुपाल का वध कर रहे थे, अपने ही हथियार से उनकी अंगुली कट गयी थी। रक्त स्त्रावित हो रहा था। उसी अवस्था में द्रौपदी के पास जाते हैं। द्रौपदी देखती है कि भगवान की अंगुलि से रक्त प्रवाहित हो रहा है। तुरंत वह अपनी साड़ी का आँचल फाड़ती है और लपेट देती है भगवान की अंगुली में। रक्त का बहना बंद हो जाता है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘कृष्णे! तुमने साड़ी से मेरी रक्षा की है, मैं भी तेरी रक्षा साड़ी से करूँगा।’ द्रौपदी मन-ही-मन सोचती है, ‘मैं महारानी हूँ, मुझे साड़ी की क्या कमी है? मुझे कब जरूरत पड़ेगी, जो ये साड़ी से मेरी रक्षा करेंगे-मुझे साड़ी देंगे!’ खैर---
जरा हृदय पर हथेली रखकर शांत भाव से सोचिये, भगवान की अंगुलि में लपेटने के लिए द्रौपदी ने कितनी साड़ी दी होगी? दो अंगुल-चार अंगुल! बस और कितनी साड़ी दी होगी? लेकिन देखिये, मात्र थोड़ा-सा अच्छा कर्म करने का अच्छा फल कितना अधिक गुणा, अधिक परिमाण में आया।
स्मरण रहे-पुकार-पुकार में भी भेद होता है। जब कौरवों का संहार हो गया। महाराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक किया गया। वे एकच्छत्र राज्य के स्वामी हो गये। एक दिन पाँचों भाई पांडव एक जगह बैठे थे। द्रौपदी भी वहाँ बैठी थी। संयोग से उसी समय भगवान श्रीकृष्ण वहाँ पधारते हैं। उनको बड़े ही आदर भाव से वे लोग बैठाते हैं। श्रीकृष्ण के साथ उनलोगों के आपस में कई प्रकार के संबंध थे। अर्जुन का भगवान श्रीकृष्ण के साथ भक्त-भगवान का संबंध तो सभी लोग जानते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य संबंध भी था। जैसे भगवान श्रीकृष्ण की बुआ लगती थी, पांडवों की माता कुंती। दुर्योधन की पुत्री से शादी हुई थी श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब की। भगवान श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा से विवाह हुआ था अर्जुन का आदि। बातचीत के सिलसिले में भगवान से द्रौपदी कहती है, ‘कृष्ण! तुम आये तो सही, किन्तु कौरवों की सभा में मेरी सारी फजीहत हो गयी तब। मैं पुकारती, चिल्लाती रह गयी और तुम कान में तेल डालकर जैसे गंभीर निद्रा में सो रहे थे। मेरी आवाज, मेरी पुकार तुम तक पहुँच सकी या नहीं। तुम सुन रहे थे या नहीं, पता नहीं।’ भगवान ने कहा, ‘द्रौपदी! लोग दूसरे के छोटे-से- छोटे दोष को बड़ी सरलतापूर्वक देख लेते हैं; लेकिन अपने बड़े-से-बड़े दोष को नहीं देख पाते। दूसरे का दोष रजकण के समान होता है, तो उसे वह पहाड़ के समान देखता है और अपना पहाड़ के समान दोष होता है, तो उसे रजकण के समान भी नहीं समझता-
“ देखि के पर दोष रज सम, कहत गिरि सम सोय रे ।
दोष अपने मेरु सम है, तिन्हें राखत गोय रे ।।”
जरा सोचकर देखो तो। कौरवों की सभा में जब तुम्हें वस्त्रहीना किया जा रहा था, उस समय तुम मुझे द्वारिकानाथ कहकर पुकार रही थी। यथा-
“ दुख हरो द्वारिकानाथ शरण मैं तेरी ।
बिन काज आज महाराज लाज गई मेरी ।।
दुःशासन वंश कुठार महा दुःखदायी ।
कर पकड़त मेरी चीर लाज नहीं आयी ।।
पाँचो पति बैठे मौन, कौन गति होई ।”----
आदि कहकर तुम रो रही थी और मुझे पुकार रही थी। जरा सोचो तो सही, द्वारिका से दिल्ली आने में देर लगेगी या नहीं? लेकिन जिस क्षण तुमने कहा, ‘हृदयेश! मेरी रक्षा करो। मेरी रक्षा करनेवाला कोई नहीं है।’ उसी क्षण मैं तुम्हारी साड़ी में प्रवेश कर गया, जिसको खींचते-खींचते दुःशासन का बल शेष हो गया, पर तुम्हारी साड़ी का निःशेष नहीं कर सका’ इन आख्यानों से हम यह निश्चित रूप में समझ लें कि कर्मफल अमिट है। कर्म का बीज कर्म का फल लेकर आता है। भले ही, फल आने में जो देर या सबेर हो। इसीलिए संत महात्मा लोग कहते हैं, अशुभ कर्मों को छोड़ो, शुभ कर्मों को करो।
सामान्यजन समझते हैं कि हमने सात पाप कर्म किये और चौदह पुण्य-कार्य कर लेंगे, तो चौदह में से सात घटकर हमारे सात पुण्य कर्म बच जायेंगे, जिनके भोगने के हम भागी होंगे। किन्तु यह बात सही नहीं है। विधि का विधान में जोड़-घटाव (प्लस-माइनस) नहीं होता। दोनों के भिन्न-भिन्न फल भोगने होंगे। यदि हमने सात पाप कर्म किये हैं, तो सात कर्म का फल अलग मिलेगा और चौदह पुण्य कर्म किये हैं, तो उस पुण्य का फल अलग मिलेगा।
कुछ लोगों की धारणा है कि ‘एक जमाना था, जब शुभ कर्मों का फल सुख और अशुभ कर्मों का फल दुःख होता था; लेकिन आज ऐसी बात नहीं है। उनका यह भी कथन है कि जो बुरे-बुरे कर्म करनेवाले हैं, वे तो ऐश-आराम और मौज से रहते हैं और जो अच्छे-अच्छे यानी पुण्य कर्म करनेवाले हैं, वे दीन, दुःखी और चिंतित देखे जाते हैं।’ यथार्थ में बात ऐसी नहीं है। वास्तविक बात तो यह है कि विभिन्न प्रकार के कर्म होने के कारण उनके फल भी भिन्न-भिन्न समयों में मिला करते हैं। यथा मान लीजिए, हमने एक घंटे के अंदर तीन पेड़ लगाए-1- केले का पेड़ 2- आम का और 3- अखरोट का। केले का पेड़ छह मास से बारह मास के भीतर फल देता है। आम का पेड़ चार-पाँच साल में फल देता है और अखरोट का पेड़ चालीस साल की लंबी प्रतीक्षा के बाद फल देता है। मान लीजिए, जब हमारी उम्र चालीस साल की हुई, तब हमने अखरोट का पेड़ लगाया और जब हमारी उम्र साठ साल की हुई, तब हमारा शरीर छूट गया। अब हम इस जन्म में उस अखरोट फल को कैसे खा सकते हैं? अवश्य ही हम दूसरे जन्म में खा सकेंगे। इसी प्रकार हमने इस जन्म में बुरे कर्मरूपी अखरोट का पेड़ लगाया। फल पकने के पूर्व ही शरीर छूट गया। जब हमारा दूसरा जन्म हुआ, तो अच्छी संगति अच्छी मिल गयी और हम अच्छे-अच्छे कर्मों को करने लगे। लेकिन हमारे पूर्व जन्म के बुरे कर्म का फल कौन भोगेगा? इसीलिए अच्छे-अच्छे कर्म करनेवाले दीन-दुःखी देखे जाते हैं। इसी प्रकार हमने इस जन्म में अच्छे कर्म रूपी अखरोट का पेड़ लगाया और शरीर छूटने के बाद जहाँ हमारा जन्म हुआ, बुरी संगति पाकर हम बुरे-बुरे कर्मों को करने लग गये। अब हमारे पूर्वकृत शुभकर्म का फल कौन भोगेगा? इसीलिए बुरे कर्म करनेवाले होते हुए भी सुखी देखे जाते हैं। यह है कर्म-फल का रहस्य।
और बात को जाने दीजिए, भगवान श्रीराम को लीजिए। हालाँकि वे महापुरुष, मर्यादा पुरुषोत्तम थे। बहुत ऊँचे उठे हुए थे। लेकिन नर-शरीर में आकर नर-लीला के द्वारा उन्होंने कर्म-फल को चित्रित कर दिखलाया है। उदाहरणार्थ-बालि और सुग्रीव दोनों भाई-भाई थे। जब दोनों भाइयों में वैमनस्य होता है, तो भगवान श्रीराम सुग्रीव का पक्ष लेते हैं और प्रतिज्ञा करते हैं-
“ सुनु सग्रीव मैं मारिहौं, बाली एकहि बान ।
ब्रह्म रुद्र सरनागतहु, गये न उबरहिं प्रान ।।”
एक ओर सुग्रीव से मित्रता के कारण भगवान की यह प्रतिज्ञा थी और दूसरी ओर बालि को यह वरदान था कि जो तुम्हारे समाने युद्ध करने आएगा, उसका बल तुममें आ जाएगा। इसलिए यदि भगवान श्रीराम उसके सामने युद्ध करने जाते, तो एक तो उसको तपस्या का बल था ही और दूसरा भगवान श्रीराम का बल भी उसमें मिल जाता। इस प्रकार वह अत्यधिक बलशाली हो जाता। फलतः भगवान श्रीराम भी उसके समाने फीके पड़ जाते। इसलिए भगवान श्रीराम उसके सामने होकर युद्ध नहीं करके वृक्ष की ओट लेकर शर-संधान करते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी सरीखे राम-भक्त को लिखना पड़ा-‘विटप ओट देखहिं रघुराई ।’
इस प्रकार वृक्ष की ओट लेकर, वृक्ष की आड़ में छिपकर भगवान श्रीराम बालि का वध करते हैं। जिस समय बालि को तीर लगता है और वह पृथ्वी पर गिर जाता है, तब भगवान श्रीराम उसके सामने आते हैं। बालि कहता है-
“ धर्म हेतु अवतरेउ गोसाईं ।
मारेहु मोहि व्याध की नाईं ।।”
हे भगवान! आपका अवतार तो धर्म की रक्षा के लिए हुआ है; लेकिन आपने मेरे साथ जैसा व्यवहार किया है, महा अधर्म है; क्योंकि शिकार पर छिपकर प्रहार तो व्याधा करता है। यह तो व्याधे का कर्म है, आप जैसे धर्मावतार का नहीं। गोया बालि शाप देता है। अब परिणाम क्या होता है, देखिए। भगवान श्रीराम उसको स्वीकार करते हैं। त्रेतायुग के भगवान श्रीराम ही द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण होते हैं और त्रेतायुग में जो बालि था, वही द्वापर युग में व्याधा होता है। जब यदुवंश का नाश हो चुका। भगवान श्रीकृष्ण जंगल में जाकर चिंतामग्न हो पैर-पर-पैर रखकर बैठे हुए थे। व्याधे की दृष्टि उनके लाल-लाल तलवे पर पड़ती है। वह समझता है, कोई थका हुआ मृग अपनी जिभ्या निकालकर बैठा हुआ है। उस उसपर तीर चलाता है, जो तीर भगवान के तलवे को चीर देता है। फलतः क्षीरशायी भगवान सदा के लिए शयन कर जाते हैं। जबकि महाभारत के युद्धकाल में सैकड़ों, हजारों और लाखों वाण भगवान के शरीर में प्रवेश कर इस प्रकार प्रशांत हो जाते थे, जिस तरह समुद्र में बिजली गिरकर विलीन हो जाती है। आज आखिर ऐसा हुआ तो क्यों? इसमें क्या राज है? इस कथा-प्रसंग को पढ़कर सहज ही यह जिज्ञासा हो सकती है कि जहाँ लाखों-लाख भयंकर वाण लगकर जिनका अवकल्याण नहीं कर सके, वहाँ तुच्छ व्याधे के वाण से उनके प्राण प्रयाण कर जाएँ, इसका रहस्य क्या है? गोस्वामीजी ने उत्तर दिया है-
“ कर्म प्रधान विस्व रचि राखा ।
जो जस करइ सो तस फल चाखा ।।”
इस नर-लीला के माध्यम से भगवान श्रीराम हमलोगों को सीख देते हैं कि देखो, ‘मेरा त्रेतायुग का किया कर्म द्वापर युग में फल देता है, तब तुम जन-साधारण किस खेत की मूली हो? अर्थात् कर्म-फल अनिवार्य है-
‘अवश्यमेव भुक्तव्यं कर्म फल शुभाशुभम् ।’
सामान्य जन जब सब ओर से निराश हो जाते हैं, तो संतों के पास जाते हैं और जिज्ञासा करते हैं-व्याकरण में विधान के अतिरिक्त कहीं-कहीं अपवाद भी देखा जाता है, क्या इसमें कहीं किसी प्रकार का अपवादस्वरूप कुछ उपाय है या नहीं? गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है-
“ निज परिताप द्रवइ नवनीता ।
पर दुख द्रवइ संत सुपुनीता ।।”
इस वाणी को चरितार्थ करते हुए पर दुख से दुखी हो संतजन ढाढ़स दिलाते हैं। कहते हैं-निराश होने की बात, उदास होने की बात नहीं, रोग है तो उसकी औषधि और उपचार भी है। सामवेद में आया है-
“ यदि शैलसमं पापं विस्तीर्णं बहुयोजनम् ।
भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन।। 1।।”
अर्थात् कई योजन तक फैला हुआ पहाड़ के समान यदि पाप हो तो वह ध्यानयोग से नष्ट हो जाता है; इसके समान पापों का नष्ट करनेवाला कभी कुछ नहीं हुआ है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि एक तरफ हम पाप करें और दूसरी तरफ ध्यान करें। इस प्रकार ध्यान करके पाप कर्म के फल को नष्ट करने की धारणा वा भावना व्यर्थ है। वस्तुतः जो पाप कर्म करेगा, उनसे ध्यान बनेगा ही नहीं। पाप करने की जो वृत्ति है, वह पाप-वृत्ति उसको ध्यान करने नहीं देगी, विषयों की ओर खींचेगी।
पापी से ध्यान बनेगा ही नहीं। भजन में उसका मन लगेगा ही नहीं। पाप करनेवाला इन्द्रियाभिमुख रहेगा, विषयों का चिंतन करता रहेगा। वह निर्विषय तत्त्व की ओर नहीं जा सकता। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में कहा है-विषय-चिंतन से आसक्ति, आसक्ति से काम, काम से क्रोध, क्रोध से मूढ़ता, मूढ़ता से अचेतता और इससे ज्ञान का नाश हो जाता है। ज्ञान नष्ट हुआ मनुष्य मृतक के तुल्य है।
लोग ‘ध्यान’ को सरल समझते हैं; लेकिन ‘ध्यान’ तो योग का सातवाँ अंग है। बिना षट सोपानों को पार किये कोई सातवें पर पैर कैसे रख सकते हैं। जो ध्यानी होगा-ध्यानशील होगा, उसका ज्ञान बढ़ेगा। ज्ञानी पाप नहीं करते। अज्ञान की दशा में रहकर ही कोई पाप करता है। जैसे-जैसे कोई ध्यान में बढ़ेगा, वैसे-ही-वैसे वह ज्ञान में बढ़ेगा। ध्यान और ज्ञान का परस्पर अन्योन्याश्रित संबंध है। भगवान बुद्ध ने कहा है-
“ नत्थि झानं अपञ्ञस्स पञ्ञा नत्थि अझायतो । यम्हि झानञ्च पञ्ञा च स वे निब्बाण सन्ति के ।।”
इस प्रकार ज्ञान और ध्यान में बढ़ा हुआ साधक स्थूल-सूक्ष्मादि सभी आवरणों को पार कर परम पवित्र बन परम प्रभु परमात्मा से जा मिलकर एक हो जाता है। फिर तो यह स्वाभाविक बात है कि लो लाखपति होगा, वह खाक छानने क्यों जाएगा? अथवा जो करोड़पति होगा, वह कौड़ी चुनने क्यों जाएगा? गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में हम कह सकेंगे-
“ ब्रह्म पियूष मधुर शीतल, जो पै मन सो रस पावै ।
तौ कत मृग जल रूप विषय, कारण निशिवासर धावै ।।”
इसमें संदेह नहीं कि ‘ध्यान’ कैसे किया जाता है, इसका यत्न संत सद्गुरु से सीखना चाहिए। ध्यान का परिणाम विषय का परित्याग और निर्विषय तत्व का ग्रहण होना होता है। शास्त्रेक्त है-‘ध्यानं निर्विषयं मनः।’
शास्त्रें में संत सद्गुरु की बड़ी महिमा गायी गयी है। वास्तव में यह ध्यानयोग का यत्न संत सद्गुरु ही बतला सकते हैं। दूसरा कोई नहीं। दूसरे जानते ही नहीं। कोई कहे, ध्यान तो हम भी करते हैं। राम का करते हैं, कृष्ण का करते हैं। ब्रह्मा का करते हैं, शिव का करते हैं, विष्णु का करते हैं, गणेश का करते हैं, सूर्य का करते हैं और भी देवी-देवताओं के करते हैं। यह बहुत अच्छी बात है-आप जप भी करते हैं और ध्यान भी, मगर यह सुनिश्चित रूप से समझ लीजिए कि जप और ध्यान की जो यथार्थ विधि है, उस विधि को संत सद्गुरु से जाने बिना करते हैं, तो वह जप और ध्यान महाफलदायक नहीं हो सकता।
मान लीजिए-एक गंधक है, जो पंसारी की दूकान में मिलती है और एक गंधक है, जो वैद्यराज के यहाँ मिलती है। दोनों गंधक ही हैं; लेकिन दोनों में अंतर है। गुण-भेद में अंतर है। पंसारी के यहाँ का गंधक आप खा लेंगे, तो शरीर में घाव फूटकर निकल आवेगा और वैद्यराजजी के यहाँ की गंधक आप खाएँगे, तो वह घाव को मिटाएगी। आप कहेंगे-दोनों गंधक ही है, फिर अंतर क्यों? अंतर इसलिए है कि पंसारी के यहाँ की गंधक कच्ची होती है और वैद्यराज जी के यहाँ की गंधक शोधी हुई होती है। उसी तरह आप अपने मन से जप, ध्यान जो कुछ करते हैं, वह पंसारी के यहाँकी कच्ची गंधक के सदृश और संत सद्गुरु, जिन्होंने तपस्या की है, साधना की है, प्रभु का प्रत्यक्षीकरण किया है, सत्य का साक्षात्कार किया है, वे जो बतलाते हैं, वह शोधी हुई गंधक के समान है। इसलिए भवरोग का यह नाश करेगी, वह नहीं। इस संबंध की एक मधुर कथा है, सुनिये-
एक साधु बाबा थे। वे मधुकरी वृत्ति से भोजन कर जीवन-यापन करते थे। जिसके दरवाजे पर वे जाते, टेर लगाते-‘राम-राम करै, भवसागर टरै।’ ऐसे ही एक बार वे एक सद्गृहस्थ के दरवाजे पर गये और टेर लगाने लगे-‘राम-राम करै, भवसागर टरै।----’ उस गृहस्थ के यहाँ सामने ही दरवाजे पर एक लोहे के पिंजड़े में सुग्गा रहता था। उसने साधु बाबा की टेर सुनकर कहा-‘राम-राम करै, लौह पिंजड़ पड़ै।’ साधु बाबा ने उस सुग्गे से पूछा, ‘अरे! यह क्या बोल रहे हो? कितने लोग राम का नाम लेकर संसार-सागर से तर गये। तुम उलटी बात क्यों बोलते हो?’ तोते ने कहा, ‘बाबा! आपने किसी किताब में पढ़ा होगा अथवा किसी साधु बाबा ने आपको बहका दिया होगा कि राम-नाम कहने से लोग भवसागर तरते हैं। आपका तो अध्ययन वा श्रवण ज्ञान है; किन्तु मेरा तो अनुभव ज्ञान है। देखिये न, मैं राम-राम कहता हूँ और लोहे के पिंजड़े में जकड़ा हूँ। दूसरे मेरे जाति भाई अथवा और भी पक्षी, जो राम-नाम नहीं कहते, वे स्वतंत्र उड़ते- फिरते हैं। जहाँ उनकी इच्छा होती है, वहाँ वे जाते हैं; जो खाने की इच्छा होती है, खाते हैं और मुक्त भाव से इस नील गगन की छाया मे विचरण करते हैं।’ साधु बाबा ने कहा-‘युक्ति करै तो सहजे तरै। तुम राम-नाम तो कहते हो सही; किन्तु युक्ति जानकर नहीं।’ बिना युक्ति के राम-राम करते हो, इसलिए बंधन में पड़े हो। बिना युक्ति के मुक्ति नहीं मिलती। जो युक्ति जानकर करता है, उसी को मुक्ति मिलती है। इसीलिए कहा है-‘युक्ति करै तो सहजे तरै।’ युक्ति जानो और करो, फिर देखो-मुक्ति मिलती है या नहीं। उस सुग्गे ने कहा, ‘बाबा! मैं कहाँ किनको ढूँढ़ने जाऊँ? आप ही युक्ति बताने की कृपा कीजिए।’ साधु बाबा ने उसे एक क्रिया बता दी, जिसका वह नित्य नियम पूर्वक अभ्यास करने लगा। अभ्यास करते-करते उसको कुछ-कुछ सफलता मिलने लगी। शनैः शनैः उसका प्राण स्पंदन निरोध होने लगा। एक दिन जब वह क्रिया कर पिंजड़े मे पड़ा था, उसी समय उसके मालिक ने उसको खिलाने के लिए पिंजड़ा खोला, तो देखा कि सुग्गे की प्राण-गति बंद है। उसको मरा जानकर उसने पिंजड़े से निकालकर फेंक दिया। सुग्गा मौका पाकर उड़कर गगन में स्वतंत्र विचरण करने लगा। यह तो एक कथा है। यथार्थता इसके अंदर क्या है, समझिए। महायोग गोरखनाथजी महाराज ने कहा है-
‘सप्त धातु का काया प्यंजरा,
ता माहिं ‘जुगति’ बिन सूवा । ’
“ सतगुरु मिलै त उबरै बाबू, नहिं तौ परलै हूवा ।।”
रस, रक्त, मेद, मज्जा, मांस, अस्थि और वीर्य; इन सात धातुओं के संयोग से इस शरीर-रूपी पिंजड़े का निर्माण हुआ है। इसमें जीवरूपी सुग्गा बैठा हुआ है, इसको कुछ सिखा दिया जाता है, बोलता है। जैसे राम-राम, शिव-शिव, वाह गुरु आदि जो कुछ सिखा दिया, वह बोल रहा है; किन्तु विधिविहीन बोल रहा है। इसलिए वह शरीर और संसार के बंधन में, काल के जाल में पड़ा है। अगर सच्चे सद्गुरु से भेंट हो जाए, उनसे सद्युक्ति मिल जाए और तदनुकूल आचरण करने लग जाए, तब तो ‘उबरै बाबू’ यानी उद्धार ही उद्धार है, अन्यथा पिंजड़े में तो पड़ा हुआ है ही, प्रलय में पड़ा हुआ है ही, आवागमन के चक्र में रहेगा ही।
जैसे एक मकान बनाना चाहते हैं। प्रश्नोदय होता है-क्यों बनाना चाहते हैं? कहेंगे कि सुखपूर्वक रहने के लिए, आराम करने के लिए-जाड़ा, गर्मी, बरसात से अपनी रक्षा के लिए। मानलीजिए, मकान की मजबूत नींव हमने दे दी। नींव के ऊपर दीवार खड़ी कर दी किन्तु यदि छत नहीं दी गयी, तो परिणाम क्या होगा? जाड़ा, गर्मी, बरसात से हम दुःखी होते रहेंगे। इसी प्रकार भगवद्भक्ति रूपी भव्य भवन निर्माण के लिए ईश्वर पर विश्वास करना नींव है। सत्संग करना, दीवार खड़ी करनी और संत सद्गुरु से सद्युक्ति प्राप्त कर भजन करना, छत देना है। परम प्रभु परमात्मा पर हमारी आस्था, विश्वास है, तो हमने मजबूत नींव दे दी। सत्संग में हमारा प्रेम है, सत्संग करते हैं, जहाँ सत्संग होता है, वहाँ जाते भी हैं, तो यह दीवार हमने खड़ी कर दी; किन्तु यदि संत सद्गुरु की सद्युक्ति रूपी छत नहीं है, तो हम क्षत-विक्षत होते रहेंगे। दैहिक, दैविक, भौतिक; इन त्रितापों से संतप्त होते रहेंगे। जीवन दुःखमय रहेगा। शाश्वत सुख का मुख नहीं देख सकेंगे। परम कल्याण नहीं हो सकेगा और न अविचल शांति की प्राप्ति हो सकती है। अतएव संत सद्गुरु की अपरिहार्य आवश्यकता है।
इसका अर्थ यह नहीं कि जैसे-तैसे को गुरु धारण कर लिया जाए। गुरु धारण के संबंध में बड़ी सावधानी की आवश्यकता है। इसलिए हमारे यहाँ कहावत प्रसिद्ध है, ‘गुरु कीजिये जान और पानी पीजिये छान।’
कच्चे पीतल का सिक्का भी काफी चमकीला होता है। उसको यदि आपने सोना मानकर घर में जुगाकर रखा है, तो मौका आने पर आप धोखा खा जाएँगे; क्योंकि उसकी कीमत सच्चे सोने की-सी नहीं मिलेगी। जब भी कीमत मिलेगी, तो कच्चे पीतल की ही। इसलिए पहले पहचान कर लीजिए। जान लीजिए कि जिसको हमने सच्चा सद्गुरु मान रखा है, वह कहीं कच्चा तो नहीं है। इसके लिए संत की चेतावनी सुनिये-
“ भेष बराबर होइ रहै, भेद बराबर नाहिं ।
तोल बराबर घूँघची, मोल बराबर नाहिं ।।”
तुला में एक घुँघची डालकर उससे सोने को तौलते हैं। तौल में घुँघची और सोना दोनों बराबर है; किन्तु दोनों की कीमत एक-सी नहीं हो सकती। मान लीजिए, हमने दस घुँघचियाँ लीं और उनके बराबर सोने की माप की। तोल में तो घुँघची और सोना दोनों बराबर-बराबर है; किन्तु मोल में इसी में गोल है। संत जन कहते हैं, यह पृथ्वी गोल है। चंद्रमा गोल है। सूर्य भी गोल है। विश्व ब्रह्मांड आदि गोल है। सभी गोलों को जानो और गोल विन्दु का मोल नहीं जानो, तो तुम्हारा अनमोल मानव-जीवन भी गोल समझो। तुलसी साहब ने कहा-
“ तिल परमाने लगे कपाटा ।
मकर तार जहँ जीव का बाटा ।।
इसका भेद जानै जो कोई ।
तुलसी दास साध है सोई ।।”
अंतर प्रवेश की यही युक्ति है। बिना युक्ति के मुक्ति नहीं मिल सकती। इसीलिए कहावत है, जहाँ युक्ति है, वहाँ मुक्ति है। रेलगाड़ी लौहलीक पर चलती है। यदि इंजन लौहलीक से नीचे उतर कर गढ़े में चला जाए, तो सैकड़ों, हजारों आदमी मिलकर भी उसको उस लीक पर ठीक से नहीं रख सकते। किन्तु क्रेन आता है और इंजन को गढ़े से निकालकर लौहलीक पर लाकर रख देता है।
अंकुश बहुत छोटा होता है और हाथी कितना बड़ा होता है। लेकिन युक्ति से वह छोटा-सा अंकुश इतने बड़े हाथी को वश में करके रखता है। यह है युक्ति का चमत्कार।
“ बिन दया संतन की मेँहीँ, जानना इस राह को ।
हुआ नहीं होता नहीं, वह होन हारा है नहीं ।।”
राजस्थान की कथा है। एक बूढ़े सेठजी थे। वे बीमार पड़े। उस समय उनका लड़का विदेश में था। उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति का वसीयतनामा लिखा, जिसके मजमून में लिखा था, ‘मेरी आधी सम्पत्ति धर्मखाते में दान दे दी जाए। बची हुई सम्पत्ति का आधा हिस्सा मेरे सुपुत्र को दे दिया जाए, चौथाई हिस्सा मेरे नौकर को और पाँचवाँ हिस्सा दाई को दिया जाए। समय पाकर सेठजी का शरीर छूट जाता है। सम्पत्ति का वसीयतनामा के अनुसार बँटवारा हो जाता है। अंत में बच जाता है उन्नीस ऊँट। कोई भी उचित कीमत देकर ऊँट लेने को तैयार नहीं। समस्या सामने खड़ी हो गयी। गाँव के पंच पंचायत कर निर्णय नहीं कर सके कि क्या किया जाए? गाँव के पास ही दूसरे गाँव में एक वृद्ध प्रतिष्ठित सज्जन रहते थे। वे बड़ी तीव्र बुद्धि के थे। उलझी गुत्थी को सुलझाने में वे बड़े कुशल थे। उनको बुलाया गया। वे ऊँट की सवारी पर आये। राजस्थान में ऊँट की सवारी बहुत प्रचलित है। समस्या उनके सामने रखी गयी। उन्होंने स्थिति को अध्ययन किया और कहा, ‘आप मेरा यह ऊँट भी उन्हीं ऊँटों के साथ मिला दीजिए। अब कितने हुए?’ उत्तर मिला, ‘बीस ऊँट।’ उक्त सज्जन ने कहा,‘आधा अर्थात् दस ऊँट सेठजी के सुपुत्र को दे दिये जाएँ। चौथा हिस्सा यानी पाँच ऊँट नौकर को दे दिये जाएँ और पाँचवाँ हिस्सा यानी चार ऊँट घर की दाई को दिये जाएँ। अब सब मिलाकर कितने ऊँट हुए? सभी लोगों ने एक स्वर में उत्तर दिया-10+5+4=19 (उन्नीस) ऊँट हुए; लेकिन एक ऊँट तो बच गया। उक्त सज्जन ने कहा, यह एक ऊँट तो मेरा है, जिस पर मैं चढ़कर आया था और अब चढ़कर चला जाऊँगा। इसी प्रकार संतों की सद्युक्ति है। इसीलिए कहा गया है, ‘पंडितों की वेद और संतों का भेद। भगवत्प्राप्ति का भेद संतों के पास है। इसी के लिए संत सद्गुरु की आवश्यकता है।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन 13-2-1988 ई0 को गमहरिया (जन्मभूमि), मधेपुरा जिला वार्षिक के अवसर पर प्रातःकाल के सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जून 1988 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द माताओ एवं बहनो!
आपलोग मुझे साधु-वेश में देखकर यह न समझें कि मैं आपलोगों को कुछ उपदेश या आदेश देने आया हूँ। मैं तो संतों का संदेश देने आया हूँ। जिस धर्म को मैंने स्वीकार किया है, उस धर्म का नाम है संतमत। संतमत यानी जितने भी संत हो चुके हैं, हैं अथवा होंगे, उन सबका जो मत है, वह है-संतमत। चाहे वे किसी भी जाति के हों, किसी भी पाँति के हों, किसी भी वेश-भूषा के हो, किसी भी धर्म के, किसी भी मजहब के अथवा किसी भी सम्प्रदाय के हों, किसी भी देश के कोई क्यों न हों, जिनके लिए यह उपनिषद्- वाक्य सार्थक हो चुका हो, संत हैं।
“ भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।।”
-महोपनिषद्
अर्थात्-परे से परे को (परमात्मा को) देखने पर हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं।
ऐसे जो कोई हों, वे संत हैं। उपनिषद्- वाक्य में जो ‘ग्रंथि’ शब्द आया है, वह कौन-सी ग्रंथि है? गोस्वामीजी के शब्दों में हम कह सकेंगे-
“ जड़ चेतनहिं ग्रंथि पड़ि गई ।
यद्यपि मृषा छूटत कठिनई ।।”
जिनकी यह जड़ और चेतन की ग्रंथि खुल गयी हो, वे संत कहलाते हैं। इस ग्रंथि के खुलने से क्या होता है? संत कबीर साहब के शब्दों में है-
लाल लाल जो सब कोइ कहै सबकी गाँठी लाल ।
गाँठी खोलि के परखै नाहीं तासे भयो कंगाल ।।
हम जब गाँठ बाँधते हैं, तो उसमें कुछ रखते हैं। जड़ और चेतन की जो गाँठ है, उसके खोलने से हमें क्या मिलता है? गाँठ खुल जाने से कुछ मिलना चाहिए। संत कबीर साहब कहते हैं-लाल मिलता है। वह लाल है क्या? वही परम प्रभु परमात्मा है। कहने का तात्पर्य यह कि जड़ और चेतन की ग्रंथि के खुलने से परमात्मा-रूपी लाल की प्राप्ति होती है। जबतक परमात्मारूपी लाल की प्राप्ति नहीं होती, तबतक हम कंगाल बने रहेंगे। जिस दिन, जिस क्षण जब कोई उस लाल को पा लेता है, उस दिन, उसी क्षण, उसी समय वह मालोमाल हो जाता है, उसका जीवन निहाल हो जाता है और फिर उसपर काल का दाल नहीं गलती। इस प्रकार जो परम प्रभु परमात्मा को प्राप्त किये होते हैं, वे संत कहलाते हैं। उन्हीं संतों के मत को संतमत कहते हैं।
संतमत में कोई संत बड़े अथवा कोई छोटे नहीं, बल्कि दादू दयालजी महाराज की वाणी में है-
“ जे पहुँचे ते कहि गये, तिनकी एकै बात ।
सबै सयाने एक मत, तिनकी एकै जात ।।”
संतमत सभी संतों का समान रूप से सम्मान करता है, सबका समादर करता है। संतमत में किन्हीं संत को श्रेय अथवा किन्हीं को हेय दृष्टि से देखा नहीं जाता है, बल्कि संतमत में सभी संत उपादेय है। संतमत किसी भी मत का खंडन नहीं करता। इस संबंध की एक लघु कथा सुना दूँ।
एक समय की बात है। बादशाह अकबर के दरबार में बीरबल नाम के एक व्यक्ति रहते थे। वे बहुत ही चतुर और बुद्धिमान थे। एक दिन बादशाह ने पूछा, ‘बीरबल! जो कोई तुमसे कुछ पूछता हूँ, तुम अविलंब उत्तर देते हो। अच्छा यह बताओ, तुम कितने पढ़े-लिखे हो?’ बीरबल ने कहा, ‘जहाँपनाह! थोड़ा-बहुत।’ बादशाह ने पूछा, ‘एक बात कहो-थोड़ा अथवा बहुत।’ बीरबल ने उत्तर दिया, ‘बादशाह सलामत! जहाँ मुझसे कम पढ़े-लिखे लोग होते हैं, वहाँ मैं बहुत हो जाता हूँ और जहाँ बहुत पढ़े-लिखे लोग होते हैं, वहाँ मैं कम हो जाता हूँ। इसलिए थोड़ा-बहुत दोनों बातें मैंने कहीं।’ बादशाह ने कहा, ‘अरे! तुम बात तो बहुत बनाना जानते हो। अच्छा, मैं एक लकीर खींच देता हूँ-इसको तुम छुओ नहीं, मिटाओ नहीं; लेकिन छोटी बना दो।’ बीरबल ने क्या किया? उस रेखा के समानान्तर नीचे उससे बड़ी रेखा खींच दी और कहा, ‘जहाँपनाह! देखिये, आपकी रेखा का मैंने स्पर्श नहीं किया, उसको मेटा नहीं, फिर भी वह छोटी हो गयी।’ इस तरह संतमत सबके सामने अपना विचार व्यक्त करता है, अपना आदर्श रखता है। अपनी रुचि के अनुकूल जिनको जो उत्तम लगे, ग्रहण करें। हमारे गुरुदेव कहा करते थे, ‘जिस देश की आध्यात्मिकता ऊँची होगी, उस देश के लोग सदाचारी होंगे। जिस देश के लोग सदाचारी होंगे, उस देश की सामाजिक नीति अच्छी होगी और जिस देश की सामाजिक नीति अच्छी होगी, उस देश की राजनीति कभी भी बुरी हो नहीं सकती।’
लोग राजनीति से ही सुधार करना चाहते हैं। नीचे को ऊपर में रखकर सुधार करना चाहते हैं; लेकिन ऐसा हो नहीं सकता। आज क्या हो रहा है? पोस्टर छापे जाते हैं। पोस्टर पर लिखा रहता है-‘भ्रष्टाचार-निरोध-दिवस’ मनाया जाएगा। पोस्टर पर लिख देने से और भ्रष्टाचार-निरोध-दिवस मनाने से क्या भ्रष्टाचार मिट जाएगा? कभी नहीं मिट सकता। सरकार की कानूनी लाठी चलती है; लेकिन भ्रष्टाचार बंद क्यों नहीं होता? दुराचार, अनाचार, भ्रष्टाचार, व्यभिचार आदि न जाने क्या-क्या कुकर्म फैला हुआ है। क्यों? इसलिए कि आध्यात्मिकता की कमी है। जहाँ आध्यात्मिकता आयेगी, वहाँ सदाचारिता स्वाभाविक आएगी। हमारे प्रातःस्मरणीय परम पूज्य अनंत श्रीविभूषित श्रीसद्गुरु देवजी महाराज कहा करते थे-‘जिस तरह फ़ के साथ न् का संबंध है, वैसे ही आध्यात्मिकता के साथ सदाचारिता का संबंध है। ईश्वर-भक्ति के साथ सदाचार का संबंध है। दोनों को कोई अलग-अलग नहीं कर सकता। यह संतमत आध्यात्मिक ज्ञान देता है, एक ईश्वर का ज्ञान देता है। वह ईश्वर स्वरूपतः कैसा है? विश्व का प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद कहता है-वह ईश्वर ‘अवाघ्मनसगोचर’ है। अर्थात् मन और वचन से अगोचर है। केनोपनिषद् कहती है-
“ यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।”
वह तो माया है। गोस्वामी कहते हैं-
“ गो गोचर जहँ लग मन जाई ।
सो सब माया जानहु भाई ।।”
अर्थात् जो मन से मनन नहीं किया जाता, बल्कि जिससे मन मनन किया हुआ कहा जाता है, उसी को तू ब्रह्म जान। जिस इस (देशकालाविच्छिन्न वस्तु) की लोक उपासना करता है, वह ब्रह्म नहीं है।
गो=इन्द्रिय। गोचर=प्रत्यक्ष। अर्थात् इन्द्रियों से जो कुछ भी ग्रहण करते हैं, सो सब माया-ही-माया है। जहाँ तक मन जाता है, मन से जो कुछ भी जाना जाता है, वह सारा का सारा माया है, ईश्वर नहीं है। हमारी पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, चार अंतःकरण यानी मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार-ये चौदह इन्द्रियाँ हैं। इन सबसे जो कुछ भी ग्रहण होता है, जो कुछ भी जाना जाता है, वह माया है, वह ईश्वर नहीं है। गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-ईश्वर कैसा है?
“ अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।
जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।।”
ईश्वर के संबंध में पहला शब्द उन्होंने कहा है-अलख=यानी उस ईश्वर को इन आँखों से नहीं देख सकते। क्यों? जरा हम सोचकर देखें। किसी कवि की उक्ति कितनी अच्छी है। वे कहते हैं-
“ इस नजर से हवा भी न दिखलायेगी ।
इससे परमात्मा दीखे हँसी आयेगी ।।”
इन आँखों से हवा नहीं दीखती, उसमें जो त्रसरेणु है, कीटाणु है तथा उसमें जो जीवन शक्ति है, उसको इन आँखों से कैसे देख सकेंगे? ईश्वर तो बहुत दूर की बात है। संत कबीर साहब ने कहा है-
‘चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना ।’
अर्थात् परम प्रभु परमात्मा को प्राप्त करने के लिए ये नेत्र पर्याप्त नहीं है। यदि तुम ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम स्वयं ईश्वर को प्राप्त कर सकते हो। ईश्वर-दर्शन में इन्द्रियाँ सक्षम नहीं हैं। अभी यदि कोई रूप देखना चाहे, तो किससे देखेगा? आँख से। अथवा जिस किसी ने भी जब कभी भी रूप देखा है, तो किससे देखा है? उत्तर होगा-आँख से। इसी प्रकार जब किसी ने ईश्वर को देखा है, तो चेतन आत्मा से ही और अब भी जो कोई ईश्वर को देखेगा, चेतन आत्मा से ही।
आज तक कोई बतला नहीं सकता कि उसने कान से रूप देखा है अथवा आँख से शब्द सुना है। जब कोई सुनना चाहेगा, तो वह कान से ही सुनेगा। दो छेद नाक में भी है और दो छेद कान में भी; लेकिन कोई चाहे कि नाक से हम सुनने का काम लें, कान से सूँघने का, तो यह कभी संभव नहीं। जब कोई कुछ सुनेगा, तो कान से ही और जब कोई कुछ सूँघेगा, तो नाक से। कान का काम नाक नहीं कर सकती और नाक का काम कान नहीं कर सकता है। नासिका से गंध ग्रहण होगी; आँख से रूप ग्रहण होगा, रसना से रसास्वादन होगा और त्वचा से स्पर्श का ज्ञान होगा। किसी इन्द्रिय में यह शक्ति नहीं है कि वह दूसरी किसी भी इन्द्रिय का काम कर सके। परम प्रभु परमात्मा ने जिस इन्द्रिय के जिम्मे जो काम नियुक्त किया है, उससे अधिक दूसरा काम वह नहीं कर सकती। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि जिस तरह रूप देखने का काम आँख से, शब्द सुनने का काम कान से, गंध ग्रहण करने का काम नाक से, रसास्वादन का काम जिभ्या से और स्पर्श का काम त्वचा से होता है, उसी तरह ईश्वर का ज्ञान चेतन आत्मा से होगा। चेतन आत्मा ही ईश्वर को जान सकती है, पहचान सकती है। चेतन आत्मा के अतिरिक्त ईश्वर को और कोई प्राप्त नहीं कर सकता।
वह चेतन आत्मा भी अभी जिस अवस्था में है, उस अवस्था में ईश्वर का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकती है। हम तीन अवस्थाओं में बराबर आते-जाते रहते हैं। वे तीन अवस्थाएँ कौन-सी हैं? एक जाग्रत की अवस्था, दूसरी स्वप्न की अवस्था और तीसरी सुषुप्ति की अवस्था है। इन अवस्थाओं में जबतक हम जाते-आते रहेंगे, ईश्वर का ज्ञान नहीं होगा। हमारी जितनी भी इन्द्रियाँ हैं, वे सब किस-किस जगह और किस प्रकार से प्रतिष्ठित हैं, जरा इसपर ध्यान दीजिए। आँख से ऊपर है। उसके नीचे कान है। इसलिए आँख जितनी दूर के रूप को ग्रहण कर सकती है, कान उतनी दूर के शब्द को सुन नहीं सकता है। क्यों? इसलिए कि आँख से कान नीचे है। कान जितनी दूर के शब्द को सुन सकता है, नाक उतनी दूर की गंध को ग्रहण नहीं कर सकती। क्यों? इसलिए कि कान से नाक नीचे है। नाक जितनी दूर की गंध को ग्रहण कर सकती है, जिभ्या उतनी दूर से रस का आस्वादन नहीं कर सकती। क्यों? इसलिए कि नाक से जिभ्या नीचे है। उदाहरणार्थ टेबुल पर एक गिलास दूध है। हम उसको देखकर यह नहीं बता सकते कि उसमें चीनी मिली है या नहीं। जब हम उसमें से एक बूँद लेकर जीभ पर डालेंगे, तभी हमारी जिभ्या निर्णय दे पाएगी कि दूध में चीनी मिली हुई है अथवा नहीं। मेरे कहने का आशय है कि जैसे-जैसे हमारी इन्द्रिय नीचे की ओर होती गयी है, उसकी शक्ति भी घटती गयी है। यही हेतु है कि वेद में कहा है-
“ ओ3म् स योजत उरुगायस्य जूतिं
वृथा क्रीडन्तं मिमिते न गावः।”
इस मंत्र के द्वारा वेद भगवान उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यो ! हाथ, पैर, गुदा, लिंग, रसना, कान, त्वचा, आँखें, नाक और मन-बुद्धि आदि इन्द्रियों के द्वारा ईश्वर को प्रत्यक्ष करने की चेष्टा करना, झूठ ही एक खेल करना है; क्योंकि इनसे वह नहीं जाना जा सकता। वह तो इन्द्रियातीत है।
आँख से नीचे अज्ञान की दशा और आँख से ऊपर ज्ञान की अवस्था है, इसलिए अपने को आँख से ऊपर ले चलो। स्वामी विवेकानंदजी ने कहा था, ‘हमलोगों का मस्तिष्क अनंत ज्ञान का भंडार और अछोर पुस्तकालय है। यदि विद्वान बनना चाहते हो, तो आँख से ऊपर का अध्ययन करो। अपने मस्तिष्क का अध्ययन करो।’ आज हम अपने देश की शिक्षा समाप्त कर लेते हैं, पश्चात् विशेष शिक्षा के लिए विदेश जाते हैं। विदेश की शिक्षा प्राप्त कर पुनः स्वदेश लौटते हैं। इतनी शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद हम करते क्या हैं? बोलते हैं फूस और लेते हैं घूस और अत्याचार, अनाचार, दुराचार, भ्रष्टाचार, व्यभिचार आदि क्या-क्या करते हैं, किसी से छिपा नहीं है। यह विद्या पानेवाले विद्वानों की परिभाषा नहीं है। विद्या तो उसको कहते हैं-‘सा विद्या या विमुक्तये।’
जिससे मुक्ति मिलती है, विद्या तो वह है। जिससे हम संसार में फँसते हैं, वह विद्या नहीं है। वह तो अविद्या है-
“ सब क्लेशों की मूल अविद्या है दुःखदायी ।
जो अभाग्यवश आज यहाँ घर-घर में छायी ।।”
हाँ, तो मैं कहना चाह रहा था-जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति-इन तीन अवस्थाओं में जबतक आते-जाते रहेंगे, प्रभु की पहचान नहीं होगी। प्रभु की पहचान तो दूर है, अपनी पहचान भी नहीं हो सकती। और जबतक अपनी पहचान नहीं होगी, प्रभु की भी पहचान नहीं होगी, यह दृढ़तापूर्वक जानिये।
अभी हम जगे हुए हैं, हमें अपने शरीर का ज्ञान है और अपने शरीर का ज्ञान होने के कारण इस हॉल में जितने लोग बैठे हुए हैं, सबके शरीरों का ज्ञान है। कुछ घंटों के बाद हम सो जायेंगे, गहरी नींद में चले जायेंगे। उस समय हमें अपने शरीर का ज्ञान नहीं रहेगा, तो उस समय हमें आस-पास की किसी भी वस्तु का ज्ञान नहीं रहेगा। उस समय हमसे सटकर ही, हमारे बगल में ही यदि कोई बैठा हो, तो उसका हमको कुछ भी ज्ञान-भान नहीं होगा। हमारी नींद टूटेगी, आँखें खुलेंगी, तब हमें अपने शरीर का ज्ञान होगा। और जब हमें अपने शरीर का ज्ञान होगा, तभी व्यक्ति और वस्तु का भी ज्ञान होगा। इस उदाहरण से जाना जाता है कि अपने शरीर का ज्ञान नहीं रहने के कारण अन्य शरीरों का ज्ञान नहीं रहता और जब अपने शरीर का ज्ञान होता है, तब अन्य शरीरों का भी ज्ञान हो जाता है, उसी तरह जबतक अपनी आत्मा की पहचान नहीं होगी, परमात्मा की भी पहचान नहीं होगी। अपनी आत्मा की पहचान होने से परमात्मा की भी पहचान हो जाएगी।
जिस तरह एक बूँद जल की जो कोई पहचान कर लेता है, तो कटोरा, गिलास, लोटा, बाल्टी, तालाब, नदी और समुद्र जल; सबकी पहचान नहीं होगी। लेकिन जबतक एक बूँद जल की पहचान नहीं होगी, तबतक किसी भी जल की पहचान नहीं होगी। उसी तरह ईश्वर का अंश यह जीवात्मा है। गो0 तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
“ ईश्वर अंश जीव अविनासी ।
चेतन अमल सहज सुखरासी ।।
सो मायावश भयउ गुसाईं ।
बँधेउ कीर मरकट की नाईं ।।”
यह जीव ईश्वर का अंश है। जो कोई अंश को पहचान लेगा, वह अंशी को पहचान लेगा। जो अंश को नहीं पहचानेगा, वह अंशी को भी नहीं पहचान सकेगा। एक भक्तिन हुई है सहजोबाई, उन्होंने भी यही बात कही है-
“ पानी का सा बुलबुला, यह तन ऐसा होय ।
पीव मिलन को ठानिये, रहिये ना पड़ि सोय ।।
रहिये ना पड़ि सोय, बहुरि नहिं मनुखा देही ।
आपुन ही कूँ खोज, मिलै जब राम सनेही ।।
हरि कूँ भूले जो फिरै, सहजो जीवन छार ।
सुखिया जब ही होयगो, सुमिरेगो करतार ।।”
‘आपुन ही कूँ खोज मिले जब राम सनेही।’ जब कोई अपनी खोज कर लेता है, अपनी पहचान कर लेता, तभी ईश्वर को पहचान होती है। इसीलिए संतों ने बतलाया कि पहले अपनी पहचान करो।
स्वामी बिरजानंद जी महाराज के पास आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द जी महाराज पहुँचे। स्वामी विरजानंदजी महाराज के बाहर के नेत्र नहीं थे; लेकिन भीतर के नेत्र खुले थे। जब स्वामी दयानंदजी महाराज ने उनको प्रणाम किया, तो उन्होंने पूछा, ‘कौन?’ स्वामी दयानंदजी महाराज कहते हैं, इसीलिए तो मैं आपके पास आया हूँ कि मैं कौन?’ एक बंगाली महात्मा ने कहा है-
“ आमि आमि करि बुझिते ना पारि ।
के आमि आमाते आछे कि रतन ।।
कौन शक्ति बले बेड़ाय चले बले ।
कार अभावे हवे देह अचेतन ।।
देह माँझे आछि प्राणेर संचार ।
तहा तेई बली आमी वा आमार ।।
प्राण गेले चले हवे शवाकार ।
केवाकार कोथा रवे धन जन ।।”
‘आमी-आमी करी’ हम हैं, हम हैं-यह तो कहते हैं; किन्तु हम क्या हैं, कभी भेंट हुई है अपने से? जबसे हमलोग जन्म लिये, जन्म लेने के बाद इतने दिन बीत गये, इतनी उम्र हो गयी; किन्तु क्या भेंट हुई है अपने से। एक महात्मा ने कहा-
“ बड़ी अचरज बात ।
संग ही में बसै पिया, नहीं मुलाकात ।।”
कभी मुलाकात हुई उससे? कैसे मुलाकात होगी उससे? संतों ने बतलाया है-मुलाकात नहीं होने का कारण क्या है?
किसी की आँख पर पट्टी बँधी हुई हो, तो क्या वह कभी किसी को देख सकता है? अथवा आँख में देखने की शक्ति रहने पर भी यदि हम रंगीन शीशे का चश्मा पहने हुए हैं, तो क्या हम संसार के सही रूप देख सकते हैं। उस समय तो हमें चश्में के रंग के अनुरूप रंग की मालूम पड़ेगा। इसी प्रकार हमारे ऊपर पट्टी और चश्मा दोनों लगे हुए हैं। ये पट्टी और चश्मा क्या है? शरीर-रूपी पट्टी और इन्द्रियरूप चश्मा है। चेतन आत्मा के ऊपर में स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण-ये चार जड़ शरीर हैं। ये चार जड़ावरण हैं। इनके बाद भी एक आवरण है, जिसको चेतन कहते हैं। ये पट्टियाँ हैं। इन पट्टियों को हम हटावें। यह चेतन आवरण शीशे के सदृश है। इसके इस पार से उस पार तक देखा जाता है। जैसे किसी जौहरी की दुकान पर या स्वर्णकार की दुकान पर हम जाते हैं, उनकी शीशे की आलमारी में हम बाहर से देखते हैं कि अमुक-अमुक जेवर हैं; किन्तु उसका स्पर्श हम नहीं कर पाते। उसी प्रकार यह चेतन का आवरण है। इस आवरण में रहकर हम ईश्वर-दर्शन कर सकते हैं; किन्तु एकाकार नहीं हो सकते। एकाकार तभी होंगे, जब यह चेतन आवरण भी हट जाए। चेतन आवरण के हट जाने पर फिर जीव-पीव में भिन्नता नहीं रह जाती, दोनों मिलकर एक हो जाते हैं। मुंडकोपनिषद् कहती है-
“ यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय ।
तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।।”
जिस प्रकार निरन्तर बहती हुई नदियाँ अपने नाम-रूप को त्यागकर समुद्र में अस्त हो जाती हैं, उसी प्रकार विद्वान नाम-रूप से मुक्त होकर परात्पर दिव्य पुरुष को प्राप्त हो जाता है। तात्पर्य यह कि नामरूप का अवलंब लेकर अनामी और अरूपी तक पहुँच जाते हैं। जिस नदी का जल-समुद्र में जाकर मिल जाता है, उस जल की संज्ञा नदी न होकर नदीश हो जाती है। उसी प्रकार जब जीवात्मा परमात्मा से मिल जाता है, तो वह जीवात्मा नहीं रहकर परमात्मा हो जाता है। गोस्वामीजी ने लिखा है-
“ सरिता जल जलनिधि महँ जाई ।
होइ अचल जिमि जीव हरि पाई ।।”
जिस तरह सरिता का जल समुद्र में जाकर स्थिर हो जाता है, उसी प्रकार यह जीव उस परम प्रभु परमात्मा को पाकर स्थिर हो जाता है, उसका आवागमन छूट जाता है। जबतक जीव परमात्मा को पाकर स्थिर नहीं हो जाता है, तबतक ‘पुनरपि जननं पुनरपि मरणम्। पुनरपि जननी जठरे शयनम्।’ का भोग भोगता रहता है। जीव का जबतक संसार में आना-जाना बना रहेगा, तबतक वह नाना योनियों के विभिन्न प्रकार के दुःखों का अनुभव करता रहेगा, विभिन्न प्रकार के कष्टों का अनुभव करेगा, विभिन्न प्रकार के विपत्ति्ायों का अनुभव करेगा। हमारे प्रातः स्मरणीय परम पूज्य अनंत श्रीविभूषित महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के शब्दों में हम कह सकेंगे।
एक ईश्वर पर जो विश्वास करते हैं, किसी भी क्षण, किसी भी समय जो उनकी याद करते हैं, ईश्वर की उनपर दया होती है। यह संतमत बतलाता है। ईश्वर अनेक नहीं, एक-ही-एक हैं और उन तक जाने का रास्ता भी एक ही है। कुछ लोग कहते हैं-राँची स्टेशन जाने के लिए सब तरफ से रास्ते हैं-उत्तर से, दक्षिण से, पूरब से और पश्चिम से भी, चारों कोणों से भी। इस तरह ईश्वर तक जाने के रास्ते भी अनेक हैं। वास्तव में उनके पास जाने का रास्ता एक है और वह बाहर संसार में नहीं है, सबके अंदर-अंदर है। एक फकीर ने कहा है-
“ बेहोशिये इन्सान से यह ख्याल जुदा है ।
जाहिर में है मोहम्मद बातिन में खुदा है ।।”
उनका कथन है-अगर तुम ईश्वर के पास जाना चाहते हो, तो अपने अंदर चलो। बाहर में जो कुछ तुमको मिलेगा, वह मायिक पदार्थ मिलेगा। इसलिए यदि ईश्वर के पास जाना चाहते हो, तो अपने अंदर चलो। अंदर में कैसे चलोगे? इसका यत्न संतों ने बतलाया है। हमारी जितनी इन्द्रियाँ हैं, बाहर में संसार की वस्तुओं को ग्रहण करती हैं। इन इन्द्रियों की धारों को समेटो। समेटने से क्या होगा? जहाँ पूर्ण सिमटाव होगा, ऊर्ध्वगति हो जाएगी। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ सुरत फँसी संसार में, ताते पड़ि गा दूर ।
सुरत बाँधि सुस्थिर करो, आठो पहर हुजूर ।।”
हमारी वृत्तियाँ विषयों में फैली हुई हैं। इन वृत्तियों को समेटकर एकाग्र करें। गुरु-प्रदत्त क्रिया विशेष द्वारा निर्दिष्ट स्थान पर स्थिर करें। जिस किसी चीज का सिमटाव होता है, चाहे वह कठिन हो, तरल वा वाष्पीय कुछ भी हो, उसकी ऊर्ध्वगति स्वाभाविक होती है। यहाँ जितने बिछावन फैले हुए हैं, उनको समेटिये, ऊपर उठाने की जरूरत नहीं, स्वाभाविक जिस स्तर पर हैं, उस स्तर से ऊपर उठ जायेंगे। उन वृत्तियों को समेटने की कला से यदि हम समेटेंगे, तो जिस धरातल पर हम हैं, उससे ऊपर उठ जायेंगे। किस धरातल पर हम हैं? लोग कहेंगे, इस शरीर में हम हैं। इस शरीर में हैं, तो कहाँ हैं? विचारकर देखिये।
यदि हम बाहर खोजते हैं, तो आँखें खोलकर खोजते हैं। बाहर का उलटा होता है भीतर। तब भीतर की चीजों को खोजने के लिए क्या करना होगा? बाहर देखने की क्रिया को उलट दीजिए। अर्थात् आँखें बंद करके देखिये। जैसे ही आँखें बंद करेंगे-‘मूँदौं आँख कतहु कोउ नाहीं।’ आप कहेंगे कुछ भी मालूम नहीं पड़ रहा है। संत जन कहते हैं-है, देखो, अवश्य कुछ दिख पड़ेगा। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ घर घर दीपक बरै, लखै नहिं अन्ध है ।
लखत लखत लखि पड़ै, कटै जम फंद है ।।”
ख्याल करके देखने से क्या होगा-अंधकार मालूम पड़ता है। इसी प्रकार यह सिद्ध हुआ कि जीव अंधकार में पड़ा हुआ है। अंधकार में पड़ा आदमी क्या किसी को देख सकता है? उसको अपना ही ज्ञान नहीं, फिर परमात्मा का ज्ञान कैसे हो सकता है? पहले खुद को जानोगे, तब खुदा को जानोगे। जबतक खुद को नहीं जानोगे, खुदा को नहीं जान सकते। जबतक आत्मा को नहीं जान सकते, परमात्मा को नहीं पहचान सकते। अपने को जानने और परमात्मा को पहचानने के लिए क्या करना है? आँखें बंद करो। देखो, अंधकार है। अंधकार मे अपनी वृत्तियों को समेटो। अपनी वृत्तियों को इतना समेटो कि एकविन्दुता प्राप्त हो जाए। जैसे ही एकविन्दुता प्राप्त होगी, पूर्ण सिमटाव होने से ऊर्ध्वगति होगी। ऊर्ध्वगति में आवरण-भेदन होता है। अंधकार-आवरण का भेदन हो जाएगा, तब वहाँ क्या मिलेगा? प्रकाश।
मान लीजिए, नदी की धारा बह रही है। उसके आगे एक बहुत बड़ा बाँध दे दीजिए। पानी के निरंतर बहते रहने का परिणाम क्या होगा? पानी उस बाँध के ऊपर से होकर निकल जाएगा। बाहर फेंक देगा। उसी तरह हमारी वृत्ति बाहर फैैली हुई है। उस वृत्ति को हम समेटेंगे, तो वह वृत्ति कहाँ जाएगी? अंधकार को पार कर जाएगी। कहाँ पहुँचेगी? जहाँ अंधकार नहीं है। जहाँ अंधकार नहीं रहेगा, वहाँ क्या रहेगा? प्रकाश रहेगा। हमलोग प्रभु से प्रार्थना करते हैं-‘तमसो मा ज्योतिर्गमय ।’ हे प्रभो! मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल। यह मंत्र पढ़ते-पढ़ते वर्षों बीत गये, जमाना गुजर गया; लेकिन क्या आज तक प्रकाश का मुँह देखा भी कभी?
आचार्य बिनोवा भावेजी ने कहा था, ‘प्रभु कौन-सी प्रार्थना सुनते हैं और कौन-सी प्रार्थना नहीं सुनते हैं? जो अनुकूल प्रार्थना होती है, वह वे सुनते हैं और जो प्रतिकूल प्रार्थना होती है, वह वे नहीं सुनते।’ इस विषय पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने बताया, ‘देखो, एक गाड़ी पूरब की ओर जाती है और दूसरी गाड़ी पश्चिम की ओर। पूरब जानेवाली गाड़ी कलकत्ता पहुँचाती है और पश्चिम जानेवाली गाड़ी दिल्ली। जो गाड़ी दिल्ली जाएगी, उस गाड़ी पर बैठ जाओ और प्रभु से प्रार्थना करो कि हे प्रभु! मुझे सकुशल दिल्ली पहुँचा दो, तो यह प्रार्थना प्रभु सुन लेंगे; किन्तु यदि हम दिल्ली जानेवाली गाड़ी पर बैठ जाएँ और प्रभु से प्रार्थना करें कि हे प्रभु! हमें सकुशल कलकत्ता पहुँचा दो, तो यह प्रार्थना प्रभु नहीं सुनेंगे।’ हम प्रतिदिन प्रार्थना करते हैं कि ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय ।’ ॐ भुर्भूवः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धीयो योनः प्रचोदयात्। आदि पाठ करते-करते जिभ्या पथरा गयी; लेकिन अभी तक प्रकाश में गये?
प्रार्थना तो हम करते हैं कि हम प्रकाश का ध्यान करते हैं, हम उस ज्योति का ध्यान करते हैं, जो सब पापों को भून डालनेवाला है, जो सर्वोत्पादक है। कहते तो हैं हम ज्योति का ध्यान करते हैं; किन्तु क्या तुमने ज्योति का ध्यान किया, ज्योति से भेंट हुई। ज्योति से भेंट कैसे होगी, संत सद्गुरु से उसका यत्न जानेंगे, करेंगे, तब तो। आजकल कुछ ठीकेदारी भी चली हुई है।
लोग आँखों को दबाकर रोशनी दिखलाते हैं और कहते हैं, यही ब्रह्मज्योति है। लेकिन सज्जनो! वास्तव में वह ब्रह्मज्योति नहीं, भ्रमज्योति है। और वे कानों को बंद करके सुनने के लिए कहते हैं। कान बंद करने से शब्द सुना जाता है, उसको वे ब्रह्मनाद कहते हैं। लेकिन वह ब्रह्मनाद नहीं, भ्रमनाद है। ब्रह्मज्योति कैसे मिलती है? ब्रह्मनाद कैसे मिलता है? हमलोग कलम की नोक जहाँ रखते हैं, उस जगह एक छोटा-सा चिह्न होता है। उस चिह्न को हम विन्दु की संज्ञा देते हैं; लेकिन परिभाषा के अनुकूल विन्दु उसको कहते हैं, जिसका स्थान है, परिमाण नहीं। यानी उसमें लंबाई, चौड़ाई, मोटाई कुछ भी नहीं होती। कलम की नोंक जहाँ हम रखते हैं, वहाँ जो चिह्न होता है, क्या उसमें लंबाई, चौड़ाई, मोटाई कुछ भी नहीं है? कम-से-कम कलम की नोंक के बराबर तो वह है ही। कुछ-न-कुछ परिमाण हो ही गया। इसलिए यह तो कल्पित विन्दु हुआ। फिर विन्दु की संज्ञा क्यों देते हैं? क्या यथार्थ में विन्दु है ही नहीं? यदि यथार्थ नहीं, तो कल्पना किसकी? हमलोग रेखागणित में पढ़ते हैं कि ‘अ ब स’ एक त्रिभुज है। हम प्रत्यक्ष में तो त्रिभुज बनाते हैं और कहते है कि कल्पना की। सामने में प्रत्यक्ष त्रिभुज के रहते हुए ‘कल्पना की’ शब्द का व्यवहार हम क्यों करते हैं? यथार्थ बात तो यह है कि विन्दु की जो परिभाष्ाा है, उसके अनुकूल विन्दु नहीं है। कलम की नोंक जहाँ रखी जाती है, वहाँ छोटे-से-छोटा जो चिह्न होता है, उसको हमने विन्दु की संज्ञा दे दी और उसी को खींचकर लंबा कर दिया, तो उसको रेखा कह दिया। रेखा की परिभाषा के अनुकूल रेखा में लंबाई होनी चाहिए, चौड़ाई नहीं, तो क्या उस रेखा में चौड़ाई नहीं है? निश्चित रूप से कुछ- न-कुछ चौड़ाई रहती है उसमें। लंबाई के अतिरिक्त उसके पार्श्व स्थान को ढँकनेवाली उसकी चौड़ाई कहलाती है। ऐसा लगता है, इस दृष्टि को अपनाकर विद्वानों ने कल्पित विन्दु से बनी रेखा के त्रिभुज को ‘कल्पना की’ कहा है। ऐसी परिस्थिति में प्रश्नोदय होता है कि क्या यथार्थ विन्दु होता ही नहीं? यह तो सरलतापूर्वक समझा जा सकता है कि जबतक किसी का अस्तित्व नहीं हो, तबतक उसकी नकल हो ही नहीं सकती। यानी बिना असल के नकल कैसी? सही विन्दु अवश्य है। सही विन्दु क्या है? रेखागणित बतलाता है कि दो रेखाओं का मिलन एक विन्दु पर होता है। हमारी दृष्टि की दो धारें हैं। इनमें लंबाई है; किन्तु चौड़ाई नहीं है। यहाँ से आप तक और आप हम तक देख लेते हैं; पर क्या हम उस रेखा वा धार को देखते हैं? जबतक रेखा नहीं है, आपको हम देखते कैसे हैं? अतएव दृष्टि की धार से लंबाई है; किन्तु चौड़ाई नहीं है। यहाँ से सूर्य तक आप देख लीजिए, आपकी दृष्टिधार उतनी लंबी हो गयी; लेकिन इसमें चौड़ाई नहीं है। दो दृष्टि की धारों का मिलन जहाँ होगा, वहाँ विन्दु उत्पन्न हो जाएगा।
हमलोग कलम जहाँ रखते हैं, उस छोटे-से चिह्न को विन्दु कहते हैं। यह विन्दु कैसा होता है? कलम में जो स्याही होती है, उसी रंग का वह होता है। काली स्याही रहने से काला चिह्न, लाल स्याही रहने से लाल चिह्न आदि। इसी तरह हमारी दृष्टि की धारें जहाँ मिलेंगी, वहाँ कैसा चिह्न होगा? हमलोगों की दृष्टि प्रकाशमयी है, इसलिए वहाँ प्रकाशमय विन्दु उत्पन्न होगा। जो अपने को विन्दु पर प्रतिष्ठित करेगा, पूर्ण सिमटाव के कारण उसकी ऊर्ध्वगति होगी और वह अंधकार से प्रकाश में चला जाएगा। और जो कोई प्रकाश में प्रतिष्ठित होता है, उसको स्वाभाविक शब्द सुनने में आता है।
‘विन्दु पीठं विनिर्भिद्य नादलिंगमुपस्थितम्।’
संत पलटू साहब ने कहा है-
‘विन्दु में तहँ नाद बोलै, रैन दिवस सुहावनं ।’
संत तुलसी साहब ने कहा है-
“ गगन द्वार दीसै एक तारा ।
अनहद नाद सुनै झनकारा ।।”
तथा-
“ क्यों भटकता फिर रहा तू, ऐ तलाशे यार में ।
रास्ता शहरग में है, दिलवर पै जाने के लिए ।।”
परम प्र्रभु परमात्मा के पास जाना चाहते हो, तो उसका रास्ता शहरग में है। शहरग को संस्कृत में सुषुम्ना कहते हैं। कुरान मजीद के पहले पन्ने में आप पढ़ेंगे-या अल्लाह परवरदिगार! मुझे सीधा रास्ता दिखा। मुझे वह रास्ता दिखा, जिसपर तुमने मेहर की है। वह रास्ता मुझे नहीं दिखा, जिसपर तुमने आक्रोश किया है। हरजत मुहम्मद साहब सीधा रास्ता बतलाने के लिए आए थे-
“ होगा फजल दर्गाह तक खौफो खतर की जा नहीं ।
सीधे चला जाना वहाँ मुर्शद ने यह फतवा दिया ।।”
मंजिले मकसूद तक सीधे चला जाना है, कहीं भटकने की जरूरत नहीं, कहीं अटकने की जरूरत नहीं। वह सीधा रास्ता आपके अंदर है, हमारे अंदर है, सबके अंदर है। अंधकार से प्रकाश में जाइये। प्रकाश में जाएँगे, तो शब्द मिलेगा, जिसको ब्रह्मनाद कहते हैं। दृष्टि साधन क्रिया करते-करते अंतर्नाद की अनुभूति होती है। वहाँ क्या मिलेगा? एक फकीर ने कहा है-
“ गोश बातिन हो कुशादा, जो करे कुछ दिन अमल ।
ला इलाह अल्लाह हो, अकबर पै जाने के लिए ।।”
परम प्रभु परमात्मा निरुपम है, उसकी कोई उपमा नहीं दी जा सकती। वह एक-ही-एक है। उसकी समानता का कोई नहीं है। उनसे बढ़कर तो कोई क्या हो सकता है? जो कोई सगलेनसीरा की साधना करते हैं, तो एक सूई दिल होता है और खुदा का नूर झलकने लगता है।
“ जिगर वह हुस्न एक सूई का मंजर याद है अबतक ।
निगाहों का सिमटना ओ हुजूमे नूर हो जाना ।।”
अगर कोई निगाहों को सिमटाता है, एकाग्र करता है, तो वह प्रकाश में प्रतिष्ठित हो जाता है। उसके अंदर के कान खुल जाते हैं और वह आवाजेगैब को सुनता है। जो प्रतिदिन उसका अभ्यास करता है, कुछ दिनों तक अमल-अभ्यास करता रहता है, तो वह उस शब्द को पाता है, जो उसको परम प्रभु परमात्मा के पास ले जाता है और परवर दिगार से मिला देता है। ईश्वर के पास जाने का यही रास्ता है। अंधकार से प्रकाश में जाओ। प्रकाश से शब्द में जाओ और शब्द-धार को पकड़कर सर्वाधार परम प्रभु परमात्मा तक पहुँच जाओ। शब्दधार के लिए बाइबिल में लिखा है-In the beginning was the word, the word was with God and the word was God ‘आरंभ में शब्द था। शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ही ईश्वर था।’ उस शब्द को पकड़ो। इसी को संत कबीर साहब ने कहा था-
“ साधो भाई जीवत ही करो आसा ।।टेक।।
जीवत समुझै जीवत बूझै, जीवत मुक्ति निवासा ।।”
उसी शब्द की साधना कीजिए। गुरु नानक- देवजी महाराज की वाणी में भी पाते हैं; यथा-
“ शब्द तत्तु बीर्ज संसार । शब्दु निरालमु अपर अपार ।।
शब्द विचारि तरे बहु भेषा । नानक भेदु न शब्द अलेषा ।।
शब्दै सुरति भया प्रगासा । सभ को करै शब्द की आसा ।।
पंथी पंखी सिऊँ नित राता । नानक शब्दै शब्दु पछाता ।।
हाट बाट शब्द का खेलु । बिनु शब्दै क्यों होवै मेलु ।।
सारी स्त्रिष्टि शब्द कै पाछै । नानक शब्द घटै घटि आछै ।।”
संत दादू दयालजी महाराज ने कहा-
“ पंच ऊपना शब्द थैं, शब्द पंच सों होय ।
साईं मेरे सब किया, बूझै बिरला कोय ।।”
जो इस आदिशब्द को पकड़ता है, वह परम प्रभु परमात्मा को पाता है। इसी शब्द के लिए योग शास्त्र में लिखा है-‘तस्य वाचकः प्रणवः।’ परम प्रभु परमात्मा वाच्य हैं और उनका वाचक है प्रणव। उसी को स्फोट, ओ3म्, उद्गीथ, सत्नाम आदि संज्ञाओं से अभिहित करते हैं। शब्द में यह स्वाभाविक गुण है कि वह अपने केन्द्र पर खींचता है। अंधेरी रात हो, एक जगह पर खड़े हो जाइये और तू-तू करके कुत्ता को पुकारिये। कुत्ता आपके पास चला आएगा। क्यों? इसलिए कि आपकी आवाज आपके पास से कुत्ते के पास गई है। इसलिए कुत्ता आवाज सुनते-सुनते आपके पास आ गया। उसी तरह जो शब्द परम प्रभु परमात्मा की ओर से आपके पास आया हुआ है, उस शब्द को यदि आप पकड़ेंगे तो कहाँ जायेंगे? परम प्रभु परमात्मा के पास। इसलिए ईश्वर के पास जाने का यह एक सहज रास्ता है, सरल रास्ता है, सुगम रास्ता है और कोई रास्ता नहीं है ही नहीं। यजुर्वेद कहता है-
“ वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यो पन्थाः विद्यतेऽयनाय ।।”
(यजुर्वेद अ0, 31/18)
वेद कहता है-न अन्य पन्थाः। अर्थात और कोई दूसरा रास्ता है ही नहीं। यही उपदेश भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया, जो श्रीमद्भगवद्गीता के 8वें अध्याय में लिखा है-
“ कविं पुराणमनुसासितारमणोरनियां समनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।।”
इस प्रकार वेद-पुराण, बाइबिल, कुरान आदि सबमें हम एक समान ज्ञान पाते हैं। संतों ने सबमें सामंजस्य स्थापित किया है। इसीलिए हमारे गुरुदेव का उद्घोष है-
“ सब सन्तन्ह की बड़ि बलिहारी---। जग में परचारी ।
मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना ।।”
हम सभी ईश्वर की संतान हैं। सभी ईश्वर के पुत्र हैं, सभी ईश्वर की पुत्रियाँ हैं। सबके-सब ईश्वर के हैं। उस प्रभु को प्रेमपूर्वक किसी भी भाषा में पुकार लो, कोई फर्क नहीं पड़ता। अवश्य ही ईश्वर पाने की जो साधना है, जो क्रिया है, उसको यथार्थ में समझो और मनोयोगपूर्वक करो। क्या गृहस्थ, क्या विरक्त, क्या धनी, क्या निर्धन, क्या विद्वान, क्या अविद्वान, क्या इस देश के, क्या उस देश के, या किसी भी देश के या किसी भी भेष के, क्या स्त्री, क्या पुरुष, इसको जो कोई करना चाहेंगे, सबके लिए ईश्वर का द्वार खुला हुआ है। हमारे परम पूज्य गुरुदेव का उद्गार है-
‘जितने मनुष तन धारि हैं, प्रभु-भत्तिफ़ कर सकते सभी।’
लेकिन इसके साथ यह शर्त है-
गुड्डी आकाश में उड़ती है। उसके साथ यदि छोटा-सा ढेला बाँध दीजिए, तब वह आकाश में नहीं उड़ेगी। इसी तरह जो कोई ईश्वर के पास जाना चाहता है और वह पाप कर्मों को करता है, तो पापरूपी ढेला लेकर वह ईश्वर के पास नहीं जा सकता। इसीलिए संतों ने बतलाया-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों को छोड़ दो। जो इन पंच पापों को छोड़ देता है, उसके सारे पाप छूट जाते हैं।
“ त्याग पंच पाप हो, फिर पाप क्या करे ।
सत् बरत में दृढ़ आप हो, कोइ शाप क्या करे ।।”
इसलिए पंच पापों को छोड़ो, एक ईश्वर पर विश्वास करो। ईश्वर की प्राप्ति अपने अंदर होगी, इसका दृढ़ निश्चय रखो। सत्संग करो, ध्यान करो, गुरु की सेवा करो और अपने जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करो। जो तुम्हारी योग्यता है, उस योग्यता के अनुरूप अपने परिवार का भरण-पोषण करो। तुमसे बन सके, तो समाज की सेवा करो, देश की सेवा करो। परोपकार में, ईश्वर-भजन में अपने को लगा दो। तन-मन-धन तीनों से सेवा करो। संतों के उपदेश का सार थोड़े-से शब्दों में आपलोगों को कहा।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन हरमंदिर खूँटी, राँची में दिनांक 26-8-1988 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जून 1990 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
जिस फाटक से हमलोग प्रवेश करते हैं, वहाँ पर लिखा हुआ है, यह संतमत का सत्संग है। संतमत के संबंध में गत कल संध्याकाल कह चुका हूँ। आज अभी के सत्संग के संबंध में सुनिये। सत्संग में दो शब्द है, सत् और संग। सत् क्या है? भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीगीता में बतलाया है-
‘नासतो विद्यते भावा नाभावो विद्यते सतः।’
अर्थात् जो असत् है, उसका अस्तित्व नहीं है और जो सत् है, उसका कभी अभाव नहीं होता। जिज्ञासा होती है-यह सत् और असत् क्या है? जिसको सत् कहते हैं-वह था, है और रहेगा अर्थात् त्रयकाल अबाधित तत्त्व को सत् कहते हैं। जो असत् है, वह हमलोगों को इन्द्रियगोचर है, वस्तुतः उसकी स्थिति नहीं है। जो कुछ भी दीख पड़ता है, सभी भासमान है, नाशवान है। जो कुछ इन्द्रियग्राह्य है, सभी चीजें विनाशशील है। संत कबीर साहब के शब्दों में हम कह सकेंगे-
“ अखंड साहिब का नाम है, और सब खण्ड है ।
खण्डित मेरु सुमेरु, खण्ड ब्रह्मण्ड है ।।”
वह परम प्रभु परमात्मा और उसका नाम ही अखण्ड है, अनाशी है, अविनाशी है। उनके अतिरिक्त और जितने जो कुछ पिंड-ब्रह्मांडादि हैं, सबके-सब नाशवान हैं, विनाशी हैं। जो संसार हम बाहर देख रहे हैं, उसी का छोटा रूप यह शरीर है। जितने तत्त्वों से यह संसार बना हुआ है, उतने ही तत्त्वों से यह शरीर बना हुआ है अर्थात् पाँच तत्त्व इस संसार में हैं, उसी तरह इस शरीर में भी वे ही पाँच तत्त्व हैं। (क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर) बाह्य संसार में भी तीन गुण काम करते हैं। तीन गुण-रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण अर्थात् उत्पादक शक्ति, पालक शक्ति और विनाशक शक्ति। संसार के जितने स्तर हैं, इस शरीर के भी उतने ही स्तर हैं। शरीर के जिस स्तर पर जब हम रहते हैं, संसार के भी उसी स्तर पर तब हम रहते हैं। शरीर के जिस स्तर को जब हम छोड़ते हैं, संसार के भी उसी स्तर को तब हम छोड़ते हैं। इस दृष्टि से यदि हम शरीर के सब स्तरों को पार कर जाएँ, तो संसार के भी सभी स्तरों को पार कर जाएँगे।
विचारणीय विषय यह है कि शरीर नाशवान है। जिस तरह इस शरीर का शरीर पर के वस्त्र से संबंध है, उसी तरह शरीरस्थ जीवात्मा का इस शरीर से संबंध है। जबसे हमलोगों ने जन्म धारण किया अर्थात् जबसे यह शरीर हमें मिला है, अबतक हमारी जितनी उम्र हो गयी, अबतक कितने कपड़े पहने हैं, कितने कपड़े फटे हैं, याद है किसी को? किसी को याद नहीं। अब भी शरीर का जीवन-काल जितना बाकी है, उसमें भी कितने कपड़े पहनेंगे, कितने फटेंगे, ठिकाना नहीं। उसी तरह एक जीव के जीवनकाल में कितने शरीर होते हैं और नष्ट होते चले जाते हैं, ठिकाना नहीं। जबसे सृष्टि है, जबसे सृष्टि में हैं अर्थात् जीवात्मा है, इसने कितने शरीरों को पहना है, कितने शरीरों को छोड़ा है, किसी को याद है? किसी को नहीं। अब भी जबतक यह जीवात्मा परमात्मा को प्राप्त कर ले, न मालूम कितने शरीरों को धारण करेगा और छोड़ेगा। भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता अ0 2 श्लोक 22 में कहते हैं-
“ वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णातिनरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्य-
न्यानि संयाति नवानि देही ।।”
अर्थात् जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रें को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रें को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीर को धारण करता है।
जरा सोचकर देखिये। अभी हमारे शरीर पर जो वस्त्र हैं, ये कैसे हैं? हमारी जैसी कमाई है यानी कमाई के अनुसार हमारे शरीर पर वस्त्र है? यदि भविष्य में कमाई अच्छी होगी, तो इससे भी अच्छे वस्त्र पहन सकते हैं। अगर घाटे की ओर चले गये, तो इससे कम कीमत के कपड़े पहनेंगे। उसी तरह चौरासी लाख योनियों में घूमते-घूमते, भटकते-भटकते यह सुन्दर मानव शरीर मिला है यानी यह सुन्दर कपड़ा मिला है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने अपनी प्रजा को उपदेश दिया था-
“ आकर चारि लच्छ चौरासी ।
जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी ।।
फिरत सदा माया कर प्रेरा ।
काल कर्म सुभाव गुन घेरा ।।
कबहुँक करि करुना नर देही ।
देत ईस बिनु हेतु सनेही ।।”
अकारण ही स्नेह करनेवाले ईश्वर ने हमको मनुष्य का शरीर दे दिया है। आज तो कृपा करके प्रभु ने हमको मनुष्य का शरीर दे दिया है। अगर हमारी अच्छी कमाई रही अर्थात् हमने भगवद्भजन किया, तब तो इससे भी अच्छा शरीर हमको मिलेगा। अब हमारी कमाई अच्छी नहीं रही अर्थात् भगवद्भजन नहीं किया, तो फिर संत कबीर साहब की वाणी चरितार्थ होगी-
“ कहै कबीर चेत अजहुँ नहिं, फिर चौरासी जाई ।
पाय जनम कूकर सूकर को, भोगेगा दुख भाई ।।”
वह कूकर-सूकर शरीर भी मिलने को तैयार है। जैसे एक शरीर पर विविध कपड़े पहनते और फटते हैं, उसी तरह एक जीव के जीवनकाल में विविध शरीर होते और नष्ट होते हैं। लेकिन हम स्वयं- “ ईश्वर अंश जीव अविनाशी,
चेतन अमल सहज सुख राशी ।”
जिसका अंश अजर, अमर, अविनाशी है, उसका अंश कैसा होगा? वह भी तो अजर, अमर, अविनाशी होगा। उसका भी कभी विनाश नहीं होता है। उस अविनाशी परमात्मा से अविनाशी जीवात्मा का संग कर दीजिए। यह भी सत् है, वह भी सत् है। इस सत् का उस सत् से मिला दीजिए, यह असली सत्संग हो जाएगा। (श्रोतागण की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)
हाथरस-निवासी संत तुलसी साहब ने लिखा है-
“ सत सुरत समझि सिहार साधौ,
निरखि नित नैनन रहौ ।”
इस सत्संग से उस सत् से संग होना सर्वोच्च श्रेणी का सत्संग है। लेकिन लोग जो पढ़ते हैं-प्रथम श्रेणी, द्वितीय श्रेणी, तृतीय श्रेणी, क्रम-क्रम से बढ़ते जाते हैं। उसी तरह से वह तो सर्वोच्च श्रेणी है, पर उससे निम्न श्रेणी पहले और उसके बाद भी पहले निम्न श्रेणी चाहिए। तब क्रम-क्रम से उठेंगे। तो वह प्रथम श्रेणी का सर्वोच्च सत्संग है, वह कैसे होगा? किन्तु यह सत्संग सर्वप्रथम सुलभ नहीं है। सुलभ क्या है? जिन्होंने अपने जीवात्मा को परमात्मा से मिलाया है, वे सत् जन हैं-सज्जन हैं। ऐसे सज्जन का संग करें, यह द्वितीय श्रेणी का सत्संग है। यह द्वितीय श्रेणी का सत्संग सुलभ नहीं है; क्योंकि संतों की पहचान बहुत कठिन है। आज हम जिनकी बड़ाई सुनते हैं, आगे चलकर कल उनकी ही कुछ और सुनने लग जाते हैं। कुछ दिन पहले एक अखबार निकला था, उसमें आजकल के बहुत-से भगवानों के चित्र बने थे और नीचे लिखा हुआ था-हे भगवान! कितने भगवान्!
आज जिनको हम संत-महात्मा कहकर उनके चरणों में सिर टेकते हैं, कल सुनने में आता है कि उनमें यह गंदगी है, तो हमारा विश्वास डगमगा जाता है। फिर वैसे संतों की खोज हम कहाँ करें? संसार में ऐसे संत नहीं हैं, ऐसी बात नहीं है; लेकिन हमारे पास कोई मीटर नहीं है कि हम जाँच करके देख लें, ये ठीक संत हैं या नहीं? कोई मैट्रिक पास एम0ए0 पास का इन्टरव्यू लेगा, क्या यह संभव है। एम0ए0 पास मैट्रिक पास का इन्टरव्यू ले सकता है; लेकिन मैट्रिक पास का इन्टरव्यू नहीं ले सकता। उसी तरह हमारी जो अध्ययन- मनन की शक्ति है और जिन्होंने साधना की है, उनकी जो अनुभूति शक्ति है, हम कैसे जान सकते हैं? उनकी साधना-शक्ति के मापदंड को हम कैसे नाप सकते हैं? इस ताल-तलैया में जिस लग्गी से हम नाव खेते हैं, उसी लग्गी से समुद्र से जहाज को खेना क्या संभव है? कभी हो नहीं सकता।
साधु-संतों की पहचान सामान्य बात नहीं है। और तो और, हम अपने संगी-साथी की पहचान नहीं कर सकते, जिनके साथ हम 24 घंटे रहते हैं। वर्षों से जो नौकर हमारे पास रह रहा है, उसकी पहचान हम नहीं कर सकते हैं। चाबी दे देते हैं, कहते हैं-इतने रुपये ले आओ, गिनकर इतने रुपये तिजौरी में रख दो। एक दिन वही नौकर रुपये लेकर चम्पत हो जाता है। तब हम कहते हैं-इतना विश्वासी नौकर था, हम तो कभी विश्वास नहीं कर सकते थे कि हमारे साथ वह ऐसा नहीं कर सकता है। जब एक नौकर को हम नहीं पहचान सकते हैं, जो हमारे अधीन 24 घंटे रहता है, तब जो एक संत हैं, महात्मा हैं, वे कहाँ तक पहुँचे हुए हैं, उनकी गति कहाँ तक है, उसकी पहचान हम कैसे कर सकते हैं! ऐसी परिस्थिति में स्वाभाविक प्रश्नोदय होता है, सच्चे संत की पहचान कैसे की जाए? यदि उनकी पहचान नहीं हो, तो उनके अभाव में सत्संग कैसे हो? उत्तर में निवेदन है-जिन संतों पर आज तक किसी ने ऊँगली नहीं उठाई है, जो सर्वमान्य है अर्थात् जिनकी संतों की दृष्टि से पूर्व से अबतक सभी देखते चले आ रहे हैं, भले ही वे संत आज इस जगती-तल पर नहीं हों; किन्तु उन संतों की वाणियाँ तो हैं, वे सत् वाणी है। उन संतों की सत् वाणियों का संग करें, यह भी सत्संग है। यह तीसरी श्रेणी का सत्संग है। अगर सच्चे संत मिल जाएँ, तब तो कहना ही क्या, हमारा अहोभाग्य है। महोपनिषद् में लिखा है-
“ भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।।”
अर्थ-परे से परे को (परमात्मा को) देखने पर हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं।।
इन विभूतियों से विभूषित होते हैं-संत। उपनिषद् में आया-जिनके हृदय की ग्रंथि विच्छिन्न हो गयी है। यह हृदय की ग्रंथि कौन-सी है? इस संदर्भ में गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने रामचरितमानस में कहा है-
“ जड़ चेतन ग्रंथि पड़ि गई ।
यद्यपि मृषा छूटत कठिनई ।।”
इस जड़-चेतन की ग्रंथि को जिन्होंने खोल डाला है। जड़ और चेतन की ग्रंथि को खोलने से क्या मिलता है? यदि किन्हीं ने खोल ही डाला, तो उनको क्या मिला।
हमलोग जब गाँठ देते हैं, तो गाँठ में कुछ रखते हैं। जब गाँठ खोलते हैं, उसमें जो कुछ माल रहता है, वह मिलता है। क्या माल मिलता है?
और जो पूछता हूँ, उसका अपने विचारानुकूल उत्तर दीजिए।
‘आप सुबुद्धि चाहते हैं या कुबुद्धि?’ आपलोगों ने एक स्वर में कहा-सुबुद्धि चाहते हैं। गुरुदेव-जबतक आप संसार में जीवित रहें, खायें-पियें, ऐश-आराम करें, मौज से रहें और शरीर छूटने के बाद आप शुभ गति चाहते हैं या दुर्गुति? उनलोगों ने कहा, ‘शुभ गति चाहते हैं।’ संसार में आपलोग ऐश्वर्यवान होकर रहना चाहते हैं या दीन-हीन, कंगाल होकर।’ उनलोगों ने कहा-‘ऐश्वर्यवान होकर रहना चाहते हैं।’ गुरुदेव ने पुनः पूछने की कृपा की, ‘संसार में आप अपनी भलाई चाहते हैं या बुराई?’ उनलोगों ने कहा, ‘भलाई।’ गुरुदेव बोले, ‘देखिये गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने लिख दिया है-
“ मति कीरति गति भूति भलाई ।
जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई ।।
सो जानब सत्संग प्रभाऊ ।
लोकहु वेद न आन उपाऊ ।।”
अगर ये पाँचो चीजें मिल जाएँ, तो और छठी क्या चीज चाहिए? उनलोगों ने कहा, ‘महाराज! तब तो सब पूरा हो गया।’ गुरुदेव बोले, ‘तो समझिये, सत्संग से अच्छी-अच्छी चीजें मिलती हैं। इसलिए सबको सत्संग करना चाहिए। गोस्वामीजी ने लिखा है-
“ सठ सुधरहिं सत्संगति पाई ।
पारस परसि कुधातु सुहाई ।।”
यह सत्संग क्या है? सत्संग ही संतों के दर्शन कराता है। संतों के दर्शन हो जाने पर वे ही सत्यस्वरूप सर्वेश्वर यानी परम प्रभु परमात्मा के दर्शन कराते हैं। यह माध्यम है। चाहे कितना भी हम पढ़ लें, कितने ही विद्वान हो जाएँ; लेकिन चरित्रवान होना एक दूसरी बात है।
एक अच्छे विद्वान थे। शायद आपलोगों ने सुना होगा, उनका नाम था-भिक्षु जगदीश काश्यप। वे बौद्ध जगत के एक सुप्रसिद्ध महात्मा थे। हमलोगों के भूतपूर्व प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरूजी जब बौद्ध देशों में जाते थे, तो वे उनको अपने साथ ले जाते थे। काश्यपजी जब गुरु महाराज की शरण ग्रहण कर दीक्षा ली, तो एक दिन ये गुरुदेव के निकट बैठे थे। विद्वान और चरित्रवान संन्यास के संबंध में चर्चा चल रही थी। हमारे गुरुदेव बोले-
“ पढ़ना गुनना चातुरी, यह तो बात सहल ।
काम दहन मन वश करन, गगन चढ़न मुश्कल ।।”
यह सुनकर वे जैसे चौंक उठे और उन्होंने जिज्ञासा की, ‘किनकी वाणी है महाराज।’ गुरुदेव ने कहा, ‘संत कबीर साहब की।’ काश्यपजी ने उस साखी को पुनः दुहराने की प्रार्थना की। हमारे गुरुदेव ने उन पंक्तियों को दुहराने की कृपा की। काश्यपजी ने कहा, ‘महाराज! अक्षरशः सत्य है। वास्तव में काम-दहन, मन-वशकरण और अंतर्जगत में आरोहण आसान काम नहीं। एक कथा है-श्री व्यासदेवजी श्रीमद्भागवत लिखते थे और उनके शिष्य जैमिनीजी उसको देखते जाते थे। ये बड़े विद्वान थे। मीमांसा के आचार्य थे। श्रीमद्भागवत में व्यासदेवजी ने लिखा था, ‘बलवान् इन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति।’ अर्थात् इन्द्रियाँ इतनी बलवती होती हैं कि यह विद्वानों को भी आकर्षित कर लेती हैं। यह पढ़कर जैमिनीजी ने कहा, ‘गुरुदेव! यह पंक्ति ठीक नहीं जँचती। इसको पुनः देख लिया जाए। यहाँ तो ऐसा होना चाहिए, ‘बलवान् इन्द्रियग्रामो विद्वांसनापि कर्षति।’ अर्थात् बलवान इन्द्रियग्राम विद्वानों को आकर्षित नहीं कर सकता।
व्यासदेवजी ने मन में सोचा, केवल वचन द्वारा समझाने पर मेरी बात स्वीकार नहीं करेंगे। इसलिए इन्होंने एक लीला की। कहा, ‘अच्छा मैं थोड़ा घूमकर आता हूँ। तुम यहाँ बैठो। इतना कहकर व्यासेदवजी चले गये। व्यासदेव ने माया रची। जोरों की आँधी-तूफान ले आये। होता क्या है-एक षोडशी जो कि देखने में बहुत सुन्दरी थी, वस्त्रभूषणों से विभूषित होकर, वर्षा-पानी में भींगती हुई वहाँ आती है। जैमिनी ने कहा, ‘तुम यहाँ क्यों भींगती हो! भीतर चली आओ।’ उसने कहा, ‘पुरुषों पर मुझे विश्वास नहीं होता।’ जैमिनीजी ने कहा, ‘मेरे जैसे पुरुष पर भी नहीं! जानती हो, मैं कितना बड़ा विद्वान हूँ। मीमांसा का आचार्य हूँ। श्रीव्यासेदवजी के लिखे महापुराणों को पढ़-पढ़कर ठीक कर रहा हूँ। चली आओ।’ वह भीतर चली आती है। काम ने किसको बदनाम नहीं किया! उस युवती के सौन्दर्य को देखकर इन्द्रियाँ बलवती हो उठीं, इन्होंने अपनी दुर्बलता उसके सामने रखी। उस युवती ने कहा, ‘अवश्य ही मेरी शादी अभी नहीं हुई है। मैं आपसे शादी कर लूँगी। मेरा अहोभाग्य है! आप जैसे विद्वान, इतने बड़े तपस्वी के साथ मेरा विवाह होगा। लेकिन मेरी कुल की रीति है। यदि उसका आप पालन कीजिए, तो मैं आपसे शादी करने को तैयार हूँ। जैमिनीजी ने जिज्ञासा की, ‘तुम्हारे कुल की रीति क्या है?’ युवती बोली, ‘हमारे कुल की रीति है कि जिस लड़के के साथ लड़की की विवाह होता है, उसको घोड़ा बनना पड़ता है और लड़की उसके मुँह में लगाम लगाकर घोड़े पर सवार होती है। इसी तरह से दोनों ही देव-मंदिर जाकर देवता को प्रणाम करते हैं। इस प्रकार शादी होती है। आप घोड़ा बनिये। मैं प्रणाम लगाऊँगी। आपके ऊपर चढ़कर देव-मंदिर जाऊँगी, देवी को प्रणाम करके लौटूँगी, फिर शादी हो जाएगी। जैमिनीजी ने देखा, यहाँ कोई नहीं है। सोचा, थोड़ी देर के लिए घोड़ा बन ही जाऊँ, तो क्या हर्ज है। शादी तो हो जाएगी। इधर-उधर देखकर वे घोड़ा की तरह बन गये। वह लड़की लगाम लगाकर उसकी पीठ पर बैठ गयी और चली देव-मंदिर दर्शन के लिए। वहाँ पहुँचने पर देखते हैं कि पहले से ही उस बरामदे पर व्यासदेवजी बैठे हुए हैं। व्यासदेवजी ने पूछा, ‘कहाँ जैमिनी! कहाँ जा रहे हो? तुम्हारी बात ठीक है या मेरी बात? लज्जा के मारे जैमिनीजी सिर झुका लेते हैं और दबी जवान से कहते हैं, ‘गुरुदेव! आपही का वचन ठीक है।’ इस कथा का तात्पर्य क्या हुआ? कोई कितना बड़ा विद्वान क्यों न हो जाए; लेकिन उसके पास कोई हथियार नहीं है कि वह विकार को काटकर निकाल सके। विकार को काटने के लिए तो साधना है। जबतक कोई अंतस्साधना नहीं करेगा, आत्मस्वरूप की पहचान नहीं होगी, स्वरूपज्ञान- विहीन मन पर विजय, प्राप्त नहीं कर सकता और मन पर विजय प्राप्त किये बिना वह षट् विकारों का शिकार होता रहेगा। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीगीता 2/59 में कहा है-
“ विषया विनिवर्तन्ते निरहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ।।”
अर्थात् यद्यपि इन्द्रियों के द्वारा विषयों को न ग्रहण करनेवाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं; परन्तु राग नहीं निवृत्त होता और इस पुरुष का तो राग भी परमात्मा को साक्षात् करके निवृत्त हो जाता है। किसी सुभाषितकार ने कितना अच्छा कहा है-
“ पढ़े छहो शास्त्र और अठारहो पुराण पढ़े ।
वेद उपवेद आदि अंत कोउ छाना है ।
गीता रामायण श्रुति स्मृति पढ़े,
सांख्य योग न्याय आदि दर्शन भी जाना है ।।
जाना है बनाना छन्द सोरठा चौपाई को ,
जाना है ध्रुपद राग भैरवी का गाना है ।
इतना जो जाना सब खाक धूर छाना है ।
जाना है सोई जिन आतम पिछाना है ।।”
जबतक कोई आत्मा की पहचान नहीं कर ले, उस ओर अग्रसर नहीं हो, तबतक उसको आत्मबल कहाँ से मिलेगा? उसकी आत्मा बलवती कैसे हो सकती है? जैसे जबतक कोई व्यायाम नहीं करे, उसका शरीर बलवान कैसे हो सकता है? दूध-दही, हलुआ, पूड़ी, टिकड़ी, बर्फी, पिस्ता, अखरोट आदि पौष्टिक भोजन कर ले, तो बलवान हो जाएगा? अरे, उसको पचाने के लिए तो कुछ करना ही पड़ेगा। दंड-बैठक कीजिए, व्यायाम कीजिए या अन्य किसी प्रकार का शारीरिक श्रम कीजिए, तब शरीर में बल आएगा। उसी तरह साधना है। मन की गति कहाँ-कहाँ है, यह कहाँ-कहाँ जाता है, कोई ठिकाना नहीं है। इस मन को रोकने के लिए आपके पास क्या उपाय है? कैसे रोकियेगा इसको?
“ नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनू ँ्स्वाम् ।।”
यह आत्मा वेदाध्ययन-द्वारा प्राप्त होने योग्य नहीं है और न धारणा-शक्ति अथवा अधिक श्रवण से ही प्राप्त हो सकता है। भगवान श्रीराम ने श्रीहनुमानजी से कहा था-
“ उपविश्योपविश्यैकां चिन्तकेन मुहुर्मुहुः ।
न शक्यते मनो जेतुं विना युक्तिमनिन्दिताम् ।।”
भावार्थ- पुनः पुनः एकान्त में बैठने पर भी बिना सत् युक्ति के कोई भी मनोजय करने में समर्थ नहीं हो सकता।
मैं नहीं कहता, उपनिषद् कहती है-एकांत में घंटों बैठो रहो। दिन-रात बैठे रहो। लेकिन जबतक तुम्हारे पास संतों की सद्युक्ति नहीं है, मन को किसी प्रकार काबू नहीं कर सकते। वह युक्ति क्या है? मन जीतने की युक्ति भगवान श्रीराम ने हनुमानजी को बतलायी थी। इस संदर्भ में मुझे एक प्रसंग स्मरण हो आया है। सुनिये, जब समुद्र के किनारे सीताजी की खोज में बंदर-भालू सब इकट्ठे हुए, तो सबके सामने एक समस्या पैदा हो गयी कि जबतक कोई सौ योजन समुद्रलंघन नहीं करेगा, सीताजी की खोज नहीं हो सकती। अतएव सब कोई अपना-अपना बल बतलावें कि वे कितना लाँघ सकते हैं? इसपर सब कोई अपना-अपना पराक्रम बतलाने लगे। क्रम-क्रम से 10, 20, 50, 95 योजन तक बोल गये, लेकिन सौ योजन सागर पार करनेवाले कोई नहीं हो सके। तब अंगद ने कहा, ‘मैं सागर के उस पार तो जा सकता हूँ; लेकिन उधर से लौटने में संदेह है।’ अंगद ने संशयात्मक बात क्यों कही, यह विचारणीय विषय है। एक तो अंगद के पिता बालि से रावण की मैत्री थी। मैत्री होने के नाते रावण उनके पिता तुल्य थे। इसलिए शिष्टाचार के नाते रावण के समझ अंगद अपना विचार रख सकता था, न कि दवाब डाल सकता था। अपने उद्देश्य की पूर्ति होने की संभावना नहीं देखकर भी वह जाना नहीं चाहता था। दूसरी बात यह है कि एक मुनि ने अंगद को शाप दिया था कि जिस जल को एक बार लाँघकर पार करेगा, पुनः दूसरी बार नहीं कर सकता। तीसरी बात- गुरुकूल में पढ़ते समय एक दिन अंगद ने अकारण ही अक्षय कुमार को बहुत पीटा था। आचार्य ने शाप दिया था कि तुमने निर्दोष को दुःख दिया है, इसलिए उसके एक घूँसे से तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी। चौथी बात यह है कि लंकापुरी त्रैलोक्य सुन्दरी की नगरी थी। अंगद नवयुवक था, युवराज था-कामदहन, मन वश करण और अंतराकाश-गमन की युक्ति नहीं जानता था। इसलिए लंका जाकर वहाँ से आने में उनको संदेह था। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने निर्मल मन, सेवक पवनसुत को यह सद्युक्ति बतलायी थी, जिससे निर्भीक होकर वह लंका-गमन और राम-काम-संपादन कर सकुशल लौट गया। वह युक्ति क्या थी-
“ एकतत्त्वदृढाभ्यासाद्यावन्न विजितं मनः ।।
प्रक्षीणचित्तदर्पस्य निगृहीतेन्द्रियद्विषः ।
पद्मिन्य इव हेमन्ते क्षीयन्ते भोगवासनाः ।।”
अर्थात हे हनुमान! जबतक मन नहीं जीता गया हो, तबतक एक तत्त्व के दृढ़ अभ्यास से चित्त एवं अहंकार को पूर्ण रूप से नष्ट करके इन्द्रिय शत्रु को निग्रह करना। ऐसा होने से हेमन्तकाल के कमल-सदृश भोग-वासना का नाश हो जायगा।।
भगवान श्रीराम ने हनुमान को मनोजय करने का जो यत्न बतलाया था, वही युक्ति हमारे गुरुदेव ने हमलोगों को बतलायी है। हम साधना करें या न करें, यह दूसरी बात है। अरे! हम डकैत का, चोर का, बदमाश का डर होता है, तो हम राज्य सरकार से पिस्तौल लेकर अपने घर में रखते हैं। जब हमारे घर में चोर-डकैत आवे, उस समय हम पिस्तौल का प्रयोग नहीं करें, तो इसमें सरकार का क्या दोष? चोर-बदमाश हमें सताते रहेंगे। इसी भाँति संत सद्गुरु से हमने युक्ति तो ले ली; किन्तु साधना नहीं की। परिणाम क्या होगा? कामक्रोधादिक विकार हमें सतायेंगे ही। एक तत्त्व क्या है? विन्दु है। ज्योतिर्मय विन्दु का ध्यान परम ध्यान है। तेजोविन्दूपनिषद् में लिखा है-
‘तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्महृदि संस्थितम् ।’
आज के दिन कुछ लोग दीपक जलाकर उसकी ज्योति का ध्यान करते हैं। कोई-कोई मोमबत्ती जलाकर उसका ध्यान करते हैं। कोई आँखों को जोर से दबाने पर जो ज्योति मालूम पड़ती है, उसका ध्यान करते हैं। कोई कल्पना करते हैं कि उनके गुरु से या इष्ट से ज्योति आ रही है, उस ज्योति का ध्यान करते हैं। लेकिन ये सारे के सारे काल्पनिक ज्योति-ध्यान हैं, वास्तविक ज्योति आपके अंदर है, उसके ज्योति को जगाइये। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय । असतो मा सद्गमय । मृत्योर्मा अमृतगमय ।’ को रटते-रटते जीभ मोटी हो जाए, लेकिन कभी उस चोटी पर नहीं पहुँचेंगे, जहाँ पर ज्योति के दर्शन होते हैं। जरा हृदय पर हथेली रखकर सोचिये-आजतक बहुत-से मंत्रें का पाठ किया, किन्तु क्या कभी ज्योति के दर्शन हुए? ज्योति दर्शन कैसे होते हैं, इसका सही भेद जानिये। रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने लिखा है कि भगवान श्रीराम ने अपनी प्रजा की स्वर्ग सुख की स्वल्पता, नरतन की दुर्लभता, क्षणभंगुरता तथा उपादेयता का उपदेश करते हुए अंत में कहा था-
“ औरउ एक गुप्त मत, सबहिं कहउँ कर जोरि ।
संकर भजन बिना नर, भगति न पावइ मोरि ।।”
एक बहुत बड़े रामायणी पंडितजी भागलपुर शहर में आये थे। वे घूमते-घूमते आ गये थे कुप्पाघाट आश्रम। अपना परिचय देते हुए उन्होंने बतलाया कि वे रामायण बाँचने के लिए वहाँ आये थे। मैंने कहा, ‘बड़ी कृपा की महाराज, आपने दर्शन देने की। कहिये आपकी क्या सेवा की जाए?’ उन्होंने कहा,‘नहीं, ऐसे देखने के लिए आ गया।’ मैंने पूछा, ‘आप तो रामायण-पारायण करते-करते उसमें पारंगत हो गये होंगे?’ उन्होंने सगर्व उत्तर दिया, ‘हाँ, आप रामायण में जहाँ जो कुछ पूछना चाहें, पूछ सकते हैं।’ मैंने पूछा, ‘भगवान श्रीराम ने अपनी प्रजा को ‘गुप्त मत’ बतलाया था, वह क्या था।’ उन्होंने उत्तर दिया, ‘हाँ-हाँ, यह तो रामचरितमानस के उत्तरकांड में है-औरउ एक गुपुत मत।’ मैंने कहा, ‘पंडितजी! यदि आप इसका अर्थ भी बतला देते, तो बड़ा अच्छा होता।’ उन्होंने कहा,‘हाँ सुनिये, भगवान श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम थे। सबकी मर्यादा रखते थे। इसीलिए नम्रतापूर्वक प्रजा के सामने उन्होंने हाथ जोड़कर कहा है-मैं एक गुप्त मत बतला रहा हूँ कि शंकर-भजन किये बिना कोई भी मेरी भक्ति नहीं पा सकता।’ मैंने कहा, ‘पंडितजी! तब तो इसका अर्थ यह हुआ कि जो शंकर का भक्त नहीं होंगे, वे राम के भक्त नहीं हो सकते?’ उन्होंने कहा, ‘हाँ, राम-भक्त बनने के लिए शंकर-भक्त तो बनना ही पड़ेगा।’ मैंने कहा,‘आप श्रीलक्ष्मणजी, बालिपुत्र अंगदजी, श्रीहनुमानजी को राम के भक्त मानते हैं?’ पंडितजी ने कहा, ‘हाँ, क्यों नहीं, ये सब-के-सब राम के भक्त थे।’ मैंने कहा, ‘इन लोगों ने तो लंका में जाकर रावण और मेघनाद को शंकर की चुनौती दी। यथा-
“ संकर सहस विष्नु अज तोही ।
सकहि न राखि राम कर द्रोही ।।
जौं सत श्ांकर करै सहाई ।
तौ तोहि मारउँ राम दोहाई ।।”
इस प्रकार भगवान शंकर को चुनौती देनेवाले भगवान श्रीराम के भक्त कैसे हो गये? और तो और, भगवान श्रीराम ने स्वयं शंकर को चुनौती दी है, यह कैसी बात हुई? यथा-
“ सुनु सुग्रीव मारिहउँ बालिहि एकहि बान ।
ब्रह्म रुद्र सरनागत, गएँ न उबरिहि प्रान ।।”
यह सुनकर पंडितजी का माथा कुछ चकराया। उन्होंने कहा, ‘हाँ, यह समझने की बात है। मैंने कहा, ‘समझा दीजिए मुझको।’ उन्होंने कहा, ‘इसपर मैंने मनन नहीं किया है। आप ही प्रकाश डालने की कृपा करें।’ मैंने कहा, ‘भगवान शंकर की बाह्य पूजा संसार में विदित है; लेकिन गुप्त मत क्या है? भगवान श्रीराम ने जो ‘कर जोरि’ शब्द का प्रयोग किया है, यहाँ ‘कर’ का अर्थ ‘हाथ’ नहीं, ‘किरण’ है। रामचरितमानस के आरंभ में गुरु-वंदना करते हुए गोस्वामीजी ने ‘कर’ शब्द का व्यवहार ‘किरण’ के लिए ही किया है। यथा-‘बन्दौं गुरु पद कंज------कर निकर।’ तथा विनय-पत्रिका में भी ‘रविकर नीर बसै अति दारुन मकर रूप ता माहीं----।’ इस प्रकार भगवान श्रीराम ने ‘कर’ शब्द का प्रयोग करके दृष्टि की युगल किरणों की मिलन का संकेत किया है। युगल नेत्रें की धाराओं के मिलन से तीसरी आँख खुलती हैं। भगवान शंकर ने यह भजन किया था। इसलिए भी इसको ‘शंकर-भजन’ कहा गया है। दूसरी बात-गोस्वामी जी ने रामचरितमानस में तालव्य ‘श’ और दन्त्य ‘स’ में अंतर नहीं रखा है। यदि दन्त्य ‘स’ के ऊपर अनुस्वार देकर ‘संकर’ लिखते हैं, तो ‘संकर’ शब्द का अर्थ क्या होता है? दो जातियों के मेल से जो संतान उत्पन्न होती है, उसको वर्णशंकर कहते हैं। यहाँ दो जातियों का मेल क्या है? दोनों तो एक ही जाति मानव है। स्त्री भी मानव जाति और पुरुष भी मानव जाति। लेकिन वर्णभेद के अनुस्वार जाति में अंतर है। इसी तरह संकर-भजन में दो जातियों का वर्णभेद है। एक बंगाली महात्मा का वचन है-
“ बामे इड़ा नाड़ी दक्षिणे पिंगला,
रजस् तमोगुणे करिते छे खेला । “
मध्ये सत्वगुणे सुषुम्ना विमला धर धर ताँरे सादरे ।।
इन दोनों इड़ा-पिंगला को मिलाओ। यद्यपि ये दोनों ही चेतन धाराएँ हैं, फिर भी एक रजोगुणी और दूसरी तमोगुणी धारा है। एक निगेटिव है और दूसरी पोजिटिव। एक शीत धार है, दूसरी उष्णधार। गुरु नानक साहब की वाणी में कह सकेंगे-
“ दिन महि रैणि रैणि महि दीनी,
अरु उसन सीत विधि सोई ।।”
इन शीत और उष्ण दोनों धारों को मिलाओ, यह शंकर-भजन है। शीत और उष्ण धार के मिलन से क्या होगा? बल्ब जलेगा। अंतःप्रकाश होगा, विमल ज्ञान का विकास होगा और विषय-वासना का विनाश होगा। इसी दिशा की ओर इंगित करते हुए गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है-
“ तब सिव तीसर नयन उघारा ।
चितवत काम भयेउ जरि छारा ।।”
तीन आँखें हमें भी हैं और तीन आँखें शिवजी को भी। अंतर इतना ही है कि शिवजी ने उसका प्रथम उद्घाटन किया था, इसलिए उसका नाम शिवनेत्र पड़ा। हमलोग भी शिवजी की संतान हैं। हमलोग भी उसका उद्घाटन करें। जब यह तीसरी आँख खुलती है, तभी ‘चितवत काम भयेउ जरि छारा’ होता है। आँख की निस्बत प्रभु ईसामसीह ने बाइबिल में कहा है, ‘यदि तेरी आँख एक हो, तेरा सारा शरीर उजियाला होगा। दोनों आँखों की धारों को मिलाना ज्योति जलाने की कला है। जबतक अंतःप्रकाश की प्राप्ति नहीं होगी, स्वप्न में भी सुख नहीं मिलेगा। चाहे कितना भी ऊँचे-से-ऊँचा पद पा लो, कितनी भी प्रतिष्ठा पा लो; किन्तु शांति नहीं मिलेगी, सुख नहीं मिलेगा-
“ जब लगि नहिं निज हृदिय प्रकाश,
अरु विषय आस मन माहीं ।
तुलसिदास तब लगि जग जोनि
भ्रमत सपनेहुँ सुख नाहीं ।।”
यह प्र्रकाश कहाँ मिलेगा और इसकी प्राप्ति होने से क्या लाभ है, गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज के शब्दों में सुनिये-
“ जब ते राम प्रताप खगेसा ।
उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा ।।
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका ।
बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका ।।
जिन्हहि सोक ते कहउँ बखानी ।
प्रथम अबिद्या निसा नसानी ।।
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने ।
काम क्रोध कैरव सकुचाने ।।
बिबिध कर्म गुन काल सुभाऊ ।
ए चकोर सुख लहहिं न काऊ ।।
मत्सर मान मोह मद चोरा ।
इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा ।।
धरम तड़ाग ग्यान बिग्याना ।
ए पंकज बिकसे बिधि नाना ।।
सुख सन्तोष बिराग बिबेका ।
बिगत सोक ए कोक अनेका ।।”
“ यह प्रताप रबि जाकें, उर जब करइ प्रकास ।
पछिले बाढ़हिं प्रथम जे, कहे ते पावहिं नास ।।”
जैसे दीपक के प्रकाश में फतिंगे जा-जाकर जलकर मरते हैं, उसी तरह अंदर के प्रकाश में सभी विकार जल-जलकर विनाश हो जाएँगे। आवश्यकता है अपने अंतःप्रकाश को प्राप्त करने की। प्रकाश प्राप्त करने का यत्न क्या है, गुरु से जानो। नहीं तो भटकते रहेंगे।
“ बिन दया संतन की मेँहीँ, जानना इस राह को ।
हुआ नहीं होता नहीं, वो होनहार है नहीं ।।”
(महर्षि मेँहीँ पदावली)
एक तो अंतर्ज्योति की बात जानो और दूसरी अंतर्नाद की। संत चरणदासजी महाराज अंतर्नाद की महिमा इस भाँति गाते हैं-
“ जब से अनहद घोर सुनी ।
इन्द्रिय थकित गलित मन हूआ, आशा सकल भुनी ।।”
अंतर्नाद की साधना से इन्द्रियाँ थक जाएँगी, मन गल जाएगा। विचारणीय विषय है कि इन्द्रियाँ विषयों में कैसे जाती हैं? मन की प्रेरणा से। जब नाद-साधना में मन गल जाएगा, तब इन्द्रियों को विषयों में प्रेरित कौन करेगा? इस प्रकार अंतर्नाद की साधना से मन वशीभूत होता है और इन्द्रियों की चपलता छूटती है। नादविन्दूपनिषद् में लिखा है-
“ मनोमत्तगजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः।
नियामनसमर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः।।”
अर्थात् नाद मदान्ध हाथी-रूप चित्त को, जो विषयों की आनन्द-वाटिका में विचरण करता है, रोकने के लिए तीव्र अंकुश का काम करता है।
जो अंतर्ज्योति और अंतर्नाद की साधना करते हैं, उनके सारे विकार समूल नष्ट हो जाते हैं। लेकिन यह आरंभ की साधना में नहीं, सुनिष्पन्न अवस्था में होने की बात है। साधना आरंभकाल में मन की जो दशा होती है, उसका गोस्वामी तुलसीदासजी ने बड़ा ही अच्छा चित्रण किया है, उन्होंने रामचरितमानस में लिखा है-
“ विषयी साधक सिद्ध सयाने ।
त्रिविध जीव जग बेद बखाने ।।”
एक तो विषयी, दूसरे साधक और तीसरे सिद्ध होते हैं। जो विषयी होते हैं, उनकी उपमा दी गयी है गुबरैले मक्खी से। गुबरैला मक्खी वह होती है, जो पाखाने की गोलियाँ बनाकर उनको इधर से उधर, उधर से इधर उलटाती- पुलटाती रहती है। निकट में ही फुलवाड़ी है, जिसमें सुंदर-सुंदर फूल खिले हैं, जो अपने सौरभ से आस-पास को सुरभित कर रहा है; लेकिन वह मक्खी उस बगीचे में नहीं जाएगी। उसी तरह निकट में ही सत्संग होता है; लेकिन विषयी आदमी वहाँ नहीं जाएगा। साधक की उपमा हमलोगों के घरों की मक्खियों से दी गयी है। वह कभी मिठाइयों पर बैठकर उनका स्वाद लेती है, तो कभी विष्ठा पर बैठकर उसका भी। इसी प्रकार की स्थिति साधक की होती है। वह कभी भगवान का भजन करता है, तो कभी विषयों की ओर दौड़ता है। यह बहुत डाँवाडोल स्थिति है। तीसरे होते हैं सिद्ध। सिद्ध की उपमा मधुमक्खी से दी गयी है। जब वह बैठेगी, तो फूल का पराग ही लेगी। जिस तरह मधुमक्खी को फूल के पराग से अनुराग होता है, उसी तरह सिद्ध को भगवान के पदपप्र-पराग से अनुराग रहता है। जो कोई नादानुसंधान की क्रिया करते हैं, उनका मन उनके वश में हो जाता है। संतमत साधना के माध्यम से जो कोई चलेंगे, तो चलते-चलते एक दिन वे प्रभु को प्राप्त करेंगे, यह सुनिश्चित है। अभी आदरणीय डॉ0 रामजी बाबू ने कहा, ‘संतमत की जो क्रिया है, संतमत की जो साधना है, संतमत का जो आचार- विचार है, उस आचार-विचार को यदि कोई व्यवहार में लावे, तो यह अनाचार-दुराचार, व्यभिचार कैसे होगा? हो ही नहीं सकता है। ये बातें उन्होंने बड़ी अच्छी और बिल्कुल सही कही हैं। वास्तव में एक पाप से भी वर्जित हो, तो कल्याण हो जाएगा। जैसे- संतमत में झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार का वर्जन है, तो इन पंच पापों में से यदि कोई झूठ नहीं बोले, तो कल्याण हो जाएगा। चोरी नहीं करे तो कल्याण हो जाएगा। नशा नहीं ले, तो शरीर की बर्बादी नहीं होगी, पैसे की बर्बादी नहीं होगी, जीवन की बर्बादी नहीं होगी। संतजन यह नहीं कहते कि नशा-सेवन नहीं करो, तो उससे जो पैसे बचे, वे हमको दो। पैसे बचेंगे, तो तुम्हारे पास रहेंगे। तुम उसको अपने पास रखो, अच्छे कार्य में लगाओ। हिंसा नहीं करो। आज क्या है-हिंसा वृत्ति फैली हुई है। क्यों? इसलिए कि खान-पान का संयम नहीं है। आहार-विहार की नियमितता नहीं है। हमारे परम पूज्य गुरुदेव का अमोघ वचन है-
“ खान पान को प्रथम सम्हारो ।
तब रस-रस सब अवगुण मारो ।।”
महात्मा गाँधीजी ने लिखा है-ब्रह्मचर्य पालन करना कोई कठिन काम नहीं है; लेकिन कठिन हम उसको इसलिए बना देते हैं कि अन्य सब इन्द्रियों को तो खुली छोड़ देते हैं और एक इन्द्रिय जो जननेन्द्रिय है, उसका बाँधना चाहते हैं। मात्र शुक्र की रक्षा को ही वे ब्रह्मचर्य नहीं कहते थे। उन्होंने कहा है, ‘ब्रह्मचर्य- प्राप्ति के लिए जितने आवश्यक आचरणीय नियम हैं, उन सबका पालन ब्रह्मचर्य है। गृहस्थ होकर भी ब्रह्मचारी हो सकते हो। परिवार में रहकर-स्त्री-पुरुष- पुत्र-पौत्र आदि के साथ रहकर भी ब्रह्मचारी बन सकते हैं। महात्मा गाँधीजी ने भी कहा-पशु चारागाह से भरपेट भोजन करके लौटना जानता है; लेकिन मनुष्य अपने पेट का अंदाजा नहीं जानता। यही कारण है कि मानव जननेन्द्रिय से पशु-जननेन्द्रिय अधिक संयमित होता है। जिसकी जिभ्या इन्द्रिय वश में नहीं, उसकी जननेन्द्रिय कभी भी वश में नहीं हो सकती है। संत का वचन है-
‘जिभ्या इन्द्री एकै नाल। जो रोकै सो बाचै काल।।’
संत कबीर साहब ने कहा है-
“ खट्टा मीठा चरपरा, जिभ्या सब रस लेय ।
चारौं कुतिया मिल गयी, पहरा किसका देय ।।”
और भी-
“ घास-पात जो खात है, ताहि सतावै काम ।
हलुआ पूड़ी खाय जो, ताहि जानै राम ।।”
जो कोई संयमित जीवन बिताते हैं, आचरण नियमों का पालन करते हैं, वे ही साधना में आगे बढ़ते हैं और उनकी ही साधनानुभूति का रस मिलता है। एक बंगाली महात्मा ने कहा है-
इस स्थिति को प्राप्त करो। गोस्वामी तुलसी दासजी ने लिखा है-
“ ब्रह्म पियूष मधुर सीतल जो पै मन सो रस पावै ।
तौ कत मृग जल रूप विषय कारन निसिवासर धावै ।।”
जिसको ब्रह्म-पीयूष मिल जाएगा, ब्रह्म-अमृत मिल जाएगा, वह विषय-विष-पान करने क्यों जाएगा! अरे! जो लाखपति बन जाएगा, वह खाक छानने क्यों जाएगा? जो करोड़पति बन जाएगा, वह कौड़ी चुनने क्यों जाएगा? अर्थात् ब्रह्मरस पानेवाला विषय-रस की ओर नहीं जाएगा।
संतमत पंच पापों से विरत और एक ईश्वर-चरण में अनुरक्त रहने के लिए बतलाता है, सत्संग करने और सदाचार का पालन करने के लिए बतलाता है। साथ ही संतमत की शिक्षा है-परमुखापेक्षी मत बनो अर्थात् जीवन- यापन के लिए पवित्र कमाई अवश्य करो। यह संतमत की थोड़ी-सी शिक्षा आपलोगों से कही।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन भागलपुर विश्वविद्यालय के प्रांगण में दिनांक
1-1-1989 ई0 के सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, फरवरी 1989 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं बहनो!
एक बार महाराज युधिष्ठिर से कहा गया कि जाओ, दिनभर घूमकर शाम में एक दुर्जन को साथ ले आओ।
दुर्योधन से कहा गया कि दिनभर घूमकर एक सज्जन को ले आओ। युधिष्ठिर महाराज दुर्जन की खोज में निकले और दुर्योधन सज्जन की खोज में। दिनभर घूमते-घामते शाम को दोनों के दोनों यों ही वापस आये। न तो युधिष्ठिर महाराज को किसी दुर्जन से भेंट हुई और न दुर्योधन महाराज को किसी सज्जन से। पूछा गया युधिष्ठिर जी से कि दिनभर में कहीं तुमको दुर्जन से भेंट नहीं हुई? यों ही वापस आ गये। उन्होंने कहा, ‘जिनको देखा, सबमें कुछ-न-कुछ सज्जनता ही दीख पड़ी, दुर्जनता दीख पड़ी ही नहीं। इसी तरह से दुर्योधन से पूछा गया तो उन्होंने कहा, ‘कुछ-न-कुछ दुर्गुण सबमें थे। इसलिए सज्जन कहकर लाता, तो कैसे? मतलब यह कि जो जैसे होते हैं, वे दूसरे को भी वैसे ही गुणों से युक्त देखते हैं।
आपलोगों ने मुझे मानपत्र अर्पित किया है। आप लोग कथित गुणों से संयुक्त हैं, इसलिए मुझमें भी वे गुण देखते हैं। दूसरी बात यह है कि जहाँ कुछ अपनत्व की भावना होती है, वहाँ दोष-दृष्टि से देखने का अवसर ही नहीं मिलता है।
एक दही बेचनेवाली थी। उससे पूछा गया कि तुम्हारा दही कैसा है, तो उसने कहा कि बाबू! मेरा दही इतना बढ़िया है क्या कहना! चीनी मिलाकर आप खाकर देख लीजिए। अपने दही को कोई खट्टा थोड़े ही कहता है!
अभी आपलोग रामचरितमानस का पाठ सुन रहे थे। बड़े ही अच्छे स्वर में गाया जा रहा था। भगवान श्रीराम राक्षसराज रावण का संहार करके, विभीषण को लंका का राज्य देकर अयोध्या वापस आये।, उनका राज्याभिषेक हुआ और जब वे राजा के पद पर प्रतिष्ठित हो गये, तब उन्होंने एक बार अपनी समस्त प्रजा को, पुरवासियों को, प्रियजनों, दुर्जनों, सज्जनों- सबको आमंत्रित करके बुलाया। सब- के-सब उपस्थित हुए। भगवान श्रीराम ने उनसे सबसे पहली बात कही-
“ सुनहु सकल पुरजन मम बानी ।
कहउँ न कछु ममता उर आनी ।।
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई ।
सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई ।।
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई ।
मम अनुसासन मानै जोई ।।”
भगवान श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम थे, इसलिए वे सबकी मर्यादा रखते हुए कहते हैं-आपलोग सुनिये। मैं आपलोगों से जो कुछ भी कह रहा हूँ, हृदय में कुछ ममता रखकर नहीं; ममता रखकर-किसी को कम और किसी को बेसी समझकर नहीं। समता भाव से एक स्वर में सबको कह रहा हूँ। जो कुछ मैं कहने जा रहा हूँ, नीति की बात कह रहा हूँ, अनीति की बात नहीं। अच्छी बात कहने जा रहा हूँ, बुरी बात नहीं। आपलोगों के कल्याण की बात कह रहा हूँ, अकल्याण की बात नहीं। इसलिए मेरी बात आपलोग मन लगाकर सुनिये; लेकिन आपलोगों को जो अच्छा लगे, वही कीजिए। यह नहीं कहता हूँ कि मैं राजा हूँ, इसलिए मेरी बात सुननी पड़ेगी, करनी पड़ेगी, यह नहीं। प्रभुत्व की भाषा में मैं नहीं कर रहा हूँ। राजा के पद पर प्रतिष्ठित होकर राजकीय भाषा में ंनहीं कह रहा हूँ। सबको एक समान, एक दृष्टि से देखकर, सबके कल्याण के लिए मैं कह रहा हूँ।
एक जमाना था, जबकि राजा को इस बात की चिंता थी हमारी प्रजा सुखी रहे। इस लोक में ही नहीं, बल्कि परलोक में भी। इस लोक में तो सुखी रहे ही, शरीर छूटने के बाद भी वह सुखी रहे। राम का राज्य ही ऐसा था, किसी प्रकार के लौकिक सुख की कमी नहीं थी। लौकिक सुख की कमी नहीं थी, तो भगवान राम सोचते हैं कि शरीर छूटने के बाद प्रजा जहाँ जाए, वहाँ भी सुख से रहे। जैसे हमलोग यहाँ सुख से रहना चाहते हैं, तो शरीर छूटने के बाद दुःख की अवस्था में रहकर दुःख पाना तो नहीं चाहते हैं। इस लोक की सारी व्यवस्था तो अच्छी थी, इसलिए परलोक की बात भगवान राम कह रहे हैं। उपदेश में सबसे पहली बात वे कहते हैं-
“ बड़े भाग मानुष तनु पावा ।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा ।।”
हमलोगों को यह मनुष्य का शरीर मिला है, यह बड़ा भाग्य है अर्थात् जिनको मनुष्य का शरीर मिला है, उनका अहोभाग्य है। आप जरा सोचकर देखिये।
हमारे यहाँ गाय होती है। वह गाय घास खाती है। हम उसको घास खिलाते हैं; भूसा खिलाते हैं। खल्ली खिलाते हैं, माँड़ पिलाते हैं; लेकिन उसके बदले गाय दूध देती है, बछड़ा देती है। बछिया देती है। बछिया देती है, तो उसकी संख्या और बढ़ती है। बछड़े से हम हल चलाते हैं, गाड़ी चलाते है, जोतने का काम होता है। खेती करके विविध अन्न उपजाते हैं और उपजाकर खाते हैं। उसी प्रकार दूध से विविध प्रकार के मिष्टान्न बनाकर हमलोग खाते हैं। एक गाय जो घास-भूसा खाकर रहती है, वह इतनी चीजें देती हैं। माई का दूध जब नहीं होता है, तो गाय के दूध से ही हमारा पालन-पोषण होता है। गाय जबतक जीवित रहती है, हमारी सेवा करती है। उसका गोंत होता है, वह भी हमारे काम में आता है। गोबर होता है, वह भी काम में आता है। जब गाय का शरीर छूट जाता है, तब भी वह अपने चमड़े से हमारी सेवा करती है। अपनी हड्डी से सेवा करती है; लेकिन कभी कहीं हमने अपने संबंध में भी सोचा है कि भूसा खानेवाले पशु-गाय से तो इस तरह हम उपकृत हैं; परन्तु हम जो हलुवा खाते हैं, पूड़ी खाते हैं, रसगुल्ला खाते हैं, बरफी खाते हैं, गुलाबजामुन खाते हैं, मेवा खाते हैं, सेव खाते हैं-न जानें कितनी अच्छी-अच्छी चीजें खाते हैं, तो इस अच्छे शरीर की क्या उपादेयता है? इसका चमड़ा काम में आता है कि इसकी हड्डी काम में आती है। इसका गोंत काम में आता है कि इसका गोबर काम में आता है? क्या काम में आता है? भगवान श्रीराम यह कह रहे हैं कि ‘बड़े भाग मानुष तनु पावा।’ यह विशेषता क्या है? एक उपनिषद् है-बृहदारण्यक उपनिषद्। बृहदारण्यक उपनिषद् में लिखा है-
मनुष्य का शरीर उलटा वृक्ष है। वृक्ष की जड़ नीचे रहती है। उस जड़ को हम सीर भी कहते हैं। वृक्ष का जो सीर है, वह तो नीचे रहता है और मनुष्य का सिर ऊपर है। वृक्ष के ऊपर भाग में छिलका होता है और उसके नीचे भाग में गूदा होता है और उसके नीचे भाग में लकड़ी होती है। मनुष्य-शरीर के ऊपर में त्वचा होती है, उसके नीचे मांस होता है, उसके नीचे हड्डी होती है। वृक्ष के किसी अंग में अस्त्र-शस्त्र से आघात कर दीजिए, पानी चूने लग जाता है। मनुष्य के किसी अंग में अस्त्र-शस्त्र से आघात करने पर रक्त चूने लग जाता है। वृक्ष में इतने पत्ते होते हैं कि उनकी गणना नहीं की जा सकती। मनुष्य के सिर पर भी इतने बाल (केश) होते हैं कि उसकी गणना नहीं हो सकती। वृक्ष के सिर को काट दीजिए, वृक्ष सूख जाएगा, मनुष्य का सिर को काट दीजिए, वह भी मर जाएगा, समाप्त हो जाएगा। वृक्ष नीचे से आहार ग्रहण करता है और मनुष्य ऊपर से आहार ग्रहण करता है। मनुष्य ऊर्ध्वमुखी और वृक्ष अधोमुखी है। जो ऊर्ध्वमुखी है, ऊपर का ज्ञान जानना, ऊपर की ओर जाना उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। स्वाभाविकता इसकी है ऊपर की ओर जाने की। गोस्वामीजी ने लिखा है-
“ ईस्वर अंस जीव अबिनासी ।
चेतन अमल सहज सुखरासी ।।
सो मायाबस भयउ गोसाईं ।
बँध्यो कीर मरकट की नाईं ।।”
मनुष्य ऊर्ध्वमुखी है; लेकिन मायाभिमुख होकर वह नीचे की ओर जा रहा है। जिस तरह से गुड्डी है, उसको हवा में छोड़ दीजिए। आकाश में उड़ने लगेगी। वही गुड्डी है; लेकिन छोटा-सा मिट्टी का ढेला उसमें बाँध दीजिए आप, जरा-सा भी टस-से-मस नहीं हो सकेगी। उसी तरह से माया का घेरा लगा हुआ है इस जीव के साथ। जब अकेला रहे, तब तो चला जाए, लेकिन इसके साथ माया का ढेला लगा हुआ है, इसीलिए यह ऊर्ध्वगामी नहीं हो रहा है। तो भगवान श्रीराम यह उपदेश देते हैं-और किसी शरीर में यह विशेषता नहीं है, जिसमें रहकर ऊर्ध्वमुखी हो सकें और जाकर परम पिता परमात्मा को प्राप्त कर सकें। अगर है, तो मनुष्य-शरीर को और इसकी इतनी विशेषता भगवान राम ने बतायी है कि देवता को भी यह शरीर दुर्लभ है। संत तुलसी साहब ने कहा है-
“ नर तन दुर्लभ देव को, सब कोइ कहत पुकार ।।
सब कोइ कहत पुकार, देव देही नहिं पावै ।
ऐसे मूरख लोग, स्वर्ग की आस लगावै ।।
पुन्य छीन सोइ देव, स्वर्ग से नरक में आवै ।
भरमै चारिउ खानि, पुन्य कहि ताहि रिझावै ।।
तुलसी सत मत तत गहे, स्वर्ग पर करे खखार ।
नर तन दुर्लभ देव को, सब कोइ कहत पुकार ।।”
स्वर्ग में जाकर भी सब-के-सब एक से सुखी नहीं होते। सुख का स्थान अवश्य है स्वर्ग और वह किस तरह का सुख है, तो विषय- सुख-विषय उपभोग का सुख है। यहाँ से जितने जो कोई जाते हैं स्वर्ग-भोग करने के लिए, सबके पुण्य एक समान नहीं होते। इसलिए सबको स्थान भी एक समान नहीं मिलता। किसी का कम पुण्य है, किसी का अधिक पुण्य है। कम पुण्यवाले न्यून स्थान में रहेंगे और अधिक पुण्यवाले ऊपर स्थान में रहेंगे। कम पुण्यवाले कम दिन रहेंगे और अधिक पुण्यवाले अधिक दिन रहेंगे। इस तरह का जो वर्गीकरण वहाँ पर है, किसी को नीचे भेजता है और किसी को ऊपर भेजता है, तो ऊपरवाले को देखकर नीचेवाले को ईर्ष्या होती है कि मैं वैसा नहीं हूँ। दूसरी बात यह है, जितने जो कोई भी वहाँ जाते हैं, उनको पता रहता है, इतने ही दिन वहाँ पर रहना है। उनको यह बता दिया जाता है। यहाँ तो ऐश-मौज में है। भले ही पलभर में दम तोड़ दें, दूसरी बात है। शरीर छूट जाए, दूसरी बात है। इसलिए लापरवाह हैं। एक प्रकार से निश्चिन्त-से हैं हम मरेंगे, देखा जाएगा, कब मरेंगे। लेकिन वहाँ तो बता दिया जाता है कि इतने दिनों तक रहना है। इस तरह वहीं से दिन गिनना प्रारंभ हो जाता है, आज एक दिन बीता। आज दूसरा दिन बीता। आज तीन दिन बीते आदि-आदि। इस कारण से दुःख की बढ़ती होती चली जाती है। अब तो इतने दिन रहना है-अब तो इतने ही दिन रहना है। इसलिए स्वर्ग में जाकर भी जीव सुखी नहीं होता है। वहाँ भी दुःखी ही होता रहता है। जैसे यहाँ से आप जितने डालर ले गये अमेरिका, उतने खर्च कर लीजिए। डालर खर्च हुए कि लौटकर अपने देश-स्वदेश आ जाइये। अब यहाँ पर रह नहीं सकते आप। उसी तरह से जितनी कमाई हम कर लेंगे पुण्य की, उतनी कमाई के अनुपात से हम स्वर्ग में जाकर रहेंगे। कमाई समाप्त हुई कि फिर संसार में ढकेल दिये जाएँगे। जो सब दिन स्वर्ग में सुखोपभोग करे और बाद में ढकेलकर दुःख के स्थान में भेज दिया जाए, तो उसकी क्या स्थिति होगी, समझिये?
जबतक हम स्वर्ग में रहेंगे, तबतक तो बड़े मौज में रहेंगे; लेकिन जब छूटेंगे, तब फिर 84 लाख योनियाँ तैयार है। फिर चक्कर काटो। तो वहीं से फिर दुःख देखने में आ जाता है। अब तो हमको जाना है, फिर दुःखों को भोगना है। इसलिए कहा-‘स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई। (रामचरितमानस)
भगवान ने कहा है-
‘एहि तन कर फल विषय न भाई ।’
हे भाई! इस शरीर की उपयोगिता विषय-भोग में नहीं। जब ‘एहि तन कर फल विषय न भाई’ तब क्या ‘एहि तन कर फल निर्विषय भाई।’ वह निर्विषय तत्त्व परमात्मा है। और परमात्म-चिंतन मनुष्य-शरीर की उपयोगिता है। प्रभु का भजन करके प्रभु से मिल जाना-यह मनुष्य-शरीर की उपयोगिता है। प्रभु का भजन करके प्रभु से मिल जाना-यह मनुष्य-शरीर की उपादेयता है। इसके लिए भगवान कहते हैं, वह शरीर क्या है? ‘साधन धाम मोक्ष कर द्वारा।’ साधनाओं का घर है। जो साधना करो, जैसा अभ्यास करो, कुशलता ही मिलेगी। सफलता मिलेगी। विविध प्रकार की साधनाएँ करो, सारी सफलताएँ इस मनुष्य-शरीर में हैं और मनुष्य-शरीर ही ‘मोक्ष कर द्वारा’ है-मोक्ष का द्वार भी इसी शरीर में है। आँख के दो, नासिका के दो, कान के दो, मुँह का एक और मल-मूत्र विसर्जन के दो-नौ द्वार जो ये हैं, इन द्वारों में से कोई भी द्वार मोक्ष का नहीं है। गुरु नानकदेवजी महाराज ने तो कहा-
“ नउ दरि ठाके धावतु रहाए ।
दसवै निज घरि वासा पाए ।।
उथै अनहद सबद बजहि दिन राती ,
गुरु मति सबदु सुणावणिआ ।।6।।”
नौ दरवाजों में रहकर विषयों की ओर रहते हैं, दसवाँ द्वार नहीं मिलता है। वे विषय कितने हैं? गोस्वामीजी कहते हैं-
“ पाँचइ पाँच परस रस, शब्द गन्ध अरु रूप ।
इन्हकर कहा न कीजिए, बहुरि परब भव-कूप ।।”
इन पाँचो के फेर में तुम पड़ जाओगे, तो फिर संसार-कूप में पड़े रहोगे। इसलिए किसी कवि ने कहा-
“ जब मातंग पतंग भृंग सारंग और झख ।
त्वचा विलोचन जीभ श्रवण नासिका के विवश ।।
परस रूप रस गंध अरु शब्द क्रमशः इनमें फँस ।
शोक लोक-परलोक नाश कर पाते अपयश ।।”
“ होती कितनी दुर्गति तब तहाँ,
पाँच पाँच हो जब जहाँ ।
तब सद्गति ‘श्रीपति’ होत कहाँ,
साँच साँच हो तब तहाँ ।।”
इसी को दूसरी तरह से एक दूसरे कवि ने कहा है-
“ मृग मीन भृंग पतंग कुंजर, एक दोष विनासहीं ।
पंच दोष असाध्य जामें, ताकी केतिक आसहीं ।।”
मृग का कर्ण विषय-शब्द प्रिय है। इसलिए वह व्याधे के जाल में आ फँसता है और मरता है। मछली को जिभ्या का विषय-रस प्रबल है, इसलिए वह मरती है। भँवरे की नासिका विषय-गंध प्रबल है, इस कारण उसकी जान जाती है। पतंग में नेत्र- विषय-रूप की प्रबलता है, वह आग में जल-जलकर, दीपक में जल-जलकर, रोशनी में जल-जलकर मरता है। हाथी में स्पर्श विषय प्रबल है, इस कारण वह जंगल में बझाया जाता है। इतना बड़ा जानवर साढ़े तीन हाथ के आदमी के वश में रहता है। जैसे उठाता है आदमी, वैसे उठता है। जैसे बिठाता है आदमी, वैसे बैठता है। खिलाता आदमी, तो खाता है। नहीं खिलाता है, तो भूखे मरता है।
एक-एक विषय की प्रबलता के कारण एक-एक प्राणी की जान जाती है। मनुष्य में पाँचों की प्रबलता है। वह सुंदर रस भी चाहता है, सुंदर रूप भी चाहता है। सुन्दर स्पर्श भी चाहता है, सुन्दर गंध भी चाहता है। सब सुंदर ही सुन्दर चाहता है। पाँचो की प्रबलता जिसमें है, उसका जीवन है, तो समझना चाहिए कि प्रभु की कृपा से ही वह जी रहा है। विचार करके आप देखिये, तो विषय क्या है? हमलोग विषय कैसे लिखते हैं? व ह्रस्व इकार, मूर्धन्य ष और य। गोस्वामीजी कहते हैं, यह विषय क्या है-
“ मन मलिन तन सुन्दर कैसे ।
विषय रस भरा कनक घट जैसे ।।”
जिस तरह से सोने का घड़ा हो। विष उसमें भरा हो, तो जो पान करे, वह मरे कि नहीं? तो यह संसार देखने में बड़ा सुन्दर मालूम पड़ता है। ये पंच विषय बहुत अच्छे मालूम पड़ते हैं; लेकिन उस विषय में क्या है-विष भरा है। ‘य’ उसका ढक्कन है। ‘य’ को हटा दीजिए तो क्या मिलेगा? विष मिलेगा। उसी तरह से यह संसार है। इसीलिए कहा-
‘अनविचार रमणीय महा, संसार भयंकर भारी ।।’
जो अविचारी है, जो विवेकहीन हैं, उनके लिए तो यह संसार बहुत रमणीय है, सुंदर है; लेकिन जो विवेकशील है, ज्ञानवान है, उनके लिए यह संसार बहुत भयंकर है। जैसे साँप देखने में बड़ा ही सुंदर मालूम पड़ता है। साँप के शरीर पर बहुत अच्छी चित्रकारी होती है। सर्प के शिर को आप पकड़ लीजिए और पूँछ को नीचे लटका दीजिए तो दूर से देखनेवाले को लगेगा कि बाबू के हाथ में बड़ी अच्छी छड़ी है। अगर आप अपने गले में उसको लपेट लीजिए, तो दूर से देखनेवाले कहेंगे कि बड़ी अच्छी माला है और कलाई में लपेट लीजिए, तो देखने में बहुत सुंदर बाला-जैसा मालूम पड़ेगा; लेकिन वह नाग काला है। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
यह संसार विष से भरा-पूरा है। इसीलिए कहा-‘एहि तन कर फल विषय न भाई।’
निर्विषय तत्त्व की ओर कैसे जाएँ? ‘दसवें निज घरि वासा पाए’। दसवाँ दरवाजा जो है, वह अपने घर जाने का रास्ता है। नौ दरवाजे जो हैं, भटकने के रास्ते हैं, संसार में लटकने के रास्ते हैं, विषय में अटकने के रास्ते हैं; लेकिन प्रभु की ओर जाने का जो रास्ता है, वह दसवाँ द्वार है। उस दसवें द्वार का पता संत सद्गुरु बतलाते हैं। उस दसवें दरवाजे का पता जब कभी मिलेगा, इस मनुष्य-शरीर में ही मिलेगा, और किसी दूसरे शरीर में नहीं। इसीलिए संत कबीर साहब ने कहा है-
“ लख चौरासी भरमि के पौ पर अटके आय ।
अबकी पासा ना पड़ै, फिर चौरासी जाय ।।”
चौपड़ एक खेल होता है, जिसमें चौरासी कोठे होते हैं। चार गोटियाँ होती हैं। कौड़ियाँ भाँज-भाँजकर उलटाते हैं। जितनी कौड़ियाँ चित होती है, एक-एक गोटी उसी क्रम से उतने घर चलती है। चलते-चलते 83 घर पार करके 84 वें कोठे में वह गोटी आती है, उस घर का नाम है पौ। अब यदि कहीं एक कौड़ी चित हो जाए, तो गोटी लाल हो जाती है। उसको कहते हैं, पौ बारह। कहीं एक कौड़ी चित नहीं हुई, दो-तीन या चार कौड़ियाँ चित हो गयीं, तो उस गोटी को पुनः चौरासी कोठे तय करने होते हैं। इस प्रकार घूमते-घूमते जब कभी 84वें घर में वह गोटी जाएगी और एक गोटी चित होगी, तभी वह गोटी लाल होगी।
संत कबीर साहब कहते हैं-उसी तरह से जो मनुष्य-शरीर तुमको मिला है, 84 लाख योनियों में घूमते-घूमते मिला है। संत राधास्वामी साहब कहते हैं-
“ अब याको वृथा मत खोओ ।
चेतो छिन छिन भक्ति कमाओ ।।
भक्ति करो तो गुरु की करना ।
मारग शब्द गुरु सों लेना ।।
शब्द मारगी गुरु न होवे ।
तो झूठी गुरुवाई लेवे ।।”
84 लाख योनियों में भटकते-भटकते, घूमते-घूमते मनुष्य-शरीररूपी पौ पर तुम आ गये हो। जिस तरह से एक कौड़ी चित होती है, तो गोटी लाल हो जाती है, उसी तरह तेरा चित एक होकर प्रभु में लग जाए, तो जीवन निहाल है, तेरा मानव-जीवन सार्थक हो जाएगा। कहीं तुम्हारा चित एक नहीं हुआ, तब तो बात विचित्र हो जाएगी। फिर चौरासी लाख योनियों में घूमना पड़ेगा। इस प्रकार घूमते-घूमते फिर जब कभी मनुष्य-शरीर में आ पाओगे, चित्त एक कर पाओगे, ईश्वर भक्ति करोगे, ईश्वर को पाओगे। अपना परम कल्याण बना सकोगे।
“ कबीर यह मन एक है, भावै तहाँ लगाय ।
भावै गुरु की भक्ति कर, भावै विषय कमाय ।।”
इस एक चित को लगाओ प्रभु में, यही मनुष्य-देह की उपयोगिता है, यही उपादेयता है।
चित की एकाग्रता दसवें द्वार में होती है। इस दसवें द्वार का पता संत बताएँगे। वहीं से चलना होता है अपने प्रभु के पास। आप हैं भी वहाँ ही, कहीं दूसरी जगह नहीं हैं। लेकिन हमारी हालत क्या है? अगर हम उनको पा लें, तो मालोमाल हो जाएँ; लेकिन हम चल नहीं रहे हैं। विषयों की ओर दौड़ रहे हैं। इसीलिए हम कंगाल बने हुए हैं।
एक भिखारी था। भीख माँगकर वह खाता था। एक जगह पर आकर वह रहता था। वर्षों बीत गये, उस स्थान पर उसको रहते हुए। होते-होते एक दिन शरीर उसका छूट जाता है। अकेला ही था। शरीर छूट जाने पर नगरपालिका की ओर से आदमी भेजकर उसकी लाश को गंगाजी में प्रवाहित करवा दिया गया। नगरपालिकावालों ने सोचा, वह भिखमँगा भीख माँगकर खाता था। न जाने कैसा-कैसा अन्न वह खाता था, जहाँ इतने दिनों से वह बैठता था, वहाँ की मिट्टी तो अशुद्ध हो गयी। इसलिए साढ़े तीन हाथ का वह आदमी था, तो 4 हाथ मिट्टी खोदकर फेंक देनी चाहिए। जहाँ पर वह बैठता-सोता था, उतनी लंबी-चौड़ी और चार हाथ गहरी मिट्टी खोदकर फेंकने लग गये। फेंकते-फेंकते जब चौथा हाथ मिट्टी खोदने लग गये, तो वहाँ एक घड़ा मिला, जिसमें अशर्फियाँ भरी हुई थीं। अगर उस कंगाल को यह मालूम होता कि जहाँ मैं बैठता हूँ, वहीं पर अशर्फी का घड़ा है, तो वह कंगाल नहीं रहता। उसी तरह से जहाँ हम बैठे हुए हैं, वहीं पर चार हाथों की दूरी पर अशर्फी का घड़ा पड़ा हुआ है। अंधकार, प्रकाश, शब्द और निःशब्द-ये चार हाथ हैं, तीन हाथ पार कीजिए, चौथे हाथ पर वह घड़ा मिल जाएगा। फिर तो मालोमाल हो जाएँगे। संत कबीर साहब ने कहा-
“ लाल लाल जो सब कोइ कहै सबकी गाँठी लाल ।
गाँठी खोलि के परखै नाहीं तासे भयो कंगाल ।।
लाली मेरे लाल की जित देखौं तित लाल ।
लाली देखन मैं गयी, मैं भी हो गयी लाल ।।”
उसको खोदिये। जहाँ बैठे हुए हैं आप, वहीं से चलिये। होता क्या है? चलना हम चाहते भी हैं; लेकिन चल नहीं पाते हैं। किसी-किसी को तो पता ही नहीं है। जिस किसी को पता है, तो वह समय देना ही नहीं चाहता। भगवान बुद्ध ने तो कहा कि संसार में मनुष्य-शरीर पाना दुर्लभ है। शरीर पाकर भी जीवित रहना दुर्लभ है। जीवित रहकर भी सद्धर्म-श्रवण करना दुर्लभ है। सद्धर्म-श्रवण करके भी उसका आचरण दुर्लभ है।
हमलोग बैठते हैं। खोजते हैं। कहाँ बैठें? कहाँ खोजें? किसी से पूछते की जरूरत नहीं। आप स्वयं अपने ही से पूछ लें कि तुम कहाँ बैठे हो? अपने-आप उत्तर आ जाएगा। हम कहाँ हैं? इस शरीर में हैं। बाहर की चीजों को हम ढूँढ़ना चाहते हैं, तो आँखें खोलकर ढूँढ़ते हैं और भीतर की चीजों को हम खोजेंगे, तो क्या करना होगा? क्रिया उलट दीजिए। आँख बंद कर लीजिए। आँखें बंद करके पूछिये कि आप कहाँ हैं? उत्तर आएगा कि हमको कुछ दीखता नहीं है, कुछ सूझता नहीं है। संतजन कहते हैं-देखो, देखते-देखते कुछ देखने में आ जाएगा। गौर करके देखते हैं, तो कहते हैं-कुछ सूझता नहीं है, केवल अंधकार मालूम पड़ता है। वह अंधकार क्या है?
“ स्थूल संसार तो घोर अंधार है ।
सूक्ष्म में ज्योति कारण में ध्वनिधार है ।।
त्रयपद की भी हद है निःशब्द में ।
साधनाओं की भी हद है निःशब्द में ।।”
तो स्थूल संसार का रूप है अंधकार। जितने तत्त्वों से हमारा शरीर बना है, उतने ही तत्त्वों से यह संसार बना है। इस शरीर में सतत तीन गुण काम करते रहते हैं। इसी तरह से इस संसार में भी तीन गुण काम करते रहते हैं। कभी किसी गुण की प्रधानता रहती है, तो कभी किसी की गौणता। रजोगुण की प्रधानता में शरीर जन्म लेता है। सत्वगुण की प्रधानता में यह पता चल जाता है, बढ़ता है। बढ़ता हुआ यह एक सीमा तक चला जाता है, फिर उससे आगे नहीं बढ़ता। सत्वगुण की प्रधानता जब समाप्त हो जाती है, तो जो शरीर स्वस्थ रहता है, अब वह कमजोर होने लग जाता है। काले-काले जो बाल हैं, वे सफेद होने लग जाते हैं। चेहरे में चमक की जगह झुर्रियाँ आने लग जाती हैं और एक दिन-‘रामनाम सत है, यही संसार की गत है।’ की भी अवस्था आती है।
आप एक वृक्ष को देखिये। रजोगुण की प्रधानता में उससे अंकुर निकलता है और सत्वगुण की प्रधानता में बढ़ते-बढ़ते वह एक वृक्ष का रूप ले लेता है। एक सीमा है कि इतना वह गाछ बढ़ेगा, उससे आगे वह नहीं बढ़ेगा। वहाँ जाकर उनकी वृद्धि रुक जाती है। अब तमोगुण की प्रधानता उसमें होने लगती है। पत्तें झड़ते हैं, डाल के सूखते-सूखते वृक्ष गिर-पड़कर समाप्त हो जाता है। हाँ, तो मैं कह रहा था कि जितने तत्त्वों से शरीर बना है, संसार भी उतने ही तत्त्वों से बना है। जितने गुण शरीर में काम कर रहे हैं, संसार में भी उतने ही गुण काम रहे हैं। शरीर के जितने स्तर हैं, संसार के भी उतने ही स्तर हैं। शरीर के जिस स्तर पर जब हम रहते हैं, संसार के भी उसी स्तर पर तब हम रहते हैं। इसलिए यदि हम अपने शरीर के सब स्तरों को पार कर सकें, तो संसार के भी सभी स्तरों को पार कर जाएँगे।
जब हम आँखें बंद करते हैं, तो देखते हैं कि घोर अंधकार का साम्राज्य है। यह स्थूल संसार का रूप है। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ घर-घर दीपक बरै, लखै नहीं अन्ध है ।
लखत लखत लखि पड़ै, कटै जम फंद है ।।”
घर-घर में, घट-घट में वह प्रकाश हो रहा है; लेकिन सूझ नहीं रहा है। लखै नहीं, क्यों? अंधकार है। जिस किसी को मोतियाबिंद की बीमारी हो जाती है, उसको नजदीक की भी चीज सूझती नहीं है; लेकिन ऑपरेशन कर दिया जाता है, तो वह देखने लग जाता है। उसी तरह से हमारे अंदर में आवरण पड़ हुए हैं। उन आवरणों को हटावें। कैसे हटावें? इसका यत्न संत सद्गुरु से जानें।
आँखें बंद करने पर अंधकार मालूम पड़ता है। यहीं आप हैं। इस पंडाल में जितने लोग बैठे हुए हैं, यहाँ से यदि कोई घर जाना चाहें, तो कहाँ से चलेंगे? जो जहाँ बैठे हुए हैं, वहीं से चलेंगे। आपकी जगह से मैं, मेरी जगह से वे, उनकी जगह से ये चलेंगे, ऐसा नहीं होगा। जो जहाँ बैठे हुए हैं, वहीं से वे चलेंगे, वहीं से वे अपने घर को चलेंगे। उसी तरह से हम इस संसार में आये, कहाँ से आये? निःशब्द से शब्द में आये। शब्द से प्रकाश में आये। प्रकाश से अंधकार में ठहर गये। अब चलेंगे, तो कहाँ से चलेंगे? अंधकार से प्रकाश में जाएँगे। प्रकाश से शब्द में जाएँगे। शब्द से निःशब्द में जाएँगे। गुरु महाराज के वचन में आया है-
“ खोजो पंथी पंथ, तेरे घट भीतरे ।
तू अरु तेरो पीव, भी घट ही अन्तरे ।।1।।
पिउ व्यापक सर्वत्र, परख आवै नहीं ।
गुरुमुख घट ही माहि, परख पावै सही ।।2।।
तू यात्री पीव घर को, चलन जो चाहहू ।
तो घट ही में पंथ निहारु, विलम्ब न लावहू ।।3।।
तम प्रकाश अरु शब्द, निशब्द की कोठरी ।
चारो कोठरिया अहइ, अन्दर घट कोट री ।।4।।
तू उतरि पर्यो तम माहि, पीव निःशब्द में ।
यहि तें परि गयो दूर, चलो निःशब्द में ।।5।।”
कैसे चलें? हम अंधकार में हैं। अंधकार में कहाँ पर हैं? संत कबीर साहब ने कहा-
“ इस तन में मन कहँ बसै, निकसि जाय केहि ठौर ।
गुरु गम है तो परखि ले, नातर कर गुरु और ।।”
इस शरीर में हम रहते हैं, मन के साथ रहते हैं। मन कहाँ रहता है? किस रास्ते से निकल जाता है? जिस तरह जहाँ दूध रहता है, वहीं पर घी रहता है। जबतक मंथन नहीं किया जाता, दूध और घी का अलग-अलग नहीं किये जा सकते, उसी तरह से मन के साथ शुद्ध चेतन हम हैं। जहाँ मन है, वहीं पर हम हैं। मंथन करें। मंथन करने से जड़ अलग हो जाएगा, चेतन अलग। मन जड़ है, हम चेतन हैं। हम इस शरीर में कहाँ हैं, तो इसका उत्तर देते हैं-‘नैनों माहीं मन बसै।’ -आँखों में मन का बासा है। आप पूछेंगे किस आँख में? आँखें तो हमारी दो हैं और मन तो एक ही है।
एक पेट्रोमेक्स जलाकर एक कमरे में रख दीजिए। यदि कमरे में दो खिड़कियाँ हों, तो किस खिड़की से अधिक रोशनी निकलेगी? जिस खिड़की के सामने पेट्रोमेक्स होगा, उससे अधिक रोशनी निकलेगी और दूसरी से कम। दोनों खिड़कियों के बीच में आप पेट्रोमैक्स को रख दें तो दोनों खिड़कियों से बराबर रोशनी निकलेगी। जिस तरह से दोनों खिड़कियों के बीच में पेट्रोमैक्स रखते हैं, तो रोशनी बराबर निकलती है, उसी तरह से दोनों आँखों के बीच में कोई तीसरा स्थान है, जिसको शिवनेत्र कहते हैं, तीसरा नेत्र कहते हैं, वहाँ आपका बासा है। चलेंगे तो वहाँ से चलना होगा। दोनों आँखों में प्रकाश या रोशनी आती है-बराबर-बराबर आती है। चलना वहीं से है। चलेंगे, तो किस तरह चलेंगे? किसी भी चीज का जब सिमटाव होता है, तब उसकी ऊर्ध्वगति होती है, चाहे वह चीज कठिन हो, तरल हो, वाष्पीय हो अथवा विद्युत हो। एक मन अनाज आप सूखने के लिए दीजिए और उसको समेटिये। समेटते-समेटते आप देखेंगे कि ढेर लग गया है। आपने केवल समेटने का काम किया है, ऊपर उठाया नहीं है, केवल समेटा है आपने; लेकिन स्वाभाविक ही वह अनाज ऊपर उठ जाएगा। जो सतह थी, उस सतह से ऊपर उठ गया। इसलिए किसी पदार्थ का सिमटाव होता है, तो उसकी ऊर्ध्वगति होती है, विपरीत दिशा की ओर वह चलता है। नीचे से आप समेटिये, तो वह ऊपर की ओर जाएगा। हमारे मन का फैलाव इस संसार में है। मन के साथ चेतन भी इस संसार में फैला हुआ है। मन का सिमटाव कीजिए। मन के सिमटाव से क्या होगा? मन जड़ होते हुए भी सूक्ष्म है। स्थूल चीज का सिमटाव करने से जितनी उसकी ऊर्ध्वगति होगी, सूक्ष्म चीज के सिमटाव में उससे अधिक ऊर्ध्वगति होगी। जैसे आप एक किलो बर्फ लीजिए। एक किलो बर्फ के ढेले की ऊँचाई इतनी होगी (हाथ उठाकर इशारे से बताते हैं)। एक किलो पानी को आप समेटिये, जितना पतला नल होगा, उतनी ही अधिक ऊँचाई उस पानी की होगी। अगर उस पानी को आप वाष्प में परिवर्तित कर दीजिए, तो जितनी गति उस जल की थी, उससे अधिक गति हो जाएगी वाष्प की और अगर आप उसे विद्युत में परिवर्तित कर दीजिए, तो उससे और कितनी अधिक गुणी उसकी ऊर्ध्वगति हो जाएगी, पता नहीं; क्योंकि विद्युत् के लिए वैज्ञानिकों ने बतलाया है कि उसकी गति एक सेकेण्ड में 1,86,767 मील है। जो विद्युत हमारे शरीर को स्पर्श करती है, उसकी गति तो 1,86,767 मील प्रति सेकेण्ड है और जिस मन का स्पर्श हमारे शरीर में नहीं होता, उस मन का सिमटाव होगा, तो वह एक सेकेण्ड में कितना चलेगा? मन के साथ जो चेतन है, उसका सिमटाव होगा, तो उसकी गति कितनी होगी? इस लिए कबीर साहब ने कहा-
“ उलटि पाछिलो पैंड़ो पकड़ो, पसरा मना बटोर ।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, तब पैहौ निज ठौर ।।”
‘उलटि पाछिलो पैंड़ो पकड़ो’ अर्थात् उलटो। बहिर्मुखता से अंतर्मुख होओ। तुम्हारा यह मन पसरा हुआ है, इसको समेटो। समेटोगे, तो इसकी ऊर्ध्वगति होगी। किस सतह पर ऊर्ध्वगति होगी? अंधकार की सतह पर। अंधकार की सतह पर तुम्हारे मन का सिमटाव होगा, पूर्ण सिमटाव होगा और वह थक जाएगा। अंधकार से प्रकाश में उसकी गति हो जाएगी। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ हो जाएगा। हमलोग रोज पाठ करते हैं-‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’। हे प्रभो! मुझे अंधकार से प्रकाश में ले चलो। तो केवल प्रार्थना करने से ही अंधकार से प्रकाश में कोई नहीं चला जाता। अंधकार से प्रकाश में जाने की जो कला है, जाने की जो युक्ति है, उस युक्ति को जानें और करें। संत पलटू साहब ने कहा है-
“ काजर दिहे से का भया, ताकन को ढब नाहिं ।।
ताकन को ढब नाहिं, ताकन की गति है न्यारी ।
एक टक लेवै ताकि, सोइ है पिय की प्यारी ।।
ताकै नैन मिरोरि, नहीं चित अंतै टारै ।
बिन ताके केहि काम, लाख कोउ नैन सँवारै ।।
ताके में है फेर, फेर काजर में नाहीं ।
भंगि मिली जो नाहिं, नफा क्या जोग के माहीं ।।
पलटू सनकारत रहा, पिय को खिन खिन माहिं ।
काजर दिहे से का भया, ताकन को ढब नाहिं ।।”
लोग कहा करते हैं ‘नाच न जाने आँगन टेढ़।’ युक्ति है, उस युक्ति को जानो। ‘काजर दिहे से का भया, ताकन को ढब नाहिं ।’ ताकने का ढब क्या है? ताकने की कला क्या है? ‘ताके नैन मिरोर’ अर्थात् आँखों को बंद करके देखे। ‘नहीं चित अंतै टारै । ’ अपने चित को किसी दूसरी ओर न ले जाएँ। चित्तवृत्ति को एकाग्र करें। यही है योग। ‘चित्तवृत्ति निरोध इति योगः।’ योग हो जाएगा और वृत्ति को समेटकर क्या करें? ‘एकटक लेवे ताकि’। एकटक से देखो। यह कला है। आँखें बंद करें, वृत्तियों को समेटें। एकटक से देखें। लेकिन कहाँ देखें, कैसे देखें, इसका यत्न तो सीखना ही पड़ेगा। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के छठे अध्याय में बतलाया है-
“ समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ।।”
शरीर, गर्दन, मस्तक को सीधा करके, अचल करके-निश्चल करके, स्थिर करके बैठे और अपने नासिका के आगे देखे। लेकिन इसके अर्थ में कोई नाक के ऊपर के भाग को नासिकाग्र बतलाते हैं, कोई नाक के ऊपर के भाग को नासिकाग्र बतलाते हैं। ‘भ्रुवोर्मध्य’ भगवान ने कहा है। शास्त्रें में भी ‘भ्रुवोर्मध्य’ है। कोई नीचे बतलाते हैं, तो कोई ऊपर बतलाते हैं; लेकिन यथार्थ में वह नीचे है अथवा ऊपर? भगवान कहते हैं-‘दिशश्चानवलोकयन्’ किसी दिशा को न देखते हुए देखो। दिशाएँ दस हैं। उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम, चारो कोने, ऊपर और नीचे। जिस समय हम आँखें बंद करते हैं, उस समय उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम और चारो कोने-इन 8 दिशाओं का ज्ञान नहीं होता। केवल अंधकार-ही-अंधकार दीखता है; लेकिन उस अंधकार में भी यह नीचे है और यह ऊपर है, यह ज्ञान तो रहता ही है। अगर हम नाक के नीचे के भाग को देखने कहते हैं, तो एक दिशा हो गयी। ऊपर के भाग को देखने कहते हैं, तो दूसरी दिशा हो गयी। लेकिन भगवान कहते हैं-किसी दिशा को न देखते हुए देखो। तब क्या करना होगा? नीचे नहीं देखो, ऊपर नहीं देखो, तब क्या करो?
“ भेद यह गुप्त पाना किसी ग्रंथ से ।
है असंभव समझ लो किसी संत से ।।”
‘नासिकाग्र’ एक संकेत है, जहाँ गुरु-युक्ति से देखा जाता है। जहाँ युक्ति है, वहाँ मुक्ति है। इसीलिए भगवान श्रीराम ने कहा था, ‘साधन धाम मोक्ष कर द्वारा।’ मोक्ष का द्वार दसवाँ द्वार है। इसमें घुसने का यत्न संत सद्गुरु बतलाते हैं। जो इस भेद को जानते हैं और करते हैं, वे स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश कर जाते हैं, अंधकार से प्रकाश में चले जाते हैं और जो कोई प्रकाश में जाते हैं, उनको शब्द की अनुभूति होती है। शब्द, सुननेवाले के ख्याल को अपनी ओर खींचता है। अब यह समझिये, अँधेरी रात है, हाथ को हाथ नहीं सूझता है। लाउडस्पीकर यहाँ बजता है। यह आवाज जहाँ जाएगी, जो सुनेंगे, वहाँ से चलेंगे, आते-आते यहाँ पर पहुँच जाएँगे। आवाज में अपनी ओर खींचने का गुण होता है। परम प्रभु परमात्मा की ओर से आया हुआ जो शब्द है, उसको मोक्ष-द्वार पर पकड़ते हैं। संत तुलसी साहब कहते हैं-
“ क्यों भटकता फिर रहा तू, ऐ तलाशे यार में।
रास्ता शहरग में है, दिलवर पै जाने के लिए ।।”
शहरग को हमलोग सुषुम्ना कहते हैं। यहीं से रास्ते का आरंभ है। शहरग में प्रवेश करने का संबंध में एक फकीर कहते हैं-
“ जिगर वह हुस्न एक सूई का मंजर याद है अबतक ।
निगाहों का सिमटना वो हुजूमे नूर हो जाना ।।”
जिसको हमलोग एकविन्दुता कहते हैं, उसको इस्लाम धर्म में एक सूई दिल कहते हैं। एकविन्दुता ‘One pointedness’ जो कोई एकविन्दुता प्राप्त करते हैं, वे अंधकार से प्रकाश में प्रवेश कर जाते हैं-
“ उलटि देखो घट में जोति पसार ।
बिनु बाजे तहँ धुनि सब होवै, विगसि कमल कचनार ।।”
उलटने के लिए, बहिर्मुखता से अंतर्मुख होने के लिए, नव द्वारों से दसवें द्वार में जाने के लिए, पिण्ड से ब्रह्मांड की ओर जाने के लिए आदेश है। जो कोई वहाँ जाते हैं, उन्हें शब्द की अनुभूति होती है।
“ गोश बातिन हो कुशादा, जो करे कुछ दिन अमल ।
ला इलाह अल्लाह हो, अकबर पै जाने के लिए ।।”
जो उस शब्द को पकड़ते हैं, तो खिंचकर प्रभु की ओर चले जाते हैं, चूँकि वह शब्द प्रभु की ओर से आया हुआ है। यह शब्द यहाँ जाते हैं और प्रभु का जो शब्द है, उसको जो कोई सुनते हैं, तो खिंचकर प्रभु के पास चले जाते हैं।
यह संतमत बतलाता है कि अपने मन को निग्रह करो। मन का निग्रह करने के लिए दृष्टिसाधन की क्रिया करो। दृष्टि साधन की क्रिया करो। दृष्टि- साधन की क्रिया में सफलता मिलेगी, तो अंधकार से प्रकाश में चले जाओगें प्रकाश में शब्दों की अनुभूति होगी और वे शब्द की एक तरह के नहीं हैं।
“ पँच केन्द्रन पै पाँचो बजती,
अनहद नौबत जोती जरती ।
कहुँ केवल ध्वनि अनुभव करती,
सूरत तन में कहे संतों ने ।। “
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
पाँचों केन्द्रों की पाँच नौबतें हैं। जो स्थूल के केन्द्रीय शब्द को पकड़ता है, वह खिंचकर सूक्ष्म के केन्द्र पर चला जाता है। सूक्ष्म के केन्द्रीय शब्द को पकड़कर वह कारण के केन्द्र पर जाता है। कारण के केन्द्रीय शब्द को पकड़कर वह महाकारण के केन्द्र पर पहुँचता है। महाकारण के केन्द्रीय शब्द को पकड़कर वह कैवल्य के केन्द्र पर पहुँचता है और जो कैवल्य के शब्द को पकड़ता है, तो वह अंतिम शब्द-सारशब्द को पा लेता है, वह प्रभु को पा लेता है।
‘शब्द गह्यो जीव संशय नाहीं, साहब भयो तेरे संग ।’
शिवनारायण स्वामी ने कहा, ‘मन रे तू लागि रहो यहि ओर।’ इसलिए पहले दृष्टियोग की विधि कीजिए। दृष्टियोग की योग्यता लाने के लिए पहले मानस-ध्यान कीजिए। मानस-ध्यान ठीक होगा, तो दृष्टिसाधन की क्रिया होगी। दृष्टिसाधन की क्रिया ठीक होगी, तो नादानुसंधान आपको सरल होगा। ये संतमत की साधनाएँ हैं-मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टिसाधन और नादानुसंधान। इनके लिए संयम है-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार-इन पंच पापों से विरत रहना। केवल प्रभु के पद में अनुरक्त रहना, उनपर विश्वास दृढ़ निश्चय करना; उनकी प्राप्ति अपने अंदर होगी, इसका दृढ़ निश्चय रखना; गुरु की सेवा करनी और अपने जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करनी चाहिए। यह संतमत के सिद्धांत का थोड़ा-सा सार मैंने कहा।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन संतमत-सत्संग मंदिर पुरैनी मधेपुरा में दिनांक 1-3-1989 ई0 के मास-ध्यान के अवसर पर प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, फरवरी+मार्च 1990 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द माताओ एवं बहनो!
आप जब किसी अस्पताल में जाकर देखें कि वहाँ लोगों की भीड़ अधिक है, तो आप यह समझें कि उस क्षेत्र के लोगों के शारीरिक स्वास्थ्य का पतन हो चुका है। यदि आप कचहरी में लोगों की भीड़ देखें, तो आप यह समझें कि उस क्षेत्र के लोगों का नैतिक पतन हो चुका है। यदि आप सिनेमाघरों में लोगों की अधिक भीड़ देखें, तो आप यह समझें कि उस क्षेत्र के लोगों का चारित्रिक पतन हो चुका है। लेकिन सत्संग के नाम पर इस तरह की उमड़ती भीड़ आप देखें, तो यह समझें कि उस क्षेत्र के लोगों की आध्यात्मिक उन्नति हो रही है। तो मैं आपलोगों की आध्यात्मिक उन्नति देखकर बहुत प्रसन्न हुआ हूँ। और मैं आपलोगों को बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ तथा परम प्रभु परमात्मा से आपलोगों की शुभ उन्नति के लिए प्रार्थना करता हूँ। (श्रोतागण की ओर से जय-जयकार का नारा)।
अभी आपलोग शाही स्वामजी के प्रवचन सुन रहे थे। मैं समझता हूँ कि शाही स्वामीजी के शाही फरमान से आपलोगों की अरमान पूरी हो गयी होगी, फिर भी आपलोगों का ध्यान मेरी ओर है, इसलिए कुछ व्याख्यान देना या आख्यान सुनाना मैं आवश्यक समझता हूँ।
अभी बहुत-सी कथाओं को सुनते-सुनते मेरे मन में भी कथा कहने की इच्छा जाग्रत हुई; लेकिन सोचा ऐसी कथा, जिससे भव-व्यथा दूर न हो, कहानी वृथा है। सोचा, कुछ इतिहास ही आपलोगों को सुनाऊँ। लेकिन वह इतिहास जिससे किसी का परिहास या उपहास हो, कहना भी उचित नहीं है। तो मैंने मन में निर्णय किया कि आपलोगों को मैं एक घटना ही सुनाऊँ; लेकिन वह घटना बिहार की राजधानी पटना की नहीं है। स्वदेश की नहीं, बात विदेश की है। और अर्वाचीन नहीं, प्राचीन है। लेकिन चीन की नहीं, जापान की है।
जापान में एक महात्मा अपने आसन पर आसीन थे। एकाएक उनके पास एक नवयुवक आता है, जिसके चेहरे पर जवानी का पानी चढ़ा हुआ था। वास्तव में चेहरा भी बहुत लासानी था। आसानी से वह साधु के पास पहुँच गया। जवान तो वह जरूर था; लेकिन उसकी जबान में लगाम नहीं था। हाँ, जिसको आजकल लोग ‘हीरो’ कहा करते हैं। ‘हीरो’ कहने का मतलब-जो आध्यात्म में बिल्कुल जीरो हो। बस, वैसा ही वह था। ऐसे लोग प्रणम्य जन को भी प्रणाम नहीं करते; क्योंकि प्रणाम करने में वे पाप समझते हैं, चाहे उनका बाप ही क्यों न हो! आते ही मूँछ पर हाथ देकर वह पूछ बैठा, ‘महात्मन्! स्वर्ग और नरक क्या है?’ महात्मा जी ने उस नवयुवक को ऊपर-नीचे और नीचे-ऊपर तक देखकर पूछा, ‘पहले बताओ, तुम हो कौन?’ नवयुवक ने कहा, ‘मैं फौज का लेफ्रिटनेंट हूँ।’ महात्माजी ने पुनः उसे आपादमस्तक देखा और कहा, ‘तुम अपने को फौज का लेफ्रिटनेंट बतलाते हो; लेकिन मेरे विचार में तो लेफ्रिटनेंट के असिस्टेंट के सर्भेंट होने योग्य भी नहीं हो। फिर क्या था उस नवजवान की क्रोधाग्नि भड़क उठी और उसने म्यान से तलवार निकालकर महात्माजी के सर को धड़ से अलग कर धरा पर धर देना चाहा। लेकिन तलवार के वार को महात्माजी ने सँभाल कर कहा, ‘अच्छा! तेरे पास तलवार भी है। लेकिन तेरी तलवार तो एक तिनके को भी नहीं काट सकती, फिर मेरे तन की तो बात ही क्या है!’ जैसे आग में घी डाला जाए, उसी तरह महात्माजी का वचन उसकी क्रोधअग्नि में घी के रूप में पड़ गया। पुनः उस नवयुवक ने क्रोधित होकर दुबारा वार करना चाहा। महात्माजी ने पुनः उसकी तलवार को पकड़कर प्रेम से कहा, ‘बस, मैं तो तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर दे रहा था। तुम देश के भावी युवक हो, तनिक-सी बात में तुनक जाना तुम्हारे लिए शोभनीय नहीं। तुमने मुझसे पूछा था-नरक और स्वर्ग क्या है? अभी तुम नरक के द्वार पर हो; क्योंकि जब जिसके हृदय से दया निकल जाती है, काम-क्रोधादिक किसी विकार का जब शिकार हो जाता है, दम्भ, दर्प, अभिमान, निष्ठुरता एवं अहंता से घिर जाता है, तब वह नरक के द्वार पर खड़ा होता है। गोस्वामीजी ने रामचरितमानस में लिखा है-‘काम क्रोध मद लोभ ये नाथ नरक के पंथ।’ तथा श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण के ये वाक्य हैं-
“ त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत् ।।”
गीता, 16/21
पढ़ा-लिखा तो वह था ही, संत-वचन सुनते ही वह महात्माजी के श्रीचरणों में अपना सिर रख दिया और अपने अश्रुजल से उनके चरणों को धोने लगा। पहले हृदय में क्रोध की आग लगी थी न! अब वह पश्चाताप के कारण वाष्प, फिर जल बनकर महात्माजी के युगल चरण-कमल का प्रक्षालन करने लग गयी। महात्माजी ने उनकी विनयशीलता देखकर उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘वत्स! अब तुम स्वर्ग के द्वार पर हो। तुम्हारे हृदय की क्रूरता चली गयी, निष्ठुरता चली गयी, अहंता चली गयी। कर्तव्याकर्तव्य को, जो तुम भूल गये थे, समझने लगे। तुम्हारी तमोगुणी वृत्ति सतोगुणी वृत्ति में परिणत हो गयी। अब तुम स्वर्ग के द्वार पर हो। इस प्रकार नरक और स्वर्ग का ज्ञान महात्माजी ने उस युवक को दिया। यह बात तो विदेश की हुई। अब आप स्वदेश की बात सुनिये, गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
“ नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी ।
ज्ञान विराग भगति सुख देनी ।।”
अर्थात् इस शरीर में स्वर्ग, नरक और मोक्ष में जाने की सीढ़ी लगी हुई है। मानव-शरीर ज्ञान, विराग और भक्ति-सुख का देनेवाला है। तात्पर्य यह कि इसमें नरक जाने की निसेनी, स्वर्ग जाने की सीढ़ी और नजात में जाने का जीना लगा हुआ है। अब अपने लिए हम निर्णय करें कि जाना कहाँ है- नरक में, स्वर्ग में या मोक्ष में? जिस तरह ईंटों के भट्ठे से चाहे हम देव-मंदिर बना लें, अपने रहने का मकान बना लें अथवा शौचालय बना लें, उसी तरह यह शरीर हमलोगों को मिला हुआ है। जिस तरफ हम जाना चाहें, जा सकते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ कहकर कर्म करने की स्वतंत्रता दे दी है। मान लीजिए, एक पिस्तौल हमारे पास है। चाहे तो उस पिस्तौल से हम अपनी आत्म-रक्षा कर लें अथवा आत्म-हत्या कर लें। एक टॉर्च हमारे पास है। उस टॉर्च से रात में चाहे तो हम चोरी करने चले जाएँ, चाहे सत्संग करने के लिए चले जाएँ। कर्म करने में हम स्वतंत्र हैं; लेकिन फल लेने में स्वतंत्र नहीं हैं। वास्तविक बात यह है कि जैसा हम कर्म करेंगे, वैसा ही फल हमको मिलेगा। जैसे जो बीज हम बोते हैं, तदनुकूल ही फल हमको मिलता है। जिस खेत में गेहूँ बोते हैं, उस खेत से गेहूँ काटते हैं। जिस खेत में चना बोते हैं, उस खेत से चना ही काटते हैं अथवा जहाँ हम आम का बिरवा लगाये हैं, उस पेड़ में आम के ही फल लगेंगे और उसी का उपभोग हम करेंगे। गोस्वामी जी का कथन है, ‘यह शरीर खेत है। मन, वचन और कर्म किसान हैं। पाप और पुण्य; ये दोनों बीज हैं। जो जैसा बाते हैं, वे वैसा काटते हैं यानी फल पाते हैं।
“ तुलसी यह तन खेत है, मन वच कर्म किसान ।
पाप पुण्य दुइ बीज है, बुवै सो लुनै निदान ।।”
जैसा हम कर्म करेंगे, वैसा फल हमको मिलेगा। हम कर्म करनेवाले हैं और फल देनेवाले प्रभु हैं। हम क्या चाहते हैं? नरक जाना चाहते हैं या स्वर्ग चाहते हैं-नहीं, नहीं। नरक जाना कोई नहीं चाहता; क्योंकि वह दुःखालय है। कुछ लोग कहते हैं-स्वर्ग जाना अच्छा है। लेकिन स्वर्ग के लिए संतों ने जैसा कहा है, सद्ग्रंथों में भी वैसा ही लिखा मिलता है-
‘स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई । ’
तथा-
“ नर तन दुर्लभ देव को, सब कोइ कहत पुकार ।।
सब कोइ कहत पुकार, देव देही नहिं पावै ।
ऐसे मूरख लोग, स्वर्ग की आस लगावै ।।
पुन्य छीन सोइ देव, स्वर्ग से नरक में आवै ।
भरमै चारिउ खानि, पुन्य कहि ताहि रिझावै ।।
तुलसी सत मत तत गहे, स्वर्ग पर करे खखार ।
नर तन दुर्लभ देव को, सब कोइ कहत पुकार ।।”
स्वर्ग में सुख थोड़े ही दिनों के लिए मिलता है। स्वर्ग में जाने पर भी वहाँ कोई पूर्ण सुखी नहीं होता। यहाँ की तरह इन्द्रियों का सुख ही वहाँ पर भी मिलता है। जिस तरह छोटे-बड़े का हिसाब यहाँ-इस संसार में है, स्वर्ग में भी छोटे-बड़े का हिसाब है। जिस तरह यहाँ पर एक-दूसरे की उन्नति को देखकर जलते हैं, उसी तरह वहाँ भी एक-दूसरे को उन्नत देखकर राग-द्वेष आदि में जलते हैं; क्योंकि सब कोई एक-से पुण्य करके नहीं जाते। जो जिस तरह के न्यूनाधिक पुण्य करके जाते हैं, उनके लिए वैसा ही निम्न और उच्च स्थान वहाँ मिलता है। इसलिए अपने से दूसरे को विशेष देखकर वहाँ भी क्लेश होता रहता है। दूसरी बात यह है कि जो कोई स्वर्ग जाते हैं, उनके गले में एक माला पहनाई जाती है। जितने दिनों तक उनको वहाँ पर रहना है, उतने फूलों की माला होती है। जैसे-जैसे रहने के दिन बीतते जाते हैं, वैसे-वैसे उस माला के फूल सूखते जाते हैं। वह फूल क्या सूखता है! चिन्ता के कारण उसका भीतर-हृदय सूखता जाता है। इतने दिन तो हमारे बीते। अब ये बीते। अब ये बीते। अब इतने दिन ही हमारे रहने के बाकी रहे। इसी की चिंता के अनल में वे दिन-रात जलते रहते हैं, दुःखी होते रहते हैं। इसीलिए संतों ने कहा, ‘यदि नरक को तुम लोहे की जंजीर समझते हो, तो स्वर्ग को सोने की जंजीर समझो। दोनों ही बंधन है। इसलिए इन दोनों से अपने को ऊपर उठाओ। अर्थात् अपने को नजात यानी मोक्ष में ले जाओ। संतों ने मोक्ष का रास्ता बताया है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
“ संत पंथ अपवर्ग कर, कामी भव कर पंथ ।
कहहिं संत कवि कोविद, श्रुति पुरान सद्ग्रंथ ।।”
यह मोक्ष कहाँ, कैसे और कब मिलता है, इनकी अभिव्यंजना संतों ने विविध भाँति से की है। संत पलटू साहब के उद्गार सुनिये-
“ मुक्ति मुक्ति सब खोजत है,
मुक्ति कहो कहँ पाइये जी ।
मुक्ति को हाथ औ पाँव नहीं,
किस भाँति सेति दिखलाइये जी ।।
ज्ञान ध्यान की बात बूझिये,
या मन को खूब समझाइये जी ।
पलटू मुए पर किन्ह देखा,
जीवत ही मुक्त हो जाइये जी ।।”
शिवगीता में लिखा है-
“ मोक्षस्य नहि वासोऽस्ति न ग्रामन्तरेव वा ।
अज्ञान हृदयग्रन्थिनाशो मोक्ष इति स्मृतः ।।”
अर्थात् मोक्ष कोई ऐसी वस्तु नहीं कि जो किसी एक स्थान में रखी हो अथवा यह भी नहीं कि उसको प्राप्ति के लिए किसी दूसरे गाँव या प्रदेश को जाना पड़े। वास्तव में हृदय की अज्ञान ग्रंथि के नाश हो जाने को मोक्ष कहते हैं।
अब हम अपने परम पूज्य गुरुदेव की भाषा में कहना चाहेंगे कि इस संदर्भ में उनकी कैसी राय है- “ शुद्ध आत्मा का स्वरूप अनन्त है । अनन्त के बाहर कुछ अवकाश हो, सम्भव नहीं है; अतएव उसका कहीं से आना और कहीं जाना, माना नहीं जा सकता है। चेतन-मण्डल सान्त है, उसके बाहर अवकाश है; इसलिए उसके धार-रूप का होना और उस धार में आने-जाने का गुण होना निश्चित है । अनन्त के अंश पर के प्रकृति के आवरणों का मिट जाना, उस अंश-रूप का मोक्ष कहलाता है। स्थूल शरीर जड़ात्मक प्रकृति से बना एक आवरण है । इसमें चेतन-धार के रहने तक यह स्थित रहता है, नहीं तो मिट जाता है। इस नमूने से यह निश्चित है कि जड़ात्मक प्रकृति के अन्य तीनों आवरण भी मिट जाएँगे, यदि उन तीनों में चेतन-धार वा सुरत न रहे । अन्तर में नादानुसंधान से सुरत जड़ात्मक सब आवरणों से पार हो जाएगी, उनमें नहीं रहेगी और अंत में स्वयं भी आदिनाद के आकर्षण से आकर्षित हो, अपने केन्द्र में केन्द्रित होकर उसमें विलीन हो जाएगी । इस तरह सब आवरणों का मिटना होगा । उस चेतन-धार के कारण एक पिंड बनने योग्य प्रकृति के जितने अंश की स्थिति (कैवल्य, महाकारण, कारण, सूक्ष्म और स्थूल रूपों में) सम्भव है, वह मिट जाएगी और उसके मिटने से शुद्धात्मा का जो अंश आवरणहीन हो जायगा, वह मुक्त हुआ कहा जायगा ।”
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा-
“ जिमि थल बिनु जल रहि ना सकाई ।
कोटि भाँति कोउ करै उपाई ।।
तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई ।
रहि न सकइ हरि भगति बिहाई ।।”
(रामचरितमानस)
जिस तरह थल को छोड़कर जल अलग नहीं रह सकता, उसी तरह से भक्ति को छोड़कर मुक्ति अलग नहीं रहती। इसलिए यदि हम मुक्ति चाहते हैं, तो हमें चाहिए कि भक्ति की सही युक्ति जानकर आज से ही मनोयोगपूर्वक साधना का आरंभ कर दें।
भक्ति क्या है? संत कबीर साहब ने कहा-
“ भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय ।
जिन-जिन मन आलस किया, जनम जनम पछताय ।।
लख चौरासी भटकि के, पौ पर अटके आय ।
अबहूँ पासा ना पड़ै, फिर चौरासी जाय ।।”
चौपड़ एक खेल होता है, जिसमें चौरासी कोठे होते हैं। चार गोटयाँ होती हैं। कौड़ियाँ भाँज-भाँज कर उलटाते हैं। जितनी कौड़ियाँ चित होती हैं, एक-एक गोटी उसी क्रम से उतने घर चलती है। चलते-चलते 83 घर पार करके जब 84वें कोठे में वह गोटी आती है, उस घर का नाम है-पौ। अब यदि कहीं एक कौड़ी चित हो जाए, तो गोटी लाल हो जाती है। उसको कहते हैं-पौ बारह। कहीं एक कौड़ी चित नहीं हुई, दो, तीन वा चार कौड़ियाँ चित हो गयीं, तो वह गोटी आगे नहीं बढ़ सकती, बल्कि क्रमशः 2-3-4 कोठे पीछे उलटते हुए, उसको पुनः उलटते हुए उसको पुनः चौरासी कोठे तय करने होते हैं। इस प्रकार घूमते-घूमते जब कभी 84वें घर में वह गोटी जाएगी और एक कौड़ी चित होगी, तभी वह गोटी लाल होगी। कहने का मतलब यह कि संत कबीर साहब कहते हैं-84 लाख योनियों में भटकते-भटकते, घूमते-घूमते मनुष्य-शरीर रूप पौ पर तुम आ गये हो। जिस तरह एक कौड़ी चित होती है, तो गोटी लाल हो जाती है, उसी तरह तेरा चित एक हो, प्रभु में लग जाए, तो तेरा मानव-जीवन सार्थक हो जाएगा। (श्रोतागण की ओर से जय-जयकार की ध्वनि।)
कहीं तुम्हारा एक चित नहीं हुआ, तब तो बात विचित्र हो जाएगी। फिर चौरासी लाख योनियों में घूमना पड़ेगा। इस प्रकार घूमते-घूमते फिर जब कभी मनुष्य-शरीर में आ पाओगे, एक चित कर पाओगे, ईश्वर की भक्ति करोगे, ईश्वर को पाओगे। अपना परम कल्याण बना सकोगे।
सामान्यतया लोग जिसको भक्ति की संज्ञा देते हैं, वास्तव में वह भक्ति नहीं है। संत कबीर साहब कहते हैं-‘भक्ति सतोगुर आनी।’
संत सद्गुरु की बताई हुई भक्ति की जो विधि होती है, युक्ति होती है, वह भिन्न ही है। तुम अपने मन से जो कर रहे हो, वह तो उससे सर्वथा भिन्न ही है। वास्तविकता वहाँ है, जो संत सद्गुरु बतलाते हैं। ‘भक्ति सतोगुरु आनी’ क्या है? उत्तर में वे कहते हैं-यह दोहा नहीं दिया गया है।
“ नारी एक पुरुष दुइ जाया, बूझो पंडित ज्ञानी ।
पाहन फोड़ गंग एक निकसी, चहुँ दिशि पानी-पानी ।
तेहि पानी दोउ पर्वत बूड़े, दरिया लहर समाना ।।
उड़ि माखी तरुवर के लागे, बोलै एकै बानी ।
उस माखी के माखा नाहीं, गरभ रहा बिन पानी ।।
नारी सकल पुरुष वा खाया, तातें रहा अकेला ।
कहे कबीर जो अबकी समझे, वही गुरु हम चेला।।”
यह कौन-सी नारी है? जड़ात्मिका मूल प्रकृति- रूपा नारी है, जिसने ब्रह्म और जीवरूप दो पुरुषों को उत्पन्न किया और यह ‘पाहन’ क्या है? पहाड़ क्या है? पत्थर क्या है? आँखें बंद करके देख लो, काला पहाड़ तुम्हारे सामने है। इसी को तुलसी साहब ने कहा है-
“ सम सील लील अपील पेलै,
खेल खुलि-खुलि लखि पड़ै ।”
जो शम की साधना करेगा, वह उस नील पर्वत को काटकर निकल जाएगा। इसी विषय को हमारे गुरुदेव ने इस भाँति कहा है।
‘बज्र कपाट खुलै तम टूटै, ब्रह्म ज्योति झलकान ।’
और गुरु नानकदेवजी ने कहा-
‘बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ।’
यह अंधकार वज्र कपाट है, पहाड़ है। इसको जो कोई छेदता है, तो स्थूल जड़ता को पार कर जाता है। वहाँ वह क्या देखता है? ‘चहुँ दिशि पानी- पानी’ अर्थात् प्रकाश-ही-प्रकाश को देखता है।
‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ हो जाता है। पश्चात् नादानुसंधान की साधना कर शुद्ध निर्मल सुरत जड़ के सूक्ष्म, कारण और महाकारण को पार कर चेतन-सिन्धु में समा जाती है, जहाँ चेतन-ही-चेतन है, जिसके परे चेतन को भी सचेतन रखनेवाला परम प्रभु परमात्मा है। यह भक्ति का भेद है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा-ईश्वर का भजन तुम करना चाहते हो, तो ‘तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त’ अर्थात् तीन अवस्था यानी जाग्रत की, स्वप्न की और सुषुप्ति की। इन अवस्थाओं का त्याग करो। चौथी में जाओ। यह तुरीय अवस्था है। भक्ति का आरम्भ यहाँ से होता है। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ भक्ती का मारग झीना रे ।।टेक।।
नहिं अचाह नहिं चाहना, चरनन लौ लीना रे ।।”
गुरु नानक साहब के वचन में आया है-
“ भगता की चाल निराली ।
चाल निराली भगताह केरी, विखम मारगि चलणा ।।
लबु लोभु अहंकारु तजि त्रिसना, बहुतु नाहीं बोलणा ।।”
बहुत बोलता कौन है? अरे, घड़ा तबतक भक्-भक् बोलता है, जबतक भरता नहीं है। इसी तरह जबतक कोई ज्ञान में पूर्ण नहीं हुआ है, तबतक वह बक-बक करता है। जब ज्ञान में पूर्ण हो जाता है, तब चुप हो जाता है। परम पूज्य गुरुदेव के वचन में हम पाते हैं-
“ मेँहीँ मेँहीँ भेद यह, सन्तमता कर गाइ ।
सबको दिया सुनाय कर, अब तू रहे चुपाइ ।।”
‘चुप’ यानी ‘निशब्दं परमं पदम्’ हो जाता है। जिन्होंने साधना की, उनकी यह बात है। साधना की अनुभूति है। पढ़ी-सुनी बात नहीं।
सूक्ष्म ध्यान-सूक्ष्ममार्ग के संदर्भ में गुरु नानक साहब की वाणी में हम कह सकेंगे-
‘खंनिअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाणा ।’
इसी विषय में यमराज ने नचिकेता से कहा था, जो कठोपनिषद् में लिखा है-
“ उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।।”
अरे अविद्याग्रस्त लोगो ! उठो, (अज्ञान-निद्रा से) जागो और श्रेष्ठ पुरुषों के समीप जाकर ज्ञान प्राप्त करो। जिस प्रकार क्षुरे की धार तीक्ष्ण और दुस्तर होती है, तत्त्वज्ञानी लोग उस मार्ग को वैसा ही दुर्गम बतलाते हैं।
कोई कहता है-ईश्वर के पास जाने के अनेक रास्ते हैं। जैसे भागलपुर एक स्थान पर है। चारो तरफ से वहाँ तक पहुँचने के रास्ते हैं; लेकिन परमात्मा उस तरह नहीं हैं। परमात्मा किस तरह हैं? संतों ने कहा-वह तुम्हारे अंदर भी है और बाहर भी है। कहाँ से आओ और कहाँ जाओ? कहाँ वह नहीं है! वह सर्वत्र है। कोई भी दिशा ऐसी नहीं है, जहाँ वह नहीं है। लेकिन हमारे लिए संत कबीर साहब वाली उक्ति चरितार्थ होती है।
“ पानी बीच मीन प्यासी,
मोहि सुनि-सुनि आवत हाँसी ।”
जिस तरह मछली के चारो ओर पानी-ही -पानी है, उसी तरह हमारे चारो ओर भगवान-ही- भगवान है। परमात्मा-ही-परमात्मा है। समस्या यह है मछली के चारो ओर पानी रहने पर भी वह जबतक उलटती नहीं, पानी नहीं पी सकती। उसी भाँति जीव जबतक अंतर्मुखी नहीं हो जाता, पीव को नहीं पा सकता। इसलिए बहिर्मुख से अंतर्मुख होने का यत्न संतों से जानिये। अवश्य ही भागलपुर स्टेशन तक पहुँचने के लिए सब दिशाओं से विविध सवारियों से जा सकते हैं। चाहे बैलगाड़ी से जाइये, चाहे रिक्शे से जाइये, चाहे टमटम से जाइये, किसी भी सवारी से जाइये। लेकिन वहाँ पर जो आपको तिनसुकिया मेल गाड़ी मिलेगी, वह सीधे आपको दिल्ली पहुँचा देगी। उसी तरह आज्ञाचक्र तक पहुँचने के लिए आप शिव की उपासना कीजिए, शक्ति की उपासना कीजिए, गणेश की उपासना कीजिए, गुरु की उपासना कीजिए। जिस किसी इष्ट की भी उपासना कीजिए, इन उपासनाओं के माध्यम से आप वहाँ पर जाएँगे, जहाँ आपको योग्यता मिलेगी दृष्टियोग के द्वारा आज्ञाचक्र में प्रवेश करने की। आज्ञाचक्र से जो रास्ता मिलेगा, उस रास्ते से आप सीधे प्रभु के पास चले जाइएगा। अरे! शेरशाह जब बादशाह बना तो उसने कलकत्ता से लेकर दिल्ली तक जी0टी0 रोड बना दी। तो दिल्ली के बादशाह ने यहाँ से वहाँ तक ग्रैंडट्रंक रोड बना दी और जो दिल-दिल में बसनेवाले संपूर्ण संसार के बादशाह हैं, उन्होंने भक्तों को अपने पास आने के लिए क्या कोई रास्ता नहीं बनाया? अवश्य बनाया। उनके पास जाने के लिए भी सड़क बनी हुई है। दुनिया की सड़क तो टूट-फूट कर जहाँ-तहाँ खतम भी हो जाती है; लेकिन वह सड़क तो जबसे बनी है, तबसे है ही। और जबतक सृष्टि रहेगी, तबतक रहेगी। वह सड़क सबके अंदर-अंदर है। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ तेरो को है रोकनहार, मगन से आव चली ।।टेक।।
पाँच पचीस करे बस अपने, करि गुरु ज्ञान छड़ी ।
अगल बगल के मारि उड़ाये, सनमुख डगर धरी ।।”
वास्तव में आज्ञाचक्र से परम प्रभु परमात्मा के पाने का पथ आरंभ है। कोई भगवती की उपासना करते हैं, तो कोई देवी की। कोई राम की, तो कोई कृष्ण आदि की। इस प्रकार अनेक इष्ट-उपासी होने के कारण लोग ईश्वर पाने के बहुत रास्ते कहते हैं। लेकिन ये बहुत-से रास्ते नहीं हैं, बल्कि रास्ते को पकड़ने के साधन हैं।
पहले सामान्य जोड़, घटाव, गुणा, भाग सीखो, फिर मिश्र जोड़, घटाव, गुणा, भाग सीखो। फिर भिन्न का जोड़, घटाव, गुणा, भाग सीखो, फिर दशमलव का जोड़, घटाव, गुणा, भाग सीखो और तब अलजबरा सीखो। अगर जीवन भर सामान्य जोड़, घटाव, गुणा, भाग सीखते रहोगे, तो फिर ऐलजेबरा कब सीखोगे, कॉलेज कब जाओगे, फिर आगे का नॉलेज कब होगा? इसीलिए संतों ने पहले स्थूल भक्ति बतायी है। जैसे वर्णमाला के विद्यार्थी को चित्र के द्वारा अक्षर का ज्ञान कराया जाता है-‘अ’ से अनार, वैसे ही अध्यात्म-ज्ञान के लिए आरंभ में स्थूल नामरूप का अवलंब दिया जाता है। पश्चात् उस अक्षर का ज्ञान कराया जाता है, जिसके लिए शास्त्र में कहा गया है-‘न क्षरति इति अक्षरः।’ संत राधास्वामी साहब ने कहा है-
“ मोटे बन्धन जक्त के, गुरु भक्ति से काट ।
झीने बन्धन चित्त के, कटें नाम परताप ।।
मोटे जब लग जायँ नहिं, झीने कैसे जायँ ।
ताते सबको चाहिये, नित गुरु भक्ती कमायँ ।।”
और-
“ सुरत शब्द एक अंग कर, देखो विमल बहार ।
मध्य सुखमना तिल बसे, तिल में ज्योति अपार ।।”
इस तिल को पकड़ो। जो कोई ज्योतिर्मय उस तिल को पकड़ता है, वह उस बिल में प्रवेश कर जाता है, जिस होकर चलते-चलते एक दिन परम प्रभु से मिल जाता है। उस छेद को जानो। उस छेद के भेद को संत सद्गुरु से जानो। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ गुरुदेव के भेद को जीव जानै नहीं ,
जीव तो आपनी बुद्धि ठानै ।
गुरुदेव तो जीव को काढ़ि भव सिन्धु तें ,
फेरि लै सुक्ख के सिन्धु आनै ।।
बंद कर दृष्टि को फेरि अन्दर करै ,
घट का पाट गुरुदेव खोलै ।
कहै कबीर तू देख संसार में ,
गुरुदेव समान कोइ नाहिं तोलै ।।”
ऐसे संत सद्गुरु की शरण में जाओ, जो तुमको इसका भेद बतलावे। उस भेद को जो कोई पा लेता है, वह अंधकार को छेद देता है।
इसके देखने के लिए तीन दृष्टियाँ बतायी गयी हैं-अमादृष्टि, प्रतिपदा दृष्टि और पूर्णिमा दृष्टि। पूर्णिमा दृष्टि और प्रतिपदा दृष्टि में आँखों में कष्ट होता है। लेकिन अभ्यास करते-करते लोग अभ्यस्त हो जाते हैं, तो सरल हो जाता है। सबसे सुगम, सरल और आपदाहीन है अमादृष्टि। भगवान बुद्ध की ध्यानकालिक मूर्ति को आप देखेंगे, तो पायेंगे कि वे आँखें बंद करके ध्यान करते हैं। यह अमादृष्टि है। शिवजी के ध्यानावस्थित चित्र को आप देखेंगे, तो उनकी आधी आँखें खुली पाएँगे। यह प्रतिपदा दृष्टि है। इसको शांभवी मुद्रा कहते हैं। विष्णु भगवान तो निर्निमेष हैं। उनकी पूरी आँखें खुली होती है। इसलिए पूरी आँखें खोलकर ध्यान करने को वैष्णवी मुद्रा कहते हैं। पूरी आँखें खोलकर या आधी आँखें खोलकर साधना करने से मस्तिष्क पर और आँखों पर भी अधिक बल पड़ता है। आँखें बंद करके तो हम सोते ही हैं। इसमें कोई बल नहीं पड़ता। व्यासदेवजी की मूर्ति को देखिये, आँखें बंद करके वे ध्यान करते हैं। शमीक मुनि का चित्र देखिये, जिनके गले में राजा परीक्षित ने मरा हुआ साँप डाला था, वे भी आँखें बंद करके ध्यान करते थे। आँखें बंद करके ध्यान करने में एक लाभ यह भी होता है कि आँखें खोलकर ध्यान करने से जो दृश्य हमारे सामने आते हैं, उनका नया संस्कार जो हमारे ऊपर पड़ता है, आँख बंद करके ध्यान करने पर नया संस्कार नहीं पड़ता। इसलिए आँखें बंद करके ध्यान करने की प्रक्रिया ही अधिक स्वाभाविक और समीचीन जान पड़ती है। यही हमलोगों को बतलायी भी गयी है। आँखें बंद करके पहले मानस जप कीजिए, पश्चात् मानस ध्यान कीजिए। तत्पश्चात् दृष्टि साधन कीजिए। यदि संत सद्गुरु का आदेश प्राप्त हो, तो तदुपरान्त नादानुसंधान कीजिए। संत कबीर साहब के वचन में है-
“ बंद कर दृष्टि को फेरि अंदर करै,
घट का पाट गुरुदेव खोलै ।”
हमारा काम आँखें बंद करके चित्तवृत्ति का निरोध करना और अपने को लक्ष्य पर ठहराना है। घट का पाट खोलना गुरुदेव का काम है। जैसे सात्विक भोजन करना यह हमारा काम है; लेकिन मल-मूत्र आदि गंदगियों के निकालने का काम हमारा नहीं, किसी और का है। उसी तरह सद्गुणों को धारण करना हमारा काम है और हमारे दुर्गुणों को दूर करने का काम हमारे संत-सद्गुरु का है। वास्तविक बात तो यह है कि यदि हम अपने को सद्गुणों से भरते जाएँगे, तो दुर्गुण रहेंगे कहाँ? अतएव अपने को सद्गुणों से भरते चलिए, दुर्गुण निकलते जाएँगे।
हाँ, तो मैं दृष्टियोग के संबंध में कह रहा था। दृष्टियोग की क्रिया में पूर्णता प्राप्त कर लेने पर नादानुसंधान की क्रिया की जाती है। जबतक दृष्टि- साधन की क्रिया पूर्ण नहीं हो, तो नादानुसंधान की क्रिया में सफलता मिलनी कठिन होती है।
जैसे एक वृक्ष में फल लगे हुए हैं। उसके फल तोड़ने के लिए एक नेत्रहीन आदमी ढेला फेंक रहा है और दूसरा नेत्रधारी। अब आप ही बतलाइये, फल तोड़ेगा कौन? जो नेत्रधारी है, वह फल तोड़ेगा। जो नेत्रहीन है, वह भी यदि निरंतर ढेला मारता रहेगा, तो हो सकता है कि कभी-न-कभी उसका भी ढेला जग जाए। अतएव ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि नहीं लग सकता, फिर भी उसके लिए निश्चयात्मक शब्द नहीं है कि उसका ढेला लगेगा ही। परन्तु जो कोई दृष्टिसाधन क्रिया करते हैं, इस साधन के फलस्वरूप उनको दिव्य दृष्टि प्राप्त हो जाती है और दिव्यदृष्टि हो जाने पर दिव्य फल-नाद की प्राप्ति सरलतापूर्वक हो जाती है। दिव्यदृष्टि-विहीन जन दिव्य शब्द को पकड़ेगा, कठिन है। इसलिए आवश्यकता है मानस जप और मानस ध्यान करने की। पश्चात् दृढ़तापूर्वक जो दृष्टिसाधन करते हैं, वे ज्योतिर्मय विन्दु को पाते हैं। फिर प्रकाशपुंज में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। जो प्रकाशपुंज में पहुँच जाते हैं, वहाँ उनको अनहद नाद की अनुभूति होती है। अनहद नाद यानी जिसकी हद नहीं, सीमा नहीं। उन असंख्य शब्दों में से किस शब्द को कहाँ और कैसे पकड़ा जाए, इसका यत्न संत सद्गुरु से जानना होता है। अनहद नादों की साधना करते-करते अंत में एक शब्द मिलता है, जिसको अनाहत नाद कहते हैं, सारशब्द कहते हैं। यही नाद परम प्रभु परमात्मा से मिलाता है। श्रीमदाद्य शंकराचार्यजी महाराज ने इसकी स्तुति की है-
“ नादानुसंधान नमोऽस्तु तुभ्यं
त्वां मन्महे तत्त्वपदं लयानाम् ।
भवत्प्रसादात् पवनेन साकं
विलीयते विष्णु पदे मनो मे ।।”
हे नादानुसन्धान! आपको नमस्कार है, आप परमपद में स्थित कराते हैं, आपके ही प्रसाद से मेरा प्राण-वायु और मन, ये दोनों विष्णु के परम पद में लय हो जाएँगे।
पहले भजन-भेद होता है। उसके बाद शब्द-भेद यानी नाम-भेद होता है। भजन-भेद और नाम-भेद एक ही बात नहीं है। इसलिए गोस्वामीजी ने लिखा है-
“ चौदह चारो अष्टदश, रस समझव भरपूर ।
नाम भेद जाने बिना, सकल समझ महँ धूर ।।”
तथा-
“ बिन दया संतन की मेँहीँ जानना इस राह को ।
हुआ नहीं होता नहीं वो होनहारा है नहीं ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
दृष्टिसाधन की क्रिया में जो कुशल होता है, उसमें उस शब्द को पकड़ने की योग्यता आती है, जो केन्द्रीय है। जबतक दृष्टिसाधन की क्रिया सहीं नहीं होती, तबतक कितने लोग कान बंद करके भी सुनते हैं; लेकिन वह केन्द्रीय शब्द नहीं, बिखरे हुए शब्द हैं। जैसे, हम यहाँ बैठे हुए हैं और दिल्ली रेडियो स्टेशन का शब्द सुनना चाहें, तो वहाँ के शब्द को पकड़ने के लिए हमें क्या करना होगा? हमारे घर में जो ट्रांजिस्टर है, उसमें दिल्ली के लिए जो अंक नियुक्त है, उस अंक पर सूई रखनी पड़ेगी, तब हम दिल्ली की आवाज पकड़ सकेंगे। कलकत्ते की आवाज सुनना चाहते हैं, तो उस अंक पर सूई रखिये, जो कलकत्ते के लिए नियुक्त है। इसी तरह इंगलैंड, अमेरिका आदि जहाँ कहीं की आवाज हम सुनना चाहेंगे, वहाँ के लिए जो अंक नियुक्त है, उसपर सूई रखिये, वहाँ की आवाज सुन सकेंगे। इसी तरह परम प्रभु परमात्मा की ओर से जो आवाज आ रही है, उस आवाज को पकड़ने के लिए हमें अपने को या अपनी सूई को यानी अपनी वृत्ति को कहाँ रखनी पड़ेगी? संत तुलसी साहब के शब्दों में सुनिये-
“ कुदरती काबे की तू, मेहराब में सुन गौर से ।
है आ रही धुर से सदा, तेरे बुलाने के लिए ।।”
जिसको योगशिखोपनिषद् में शिवालय और ठाकुरबाड़ी की संज्ञा से अभिहित किया गया है। यथा-
“ विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम् ।
देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।”
विन्दुनाद महालिंग है और शिव-शक्ति का घर है। इस देह को शिवालय कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है।
“ विन्दुनाद महालिंगं विष्णुलक्ष्मीनिकेतनम् ।
देहं विष्ण्वालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।”
अर्थ-विन्दुनाद-रूप जो महालिंग है, वही विष्णु और लक्ष्मी का घर है। इस देह को विष्णु-मंदिर (ठाकुरवाड़ी) कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है।
और मेहराव किसको कहते हैं? फाटक के ऊपर जो अर्द्ध गोलाकार होता है, उसको मेहराव कहते हैं। हाँ, तो प्रभु के पास जाने का जो फाटक है, वहाँ भी मेहराव है। आँखों की ये जो दोनों भौंएँ मेहराव के प्रतीक हैं। इसी के बीच में वह स्थान नियुक्त है, जहाँ उस शब्द को पकड़ा जाता है। वहाँ पर अपनी सूई रखिये। सूई रखेंगे, तो क्या होगा? विन्दु मिलेगा, जिसको फारसी भाषा में नुख्ता कहते हैं। किसी शायर का कथन है-
“ नुकते के हेर फेर से तुमसे जुदा हुआ ।
नुकता जो धरा सर पर खुद ही खुदा हुआ ।।
खुदा जुदा की एक सूरत नुकता भेद बताता है ।
नुकता ऊपर नुकता नीचे नुकता आता जाता है ।।”
संतों ने कहा-इस नुख्ते यानी विन्दु को पकड़ो। जो कोई इस विन्दु-साधना की विधि जानता है और तदनुकूल साधना करके उसको प्राप्त करता है, तो वही विन्दु प्राप्तकर्ता एक दिन भवसिन्धु पार करता है। जो विन्दु प्राप्त नहीं करेगा, वह भवसिन्धु नहीं तरेगा। विन्दु ग्रहण करेनवाला नाद श्रवण करता है। अनहद नाद की साधना करते-करते अंत में आदिनाद मिलता है, जो परम प्रभु से जाकर मिलाता है; क्योंकि वह नाद परम प्रभु परमात्मा से ही उत्थित है।
नाद में अपने उद्गम पर खींचने का गुण होता है। इसलिए परम प्रभु की ओर से जो शब्द आया है, उस शब्द को जो कोई पकड़ता है, खींचकर प्रभु के पास चला जाता है। अभी मैं माइक पर बोल रहा हूँ। इसकी आवाज जितनी दूर तक जाएगी, अँधेरी रात होने पर भी सुननेवाला आवाज सुनते- सुनते मेरे पास आ जाएगा। इसी तरह परम प्रभु की ओर से जो ब्रह्मध्वनि ध्वनित हो रही है, हमारी ओर आ रही है, उसको जो कोई पकड़ेगा, परमात्मा तक चला जाएगा। यही उलटा नाम है। गोस्वामीजी ने रामचरितमानस में लिखा है-
“ उलटा नाम जपत जग जाना ।
बालमीकि भये ब्रह्म समाना ।।”
वाल्मीकिजी का पूर्व नाम रत्नाकर था। कथा है कि वह बड़ा हत्यारा था। मारकाट में ही उसका जीवन बीतता था। इसलिए नारदजी द्वारा उपदेश पाकर भी वह राम-राम उच्चारण नहीं कर सकता था, मरा-मरा कहता था, ऐसा लोग कहते हैं।
अभी हाल ही में गोड्डा जिला संतमत-सत्संग का वार्षिक अधिवेशन डुमरियाहाट में हुआ था। वहाँ के एक दारोगाजी एक वकील साहब और एक डॉक्टर साहब अपने कुछ साथियों के साथ मेरे पास आये थे। उनलोगों ने भी यही बात कही, ‘रत्नाकर बड़ा पापी था। राम-राम नहीं कह सकता था, फिर भी मरा-मरा जपते-जपते वह ब्रह्म समान हो गया।’ मैंने कहा, ‘सुनिये, आपलोग पढ़े-लिखे विद्वान हैं, गंभीरतापूर्वक विचार कीजिए। जरा सोचिये।
“ जो वर्णमाला का उच्चारण कर सकता है, ‘म’ और ‘रा’ यानी ‘मरा’ उच्चारण कर सकता है, वह ‘रा’ और ‘म’ यानी ‘राम’ उच्चारण नहीं कर सकता, यह कहाँ का न्याय है? क्या कोई बुद्धिजीवी इस बात को स्वीकार कर सकता है कि जो ‘म’ और ‘रा’-मरा कह सकता है, वह ‘रा’ और ‘म’-‘राम’ नहीं कह सकता?” वे लोग पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी तो थे ही, मेरी बात को सबने एक स्वर से स्वीकार किया और कहा, आपकी बात युक्तिसंगत जँचनेवाली है।
पुनः मैंने कहा- “ वकील साहब! एक बात और विशेष ध्यान देने योग्य है। ‘र’ आकार और ‘म’ यानी ‘राम’ और इसको उलटने से ‘मरा’ शब्द बना। यह नाम का उलटना हुआ या अक्षर को उलट दिया गया। नाम नहीं उलटा, यह तो अक्षर उलट दिया गया। उलटा क्या नाम है?” उनलोगों ने कहा, ‘यह तो हमलोग नहीं जानते।’ मैंने कहा, ‘सुनिये! नाभि, हृदय और कंठ; इन तीनों स्थानों में ठोकर लगाकर मुँह के उच्चारण स्थानों का स्पर्श करती हुई जो ध्वनि बाहर निःसृत होती है, उसको बैखरी वाणी कहते हैं। बैखरी का मतलब जो वाणी बिखर गयी। यानी नीचे की ओर से एकत्रित होती हुई ऊपर मुँह में आने के बाद बाहर निकल गयी। संत चरणदासजी महाराज की वाणी है, नाभि से परा, हृदय से पश्यन्ती, कंठ से मध्यमा और मुँह से बैखरी वाणी निकलती है-
“ नाभि मध्य वाणी, परा हिय पश्यन्ती सुख्य ।
कण्ठ मध्यमा जानिये, कहूँ बैखरी मुख्य ।।”
वह वर्णात्मक है। वर्णात्मक शब्द का अर्थ होता है, इसलिए वह सार्थक है और सगुण भी। वर्णात्मक का उलटा ध्वन्यात्मक शब्द होता है। ध्वन्यात्मक का अर्थ नहीं होता, इसलिए उसको निरर्थक कहते हैं। (निरर्थक का मतलब व्यर्थ नहीं) वह (ध्वन्यात्मक शब्द) परम प्रभु परमात्मा से निःसृत होकर कैवल्य, महाकारण, कारण, सूक्ष्म और स्थूल तक आया है। यह निर्गुण शब्द ऊपर से नीचे की ओर आया है। इसका स्पष्टीकरण हम इस भाँति कर सकते हैं- एक नाम (शब्द) नीचे से ऊपर की ओर और दूसरा ऊपर से नीचे की ओर। एक नाम (शब्द) वर्णात्मक, सार्थक है, तो दूसरा ध्वन्यात्मक निरर्थक है। एक नाम (शब्द) सगुण है, तो दूसरा निर्गुण है।
एक शब्द पिंड से नाभिचक्र के आरंभ होकर पिंड के मुख-स्थान में समाप्त होता है। दूसरा शब्द ब्रह्मांड के परे से निकलकर नीचे पिंड तक आता है। इस प्रकार एक दूसरे का उलटा होने के कारण इसको ‘उलटा नाम’ की संज्ञा दी गयी है। इसी निर्गुण ध्वन्यात्मक ध्वनि की साधना के द्वारा वाल्मीकि जी ब्रह्म में समाकर ब्रह्मवत् हुए थे।
कहते हैं-सृष्टि के आरंभकाल में परमप्रभु परमात्मा में मौज हुई, मौज हुई तो कम्प हुआ। कम्प शब्दमय और शब्द कम्पमय होता है। इसलिए स्वाभाविक है कि कम्प अपने सहचर ध्वन्यात्मक शब्द के साथ होगा। यह ध्वन्यात्मक शब्द ऊपर से नीचे की ओर आया है। इसका अपना कोई अर्थ नहीं होता, इसलिए इसको निरर्थक कहते हैं और यह निर्गुण शब्द है तथा यही एक दूसरे का उलटा है। इसी ध्वन्यात्मक, निरर्थक, निर्गुण शब्द की साधना वाल्मीकिजी ने की थी। शब्द-साधना के संबंध में श्रीगोस्वामीजी ने रामचरितमानस में लिखा है-
“ उलटा नाम जपत जग जाना ।
वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना ।।”
दूसरी बात यह है कि शब्द में तीन प्रकार के गुण होते हैं-1- ऊपर का शब्द नीचे दूर तक जाता है। 2- सुननेवाले को अपने केन्द्र की ओर आकर्षित करता है। 3- शब्द में जो गुण होता है, सुननेवाले को उससे गुणान्वित करता है। इसलिए जो शब्द परम प्रभु परमात्मा से आया हुआ है, उसको जो कोई पकड़ लेता है, वह परमात्मा तक पहुँच जाता है तथा परमात्मा के गुण से गुणान्वित होकर परमात्मा ही हो जाता है। इस स्थिति को प्राप्त कर लेनेवाले के लिए ही गोस्वामजी को ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई’ वाली बात चरितार्थ हो जाती है।
इस आदिनाद या सारशब्द की चर्चा हम पवित्र बाइबिल में भी पाते हैं-‘ In the beginning was the word, the word was with God and the word was God ’ आरंभ में शब्द था। शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ही ईश्वर था। इसी शब्द की ओर इंगित कर संत कबीर साहब ने कहा था-
“ साधो सब्द साधना कीजै ।
जेहि सब्द से प्रगट भये सब, सोई सब्द गहि लीजै ।।”
गुरु नानक साहब की वाणी में है-
“ शब्द तत्तु बीर्ज संसार । शब्दु निरालमु अपर अपार ।।
शब्द विचारि तरे बहु भेषा । नानक भेदु न शब्द अलेषा ।।
शब्दै सुरति भया प्रगासा । सभ को करै शब्द की आसा ।।
पंथी पंखी सिऊँ नित राता । नानक शब्दै शब्दु पछाता ।।
हाट बाट शब्द का खेलु । बिनु शब्दै क्यों होवै मेलु ।।
सारी स्त्रिष्टि शब्द कै पाछै । नानक शब्द घटै घटि आछै ।।”
संत दादू दयालजी महाराज इस विषय की परिपुष्टि इस भाँति करते हैं-
“ एक शब्द सब कुछ किया, ऐसा समरथ सोइ ।
आगै पीछै तौ करै, जे बलहीणा होइ ।।”
कबीर साहब की वाणी श्रवण कीजिए-
“ आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह ।
परसत ही कंचन भया, छूटा बंधन मोह ।।”
जो आदिनाम को पकड़ लेता है, तो उसके आकर्षण से आकर्षित हो वह परम प्रभु परमात्मा तक चला जाता है और उनसे एकमेक हो अद्वय हो जाता है। कविकुल कमल दिवाकर गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज की भाषा में-
“ सरिता जल जलनिधि महँ जाई ।
होहि अचल जिमि जीव हरि पाई ।।”
अर्थात् जिस तरह सरिता का जल सागर में समाकर सागर ही हो जाता है, उसी तरह जीव भी पीव को पाकर पीव हो जाता है। इसी संदर्भ में भगवान श्रीरामजी ने भक्त श्रीहनुमानजी को उपदेश देते हुए कहा था-
“ दर्शनादर्शने हित्वा स्वयं केवलरूपतः ।
य आस्ते कपिशार्दूल ब्रह्म स ब्रह्मवित्स्वयम् ।।”
-मुक्तिकोपनिषद्
हे कपिशार्दूल ! दृश्य और अदृश्य को त्यागकर (पुरुष) कैवल्य-स्वरूप हो जाता है। वह केवल ब्रह्मज्ञानी नहीं, बल्कि स्वयं ब्रह्म ही हो जाता है।
वह दृश्य और अदृश्य अर्थात् दर्शन और अदर्शन क्या है? दर्शन ज्योति और अदर्शन है नाद। जो ज्योति और नाद को पार कर जाता है, वह नाम-रूप को पार करके अनामी और अरूपी प्रभु में जाकर मिलता है। यही है-
“ एक अनीह अरूप अनामा ।
अज सच्चिदानंद पर धामा ।।”
यही परम प्रभु परमात्मा है। उसे पाकर वह वही हो जाता है। संतमत यही बतलाता है कि ईश्वर प्राप्ति का यही एक रास्ता है। सर्वेश्वर की सर्वोत्कृष्ट साधना परा भक्ति है। परा भक्ति में ये कान काम नहीं करते, ये आँखें काम नहीं करतीं। यह नाक काम नहीं करती। कोई भी इन्द्रिय काम नहीं करती। फिर भी बिना श्रवण के सुनते हैं, बिना नेत्र के देखते हैं, बिना जिभ्या के उ बिना शीश के सेव्य को नमन करते हैं, आदि बड़ी ही अद्भुत बातें होती हैं। संत सुंदरदासजी के शब्दों में-
“ श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै ।
रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तारै ।।
नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै ।
अंग बिना मिलि संग, बहुत आनन्द बढ़ावै ।।
बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिये रहै ।
मिलि परमातम सों आतमा, परा भक्ति सुन्दर कहै ।।”
यह परा भक्ति है। हमारे गुरु महाराज ने भी कहा है, यह परा भक्ति ईश्वर-प्राप्ति का प्रसिद्ध मार्ग है। जैसे सरिता का जल समुद्र में जाकर समुद्र हो जाता है, वैसे ही जीव प्रभु से मिलकर प्रभु ही हो जाता है।
“ विहंग मीन चाल चलि ज्यों, सरित सों सरित समाहिं ।
त्यों नाद सों नादों में चलि, प्रभु पास भक्तन जाहिं ।।
संतों का मेँहीँ मार्ग यह, ‘मेँहीँ’ सुनो दे कान ।
यहि परा भक्ति प्रसिद्ध मार्गहि, धरु हिय धरि ध्यान ।।”
हमारे परम पूज्यगुरुदेव का उद्घोष है-
“ सार शब्द ही नाह मिलावै और नहीं कोई ।
मेँहीँ कही जो संतन भाषी बात नहिं निज की ।।”
इससे बढ़कर और ऊँची भक्ति नहीं है और न ऊँची गति ही है। यही आत्मनिवेदनम् अथवा जीव का पीव से मिलन कहिये। आत्मा-परमात्मा का मिलन कहिये। चाहे आप जो इसकी संज्ञा दे दीजिए। यही संतमत बतलाता है। इसके लिए घर-वार, परिवार, रोजगार छोड़ने की जरूरत नहीं है। आचार्य विनोबा भावे ने कहा था-‘मछली पानी में रहती है। मछली कहे कि पानी की कीमत कुछ नहीं है, मैं दूध में जाकर रहूँगी अथवा उससे अधिक कीमत की चीज घी है, उसमें जाकर रहूँगी, तो मछली न तो दूध में जी सकती है और न घृत में ही जीवित रह सकती है। तो वह पानी में ही और वहाँ ही अपना विकास भी कर सकती है। उसी तरह जिस कुटुम्ब में, जिस परिवार में, जिस समाज में हम हैं, उसी में रहकर हम अपनी उभयलोक उन्नति कर अपना परम कल्याण बनावें।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के 78वाँ वार्षिक महाधिवेशन के अवसर पर मिर्जापुर, भागलपुर में दिनांक 12-3-1989 ई0 के अपराह्णकालीन सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अप्रैल 1989 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आज विश्व में बहुत प्रकार के धर्म फैले हुए हैं; किन्तु यदि उन सभी धर्मों को समेटकर देखें, तो तीन ही धर्मों को माननेवाले अधिक हैं-वैदिक, ईसाई और इस्लाम। इन तीनों धर्म की प्रारंभिक शिक्षा में ईश्वर का ज्ञान दिया जाता है।
पंजाब में एक संत हुए गुरु नानकदेवजी महाराज। वे जब छोटे थे तो उनके पिताजी ने एक मौलवी साहब के पास उनको पढ़ने के लिए भेजा। मौलवी साहब उनको अलीफ, बे, ते आदि पढ़ाने लगे। गुरु नानकदेवजी ने मौलवी साहब से पूछा- “ मौलवी साहब ! ‘अलीफ’ का क्या अर्थ होता है?” मौलवी साहब ने कहा-‘अलीफ का मतलब होता है, एक।’ पुनः गुरु नानकदेवजी ने पूछा-‘बे’ का अर्थ क्या होता है?’ मौलवी साहब ने कहा-‘बे का अर्थ होता है, दूसरा।’ गुरु नानकदेवजी ने कहा-‘मौलवी साहब! पहले मुझे एक को जान लेने दीजिए, तब हम दूसरे को जानेंगे।’ वह ‘एक’ क्या है? वह ‘एक’ परब्रह्म परमात्मा है। और वह ‘दूसरा’ क्या है? वह ‘दूसरा’ संसार है। जो ‘एक’ को जान लेता है, उसे ‘दूसरे’ अर्थात् संसार को जानने की आवश्यकता नहीं रह जाती। इस्लाम धर्म के उर्दू जुबान में जो पहला अक्षर ‘अलीफ’ पढ़ते हैं, वह एक ईश्वर का ज्ञान देता है और उसकी आकृति भी एक सीधी खड़ी लकीर के समान होती है, जो बताती है कि ईश्वर एक है। जब हम अंग्रेजी पढ़ने के लिए जाते हैं, तो वहाँ क्या पढ़ते हैं? ।ए ठए ब्ण्ण्ण्आदि। ‘।’ का क्या अर्थ होता है ‘एक’। यह ईसाई धर्म भी सिखलाता है कि पहले एक को जानो। हमारे वैदिक धर्म की भी पढ़ाई अ, आ--- आदि से शुरू होती है। ‘अ’ स्वर है। बिना स्वर के व्यंजन का उच्चारण नहीं होता और सभी व्यंजनों में स्वर मिला रहता है। ‘अ’ बताता है कि परब्रह्म परमात्मा एक है और पूरे विश्व में व्यापक है। जिस प्रकार बिना स्वर के व्यंजन का उच्चारण नहीं हो सकता, उसी प्रकार परब्रह्म परमात्मा के बिना यह सृष्टि नहीं हो सकती।
आप किसी भी सम्प्रदाय या धर्म के क्यों न हों सबमें यही सिखलाया जाता है कि उस एक ईश्वर को जानो। संत सुन्दर दासजी महाराज का वचन है-
“ एक सही सबके उर अन्तर ,
ता प्रभु कूँ कहो क्यों नहीं ध्यावै ।
संकट माहि सहाय करे पुनि ,
सो अपनो पति क्यूँ विसरावै ।।
चारि पदारथ और जहाँ लौ ,
आठहु सिद्धि नवो निधि पावै ।
सुन्दर छार पडे़ तिनके मुख ,
जो हरि कूँ तजि और को ध्यावै ।।”
एक जगह मैं सत्संग में गया हुआ था। वहाँ एक बी0डी0ओ0 साहब मुझसे मिलने आए। वे मुसलमान साहब थे। मैंने बी0डी0ओ0 साहब से कहा-‘आप इस्लाम धर्म को माननेवाले हैं, तो आप पंचवख्ती नमाज अदा करते होंगे।’ उन्होंने कहा-‘मुझे जनसेवा से फुर्सत कहाँ है। जनसेवा से बढ़कर क्या और कोई सेवा हो सकती है?’ मैंने उनसे पूछा-‘आप कुरान शरीफ पढ़ते हैं?’ उन्होंने कहा-‘हाँ, मेरे पास कुरान शरीफ है,फुर्सत के वख्त कभी-कभी पढ़ लेता हूँ। मैंने उनसे पूछा-‘कुरान शरीफ में सबसे बड़ा किनको बतलाया है?’ बी0डी0ओ0 साहब ने कहा-‘सबसे बड़ा अल्लाह है।’ तब मैंने पूछा-‘जब सबसे बड़ा अल्लाह को बतलाया गया है, तो अल्लाह की खिदमत सबसे बड़ी होगी या जनसेवा सबसे बड़ी होगी?’ उन्होंने कहा-‘अल्लाह की खिदमत सबसे बड़ी होगी।’ मैंने कहा-‘बी0डी0ओ0 साहब! कयामत के दिन के लिए आप पंचवख्ती नमाज अदा कीजिए इससे आपका दीन बनेगा और जनसेवा भी कीजिए, इससे आपकी दुनियाँ बनेगी। इस तरह आपका दीन और दुनिया दोनों बनेगी।’ उन्होंने कहा-‘अच्छा बाबा, अबसे मैं नमाज अवश्य पढ़न्न्ँगा।’
भगवान श्रीराम ने भक्तिन शबरी के सामने नौ प्रकार की भक्ति का वर्णन करते हुए कहा था-‘प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।’ लोग समझते हैं कि भगवान के दर्शन हो गए, तो बाकी क्या रह गया? लेकिन भगवान श्रीराम कहते हैं कि मेरे ही दर्शन से तुम्हारा काम पूरा नहीं होगा। तुम संतों के भी दर्शन करो। यों तो गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है-‘संत भगवंत अंतर निरंतर नहीं’, लेकिन किसी-किसी स्थान पर अन्तर हो भी जाता है। भगवन्त का अवतरण किसी कार्य-विशेष के कारण होता है और वे कार्य सम्पन्न करके चले जाते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में आया है-
“ यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।
परित्रणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे ।।”
गोस्वामी तुलसीदासजी ठीक इसी का अनुवाद करते हैं-
“ जब जब होइ धरम कै हानी,
बाढ़हि असुर अधम अभिमानी ।।
करइ अनीति जाइ नहिं बरनी,
सीदइ विप्र धेनु सुर धरनी ।।
तब तब धरि प्रभु विविध सरीरा,
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा ।।”
भगवन्त दुष्टों का संहार करते हैं और संत दुष्टों के संहार नहीं करते, बल्कि उनकी दुष्प्रवृत्तियों का संहार करते हैं। संत और भगवन्त में यही अंतर है। भगवान श्रीराम तो यहाँ तक कह गए-‘मोते अधिक संत करि लेखा।’ मुझसे बढ़कर संत को जानो; लेकिन, संत किनको कहते हैं? एक कवि के वचन में आया है-
“ कपड़े रंग कर जो न कपट का जाल बिछावै ,
तन पर जो न विभूति पेट के लिए लगावै ।
हमें चाहिए सच्चा जी वाला वह साधू ,
देश जाति जग हित कर जो नित जनम गवावै ।।”
संत कबीर साहब ने कहा-
“ संत और पारस में यही अन्तरो जान ।
वह लोहा सोना करे, वह कर ले आप समान ।।”
पारस लोहे को सोना बना सकता है, पर पारस नहीं बना सकता; लेकिन जो संत होते हैं वे जड़ बुद्धि वाले अज्ञानी को भी ज्ञान देकर अपने समान बना देते हैं। महोपनिषद् में आया है-
“ भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।”
अर्थात् परे-से-परे को देखने पर हृदय की ग्रंथि खुल जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं।
परे-से-परे क्या है? जड़ के परे चेतन है और चेतन के परे परब्रह्म परमात्मा है। जो सगुण-निर्गुण के परे चले गए हैं, वे संत होते हैं। संस्कृत में जिनको हम संत कहते हैं, अंग्रेजी में उन्हीं को सेंट (Saint) कहते हैं। वास्तव में जो सेंट होते हैं, उनमें सेंट अर्थात् सुगंधी होती है। वह सुगंध क्या है? वह सुगंध सदाचार की सुगंध है। अर्थात् वे झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार-इन पंच पापों से विरत रहनेवाले होते हैं, एक ईश्वर पर अनुरक्त रहनेवाले होते हैं तथा वे सत्संग और ध्यान करनेवाले होते हैं। जिनको हम संस्कृत में ‘संत’ और अंग्रेजी में ‘सेंट’ कहते हैं, फारसी में उन्हीं को हम ‘फकीर’ कहते हैं। फे, काफ, ये और रे से फकीर लिखते हैं। ‘फे’ का अर्थ होता है-‘फाँका’ अर्थात् उपवास। उपवास का अर्थ खुदा के निकट निवास। ‘काफ’ का अर्थ होता है-‘कनायत’ या संतोष। शेख सादी ने कहा है-
“ कनायत तमंगर कुनद मरदरा ।
खबर किन हरीसों जहाँ गरदरा ।।”
अर्थात् जो संतोषी होते हैं, वे फकीर होते हैं। वे कितने संतोषी होते हैं? संत कबीर साहब ने कहा है-
“ कबीर साईं मुज्झको, सूखी रोटी देय ।
चुपड़ी माँगत मैं डरूँ, रूखी छीन न लेय ।।”
संत कबीर साहब कपड़े बुनते थे और अपनी स्वाभाविक कमाई में ही संतुष्ट रहते थे। संत परमुखापेक्षी नहीं होते अर्थात् दूसरों के आगे हाथ नहीं पसारते। ‘ये’ का अर्थ है-यादे इलाही। मतलब यह कि फकीर प्रभु की याद में दिन-रात रमे रहते हैं। ‘रे’ का अर्थ है-रियाज अर्थात् अभ्यास। वे खुदा को प्राप्त किए हुए होते हैं, फिर भी लोगों के बीच आदर्श रखने के लिए ध्यान का अभ्यास करते हैं।
लेकिन, ऐसे फकीरों (संतों) की पहचान बहुत कठिन है, बल्कि जिस समय ऐसे संत-फकीर लोग हुए हैं, बहुत कम लोगों ने उनकी पहचान की है। अधिकतर लोगों ने तो उनका निरादर और विरोध ही किया है। जिस समय प्रभु ईसा मसीह हुए थे, अनेक लोगों के साथ उनके शिष्य भी उनके विरोधी हो गए थे और अन्तिम परिणाम क्या हुआ? उनको क्रॉस पर लटका दिया गया। आज उसी ईसा मसीह के नाम पर ईसाई धर्म फैला हुआ है। जब उसे फाँसी के तख्ते पर लटका दिया, तब पहचाना नहीं और जब वे अंतिम साँस ले चुके तब उनके नाम का ढोल पीटते हैं।
मैंने हदीश में पढ़ा है कि जिस समय हजरत मुहम्मद साहब इस्लाम धर्म का प्रचार कर रहे थे, तो उनके दो चाचा उनके विरोधी हो गए। दोनों चाचा साहब ने इस्लाम धर्म को स्वीकार नहीं किया। एक ने कहा-‘वे जो करते हैं, करने दो; लेकिन हम तो उनके धर्म को स्वीकार नहीं करेंगे’, पर दूसरे चाचा इतने कट्टर विरोधी हुए कि उन्होंने हजरत मुहम्मद साहब को दाने-दाने के लिए मोहताज कर दिया।’
संत पलटू साहब को जलती आग में झोंक दिया गया। संत तबरेज की खाल खींच ली गई। मंसूर हल्लाज को शूली पर चढ़ा दिया गया। मीराबाई और सुकरात को जहर पिलाया गया। हमारे गुरु महाराज को कुछ सत्संगी भाई सत्संग-प्रचार के लिए एक जगह ले गए थे। आम के बगीचे में फूस की बड़ी अच्छी झोपड़ी थी। सत्संगी लोगों ने उसी में बड़े आदर के साथ उन्हें रखा। रात को जब सब लोग सो गए, तो विरोधियों ने उस घर में ही आग लगा दी; लेकिन गुरु महाराज बाल-बाल बच गए। किसने पहचाना संत को! इसीलिए तुलसी साहब को कहना पड़ा-
“ जो कोइ कहै साधु को चीन्हा।
तुलसी हाथ कान पर दीन्हा ।।”
सच्चे संत की शरण में रहने वाले अपना कल्याण करते हैं और दूसरे का भी कल्याण करते हैं। संत कबीर साहब का वचन है-
“ संत शरण जो पड़ा, ताहि का लगा ठिकाना ।
और कहीं नहीं कुशल, सकल बैराट चबाना ।।”
जब संतों की संगति करते हैं, तो क्या होता है? संत के शरीर से जो नैसर्गिक आभा निकलती है, वह संगति करनेवालों में प्रवेश करती है। उनकी कुवृत्तियों को, संत सतोगुण में परिवर्तित कर देते हैं, मन को निर्मल बना देते हैं। वस्तुतः जबतक मन में मल भरा रहता है, तबतक प्रभु की प्राप्ति नहीं होती है।
संतों के संग में जाओ, तो ऐसा नहीं कि तन कहीं और मन कहीं। तन के साथ मन को भी नियोजित करके रखो। नहीं तो-
“ मन तो रमै संसार में, तन साधुन के संग ।
तुलसी याहि वियोग ते, नहिं लागा हरि रंग ।।”
-संत तुलसीदास
संत कबीर साहब कहते हैं-
“ कबीर संगत साध की, ज्यों गंधी का वास ।
जो कुछ गंधी दे नहीं, तौ भी बास सुवास ।।”
गंधी की दूकान पर जाएँ, दूकानवाले आपको कुछ भी नहीं दे, तौ भी गंध आपके पास जरूर आएगी। उसी तरह यदि संत एक शब्द भी नहीं बोलें, तो भी उनकी ओर अपना मन लगाकर रखो। उनकी आभा तुममें प्रवेश करेगी और तुम पवित्र हो जाओगे।
सहजो बाई अपने गुरु चरण दासजी महाराज के पास गई। अपने गुरु के श्रीचरणों में प्रणाम किया। बोलना तो दूर रहा, उनके गुरुदेव ने आँखें ही बंद कर ली। हमलोग अपने गुरु महाराज के पास जाएँ और प्रणाम करें, तब यदि वे आँख बंद कर लें, तो हम क्या समझेंगे? यही समझेंगे कि गुरु महाराज हमसे असंतुष्ट हैं, हमारी ओर देखना तक नहीं चाहते; लेकिन सहजो बाई क्या कहती है-
“ सहजो गुरु परसन्न ह्वै, मून्द लियो दोउ नैन ।
फिर मोसूँ ऐसे कही, समझ लेहु यह सैन ।।”
अर्थात् गुरु महाराज का यह इशारा है कि आँखें बंदकर ध्यान करो। इसलिए संतों की संगति करो। भगवान श्रीराम ने शबरीजी से कहा था-
“ प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
दूसरी रति मम कथा प्रसंगा ।”
संतों के पास जो कथा या हरि-चर्चा हो उसमें रति रखो, प्रेम करो। प्रेम के साथ सुनो। अन्यथा सुनने की कोई कीमत नहीं। किसी भी बात को हम इसलिए सुनते हैं ताकि उसे ग्रहण कर सकें, आचरण में ला सकें। आचरण में लाकर ही कुछ पाना हो सकता है। सुनने का अर्थ हुआ ग्रहण करना अर्थात् कर्त्तव्य में लाना और जब कर्त्तव्य करेंगे, तो परिणाम जरूर मिलेगा। नहीं तो कहावत है-‘जिस गली में हमको जाना नहीं, उस गली के पता से हमको क्या लेना।’ यानी जो काम हमको करना नहीं है, उसको सुनकर हम क्या करेंगे।
संतों की संगति में जब हम कथा-प्रसंग सुनेंगे, तो हमारे मन में स्वाभाविक ही यह बात उदय होगी कि हमको भी ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए। भक्ति किस तरह करनी चाहिए, यह जानने के लिए गुरु की आवश्यकता होती है। गुरु ईश्वर भक्ति करने की कला सिखाएँगे। संत सामूहिक शिक्षा देते हैं और गुरु व्यक्तिगत रूप से शिक्षा-दीक्षा देते हैं।
तीसरी भक्ति है-‘गुरु पद पंकज सेवा’ सेवा करो, तो किस तरह? ‘अमान’ अर्थात् मानरहित होकर। जो गुरु की सेवा में जाते हैं और मान खोजते हैं, तो उसके लिए संत कबीर साहब चेतावनी देते हैं-
“ अहं अग्नि हृदय जरै, गुरु से चाहै मान ।
तिनको यम न्योता दिया, हो हमरे मेहमान ।।”
इसलिए मानरहित होकर निश्छल भाव से गुरु की सेवा करो।
“ चौथी भगति मम गुण गन ।
करइ कपट तजि गान ।।” कपट छोड़कर परमात्मा का गुनगान करो, लोगों को दिखलाने के लिए नहीं। बंगाल में एक महात्मा हुए राम प्रसाद सेन। उन्होंने कहा-
“ जाँक जमके कर्ले पूजा। अहंकार हय मने मने ।
तुमि लुकिये ताँर कर्बे पूजा। जानबे ना रे जगज्जने ।।”
छिपकर पूजा-ध्यान करो, लोगों को दिखलाने के लिए नहीं।
“ मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा ।
पंचम भजन सो वेद प्रकासा ।।”
मंत्र जप में सबसे श्रेष्ठ मानस जप है। जिस नाम का हम जप करते हैं, तद्नुरूप इष्ट का रूप सामने आता है। इसलिए मानस जप के बाद मानस ध्यान होता है। हम जप करें, तो किस नाम का? संतों के यहाँ बड़ी उदारता है। संत दादू दयालजी एक फकीर हुए। उन्होंने कहा-
“ दादू सिरजनहार के, केते नाँव अनन्त ।
चित आवै सो लीजिये, यों सुमरै साधू संत ।।”
पर संत कबीर साहब कहते हैं-
“ मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।”
गुरु नानकदेवजी का भी ऐसा ही विचार है-
“ अंतरि गुरु आराधणा जिह्वा जपि गुर नाउ ।।
नेत्री सतिगुरु पेखणा स्त्रवणी सुनणा गुर नाउ ।।”
“ गुर की मूरति मन महि धिआनु ।
गुर के शबदि मंत्र मनु मानु ।।
गुरु के चरन रिदै लै धारउ ।
गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारउ ।।”
एक स्थूल ध्यान होता है और दूसरा सूक्ष्म ध्यान। स्थूल ध्यान के लिए संतों ने बतलाया कि ऐसा ध्यान करो कि ‘फनाफिल मुर्शिद बन जाओ’ अर्थात् गुरु पर अपने को फना कर दो। सूक्ष्म ध्यान में संत लोग दृष्टिसाधन की क्रिया कर ‘फनाफिल रसूल’ हो जाते हैं। वैदिक धर्म में जिसको क्रमशः दृष्टिसाधन और नादानुसंधान कहते हैं, सूफी फकीर उसे सगलेनसीरा और सुल्तानुलउलजकार कहते हैं। जो नादानुसंधान की क्रिया करते हैं, वे फनाफिल अल्लाह हो जाते हैं अर्थात् वे प्रभु को पाकर प्रभु ही हो जाते हैं। छठी भक्ति दृष्टि साधन की क्रिया और सातवीं भक्ति मनोनिग्रह की क्रिया है। इसमें शम और दम दोनों की साधना होती हैै। किसी फकीर ने नादानुसंधान के संबंध में कितना अच्छा कहा है-
“ गोश बातिन हो कुशादा जो करै कुछ दिन अमल ।
ला इलाह अल्लाह हो अकबर पै जाने के लिए ।।”
नादानुसन्धान करने से भीतर का कान खुल जाता है। बाहर के कानों से उस आवाजे-गैब (ब्रह्मनाद) को नहीं सुन सकते। उसे भीतर के कान से सुनते हैं। जो कुछ दिनों तक दृष्टिसाधन करता है, उसके भीतर का कान खुलता है और तब वह भीतर की आवाज को सुनता है। वह आवाज कहाँ तक ले जाती है? ‘ला इलाह अल्लाह हो अकबर पै जाने के लिए’-वह शब्द परम प्रभु परमात्मा के पास ले जाता है। प्रभु को प्राप्त कर लेता है, आत्म-स्वरूप को प्राप्त कर लेता है और उसकी साधना पूरी हो जाती है। जीवात्मा परमात्मा से मिलकर एक हो जाता है, फिर कभी बिछुड़ना नहीं होता है।
“ न पल बिछुड़ै पिया हमसे, न हम बिछुड़ें पियारे से ।
उन्हीं से नेह लागी है , हमन को बेकरारी क्या ।।”
-संत कबीर साहब
भगवान श्रीराम ने स्पष्ट बतलाया है कि जो शम की साधना करते हैं, वे ही समता प्राप्त कर सकते हैं।
“ आठवँ जथा लाभ संतोषा।
सपनेहु नहिँ देखइ पर दोषा।।”
उसको संतोष-ही-संतोष होगा। स्वप्न में भी वह दूसरे का दोष नहीं देखेगा। जो सब में एक-ही- एक ब्रह्म को देख रहा है, वह दूसरे का दोष क्यों देखेगा?
“ नवम सरल सब सन छल हीना।
मम भरोस हिय हरस न दीना।।”
अर्थात् वह सबके प्रति सरल हो जाएगा। वह हृदय में हर्ष या शोक न लाकर एक ईश्वर पर विश्वास करनेवाला हो जाएगा।
शबरी इन नौ प्रकार की भक्तियों में कुशल थी, पारंगत थी। इसलिए भगवान श्री राम ने उनको कह दिया था-‘सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।’ अन्त में शबरी की कितनी अच्छी गति होती है। सुनिये-
“ कहि कथा सकल बिलोकि ,
हरिमुख हृदय पद पंकज धारे ।
तजि योग पावक देह हरिपद ,
लीन भई जहँ नहिं फिरै ।।”
शवरी ने लकड़ी की अग्नि में नहीं, बल्कि योगाग्नि में शरीर को छोड़ा और हरि के उस पद में लीन हो गई, जहाँ से कोई लौटता नहीं। उसको मुक्ति मिल गई। जो कोई इस तरह की भक्ति करेंगे, वे आवागमन के चक्र से छूटकर मुक्त हो जाएँगे। यही नवधा-भक्ति का सार है।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन गोड्डा जिला विशेषाधिवेशन के अवसर पर पथरगामा ग्राम में दि0 15-03-1989 ई0 को अपराह्णकालीन सत्संग में हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, मार्च 2007 ई0)


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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
आज विश्व में बहुत प्रकार के धर्म फैले हुए हैं। यदि उन सभी धर्मों को समेटकर हम देखना चाहेंगे, तो देख सकेंगे कि तीन धर्म के लोगों की संख्या अधिक है-ईसाई धर्म, इस्लाम धर्म और वैदिक धर्म। इन तीनों धर्म की आरंभिक शिक्षा जब प्रारंभ होती है तभी से ईश्वर का ज्ञान दिलाया जाता है। वर्णमाला में ही ईश्वर का ज्ञान समाहित रहता है। पंजाब के एक संत हुए गुरु नानकदेवजी महाराज। वे जिस समय छोटे थे, उनके पिताजी ने एक मौलवी साहब के पास उनको पढ़ने के लिये भेजा। मौलवी साहब उनको पढ़ाने लगे। पढ़ो-‘अलीफ’, ‘वे’। गुरुनानकदेवजी ने पूछा-‘अलीफ’ का क्या अर्थ होता है? मौलवी साहब ने कहा-‘अलीफ’ का मतलब होता है ‘एक’। पुनः गुरुनानकदेवजी ने पूछा-‘बे’ का क्या अर्थ होता है? मौलवी साहब ने कहा-‘बे’ का अर्थ होता है‘दूसरा’। उन्होंने कहा-‘मौलवी साहब! पहले मुझे एक को जान लेने दीजिए, तब हम दूसरे को जानेंगे।’ वह ‘एक’ क्या है? वह एक परब्रह्म परमात्मा है और दूसरा क्या हैै? दूसरा यह संसार है। इस्लाम धर्मावलम्बी उर्दू, फारसी में पढ़ते हैं-‘अलीफ’ वह अलीफ एक ईश्वर का ज्ञान देता है। और उसकी आकृति भी एक लकीर- खड़ी रेखा के समान होती है। यह खड़ी रेखा बतलाती है कि ईश्वर एक है। जब हम अंग्रेजी पढ़ने के लिये जाते हैं तो वहाँ पढ़ते हैं-‘A , B' इधर है अलीफ, बे और उधर है ‘A , B'. A का अर्थ भी होता है एक। यह ईसाई धर्म भी सिखलाता है-पहले एक को जानो। हमारे वैदिक धर्म की पढ़ाई भी शुरु होती है ‘अ’ से। ‘अ’ है स्वर। बिना स्वर के व्यंजन का उच्चारण नहीं होता और सभी स्वर में व्यंजन मिला हुआ रहता है। उसी तरह से परब्रह्म पामात्मा एक है। वह सबमें व्यापक है। पूरे विश्व में व्यापक है। बिना स्वर के व्यंजन का उच्चारण तक नहीं हो सकता। उसी तरह परब्रह्म परमात्मा के बिना यह सृष्टि नहीं हो सकती।
आप किसी मजहब, किसी भी धर्म के क्यों न हों, सबमें यही ज्ञान है कि एक ईश्वर को जानो। संत सुन्दरदासजी महाराज कहते हैं-
“ एक सही सबके उर अन्तर ,
ता प्रभु कूँ कहु क्यूँ नहीं ध्यावै ।
संकट माहिं सहाय करै पुनि ,
सो अपनो पति क्यूँ बिसरावै ।।
चारि पदारथ और जहाँ लौं,
आठहु सिद्धि नवो निधि पावै ।
सुन्दर छार पड़े तिनके मुख ,
जो हरि कूँ तजि आन कूँ ध्यावै ।।”
यह संतमत उसी एक ईश्वर की भक्ति करने के लिये बतलाता है।
एक जगह मैं सत्संग करने गया हुआ था। वहाँ एक B.D.O साहब मुझसे भेंट करने आये। वे मुसलमान थे। उन्होंने अपना परिचय दिया। और लोग भी उनेक साथ थे। मैंने B.D.O साहब से पूछा-‘आप इस्लाम धर्म के माननवाले हैं, तब तो आप पंचबख्ती नमाज अदा करते होंगे?’ उन्होंने कहा-‘मुझे जनसेवा से फुर्सत कहाँ है। और जनसेवा से बढ़कर कोई और सेवा हो भी क्या सकती है?’ मैंने उनसे पूछा-‘आप कुरान शरीफ भी पढ़ते हैं? आपका तो वह धर्मग्रन्थ है।’ उन्न्होंने कहा-‘हाँ, फुर्सत के दिनों में कभी-कभी पढ़ लेता हूँ।’ मैंने उनसे पूछा-‘कुरान शरीफ में सबसे बड़ा किनको बतलाया गया है? B.D.O साहब ने कहा-‘सबसे बड़ा अल्लाह को बतलाया गया है।’ तब मैंने पुनः उनसे पूछा-‘जब सबसे बड़ा अल्लाह को बतलाया गया है, तो अल्लाह की खिदमत सबसे बड़ी होगी कि जनसेवा सबसे बड़ी होगी?’ उन्होने कहा-‘अल्लाह की खिदमत सबसे बड़ी होगी।’ मैने कहा- B.D.O साहब कयामत के दिन के लिये आप पंचबख्ती नमाज अदा कीजिए। उसमें आपका दीन बनेगा। और आप B.D.O साहब तो हैं ही। जनसेवा करते ही हैं। अतः वह भी कीजिये तो आपकी दुनिया भी बनेगी। उन्होंने कहा-‘अच्छा बाबा! अब से मैं अवश्य नमाज पढ़ूँगा।’ किसी भी तरह भक्ति करो। नमाज पढ़ो, Prayer करो, स्तुति-प्रार्थना करो एक ही बात है, कोई भिन्नता नहीं है। लेकिन करो।
भक्ति किस तरह की होती है, उसी का वर्णन भगवान् राम शवरी के सामने करते हैं। वे बतलाते हैं भक्ति नौ प्रकार की होती है। जहाँ भक्ति होती है वहाँ उसके पास त्रिपुटी रहती है। भक्ति जहाँ रहेगी तो, भक्ति करनेवाला कोई होगा और जो भक्ति करेगा तो वहाँ लक्ष्य होगा किसी को पाने के लिये। भक्ति, भक्त, भगवन्त; ये तीनों रहेंगे। तीनों में से एक को निकाल दीजिये दोनों की स्थिति समाप्त हो जायेगी। भक्त नहीं है, भक्ति कौन करेगा, और किसकी भक्ति करेगा? भगवान् की। भक्ति करनेवाला जो होगा, वह भक्त होगा। जो क्रिया होगी वह भक्ति होगी। जिसकी भक्ति होगी वे भगवान् होंगे। भक्ति, भक्त और भगवन्त यह त्रिपुटी है। भगवान राम कितनी ऊँची बात कहते हैं-‘प्रथम भक्ति सन्तन्ह कर संगा।’ लोग समझते हैं कि जब भगवान् के दर्शन हो गए तो बाकी क्या रह गया। लेकिन भगवान् स्वयं कहते हैं, मेरे ही दर्शन से तुम्हारा काम पूरा नहीं होगा। तुम संतों के दर्शन करो, उनका संग करो। संत और भगवन्त दोनों में अंतर नहीं है, लेकिन किसी-किसी स्थल पर अन्तर हो भी जाता है। भगवन्त जो अवतार लेते हैं वे किसी कार्य विशेष के कारण अवतार लेते हैं और कार्य सम्पन्न करके चले जाते हैं।
“ यदा-यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानम् धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।
परित्रणये साधूनां विनाशाय च दृष्कृताम् ।
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे ।।”
गोस्वामी तुलसीदासजी ठीक इसी का अनुवाद करते हैं-
“ जब जब होइ धरम की हानी ।
बाढ़हि असुर अधम अभिमानी ।।
करहि अनीति जाइ नहिं बरणी ।
सीदहि विप्र धेनु सुर धरणी ।।
तब तब धरि प्रभु विविध शरीरा ।
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा ।।”
दुष्टों का संहार करने के लिये भगवान् का अवतार होता है। भगवन्त दुष्टों का संहार करते हैं और संत दुष्टों का सुधार और उद्धार करते हैं। वे दुष्टों का संहार नहीं करते, बल्कि उनकी जो दुष्प्रवृत्तियाँ हैं, उनका संहार करते हैं। संत भगवन्त में यही अन्तर है। भगवान् श्रीराम तो यहाँ तक कहते हैं-‘मोते अधिक संत करि लेखा।’ मुझसे बढ़कर संत को जानो और मानो। लेकिन संत किनको कहेंगे-
“ कपड़े रंग कर जो न कपट का जाल बिछावै ।
तन पर जो न विभूति पेट के लिये लगावै ।।
हमें चाहिये सच्चा जी वाला वह साधू ।
देश जाति जग हित कर जो नित जनम गँवावे ।।”
संत कैसे होते हैं? संत और पारस में यह अन्तर जान, वह लोहा सोना करे वह कर ले आप समान। पारस लोहे को सोना बना सकता है। पारस नहीं बना सकता। लेकिन जो संत होते हैं वे लोहा को पारस बना देते हैं फिर पारस को अपने समान बना देते हैं। अर्थात् जो जड़ बुद्धिवाले अज्ञानी हैं उनको ज्ञान देते हैं। उनको ज्ञान-ध्यान देकर अपने समान बना देते हैं। ऐसे संत होते हैं। उपनिषद में आया है-
“ भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्व संशया ,
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन दृष्टे परावरे ।”
जिनके हृदय की ग्रंन्थि छिन्न हो गयी है, जड़ चेतन की ग्रन्थि टूट गयी है; जिनके सभी संशय समूल नष्ट हो गये हैं। जिनके कर्म उनके बंधन देने के लिये नहीं रह गये हैं। जिनकी दृष्टि परे-से-परे चली गयी है। परे से परे क्या है? जड़ के परे चेतन है। चेतन के परे परब्रह्म पर जिसकी दृष्टि चली गयी है। पिण्ड के परे ब्रह्माण्ड है। ब्रह्माण्ड के परे जिसकी दृष्टि गयी हो। क्षर के परे अक्षर, अक्षर के परे पुरुषोत्तम पर जिसकी दृष्टि चली गयी हो। असत् के परे सत् है सत् के ऊपर जिसकी दृष्टि चली गयी हो। सगुण के परे निर्गुण है। निर्गुण के परे जिसकी दृष्टि चली गयी हो।
“ सर्गुन की सेवा करो, निर्गुण का कर ज्ञान ।
सर्गुन निर्गुन के परे, तहाँ हमारा ध्यान ।।”
जो सगुण निर्गुण के परे चले गये वे संत होते हैं। संस्कृत में जिनको हम सन्त कहते हैं। अंग्रेजी में उन्हीं को Saint कहते हैं। वास्तव मे Saint जो होते हैं उनमें सेंट (खुशबू) होती है। सेन्ट का दूसरा अर्थ सुगन्ध भी होता है। जो संत होते हैं उनमें सेंट अर्थात् सुगन्ध होती है। वह सुगन्ध क्या होती है? वह सुगन्ध सदाचार की होती है। अर्थात झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार इन पंच पापों से वे विरत रहने वाले हैं। एक ईश्वर पर वे अनुरक्त रहनेवाले होते हैं। सत्संग और ध्यान करनेवाले होते हैं। सदाचार का पालन करनेवाले होते हैं। जिनको हम संस्कृत में संत, अंग्रेजी में Saint कहते हैं। फारसी में उन्हीं को हम फाकीर कहते हैं। फकीर हम कैसे कहते लिखते हैं?-फे का रे-फकीर। फे का अर्थ होता फांका अर्थात् उपवास। जो खुदा का निकट निवास करता है वह है फकीर। -का अर्थ होता है-। शेख सादी ने कहा है-कनायत तमंग कुनद मरदरा, ---------- गरदरा अर्थात् जो संतोषी होते हैं। कितने संतोषी होते हैं। कबीर साहब संत थे फकीर थे। उन्होंने क्या कहा?
“ कबीर साईं मुझको, सूखी रोटी देय ।
चुपड़ी मांगत मैं डरुँ, कहीं रूखी छीन न लेय ।।”
रूखी में ही संतुष्ट है। चुपड़ी माँगने वे नहीं जाते। स्वाभाविक कमाई से जो मिल गया इसी में वे अपनी परवरिश करते हैं। जीवन गुजारते हैं। परमुखापेक्षी नहीं होते। दूसरों के आगे हाथ नहीं पसारते। -------रे रात यादे इलाही। प्रभु की याद में वे बराबर रहते हैं। खुदा की याद में रात दिन रहते हैं। खुदा को प्राप्त किये हुए होते हैं। फिर लोगों में आदर्श देने के लिये इसका रियाज करते हैं। अर्थात् अभ्यास करते हैं। ध्यान करने के लिये वे भी बैठते हैं। जबकि उनको कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि वे तो खुदा को पा चुके हैं। फिर भी उनका आदर्श लेकर दूसरे लोग अभ्यास करेंगे। प्रभु को पायेंगे। प्रभु को किस तरह पायेंगे-इसी को बताने के लिये वे भी बैठकर ध्यान करते हैं। ऐसे को संत कहते हैं। लेकिन ऐसे संतों की ऐसे फकीरों की पहचान बहुत कठिन है। बल्कि जिस समय में ऐसे संत फकीर लोग हुए हैं बहुत कम लोगों ने उनकी पहचान की है। अधिक लोगों ने तो उनके उपर गंदगी ही उड़ेली है। जिस समय प्रभु ईशा मसीह हुए थे-उनके कितने विरोधी हो गये थे। यहाँ तक कि उनके शिष्य भी उनके विरोधी हो गये थे। और ईशा मसीह को अन्तिम परिणाम क्या मिला? यही मिला कि उनको क्रॉस पर लटका दिया गया। जब अन्तिम सांस ले ली तब उनके नाम का ढोल पीटते हो। इतने दिन तक तुम्हारी बुद्धि कहाँ गयी थी। तुमने फाँसी के तख्ते पर लटका दिया। पहचान नहीं की। जिस समय संत होते हैं, उनके पक्ष के लोग तो कम ही होते है, विरोधी अधिक होते हैं। मैंने हदीश पढ़कर देखा है उसमें लिखा है-जिस समय हजरत मुहम्मद साहब हुए थे, उनके भी बहुत विरोधी थे। जब ये इस्लाम धर्म का प्रचार कर रहे थे, तो और की बात जाने दीजिए उनके दो चाचा भी उनके विरोधी हो गये थे। इनके दोनों चाचा साहब ने तो इस्लाम धर्म को ही नहीं स्वीकार किया, बल्कि एक ने तो कहा-अच्छा करता है तो करने दो, लेकिन हम तो स्वीकार नहीं करेगे। और दूसरे इतने कट्टर विरोधी हुए कि हजरत मुहम्मद साहब को दाने-दाने के लिये मोहताज कर दिया। संत पलटू साहब को जलती हुई आग में झोंक दिया। मंसूर को शूली पर चढ़ा दिया गया। मीराबाई को जहर का प्याला पिला दिया गया। हमारे गुरु महाराज को कुछ सत्संगी भाई ले गये थे सत्संग प्रचार के लिये। आम के बगीचे में उनका निवास था। फूस की बड़ी अच्छी कुटिया थी। ‘सत्संगी लोगों ने बड़े आदर के साथ रखा था। जब रात में सब लोग सो गये तो जो विरोधी थे उन्होंने घर मे ही आग लगा दी। और आग भी लगाई तो ठीक सामने मुँह पर ही कि किस तरह निकलेंगे। किसने पहचाना संत को। इसलिये तुलसी साहब को कहना पड़ा-
“ जो कोई कहे साधु को चीन्हा ।
तुलसी हाथ कान पर दीन्हा ।।”
संतों की पहचान सहज नहीं है। जिन्होंने संतो ं की पहचान की, उनकी शरण ग्रहण की। संत शरण जो पड़ा ताहि का लगा ठिकाना, और कहीं नहीं कुशल सकल बैराट चबाना। सब काल के गाल में चले गये। दूर की बात ही जाने दीजिये मीराबाई को उनके ही परिवारवालों ने जहर का प्याला पिलाया। लेकिन जिसने जहर का प्याला दिया, वह तो कब का रसातल में चला गया पता नहीं; परन्तु मीराबाई आज भी अमर है और जबतक सृष्टि रहेगी, तबतक मीराबाई अमर रहेगी। उसको कौन मारेगा?
जो संतों का संसर्ग करते हैं, उनकी शरण में जाते हैं, उनकी संगति करते हैं, तो क्या होता है? उनके शरीर से जो नैसर्गिक आभा निकलती है वह उसमें प्रवेश करती है। जिनमें कुवृत्तियाँ होती हैं, तमोगुणी वृत्ति होती है उसको रजोगुणी में और रजोगुणी से सतोगुणी में परिवर्तित कर देते हैं। हमारे मन को निर्मल बना देते हैं। मलाहार पहुँचा देते हैं। मलाहार-जहाँ पर मल ही नहीं है। हरण किया हुआ है, जिसका मन। इतना पवित्र होता है। जबतक मल रहेगा, तबतक प्रभु की प्राप्ति नहीं होगी। जब मन निर्मल हो जायेगा, तभी प्रभु की प्राप्ति होगी।
संतो ं के संग में जाओ, तो ऐसा नहीं कि तन कहीं और मन कहीं। तन के साथ मन को भी नियोजित करके रखो। नहीं तो-
“ मन तो रमे संसार में तन साधुन के संग ।
तुलसी याहि वियोग ते नहिं लागा हरि रंग ।।”
तब रंग नहीं लगेगा। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ कबीर संगत साध की ज्यों गंधी का वास ,
जो कुछ गंधी दे नहिं तो भी वास सुबास ।”
गंधी कुछ भी नहीं दे, चुपचाप बैठे रहे तो भी गंध तुम्हारे पास जरूर आयेगी। उसी तरह संत यदि एक शब्द भी बोले नहीं, तो भी उनकी ओर देखते रहो। उनकी ओर अपना मन लगाकर रखो। उनकी आभा तुममें प्रवेश करेगी और तुम पवित्र हो जाओगे।
सहजोबाई अपने गुरु चरणदासजी के पास गयीं। सहजोबाई अपने गुरु के श्रीचरणों में प्रणाम करती है, तो उनके गुरु आँख बंद कर लेते हैं। बोलना तो दूर रहा, आँख ही बंद कर लेते हैं। हमलोग अपने गुरु महाराज के पास जायें और प्रणाम करें-यदि गुरु आँख बंद कर लेते हैं, तो हम क्या समझेंगे। गुरु महाराज हमारी ओर देखना तक नहीं चाहते, बोलना तो दूर की बात है। लगता है हमसे नाराज हैं। लेकिन सहजोबाई क्या कहती है-
“ सहजो गुरु परसन्न ह्वै मूंद लियो नैन ।
फिर मोसूँ ऐसे कही समझ लेहि यह सैन ।।”
गुरु महाराज का इशारा यह है कि आँख बंद कर ध्यान करो। इसलिये संतो ं की संगति करो। ‘प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा, दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ।’ जो कथा चर्चा हो, उसमें रति करो अर्थात प्रेम करो। सुनो प्रेम के साथ। ऐसा नहीं कि इस कान से सुनो और उस कान से निकाल दो। तब तो कीमत भी नहीं होगी। किसी भी बात को हम इसलिये सुनते हैं उसको आचरण में लायें। आचरण में इसलिये लाना चाहते हैं कि कुछ पाना भी है। तो सुनने का अर्थ है ग्रहण करना अर्थात् कर्त्तव्य में लाना। और जब कर्त्तव्य करेंगे तो उसका फल परिणाम जरूर मिलेगा। नहीं तो कहावत है जिस गली में हमको जाना नहीं उस गली के पता से हमको क्या मतलब। जो काम हमको करना ही नहीं है, उसको सुनकर हम क्या करेंगे। सुनते तो इसलिये हैं कि हमको करना है और करने का अर्थ है हमको पाना है।
एक राजा के दरबार में तीन मूर्तियाँ लायी गयीं। कारीगरों ने तीनों मूर्तियाँ रखीं। राजा ने कहा-तीनों की कीमत बतलाओ? कारीगर ने कहा-एक की कीमत तो कुछ भी नहीं है। दूसरी की कीमत एक कौड़ी है और तीसरी की कीमत तो अनमोल है। कौन इसकी कीमत दे सकता है? राजा ने अपने मंत्री को बुलाया और कहा तीनों मूर्तियाँ देखो। कारीगर तीनों का तीन तरह की कीमत बतलाता है। मंत्री ने तीनों मूर्तियों के द्रव्य को देखा। तीनों का वजन कराया, तो तीनों का वजन भी एक ही है। कला की दृष्टि से देखने पर तीनों की कला भी एक ही है। सब कला एक ही है एवं देखने में तीनों मूर्ति एक ही फिर भी कीमत तीनों की तीन तरह की क्यों हो गयी? मंत्री के मन में सन्देह हुआ कि बात क्या है? तब मंत्री ने एक सींकी ली और एक मूर्ति के कान में डाली, तो सींकी दूसरे कान से बाहर निकल गयी। दूसरी मूर्ति के कान में डाली, तो वह सींकी मुँह के रास्ते से निकल गयी। और तीसरी मूर्ति के कान में डाली, तो वह सींकी भीतर हृदय तक चली गई। तब मंत्री ने राजा से कहा-ठीक ही तीनों की कीमत तीन तरह की रखी गयी है।
एक आदमी वह होता है जो इस कान से सुनता भी है और उस कान से निकाल देता है, इसलिये इसकी कोई कीमत नहीं है। दूसरा वह जो कान से सुनता है कुछ याद रखता है और सब मुँह से कहता है। इसलिये इसकी कीमत एक कौड़ी है। तीसरा वह जो सुनता है और हृदयंगम करता है, आचरण में लाता है इसलिये वह अनमोल है। ‘बातें हैं अनमोल नहीं एक-एक की।’ उनकी जो बातें होंगी, वे भी एक-एक अनमोल ही होंगे। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।
जब हम कथा प्रसंग सुनेंगे, तो हमारे मन में स्वाभाविक ही यह बात होगी कि हमको भी ईश्वर की भक्ति करनी चाहिये। गुरु भक्ति करने की कला सिखायेंगे। संत वे होते हैं जो सामूहिक शिक्षा देते हैं। गुरु व्यक्तिगत हमको शिक्षा देते हैं। जो हमें शिक्षा देते हैं, दीक्षा देते हैं वे हमारे गुरु कहलाते हैं। ऐसे गुरु की हम खोज करेंगे, जो व्यक्तिगत रूप से हमको समझानेवाले हों और दीक्षा देनेवाले हों। तीसरी भक्ति गुरु पद पंकज सेवा। सेवा करो तो किस तरह अर्थात् मान-रहित होकर सेवा करो। गुरु के पास जाते हो और मान खोजते हो तो संत कबीर साहब चेतावनी देते हैं-
“ अहं अग्नि हृदय जरै, गुरु से चाहे मान ।
तिनके यम न्योता दिया, हो हमारे मेहमान ।।”
तब तो यमालय जाना ही होगा। इसलिये मान-रहित होकर प्रभु की सेवा में जाओ। निश्छल भाव से गुरु की सेवा करो। चौथी भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान। मान कपट छोड़कर गुनगान करो। लोगों को दिखलाने के लिये नहीं। रामप्रसाद सेन बंगाल में एक महात्मा हुए। उन्होंने कहा-
“ जाके जम के करले पूजा अहंकार होय मोने-मोने ।
तुमि लुकिये तार करिवे पूजा जानिवे ना रे जगज्जने ।।”
छिपकर पूजा करो, जप करो, लेकिन लोगों को दिखलाने के लिये नहीं। ‘मंत्र जाप मम दृढ़ विश्वासा, पंचम भजन सो वेद प्रकाशा।’ मंत्र जप में सबसे श्रेष्ठ है मानस जप। जिस नाम का हम जाप करते हैं, तद्नुरूप ब्र्रह्मरूप इष्ट हमारे सामने आयेगा। मानस जप के साथ मानस ध्यान सामने आ जायेगा। तब वह नाम छूट जायेगा और रूप हमारे सामने रह जायेगा। मानस जप के बाद मानस ध्यान हो जायेगा। फिर भी हमारी पूर्ण एकाग्रता नहीं होगी। एक बात और है, हम जप और ध्यान किसका करें? संतो के यहाँ बड़ी उदारता है। दादू दयालजी एक फकीर हुए। उन्होंने कहा-
“ दादू सिरजनहार के केते नाम अनन्त ।
चित्त आवै सो लीजिये यों सुमिरे साधु संत ।।”
संतों के दरबार में तो यही देखा जाता है-
“ मूल ध्यान गुरुरूप है, मूलपूजा गुरु पाँव ।
मूलनाम गुरुवचन है, मूल सत्य सतभाव ।।”
गुरुनानक देवजी महाराज कहते हैं-
“ अन्तरि गुरु आराधणा जिह्वा जपि गुरु नाउ ।।
नैत्री सतिगुरु पेखणा स्रवणी सुनणा गुर नाउ ।।
सतिगुर सेती रतिआ दरगह पाइअै ठाउ ।।”
“ गुरु की मूरति मन महि धियानु, गुर कै शबदि मंत्र मनु मानु ।
गुरु के चरण रिदै लै धारउ, गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारउ ।।”
यह शिक्षा है गुरु नानक देवजी की। ऐसा ध्यान करो, फनाफिल मुर्शिद बन जाओ। अर्थात् अपने को फना कर दो। अपनी सुध ही नहीं रहे फनाफिल मुर्शिद बन जाओ। मुर्शिद का ही चेहरा तुम्हारे सामने रहे। और कुछ भी नहीं रहे। जो फनाफिल मुर्शिद होते हैं वे ही जब दृष्टि साधन की क्रिया करते हैं तो फिनाफिल रसूल हो जाते हैं। जिसको दृष्टि साधन की क्रिया कहते हैं, उसको सूफी फकीर लोग सगले नसीरा कहते हैं और जो कोई नादानुसंधान की क्रिया करते हैं उनको वे लोग सुल्तान-उलजकार कहते हैं। जो नादानुसंधान की क्रिया करते हैं फिनाफिल अल्लाह हो जाते हैं। अर्थात् वे प्रभु को पाकर प्रभु ही हो जाते हैं। जो छठी भक्ति है वह दृष्टि साधन की क्रिया है। दमशील की क्रिया है, इन्द्रिय-निग्रह की क्रिया है। सातवीं भक्ति वह मनोनिग्रह की क्रिया है। शम और दम दोनों ही साधना इसमें है। जो नादानुसंधान की क्रिया करते हैं वे सारशब्द को पा लेते हैं।
किसी फकीर ने कहा-
“ गोश बातिन हो कुशादा जो करै कुछ दिन अमल ,
ला इला अल्लाह हो अकबर पे जाने के लिये ।”
उसके भीतर का कान खुल जाता है। वह इस कान से आवाज सुन सकता है। भीतर का कान खुल जाता है तो होता क्या है? ‘गोश बातिन हो कुशादा जो करै कुछ दिन अमल।’ जो कुछ दिन तक अभ्यास करता है, साधना करता है, तब उसके भीतर का कान खुलता है। जब भीतर का कान खुलता है तो भीतर की आवाज को वह सुनता है। वह आवाज कहाँ तक ले जाती है? ला इला अल्लाह हो अकबर पे जाने के लिये। सर्वश्रेष्ठ परमप्रभु परमात्मा जो है-उसके पास ले जाता है। परमप्रभु को प्राप्त कर लेता है, आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेता है।
“ इबादत है किसी नाशाद को फिर शाद कर देना ,
इबादत है किसी बरबाद को आबाद कर देना ।
यही सीखा है सागर हमने मुर्शिद के कदम छूकर ,
खुदा से हो अगर मिलना पता खुद का लगा लेना ।।”
जबतक खुद का पता नहीं लगेगा तबतक खुदा का पता नहीं लगेगा। स्थूल सूक्ष्म कारण महाकारण जड़ के ये चारों मंडल को पार करके कैवल्य मंडल में पहुँचा जायेगा। वहाँ आत्म-दर्शन होगा, फिर परमात्मा का दर्शन होगा आत्मा परमात्मा में मिलकर एक ही हो जायेगा।
“ न पल बिछुड़ै पिया हमसे, न हम बिछुड़े प्यारे से ।
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ।।”
नादानुसंधान की क्रिया से ही यह होगा। जो शम की साधना करते हैं, वे ही समता प्राप्त कर सकते हैं। जबतक शम की साधना नहीं हो, तबतक सम नहीं आ सकता। आठवीं और नवमी भक्ति में है-
“ खुश खाना है खीचड़ी माहि पड़ा टुक लोन ।
मांस पराया खाय कर गला कटावै कौन ।।”
और
“ आठवँ यथा लाभ संतोषा ,
सपनेहू नहिं देखइ परदोषा ।”
वह दूसरे का दोष को क्यों देखेगा। वह तो सबमें एक ही एक ब्रह्म को देख रहा है। आत्मा को देख रहा है। नवम सरल सब छल हीना। सबसे सरल हो जायेगा। वह किससे छल करेगा, कपट करेगा? सबमें एक ही एक आत्मा को देख रहा है। वह एक ईश्वर पर विश्वास करनेवाला होगा।
शबरी नवो भक्ति में कुशल थी, पारंगत थी। इसलिये भगवान् राम ने कहा-‘सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे ।’ अन्त में शबरी की क्या गति होती है?
“ कहि कथा सकल विलोकि हरिमुख हृदय पद पंकज धरे ।
तजि योग पावक देह हरिपद लीन भई जहँ नहिं फिरै ।।”
वह हरि के उस धाम में शरीर छोड़ती है। योगाग्नि में शरीर छोड़ती है। वह वहाँ जाती है, जहाँ से कोई आता नहीं है अर्थात् उसको मुक्ति मिल जाती है, नजात मिल जाती है। आवागमन का चक्र छूट जाता है। जो कोई इस तरह की नवधा भक्ति करेगा, उसकी भी भक्ति पूरी होगी। और एक दिन वह भी परम प्रभु परमात्मा से मिलकर एकमेव होकर आवागमन के चक्र में छूट जायेगा और मुक्त हो जायेगा।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन गोड्डा जिला संतमत-सत्संग विशेषाधिवेशन के अवसर पर ग्राम पथरगामा में दिनांक 16-03-1989 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, अप्रैल 2008 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द करुणामयी माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
विद्वान लोग कहा करते हैं कि बिना कारण के कार्य नहीं होता और किसी भी कार्य के संपादन के लिए कर्ता का होना भी अनिवार्य होता है, तो जिज्ञासा होती है कि यहाँ भी आज इस तरह बहुत लोग यत्र-तत्र से आकर एकत्र हुए हैं, इस एकत्रीकरण का कारण क्या है?
आषाढ़ पूर्णिमा के दिन व्यासदेवजी महाराज का आविर्भाव इस जगतीतल पर हुआ था, वे प्रकांड विद्वान थे। तपस्या भी उन्होंने की थी। अनेक ग्रंंथों का प्रणयन उन्होंने किया था। इनकी विद्वत्ता की सुगंध जब विदेशों में फैली, तो पारस से शास्त्रर्थ हेतु निमंत्रण आया इनके पास। व्यासदेवजी पारस गये और वहाँ उन्होंने शास्त्रर्थ कर विजय प्राप्त की। इन्होंने विश्व में अपने ज्ञान की पताका फहरायी। तब से ये विश्वगुरु कहलाये। इनके नाम पर गुरु-भक्त जन अपने-अपने गुरु के नाम पर आज की तिथि में उत्सव मनाते हैं। व्यासदेवजी की संज्ञा इसलिए पड़ी कि इन्होंने वेद का विभाग किया था। पराशर मुनि के पुत्र होने के कारण इनको पराशर्य भी कहते हैं। बादरायण भी इनका नाम है। सत्य भारत, सत्यरत और सत्यव्रत भी इनके नाम हैं। चूँकि द्वीप में इनका जन्म हुआ था और शरीर इनका कृष्ण वर्ण का था, इसलिए कृष्णद्वैपायन के नाम से भी ये विख्यात है। परम पूज्य गुरुदेव-रचित ‘श्रीगीतायोग प्रकाश’ में लिखा है कि ‘विश्व के पदबद्ध ग्रंथों में महाभारत सबसे विशेष स्थूलकाय है।’ और अद्भुत बात तो यह है कि इन्होंने अठारह पुराणों की रचना की। महाभारत के भी अठारह पर्व हैं। उन अठारह पर्वों में से भीष्म पर्व का एक छोटा- सा अंश है श्रीमद्भगवद्गीता। उसमें भी अठारह अध्याय है। कौरव और पांडव दोनों दलों की संख्या अक्षौहिणी थी। महाभारत युद्ध अठारह दिनों तक हुआ। आज तारीख भी अठारह जुलाई है, जिसकी याद बाबू श्री हुलासचन्द्र रुँगटा (अध्यक्ष, अ0भा0सं0 सत्संग महासभा) ने दिलायी है, जो भुलायी नहीं जा सकती। ये सब अठारह- अठारह क्या बतला रहे हैं? 18 यानी एक और आठ, (18) इस तरह हमलोग अठारह लिखते हैं। यह एक और आठ क्या है? गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने इसकी व्याख्या की इस भाँति की है-
“ तुलसी राम सनेह कर, त्याग सकल उपचार ।
जैसे घटै न अंक नौ, नौ के लिखे पहार ।।”
कितना भी आप पहाड़ा लिखिये, सबमें न्यूनाधिक होता रहेगा; लेकिन एक नौ का पहाड़ा है, जो घटने-बढ़ने के लिए नहीं जानता, सम रहता है, एकरस रहता है।
जैसे-नौ इकाई = नौ।
नौ दूने = अठारह । 1 और 8 = 18 । 1 + 8 = 9 ।
नौ तिये सत्ताइस । 2 और 7 = 27 । 2 + 7 = 9 ।
नौ चौके छत्तीस । 3 और 6 = 36 । 3 + 6 = 9 ।
नौ पचे पैतालीस । 4 और 5 = 45 । 4 + 5 = 9 ।
नौ छके चौवन । 5 और 4 = 54 । 5 + 4 = 9 ।
नौ सते तिरेसठ । 6 और 3 = 63 । 6 + 3 = 9 ।
नौ अठे बहत्तर । 7 और 2 = 72 । 7 + 2 = 9 ।
नौ नवें इक्यासी । 8 और 1 = 72 । 8 + 1 = 9 ।
नौ दहाई नब्बे । 9 और 0 = 90 । 9 + 0 = 9 ।
तो है ही। यह नौ क्या बतलाता है? एक ईश्वर का प्रतीक है यह। इसलिए गो0 तुलसीदासजी महाराज ने कहा-सब छोड़कर एक राम (ईश्वर) से स्नेह करो। आप विचार कर देखेंगे, तो राम में भी नौ अंक आते हैं। यथा-‘राम’ शब्द कैसे लिखते हैं? ‘र’ आकार ‘म’ = राम। य र ये दो अक्षर हुए। और आकार दीजिएगा तो अ आ ये दो अक्षर उसमें मिला दीजिए। 2 और 2 मिलाकर 4 हुए, और ‘म’ उसके आगे दीजिएगा, तो यह प वर्ग का पाँचवाँ अक्षर है। (प, फ, ब, भ, म) इस प्रकार 5 + 4 = 9। गोस्वामीजी ने विचार किया कि संस्कृत का प्रचार बहुत कम लोगों में है कम लोग ही इसको जानते हैं। इसलिए संस्कृत के क्लिष्ट शब्दों का व्यवहार नहीं कर सामान्य जन के लिए बोधगम्य सरल शब्द ‘राम’ को रखा। एक जमाना था, जबकि ‘ओ3म्’ के उच्चारण का अधिकार सबको नहीं था। कुछ इने-गिने वर्गों तक ही सीमित था। संत जन लड़ना-झगड़ना पसंद नहीं करते। इसलिए उन्होंने एक रास्ता निकाल लिया और कहा, ‘जिसको वेद, उपनिषद् आदि ब्रह्म अथवा ईश्वर कहते हैं, उसी को मैं राम कहता हूँ। इसकी सत्यता प्रमाणित करने के लिए उन्होंने कहा-
“ राम ब्रह्म परमारथ रूपा ।
अविगत अलख अनादि अनूपा ।।
सकल विकार रहित गत भेदा ।
कहि नित नेति निरूपहिं बेदा ।।”
अर्थात् वेद, जिसको ब्रह्म कहते हैं, मैं उसी को राम कहता हूँ। विवेक-विलोचन से अवलोकन करने पर बिल्कुल खरा उतरता है, सत्य जँचता है। आप देखेंगे-जैसे ‘राम’ में नौ अक्षर, नौ अंक हैं, उसी तरह ‘ब्रह्म’ में भी नौ अंक हैं। यथा-प, फ, ब में तीन। इस ब में र संयुक्त कर दीजिए। य और र ये दो हुए। 3 + 2 = 5 और ह आठवाँ अक्षर पड़ता है, इसमें म संयुक्त कीजिए। ‘म’ पाँचवाँ अक्षर है। इसलिए 8 + 5 = 13 और पहले का 5 । इस तरह 5 + 8 + 5 = 18। 1 + 8 = 9 । इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने ‘राम’ और ‘ब्रह्म’ को अद्वय सिद्ध कर दिया अर्थात् राम ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही ‘राम’ है। उस एक ब्रह्म का ज्ञान विश्व को देने के कारण व्यासदेवजी विश्व में विख्यात हो गये। विश्व-गुरु-जगत् गुरु हो गये। व्यास-पूजा ही गुरु-पूजा कहकर अभिहित की गयी है।
राम ही ब्रह्म है-ईश्वर है। ईश्वर शब्द हम कैसे लिखते हैं? दीर्घ ‘ई’, तालव्य ‘श् व’ संयुक्त और ‘र’। दो ह्रस्व के योग से एक दीर्घ ‘ई’ बनी है। ‘श्वर’ शब्द में ‘स्वर’ नहीं है, व्यंजन है। व्याकरण की दृष्टि से वह व्यंजन नहीं, बल्कि ‘श’ उष्म और ‘व, र’ अंतःस्थ है। इस प्रकार ‘ईश्वर’ में ह्रस्व, दीर्घ, स्वर, व्यंजन, अंतःस्थ, ऊष्मादि सभी हैं; किन्तु यह ह्रस्व, दीर्घ, स्वर, व्यंजन, अंतःस्थ, उष्मादि कुछ नहीं है। इस विषय की परिपुष्टि ब्रह्मांड पुराणोत्तर गीता इस भाँति करती है-
“ अघोषमव्यंजनमस्वरंच अतालुकण्ठोष्ठमनासिकञ्च ।
अरेफजातं परमुष्मवर्ज्जितं तदक्षरं न क्षरते कदाचित् ।।”
अर्थात् जो नाद-रहित, व्यंजन-रहित, स्वर- रहित, तालु-कण्ठ प्रभृति उच्चारण-स्थान-रहित, रेखा-रहित और ऊष्म वर्ण-रहित है, उसी को ब्रह्म कहकर जानो।।
इस ब्रह्म-ज्ञान की शिक्षा-दीक्षा हमारे पूज्य गुरुदेव ने हमलोगों को दी है। उन्हीं पूरे गुरु की स्मृति में आज आषाढ़ पूर्णिमा को उल्लासपूर्वक उत्सव मनाने के लिए हमलोग चिलचिलाती धूप में चलकर यहाँ आये, उनकी अनुकम्पा से शीतल मंद सुगंध पवन पाये। देखिये, अभी कैसी ठंढी-ठंढी हवा चलने लग गयी! यहाँ बिहार के प्रेमीगण तो बटोरकर इकट्ठे हुए ही हैं, इसके अलावा यहाँ हरियाणा, सहारणपुर, पंजाब, बंगाल, दिल्ली, नेपाल तरफ के लोग आये हुए हैं। इतनी लंबी दूरी तय करके आने का क्या उद्देश्य? यहाँ आने पर भी हमलोग आपलोगों को कुछ सुख-सुविधा नहीं दे सके। फिर भी आपलोग इसकी परवाह नहीं कर प्रसन्न मुद्रा में हैं और गुरु-पूर्णिमा समारोह का आनंद ले रहे हैं। यह क्या है? परम पूज्य गुरुदेव के प्रति आपलोगों की श्रद्धा का प्रतीक है। आज पार्थिव शरीर में हमारे गुरुदेव नहीं हैं, फिर भी जिस रूप में वे जहाँ कहीं भी हैं, उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए जहाँ-तहाँ से आये हुए हैं। हमारे गुरु महाराज की महिमा अद्भुत है, अनंत है, वर्णन कर अंत कौन कर सकता है? आप कहेंगे, अपने गुरु की बड़ाई करता है। बड़ाई की बात नहीं, यथार्थ बात कहता हूँ। वेद, उपनिषद्, संतवाणी आदि का जहाँ तक मैंने अध्ययन किया है, उस आधार पर मैं कह सकता हूँ कि साधना की क्रमबद्धता जो हमारे गुरुदेव की वाणी में है, अन्यत्र कहीं नहीं मिलती। हमें सच्चा ज्ञान सरल शब्दों में उन्होंने दिया है। एक ईश्वर पर विश्वास करो। उस ईश्वर की प्राप्ति अपने अंदर होगी। इसका दृढ़ निश्चय रखो। सत्संग करो, ध्यान करो, गुरु की सेवा करो। ये पंच विधि कर्म हैं। निषेध कर्म के लिए उन्होंने झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों सें विरक्त रहने का और प्रभु-पद में अनुरक्त रहने का प्रबल आदेश दिया है। साथ ही, उन्होंने यह भी कहा है-अपने जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करो। बाहर और भीतर दोनों तरहों से सत्संग करो।
“ धर्म कथा बाहर सत्संगा ।
अंतर सत्संग ध्यान अभंगा ।।”
परम पूज्य गुरुदेव के उपदेशों का सार थोड़े शब्दों में मैंने कहा। लोग पूछते हैं, स्वरूपतः ईश्वर कैसे हैं? उनसे निवेदन है कि ऋग्वेद में जिसको ‘अवाघ्मनस गोचर’ और शाण्डिल्योपनिषद् में जिसको ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’ कहा है, संत कबीर साहब ने उसी को ‘नैना बैन अगोचरी’ और गुरु नानकदेवजी महाराज ने ‘अलख अपार अगम अगोचर’ कहा है। ‘राम स्वरूप तुम्हार वचन अगोचर बुद्धि पर’ कहकर गोस्वामीजी ने जिस ओर संकेत किया है, संतप्रवर सूरदासजी ने ‘मन वाणी को अगम अगोचर’ शब्द से इंगित किया है। अब हम अपने गुरुदेव से जिज्ञासा चाहेंगे कि ईश्वर के संदर्भ में आप क्या कहना चाहेंगे? इसके समाधान में कितनी ऊँची बात और कितनी सरलता लिये हृदयस्पर्शी वाक्य वे कहते हैं, ‘प्रभु वरणन में आवै नाहीं ।’ वेद-उपनिषद् और संतों की वाणियों से हमारे गुरुदेव के वचन को आप मिलाकर देख लीजिए। सबके कहने की कला अपनी-अपनी भिन्न-भिन्न है;लेकिन जो कालातीत और देशकालातीत तत्त्व है, वह सबके लिए एक और अभिन्न है।
संत सूरदासजी महाराज से हम पूछते हैं-हमारे गुरुदेवजी महाराज ईश्वर-स्वरूप के संबंध में कह रहे हैं-‘प्रभु वरणन में आवै नाहीं।’ इस विषय में आपका क्या कथन है? इसकी सम्पुष्टि में आप कुछ कह सकते हैं? वे कहते हैं-बिल्कुल सही है। ‘अविगत गति कछु कहत न आवै ।’ पुनः उनसे हम पूछते हैं कि ‘कहने में क्यों नहीं आता?’ तो वे कहते हैं, ‘वह मुँह का विषय नहीं है। वाणी का विषय नहीं है। किसी भी इन्द्रिय का विषय नहीं है।’ जरा सोच- विचारकर देखिये, इन्द्रियों के द्वारा हम जिस-जिस विषय का उपभोग करते हैं, उसकी अनुभूति की अभिव्यक्ति की शक्ति हमारी जिभ्या में नहीं है। आजकल आम का समय है। मान लीजिए, मालदह और दशहरी-ये दोनों आम आपने खाये। आपसे पूछा जाता है-बतलाइये दोनों के स्वाद में क्या अंतर है? कैसा लगा? दोनों के स्वाद की भिन्नता को भाषा के द्वारा किसी को समझा सकते हैं? नहीं बतला सकते। जिसने जीवन में कभी नमक नहीं खाया है, क्या कोई उसको समझा सकता है कि नमक का स्वाद कैसा होता है? जबतक उसकी जिभ्या पर नमक की एक डली नहीं डाल दी जाए, तबतक वचन-द्वारा समझाकर उसको संतुष्ट नहीं किया जा सकता। उसी तरह ईश्वर के संबंध में कोई कह क्या सकता है! वह इन्द्रियातीत प्रभु आत्मानुभूति की वस्तु है। इसीलिए संत कबीर साहब ने कहा था-
‘जस कथिये तस होत नहिं, जस है तैसा सोय ।’
पुनः उनसे जिज्ञासा होती है कि- “ ईश्वर के संबंध में जैसा कहा जाता है, वैसा वह नहीं होता, वह जैसा का तैसा, ज्यों का त्यों ही रहता है तो फिर उसके संबंध में संतजन कहते सुनते क्यों है?” इसके समाधान में वे कहते हैं-
‘कहत सुनत सुख उपजै और परमारथ होय ।’
नहीं कहेंगे-सुनेंगे तो परमार्थ कैसे होगा? एक लघु कथा सुनिये-एक शिकारी जंगल में शिकार खेलने गया। उसने एक हिरण पर तीर चलाया। वह हिरण एक साधु की कुटिया होकर भागा। साधु ने देखा, एक शरविद्ध हिरण भागा जा रहा है और झाड़ी में जाकर छिप गया है। थोड़ी देर बाद व्याध उस साधु के पास आता है और पूछता है, ‘महात्मन्! शरविद्ध हिरण को इधर से जाते हुए आपने देखा है?’ साधुने सोचा, ‘यदि मैं सत्य कह देता हूँ, तो अकारण ही एक निरपराध हिरण की जान जाएगी। अगर झूठ बोलता हूँ, तो महापाप होगा।’
‘नहिं असत्य सम पातक पुंजा ।’
इस विषम स्थिति में क्या करना चाहिए? प्रत्युत्पन्नमति साधु ने उत्तर दिया,‘भाई व्याध! जिसने देखा, वह बोल नहीं सकता और जो बोल सकता है, उसने देखा ही नहीं। तू ही बता, मैं क्या बतलाऊँ?’ तात्पर्य यह कि हिरण को भागते देखा नेत्र ने, नेत्र बोल सकता नहीं। बोलेगा मुँह, तो मुँह ने देखा ही नहीं। इसी भाँति ईश्वर के संबंध में जानना चाहिए। अर्थात् परमात्मा का साक्षात्कार चेतन आत्मा करती है, वह बोल नहीं सकती। बोलेगा मुँह। मुँह वा वागिन्द्रिय परमात्मा का प्रत्यक्षीकरण नहीं कर सकती। इसीलिए संत कबीर साहब ने कहा था-
“ जो देखै सो कहै नहिं, कहै सो देखै नाहिं ।
सुनै सो समझावै नहीं, रसना दृग सरवन काहि ।।”
जैसे गूँगा बोल नहीं सकता कि किस फल का स्वाद कैसा है, उसी प्रकार कोई भी इन्द्रिय बता नहीं सकती कि ईश्वर ऐसा है। उस ईश्वर के संबंध में कहने के लिए सभी गूँगे के समान है। उस ईश्वर की प्रत्यक्षता कैसे होगी, जो इन्द्रियातीत है, उसको कौन और कैसे प्राप्त करेगा, इसका यत्न हमारे परमाराध्य गुरुदेव ने हमलोगों को सरल-से-सरल तरीके से सरल भाषा में बतला दिया है। वह परम प्रभु परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म है, सूक्ष्मातिसूक्ष्म है, सूक्ष्मतम है। उसको तुम स्वयं प्राप्त कर सकते हो; क्योंकि तुम उसी के अंश हो, अभिन्न अंश हो।
“ ईश्वर अंश जीव अविनाशी ।
चेतन अमल सहज सुख रासी ।।”
यह जीव ही उस पीव को पा सकता है, जीवात्मा ही उस परमात्मा को पाने में सक्षम है और कोई दूसरा नहीं।
“ मन बुद्धि इन्द्रिन को गम नाहीं,
आत्मगम्य सो राम, हो राम राम ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
वह आत्मगम्य है। आत्मा ही पहचानेगी; लेकिन कब? जब सभी आवरण उसके ऊपर से हट जाएँगे। जैसे दूध में घृत है; लेकिन उससे पूड़ियाँ नहीं छान सकते। पूड़ियाँ हम तब छान सकेंगे, जब दूध को मथकर घृत अलग कर लिया जाएगा। उसी तरह जड़ और चेतन का मिश्रण है। यह शरीर जड़ है और इसके भीतर चेतन है। जड़ शरीर के साथ जबतक चेतन है, तबतक प्रभु का स्वरूप ज्ञान नहीं हो सकता। अतएव आवश्यकता है अपने को जड़ावरण से मुक्त करने की। एक महात्मा ने कहा है-
“ जिमि दूध के मथन से, निकसत है घी जतन से ।
तिमि ध्यान की लगन से, परब्रह्म ले निहारा ।।”
बाबा देवी साहब कहा करते थे, जैसे लाह लपेटी लकड़ी हो, उसको आग पर रखिये। उसकी गर्मी से लाह पिघलने लगेगी। पिघलते-पिघलते सारी लाह पिघलकर नीचे गिर जाएगी और अंत में लकड़ी बच जाएगी। उसी तरह ध्यान-योगाग्नि में सारे जड़ शरीर (स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण) झड़ जाएँगे। केवल शुद्ध चेतन आत्मा रह जाएगी। उसी को ईश्वर का अपरोक्ष ज्ञान होगा। उस ईश्वर पर विश्वास करो। वह ईश्वर कहाँ है और कहाँ नहीं है? रामचरित मानस में गोस्वामीजी ने लिखा है-
‘कहौं सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं ।’
अर्थात् वह सर्वत्र है। सर्व में तो हमारा शरीर भी है। अतएव हमारे शरीर में भी वह है। बाहर में भी वह है। लेकिन बाहर में हम नहीं प्राप्त कर सकते। प्राप्त करेंगे अपने अंदर में। पहले अपने अंदर में प्राप्त कर लेंगे, पश्चात् बाहर में भी प्राप्त कर सकेंगे।
मान लीजिए-एक गाय है। उससे हमें दूध लेना है। कहाँ से दूध लेंगे? समूचे शरीर में दूध है; लेकिन दूध मिलने का स्थान एक है और वह है उसका थन। इसी प्रकार ईश्वर सर्वत्र है; लेकिन प्राप्ति का मार्ग एक है और वह है-अंतर्मार्ग। एक फकीर का वचन है, कितना अच्छा उन्होंने कहा है-
“ बेहोशिये इन्सान से यह ख्याल जुदा है ।
जाहिर में है मुहम्मद बातिन में खुदा है ।।”
जैसे-गाय के थन से गो-वत्स और गोपाल; ये दोनों ही दुग्ध प्राप्त कर सकते हैं; किन्तु जोंक प्राप्त नहीं कर सकती। वैसे ही गुरुमुख जीव और संत सद्गुरु ही प्रभु को प्राप्त करते हैं, दूसरे नहीं। जैसे गो-वत्स को दुग्धपान का पता गोपाल बताता है, वैसे ही भक्त को ईश्वर प्राप्त करने का स्थान संत-सद्गुरु बतलाते हैं। जैसे गो-वत्स गाय का अंश है, मानो उसी प्रकार जीव ईश्वर का अंश है।
एक बात और, गाय का बच्चा जब जन्म लेता है, तो दूध पाने के लिए वह गाय के शरीर में जहाँ-तहाँ मुँह मारता है; लेकिन दूध पाता नहीं है। जब गो-पाल बछड़े कें मुँह को गाय के थन में लगा देता है, तो वह दुग्धपान करने लगता है। इसी प्रकार पीव से भिन्न होकर जीव कभी घाट में, कभी बाट में, कभी हाट में, कभी कानन में, कभी पाहन में, कभी मूरत में, तो कभी तीरथ में ईश्वर को खोजता है; लेकिन कहीं पाता नहीं है। जब संत सद्गुरु के दर्शन होते हैं, उनसे सद्युक्ति मिलती है, सन्मार्ग मिलता है, तब उस पथ पर चलकर यह प्रभु को पाता है।
रास्ते का आरंभ आज्ञाचक्र से होता है, दसवें द्वार से होता है। इसका भेद लो और तम को छेद दो। अंधकार से प्रकाश में जाओ। प्रकाश से शब्द मिलेगा। शब्द से निःशब्द में जाओ। यह ‘निःशब्दं परमं पदम्’ है। यह परमात्म-पद है। इसी में लीन हो जाओ। परम प्रभु को पाने का यही एक रास्ता है। यजुर्वेद कहता है-
“ वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यो पन्थाः विद्यतेऽयनाय ।।”
‘न अन्यः पन्थाः’ अर्थात् कोई दूसरा रास्ता नहीं है। तीसरा और चौथा रास्ता तो कहाँ से होगा? हमारे परम पूज्य गुरुदेवजी महाराज कहा करते थे- पहले एकाग्रतापूर्वक मानस जप करो। उसके बाद मानस ध्यान करो। इससे योग्यता होगी दृष्टिसाधन क्रिया करने की। दृष्टि-साधन की क्रिया में कुशल होने पर नादानुसंधान करने की क्षमता प्राप्त होगी। नादानुसंधान करते-करते सारशब्द के सहारे परम प्रभु परमात्मा में मिल जाओ। यह सरल साधन क्या गृहस्थ, क्या विरक्त सबके लिए एक समान है। साथ ही, एक ईश्वर पर उन्होंने विश्वास करने को कहा और कहा, जहाँ तुम्हारा सहायक नहीं होगा, वहाँ एक ईश्वर सहायता करेगा।
एक था राजा। उनको एक मंत्री था। वह ईश्वरविश्वासी था। अनुकूल अथवा प्रतिकूल प्रत्येक परिस्थिति में वह यही कहा करता था कि ईश्वर जो करते हैं, अच्छा ही करते हैं। राजा शिकार खेलने जाते तो मंत्री को भी साथ ले जाते थे। एक दिन राजा शिकार खेलने गये। उन्होंने शिकार पर जो हथियार चलाया, उनसे उनकी अपनी ही अंगुली कट गयी। राजा ने मंत्री को वह कटी हुई अंगुली दिखाते हुए कहा-देखिए, मेरी अंगुलि कट गयी है। मंत्री ने कहा-ईश्वर जो करते हैं, अच्छा ही करते हैं। इसमें चिंता की क्या बात है! किसी भले के लिए ही उन्होंने ऐसा किया है। मंत्री के वचन से राजा को बहुत दुःख हुआ। उन्होंने क्रोधावेश में मंत्री से कहा-अपने घर चले जाओ, ऐसे मंत्री की आवश्यकता नहीं है। मंत्री घर चला गया। वहाँ ही वह रहने लगा। अंगुली का घाव छूट जाने पर राजा फिर शिकार खेलने गये। शिकार के पीछे घोड़ा दौड़ाते-दौड़ाते वे ऐसे घनघोर जंगल में प्रवेश कर गये, जहाँ डकैतों का गिरोह रहता था। उन लोगों ने राजा को पकड़ लिया और कहा-देखो, काली माँ की महिमा! हमलोगों ने उनको एक नर बलि देने की मनौती मानी थी, सो देखो! उन्होंने कितना सुंदर नर भेज दिया है। ऐसा कह उनलोगों ने राजा के वस्त्रभूषणों को उतारकर नहलाया। नई धोती पहनायी और बलि-वेदी पर लाकर तलवार से गला उतारना चाहा। इतने में एक डकैत की नजर राजा के कटी हुई अंगुली पर पड़ी। उसने कहा-ठहरो, ठहरो, इसे मत मारो। इसका अंग पहले से ही भंग है। अंग-भंग की बलि नहीं दी जाती। डकैतों ने राजा को छोड़ दिया। राजा ने घर लौटकर सोचा-मंत्री बहुत अच्छा आदमी है। उसने उस दिन ठीक ही बात कही थी, ‘ईश्वर जो कुछ करते हैं, भले के लिए ही करते हैं। यदि मेरी ऊँगली कटी हुई नहीं होती, तो आज मेरा गला कट जाता। ऐसा विचारकर राजा ने मंत्री को बुला लिया और जंगल में घटी घटना की सारी बातें सुनाकर पुनः मंत्री-पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। पश्चात् राजा ने मंत्री से पूछा, ‘मंत्रीजी! एक बात बतलाओ, तुमने उस दिन कहा कि ईश्वर जो कुछ करते हैं, अच्छा ही करते हैं, भले के लिए ही करते हैं, मैंने मान लिया कि यदि उस दिन मेरी ऊँँगली नहीं कटी होती, तो मेरा गला कट जाता। इसमें तो मेरा अवश्य ही भला हुआ; लेकिन ईश्वर ने तुम्हारी क्या भलाई की? इतने दिनों की तनख्वाह आपको नहीं मिली।’ मंत्रीजी ने उत्तर दिया, ‘राजन्! अवश्य ही इतने दिनों का दरमाहा मुझको नहीं मिला; लेकिन मेरी जान तो बची। जान है तो जहान है, यदि जान नहीं तो धन क्या काम आवेगा? उस दिन यदि आप मुझे नौकरी से नहीं हटाये होते, तो आप शिकार खेलने गये, तो मुझे भी साथ ले ही जाते, अंग-भंग तो आपका था, मेरा तो नहीं था, इसलिए उस दिन आपके बदले मेरा गला कट जाता। नौकरी के पैसे ही तो नहीं मिले, गला तो बचा।’ राजा ने देखा, ‘ठीक ही मंत्री ईश्वर-विश्वासी है। उसने प्रसन्न होकर उनको पूरा वेतन दे दिया।’ मंत्री ने कहा, ‘राजन्! देखिये ईश्वर की कृपा! बिना नौकरी किये पैसे भी मिले और जान भी बची। पुनः राजा ने अति प्रसन्न होकर बहुत पुरस्कार देकर पुरस्कृत किया।
हमलोगों के गुरुदेव अद्भुत थे। परमपद-गत- पहुँचे हुए संत थे। वे अपने को इस प्रकार गुप्त रखते थे कि कोई पहचान न सके। किन्तु, क्या सूर्य भी बादल को ढँक सकता है? उसकी किरणें स्वतः विकीर्णित होकर जगत् को प्रकाशित करती है। उसी प्रकार आज गुरुदेव का ज्ञान-प्रकाश भारत को कौन कहे जापान, रूस, अमेरिका, नार्वे-स्वीडेन आदि विदेशों को भी प्रकाशित कर रहा है। सम्प्रति वे पार्थिव शरीर में नहीं हैं; लेकिन उनका ज्ञान हमलोगों के पास है। उनकी महिमा अनंत है। वे अव्यक्त हैं; किन्तु क्षण-क्षण हमारी रक्षा करते रहते हैं।
सन् 1986 ई0 में गुरु महाराज ब्रह्मलीन हुए। एक साल बाद सन् 1987 ई0 में उनकी 103वीं जयन्ती मनाने के लिए जहाँ-तहाँ से सत्संगप्रेमी जन इसी सत्संग-प्रशाल में समवेत थे। एक प्रोफेसर साहब सपरिवार आये थे। उनका नाम है बाबू श्री शिवनारायण जी यादव। ये पूर्णियाँ जिलान्तर्गत परसाहाट के निवासी हैं। ये दोनों पति-पत्नी सत्संग में बैठे हुए थे। इनकी दो बच्चियाँ, जिनकी उम्र क्रमशः 7 साल और 9 साल की थी, गंगा-स्नान करने चली गयीं। अचानक सात साल की उम्रवाली बच्ची गंगा की प्रखर धार में पड़कर बह गयी। नौ साल की उम्रवाली बच्ची रोती-रोती दौड़ती हुई माँ-बाप के पास आयी और उस 7 साल की बच्ची का नाम लेकर कहा, ‘माँ! फलाँ तो गंगा में डूब गयी।’ प्रो0 शिवनारायण बाबू ने कहा, ‘जब वह गंगा में भँस ही गयी, तो हम जाकर भी क्या करेंगे! सत्संग समाप्ति के बाद जाएँगे।’ वास्तव में उन्होंने ऐसा ही किया भी। सत्संग-समाप्ति के पश्चात् वे दोनों पति-पत्नी गंगा-किनारे जाते हैं, तो देखते हैं कि वहाँ वह बच्ची बेहोश पड़ी है। वे लोग बच्ची को उठाकर आश्रम लाते हैं। मेरे पास खबर आती है। मैंने कहा, ‘जो अपने इष्ट पर एकनिष्ठ होकर रहते हैं, उनका अनिष्ट नहीं होता। इसको कुछ हुआ नहीं है, फिर भी डॉक्टर को दिखला दीजिए।’ डॉक्टर के पास ले जायी गयी। डॉक्टर ने देख-भाल कर कहा, ‘चिंता की कोई बात नहीं, इसके पेट में एक बूँद भी पानी नहीं गया है। भय से यह बेहोश हो गयी है। इसको ले जाकर सुला दीजिए। कुछ देर बाद होश में आ जाएगी।’ कुछ देर के बाद अपने आप ही वह होश में आ जाती है।
प्रोफेसर साहब ने उससे पूछा, ‘जब तुम गंगा की धार में पड़कर बहने लगी, डूबने-उतराने लगी, तो हमलोगों को तुमने क्यों नहीं पुकारा?’ सत्संग-परिवार में पालित और पूर्व जन्म के संस्कार से सुसंस्कृत सात साल की बच्ची कच्ची नहीं थी, पक्की और सच्ची थी। कहती है, ‘हमलोग जहाँ स्नान करने गयी थी और आपलोग जहाँ थे-दोनों की बहुत दूरी थी। उतनी दूर से मेरी पुकार आपलोग कैसे सुनते? इसलिए मैं गुरु महाराज को पुकारने लगी।’ (श्रोताओं की ओर से जयकार की ध्वनि) हमारे गुरुदेव किन-किन की, कहाँ-कहाँ और कैसे-कैसे रक्षा करते हैं, कौन कह सकता है? आवश्यकता है हमें गुरु-विश्वासी बनने की। संत कबीर ने कहा है-
“ सद्गुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार ।
लोचन अनंत उघारिया, अनंत दिखावन हार ।।”
उन गुरु की महिमा का सम्पूर्ण गान कोई क्या कर सकता है? इन्हीं कतिपय शब्दों के साथ में परमाराध्य गुरुदेव के श्रीचरणों में अपनी श्रद्धांजलि- पुष्पांजलि अर्पित करता हूँ।
अपने मन में गुरु-भक्ति बनाये हुए अपने-अपने घर जाएँ और दृढ़ विश्वास रखें कि गुरु महाराज का जो उपदेश है, आदेश है, उस आदेश और उपदेश के परिवेश में हम अपने को रख सकेंगे, तो हमारा भव-क्लेश निःशेष हो सकेगा, यह सुनिश्चित है। अंत में प्रणम्य जन को प्रणाम, आशीर्वाद योग्य को आशीर्वाद और सामान्यजन को धन्यवाद करता हूँ।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक 18-7-1989 ई0 के गुरु-पूर्णिमा के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अगस्त 1989 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
शास्त्रें का अभिमत और विद्वानों का जो मत है, उससे हम साधारण जन भी सहमत हैं, वह यह है कि बिना कारण के कार्य नहीं होता। साथ ही कर्ता के अभाव में कार्य का सुनिष्पन्न होना भी संभव नहीं होता। जिज्ञासा होती है, इस समय जो यहाँ यत्र-तत्र से लोग एकत्र हुए हैं, इस एकत्रीकरण का कारण क्या है? उत्तर में निवेदन है, आज रविवार को रविकुल कमल दिवाकर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त कविकुल कुमुद सुधाकर गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज की जयंती है। इसी जयंती को मनाने के लिए हमलोग यहाँ समवेत हुए हैं। ‘जयंती’ शब्द संस्कृत है और स्त्रीलिंग है, जिसका अर्थ होता है-विजयिनी। पुँल्लिंग में ‘जयन्त’ होता है, जिसका अर्थ विजयी होता है। यहाँ प्रश्नोदय होता है कि आज हम गोस्वामीजी की जयन्ती मनाने के लिए इकट्ठे हुए हैं, तो गोस्वामीजी महाराज ने किस दुर्ग को जीता था, किस शत्रु को हराया था और किस राजा को पराजित करके उन्होंने उसके राज्य पर अधिकार किया था। यों प्रत्येक दिन बहुत-से जीव-जन्तु जन्म लेते हैं, बहुत-से लोग जन्म लेते हैं। हिसाब रखनेवाले इसका हिसाब भी रखते हैं कि विश्व में प्रतिदिन कितने लोग जन्म लेते हैं। लेकिन हमलोग उन सबकी जयन्ती नहीं मनाते। जन-विशेष की ही जयंती मनाते हैं। तो गोस्वामी तुलसीदासजी में क्या विशेषता थी, अगर उनके विशेषता पर प्रकाश डालकर उनको प्रकाशित किया जाए, तो यह वैसा ही होगा, जैसे पूषण को प्रदीप दिखाकर प्रदर्शित करना, फिर भी जो सूर्य-भक्त होते हैं, वे दिनकर को दीपक दिखाकर अपनी श्रद्धा अर्पित करते ही हैं। जिस तरह पवन गति से गगन में गमन करते हुए गरुड़ को देखकर मकान में रहनेवाला मच्छर भी अपना पर फैलाता है, उसी तरह आप विद्वानों के, ज्ञानवानों के, वरिष्ठ लोगों के वचन को सुनकर मेरी भी इच्छा कुछ पर फैलाने की, यानी प्रवचन की हुई, ऐसा समझें। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज संत थे, परम संत थे, पहुँचे हुए संत थे। उनकी दृष्टि शत्रु-मित्र सबके लिए सम थी। इसलिए बाहर में उनके लिए कोई शत्रु नहीं था।
“ सम अभूत रिपु विमद विरागी ।
लोभामरष हरष भय त्यागी ।।”
ऐसे वे थे। अतएव ऐसे जन के लिए बाह्म जगत् में विजय प्राप्त करने के लिए कोई आवश्यकता नहीं रहती। दुष्ट कहिये, शत्रु कहिये, सब-के-सब हमारे अंदर विराजते हैं और वे कौन-से हैं? काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य; ये छह रिपु हैं। इन षट्रिपुओं पर गोस्वामीजी महाराज विजय प्राप्त किये हुए थे। कायारूपी दुर्ग को दखल किये हुए थे तथा मनरूपी राजा को पराजित कर विजय प्राप्त किये हुए थे। इस प्रकार उन्होंने षट् विकार रूपी शत्रु का नाश किया। कायारूपी किले पर अधिकार किया और मनरूपी राजा को भी जीता। इसलिए हम उनकी जयंती मनाते हैं।
हम साधारण जन षट् विकार के शिकार होते रहते हैं; लेकिन संत इस विषय में निर्विकार होते हैं। उनको काम का दाम बाँधता नहीं। क्रोध उनको अबोध करता नहीं। लोभ उनके मन में क्षोभ उत्पन्न करता नहीं। मोह उनको बेसोह करता नहीं, पद पाकर भी वे मद में आते नहीं। किसी से वे डाह करते नहीं और जो कोई उनसे डाह करते हैं, तो उनकी वे परवाह नहीं करते। ऐसे संत थे हमारे गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज। षट् विकार उनके अधिकार में थे। ऐसे महापुरुष की जयंती मनाने के लिए हमलोग यहाँ समवेत हुए हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज भूसुर-कुलोद्भव थे। लेकिन उन्होंने अपने नाम के साथ उच्च जाति बोधक किसी विशिष्ट शब्द का प्रयोग नहीं किया, बल्कि ‘दास’ शब्द रखा। अगर किसी ने ‘गोसाईं’ शब्द उनके नाम के साथ जोड़ दिया, तो उनके मन में हुआ, मुझ तुच्छ को लोग इतनी ऊँची दृष्टि से क्यों देखते हैं-‘मो को कहत गोसाईं।’ यह संतों की सरलता है। जिस वृक्ष में फल लगते हैं, उसकी डाल स्वयं झुकती है। फलहीन डाल ऊपर की ओर भागती है। जल-विहीन बादल ऊपर-ऊपर यानी ऊँचाई पर उड़ते हैं। जल देनेवाला जलद नीचे आकर बरसता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण के वचन हैं, जिन्होंने आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया है, उनकी दृष्टि में ब्राह्मण-चांडाल, गो-श्वान-सब समान होते हैं। संतों के यहाँ, ‘जाति पाँति पूछे नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई ।’ वाली बात चरितार्थ होती है।
“ जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार की, पड़ा रहन दो म्यान ।।”
यह शरीर म्यान है। इसके अंदर की तलवार आत्मा है। आत्मज्ञान है। महाभारत शांति पर्व में लिखा है-यदि ब्राह्मण में ब्राह्मण के गुण और शूद्र में शूद्र के गुण नहीं दीख पड़ें, तो ऐसी अवस्था में ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं और शूद्र, शूद्र नहीं। संत पलटू दासजी महाराज इस लौकिक दरबार की बात नहीं, उस परम प्रभु परमात्मा के दरबार की बात करते हैं-
“ साहब के दरबार में, केवल भक्ति पियार ।।
केवल भक्ति पियार, गुरु भक्ती में राजी ।
तजा सकल पकवान, खाया दासीसुत भाजी ।।
जप तप नेम अचार, करे बहुतेरा कोई ।
खाये सबरी के बेर, मुए सब ऋषि मुनि रोई ।।
किया युधिष्ठिर यज्ञ, बटोरा सकल समाजा ।
मरदा सबका मान, श्वपच बिन घंट न बाजा ।।
पलटू ऊँची जाति का, मत कर कोइ हंकार ।
साहब के दरबार में, केवल भत्तिफ़ पियार ।।”
भगवान श्रीराम शबरी के आश्रम में जाते हैं। शबरी हाथ जोड़कर खड़ी हो जाती है और कहती है-
“ अधम तें अधम अधम अति नारी ।
तिन्ह महँ मैं मतिमन्द अघारी ।।”
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम क्या कहते हैं-देवि! तुम क्या बोल रही हो! सुनो-
“ जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई ।
धन बल परिजन गुन चतुराई ।।
भगति हीन नर सोहइ कैसा ।
बिनु जल बारिद देखिअ जैसा ।।”
भामिनी! तुम अपने को छोटी क्यों समझ रही हो? सज्जनो! आप विचार कर देखेंगे-रामचरित मानस का मनन कर देखेंगे, उसमें गहरी डुबकी लगाकर देखेंगे, तो पायेंगे-परम भक्तिन शबरी जी की जो गति हुई है, इतनी ऊँची गति मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के पिता कहलाने का जिनका सौभाग्य प्राप्त हुआ, उनकी भी नहीं हुई।
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज प्रकांड विद्वान थे। रामायण, विनय-पत्रिका, हनुमानबाहुक, हनुमान- चालीसा, दोहावली आदि कई ग्रंथों की उन्होंने रचना की। सब एक-से-एक हैं। हम साधारण जन की दृष्टि में तो ‘को बड़ छोट कहत अपराधू’ वाली बात है। लेकिन जन-मानस ने रामचरितमानस को सर्वोच्च स्थान दिया है। यह स्थान केवल स्वदेश में नहीं, बल्कि रूस जैसे नास्तिक देश के लोगों के हृदय-प्रदेश में भी यह प्रवेश कर चुका है।
रामचरितमानस को लोग अपनी-अपनी दृष्टि से देखा करते हैं। जैसे-किसी मंदिर में स्वर्ण की एक देव-प्रतिमा प्रतिष्ठित है। श्रद्धालु भक्त उस प्रतिमा के सम्मुख हाथ जोड़ते हैं, सिर नवाते हैं, प्रेमपूर्वक अपनी श्रद्धा-भक्ति निवेदित करते हैं और लौट आते हैं। एक दूसरे आदमी उसी मंदिर में जाते हैं, तो उस मूर्ति को देखकर कहते हैं-कलाकार ने इसमें क्या अद्भुत कला ऊँड़ेली है। लगता है जैसे जीती-जागती मूर्ति हो; अब वह बोलने ही वाली है, ऐसा लगता है। वह कला की दृष्टि से देखता है और चला जाता है। तीसरा वहाँ आता है, वह सर्राफ है-स्वर्णकार है। प्रतिमा देखकर कहता है, प्रतिमा बड़ी सुन्दर है। देखने में तो अच्छी है ही, खरे सोने की बनी हुई है। इस तरह से वह लौटकर आता है। अब वहाँ चौथा आदमी चोर पहुँचता है, वह कहता है-मूर्ति बहुत अच्छी है। गठन बहुत अच्छा है और सोना भी खरा है। अगर यहाँ कोई नहीं रहे, तो मूर्ति लेकर हम नौ-दो-ग्यारह हो जाएँ। मूर्ति वही है; लेकिन देखने की अपनी-अपनी दृष्टि भिन्न-भिन्न है। उसी तरह रामचरितमानस एक है; लेकिन लोग विभिन्न दृष्टियों से देखते हैं। कोई कहते हैं, यह तो काव्य का ग्रंथ है। काव्य-ग्रंथ की दृष्टि से देखते हैं। चौपाई, दोहा, सोरठा, छन्द आदि सब ठीक-ठीक मात्र में हैं। कितना सुंदर अलंकार का व्यवहार किया गया है! अनुप्रास और अलंकार की झनकार से लोगों का मन किलकार कर उठता है। कोई ‘रघुपति भगति प्रेम परमिति-सी’ तो कोई ‘सद्गुरु ज्ञान विराग योग के’ की दृष्टि से देखते हैं। कोई कर्म, ज्ञान और योग; तीनों की त्रिवेणी मानते हैं। कोई कहते हैं, यह तो एक पारिवारिक ग्रंथ है। एक राजा का इतिहास है। एक आदर्श राजा को कैसा होना चाहिए, उसका व्यवहार कैसा होना चाहिए, वह चित्र चित्रिात किया गया है। कोई कहते हैं-नहीं भाई! किनके साथ कैसा व्यवहार होना चाहिए, वह दिखाया गया है। कोई कहते हैं, सामाजिक और राजनीति भी इसमें घुसी हुई है। भाई-भाई को, पति-पत्नी को, पिता-पुत्र को एक दूसरे के साथ तथा अड़ोस-पड़ोसवालों के साथ कैसे रहना चाहिए, इन्हीं बातों का इसमें वर्णन किया गया है। इस प्रकार विभिन्न दृष्टियों से लोग इसको देखते हैं। लेकिन रामचरितमानस का वास्तविक स्वरूप क्या है, यदि यह हम देखना चाहें, तो हमें वह दृष्टि अपनानी होगी, जिस दृष्टि को अपनाकर प्रणेता ने पुस्तक का प्रणयन किया है। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
“ गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन ।
नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन ।।
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन ।
बरनउँ रामचरित भव मोचन ।।”
गोस्वामीजी ने प्रथम गुरु-पद-रज का मृदु मंजुल अंजन कर विवेक-विलोचन प्राप्त किया था। पश्चात् रामचरितमानस का प्रणयन किया था। अतएव यदि हम रामचरितमानस के यथार्थ रूप को देखना चाहें, तो हमें भी पहले गुरु-पद-रज का अंजन लगाना होगा, उससे नेत्र-दोष को गंजन होगा, तब दुःख-भंजन होगा। पुनः गोस्वामीजी कहते हैं-
“ रामचरितमानस एहि नामा ।
सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा ।।
अस मानस मानस चखु चाही ।
भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही ।।”
अगर हम रामचरितमानस को देखना चाहते हैं, तो इसके लिए ये चर्मचक्षु पर्याप्त नहीं है। ये दोनों चक्षु अक्षर-ज्ञान के लिए हैं। रामचरितमानस के लिए मानस-दृष्टि, दिव्य-दृष्टि अपेक्षित है। बिना दिव्य-दृष्टि के हम रामचरितमानस को सही रूप में नहीं देख सकेंगे। और दिव्यदृष्टि प्राप्त करने के लिए हमें क्या करना होगा, इसका यत्न गोस्वामी जी बतलाते हैं-
“ श्री गुर पद नख मनि गन जोती ।
सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती ।।
दलन मोह तम सो सुप्रकासू ।
बड़े भाग उर आवइ जासू ।।
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के ।
मिटहिं दोष दुख भव रजनी के ।।”
जब ऐसा होगा, तब-
“ सूझहिं रामचरित मनि मानिक ।
गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ।।”
“ जथा सु अंजन आंजि दृग, साधक सिद्ध सुजान ।
कौतुक देखहिं सैल बन, भूतल भूरि निधान ।।”
ये कौन-से गुरु हैं और पद-नख क्या है, जिसमें मणियों की ज्योति जलती है, गुरु-मुख लोग ही इस बात को जान सकते हैं। लेकिन गुरु नहीं, गुरु का ज्ञान नहीं, मृदु मंजुल अंजन नहीं, उसका मंजन नहीं, फिर दुख-भंजन हो तो कहाँ से? उसके लिए तो रामचरितमानस जन-रंजन और मन-रंजन ही सिद्ध होगा। गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ बिनु सतिगुर सेवे जोगु न होई ।
बिनु सतिगुर भेटे मुकति न कोई ।।
बिनु सतिगुर भेटे नामु पाइआ न जाइ ।
बिनु सतिगुर भेटे महा दुखु पाइ ।।
बिनु सतिगुर भेटे महा गरबि गुबारि ।
नानक बिनु गुर मूआ जनमु हारि ।।”
अर्थात् बिना सद्गुरु के मानव जीवन व्यर्थ का चला जाएगा। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
“ चौदह चारो अष्टदश, रस समझव भरपूर ।
नाम भेद जाने बिना, सकल समझ महँ धूर ।।”
अठारहो पुराण हम कंठ कर लें। चार वेद, छह शास्त्र, आठ व्याकरण सब कंठ कर लें। रामायणजी को घोंटकर पी जाएँ यानी जहाँ जो कुछ पूछा जाए, कंठ से तुरत उत्तर बाहर निकल आवे। इतना सब कुछ हम भले ही कर लें; लेकिन गोस्वामीजी के विचार में-
“ भेद जाहि विधि नाम महँ, बिन गुरु जान न कोय ।
तुलसी कहहिं विनीत वर, जौं विरंचि शिव होय ।।”
हम जैसे साधारण जन की तो बात ही क्या? पुनः वे कहते हैं-
“ रसना सुत पहिचान बिनु, कहहु न कौन भुलान ।
जाने कोउ हरि गुरु कृपा, उदित भये रवि ज्ञान ।।”
आवश्यकता है क्रियावान, शुद्धाचारी गुरु प्राप्त कर सद्युक्ति सीखने और व्यवहार में लाने की। भगवान श्रीराम का अयोध्या में अवतरण, विश्वामित्रजी और वशिष्ठजी से शिक्षा-दीक्षा ग्रहण, विश्वामित्रजी के साथ जनकपुर गमन, श्रीसीताजी के साथ पाणिग्रहण, पश्चात् अवध आगमन, पुनः कानन-गमन, राजा दशरथ का मरण, दंडकारण्य में सीताहरण, श्रीहनुमानजी द्वारा लंका-दहन, भगवान श्रीराम द्वारा रावण-हनन, तत्पश्चात् अयोध्या का राज्य-सिंहासन ग्रहण, आदि प्रगट बातों को बहुत लोग जानते हैं।
इन कथाओं से हम परिचित हैं; लेकिन उसके अंतरंग में जो गुप्त रहस्य है, अल्पसंख्यक लोग ही जानते हैं। गोस्वामी जी कहते हैं-यह रामचरितमानस है। मानस यानी मानसरोवर। सरोवर जल से आप्लावित है, लबालब भरा हुआ है। उसमें हरे-भरे कमल पत्र सुशोभित है। उसके ऊपर कमल फूल खिले हुए है। जिस पर पराग से अनुराग रखनेवाले भँवर गुँजार कर रहे हैं। मधुकर मधुपान करते हैं। सरोवर के चहुँ पास में चिड़ियाँ कलरव करती हैं। सरोवर के किनारे बैठनेवाले पथिक का मन वहाँ के शीतल मंद सुगंध समीरण से पुलकायमान होता है। वह देखता है, सरोवर के रंग को, रूप को, सौन्दर्य को। यह कथारूप रामचरितमानस का बहिरंग है। अंतरंग का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसमें गोता लगाना पड़ेगा।
जल के नीचे जो माल है, जबतक हम जाल नहीं डाल देते, पता नहीं पा सकते। जल के नीचे क्या है? गोस्वामीजी के शब्दों में-
“ नवरस जप तप योग विरागा ।
ये सब जलचर चारु तड़ागा ।।”
रामचरितमानस के नीचे जल में ये सब हैं। डुबकी लगाइये। जाल फेंकिये। लेकिन बिना जाल फेंके, बिना डुबकी लगाये रामचरितमानस के अंतरंग रस को हम ले नहीं सकते।
एक अच्छे पढ़े-लिखे बाबू को नदी पार करनी थी। वे नाव पर बैठ गये और नाविक को नाव खेने लगा, तो बाबू ने पूछा, ‘बताओ जी! तुम कहाँ तक पढ़े-लिखे हो?’ नाविक ने कहा, ‘बाबूजी! मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूँ। मेरे पिताजी नाव चलाते थे। वही नाव चलाने की और तैरने की विद्या मैं जानता हूँ।’ बाबू ने कहा, ‘जा, तेरा चौथाई जीवन व्यर्थ चला गया।’ नाव कुछ आगे बढ़ी। आकाश में तारे निकल आये थे। तारों को देखकर बाबू ने पूछा, ‘अच्छा, बताओ! नक्षत्र विद्या जानते हो?’ नाविक ने कहा, ‘बाबूजी! इन सब बातों को पूछकर दिमाग खराब क्यों करते हैं? यदि ये विद्याएँ मुझे ज्ञात होतीं, तो नाव खेकर जीवन-यापन क्यों करता। मैं यह सब कुछ नहीं जानता।’ बाबू ने कहा, ‘जा, तेरा आधा जीवन व्यर्थ का चला गया।’ नाव और आगे बढ़ी। अब किनारे लगने में थोड़ी दूरी बच गयी थी। नदी के उस पार जंगल का दृश्य बड़ा सुहावना लग रहा था। कहीं इधर-से-उधर झुंड-के-झुंड हिरण चौकड़ी भरते जा रहे थे, कहीं मयूर नृत्य कर रहे थे। बाबू ने पुनः नाविक से पूछा, ‘जीव-विज्ञान जानते हो?’ मल्लाह ने उत्तर दिया, ‘नहीं बाबू! जीव-विज्ञान किस चिड़िया का नाम है, मैं नहीं जानता। मैंने तो पहले ही कह दिया कि नाव खेने और तैरने के लिए जानता हूँ। इसके अतिरिक्त विद्या मैं नहीं जानता।’ बाबू ने कहा, ‘जा, तेरा तीन चौथाई जीवन व्यर्थ का चला गया। देखते ही देखते एकाएक आँधी आ गयी। नाव जोरों से डगमगाने लगी। उसमें पानी आने लग गया। हवा के झोंके में पड़कर नाव चट्टान से टकरा गयी। नाव के नीचे का एक तख्ता टूट गया। अब नीचे से भी नाव में पानी आने लग गया। नाविक ने कहा, ‘बाबूजी! आप तैरने के लिए जानते हैं?’ बाबू ने कहा,‘तैरने के लिए तो मैं नहीं जानता।’ नाविक बोला, ‘बाबू! मेरा तो तीन चौथाई जीवन व्यर्थ चला गया था, मात्र एक चौथाई बचा था। उसी जीवन के सहारे मैं तैरकर पार हो जाता हूँ और आपका तो सारा जीवन ही व्यर्थ चला गया।’ यह कहकर वह नदी में कूद पड़ा और तैरकर पार हो गया। वे बाबू नदी में डूबकर दुनिया से चल बसे। इस संदर्भ में किसी कवि की उक्ति बड़ी युक्ति-युक्त मालूम पड़ती है-
“ जीवन पौन नष्ट है मेरा, विविध ज्ञान बिन जाने ।
पूरा नष्ट आपका बाबू, बिना तैरना जाने ।।
आत्म-ज्ञान के बिना न मानव, भवसागर तर पाता ।
विविध ज्ञान संग्रही यहाँ है, अविरल गोते खाता ।।”
इसी तरह हम रामचरितमानस की एक-एक चौपाई को लेकर उसपर प्रवचन करते हुए सप्ताह महीना वा साल ही पूरा क्यों न कर दें, यह दूसरी बात है; लेकिन भवसागर पार होने की कला कुछ और है।
गोस्वामीजी कहते हैं-
“ बिन गुरु भवनिधि तरइ न कोई ।
जौं बिरंचि शंकर सम होई ।।”
रामचरितमानस का राज उसकी पंक्ति-पंक्ति में, शब्द-शब्द में निहित है-गुप्त है, छिपा हुआ है। उदाहरणार्थ-मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम अपनी प्रजा को उपदेश देते हुए अंत में कहते हैं-
“ औरउ एक गुप्त मत, सबहिं कहउँ कर जोरि ।
संकर भजन बिना नर, भगति न पावइ मोरि ।।”
अर्थात् मैं सबसे हाथ जोड़कर एक गुप्त मत कहता हूँ कि बिना शंकर-भजन किये कोई भी मेरी भक्ति नहीं पा सकता है। तात्पर्य यह कि शंकर-भक्त ही भगवान श्रीराम के भक्त हो सकते हैं। जो शंकर भक्त नहीं, वे रामभक्त नहीं। विचारणीय विषय है- 1- ‘गुप्त मत’ क्या है?
2- ‘कर जोरि’ शब्द का अर्थ क्या है?
3- ‘शंकर भक्त ही रामभक्त हो सकते हैं,’ यह कैसे?
रामचरितमानस के अध्येता इस विषय से अनभिज्ञ नहीं कि श्रीलक्ष्मणजी, श्रीहनुमानजी, श्रीअंगदजी भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त थे। फिर भी इन भक्तों ने मेघनाद और रावण को चुनौती देते हुए भगवान शंकर के प्रति कैसी भावना व्यक्त की है, यह किसी से छिपा नहीं है। यथा; मेघनाद के प्रति श्रीलक्ष्मणजी का कथन है-
“ जौं सत श्ांकर करै सहाई ।
तौ तोहि मारउँ राम दोहाई ।।
संकर सहस विष्नु अज तोही ।
सकहि न राखि राम कर द्रोही ।।”
(लंकाकाण्ड)
रावण के प्रति श्रीहनुमानजी का कथन-
“ सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी ।
बिमुख राम त्रता नहिं कोपी ।।
संकर सहस बिष्नु अज तोही ।
सकहिं न राखि राम कर द्रोही ।।”
रावण के प्रति अंगद का कथन-
“ सुनु रावण परिहरि चतुराई ।
भजसि न कृपासिन्धु रघुराई ।। जो खल भयसि राम कर द्रोही ।
ब्रह्म रुद्र सक राखि न ताही ।।”
(लंकाकाण्ड)
और तो और, स्वयं भगवान श्रीराम ने सुग्रीव से जो कहा है, अविस्मरणीय है, वह भी सुन लीजिए-
“ सुनु सुग्रीव मारिहउँ बालिहि एकहि बान ।
ब्रह्म रुद्र सरनागत, गएँ न उबरिहि प्रान ।।”
(किष्किन्धाकाण्ड)
इस प्रकार पूर्व और पर की बात पर विचार करने पर श्रीभगवान के श्रीमुखनिःसृत वचन में परस्पर विरोधाभास प्रतीत होता है और मन असमंजस में पड़ जाता है। किन्तु यदि हम रामचरितमानस की गहराई में पैठकर गोता लगाना चाहेंगे, तो असमंजस की कोई बात नहीं रहेगी, बिल्कुल सामंजस्य हो जाएगा। अवश्य ही हमें ‘राम’ और ‘शंकर’ के स्वरूप को समझने की आवश्यकता पड़ेगी।
भगवान श्रीराम और भगवान शंकर के रूप दो हैं; किन्तु स्वरूपतः दोनों एक है। जैसे ‘सीता’ और ‘राम’ कहने से दो व्यक्तियों का बोध होता है, वस्तुतः दोनों भिन्न-भिन्न नहीं, अभिन्न है। शब्द और उसका अर्थ, जल और उसकी लहर कहने मात्र के लिए भिन्न-भिन्न होते हैं; किन्तु होते उभय अभिन्न है।
“ गिरा अरथ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न ।
बन्दौं सीताराम पद, जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न ।।”
षोडषोपचार से श्रीशिवजी की पूजा करनी प्रकट मत है। गुप्त मत क्या है? भगवान श्रीराम ने जो ‘कर जोरि’ शब्द का प्रयोग किया है, ‘शब्दानाम् अनेकार्थः’ की दृष्टि से यहाँ ‘कर’ का अर्थ ‘हाथ’ नहीं, बल्कि ‘किरण’ है। रामचरितमानस में गुरु-वन्दना करते हुए गोस्वामीजी ने ‘कर’ शब्द का प्रयोग ‘किरण’ के लिए ही किया है। यथा-
“ बंदउँ गुरु पद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि ।
महामोह तमपुंज, जासु बचन रबिकर निकर ।। “
और भी, विनय-पत्रिका में प्रयुक्त ‘रवि-कर’ शब्द का अर्थ ‘सूर्य-किरण’ ही किया जाएगा। यथा-
“ केशव! कही न जाइ का कहिये ।
देखत तव रचना विचित्र हरि, समुझि मनहिं मन रहिये ।।
शून्य भीति पर चित्र रंग नहि, तनु बिना लिखा चितेरे ।
धोये मिटइ न मरइ भीति, दुःख पाइय एहि तनु हेरे ।।
रवि कर नीर बसै अति दारुन, मकर रूप तेहि माहीं ।
बदन हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जाहीं ।।”
इस प्रकार भगवान श्रीराम ने भी अपनी प्रजा के लिए ‘कर’ शब्द का प्रयोग करके युगल दृष्टि की किरणों के मिलन का ही संकेत किया है। युगल नेत्रें की धाराओं के मिलन से तीसरी आँख खुलती है। भगवान शंकर ने यह भजन किया था। इसलिए इसको ‘शंकर-भजन’ कहा गया है। दूसरी बात गोस्वामीजी ने रामचरितमानस में तालव्य ‘श’ और दन्त्य ‘स’ में अंतर नहीं रखा है। यदि दन्त्य ‘स’ के ऊपर अनुस्वार देकर संकर लिखते हैं, तो संकर शब्द का अर्थ क्या होता है? दोगला।
दो जातियों के मेल से जो संतान उत्पन्न होती है, उसको वर्णसंकर कहते हैं। यहाँ दो जातियों का मेल क्या है? दोनों तो एक ही मानव जाति हैं। लेकिन वर्णभेद के अनुसार जाति में अंतर है। इसी तरह संकर-भजन में दो जातियों का वर्णभेद है।
दृष्टि की जो दोनों धाराएँ हैं-ये दो तरह की हैं यानी दो जातियों की हैं। एक है उष्णधार और दूसरी धार है शीतधार। एक है निगेटिव और दूसरी है पोजिटिव। इन शीत और उष्ण दोनों धाराओं को मिलाना संकर-भजन है। जैसे बाह्य जगत् में बिजली की शीत और उष्ण धारों के मिलन से बल्ब जलता है, वैसे ही अंदर में युग दृष्टिधारों के मिलन से अंतःप्रकाश होता है। विमल ज्ञान का विकाश होता है और विषय-वासना का विनाश होता है। इसी दिशा की ओर इंगित करते हुए प्रभु ईसा मसीह ने कहा था-‘यदि तेरी आँख एक हो तो तेरा सारा शरीर उजियाला होगा।’ प्रकारान्तर से इसी विषय को गोस्वामीजी ने रामचरितमानस में इस भाँति लिखा है-
“ तब सिव तीसर नयन उघारा ।
चितवत काम भयउ जरि छारा ।।”
तीसरी आँख के उन्मेष से दिव्य दृष्टि खुल जाएगी, तब रामचरितमानसरूपी मानसरोवर में राम के चरित्ररूपी मणि-माणिक, जो गुप्त रूप से अथाह जल में पड़े हुए हैं, दीखने लगेंगे, सूझने लगेंगे।
अब हम यह समझने की चेष्टा करें कि भगवान शंकर और भगवान राम-ये उभय; अद्वय कैसे हैं? तथा शिव की उपासना से राम की उपासना किस भाँति हो जाती है? भगवान श्रीराम विष्णु के अवतार थे और श्रीसीताजी लक्ष्मी का। वास्तव में शिव और शक्ति क्या है?
योगशिखोपनिषद् अध्याय 1 में जो कृष्ण यजुर्वेद का अंश है, में लिखा है-
“ विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम् ।
देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।”
अर्थात विन्दुनाद महालिंग है और शिव-शक्ति का घर है। इस देह को शिवालय कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है। शिवालय में हम जाते हैं, तो देखते हैं कि नीचे जलढरी है। उसके ऊपर शिवलिंग की स्थापना है। यहाँ विन्दु जलढरी है और नाद शिवलिंग। यजुर्वेद कहता है-
‘विन्दुपीठं विनिर्भिद्य नादलिंगमुपस्थितम् ।’
अर्थात् विन्दुपीठ का भेदन करने से नादलिंग उपस्थित होता है। तात्पर्य यह कि हमलोगों के शरीर के अंदर विन्दुरूप में शक्ति और नादरूप में शिव विराजित है। इसी योगशिखोपनिषद् के 5वें अध्याय में लिखा है-
“ विन्दुनाद महालिंगं विष्णुलक्ष्मीनिकेतनम् ।
देहं विष्ण्वालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।”
अर्थ-विन्दुनाद-रूप जो महालिंग है, वही विष्णु और लक्ष्मी का घर है। इस देह को विष्णु-मंदिर (ठाकुरवाड़ी) कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है।
हमलोगों का शरीर ठाकुरवाड़ी है। इस शरीररूप ठाकुरवाड़ी में विन्दुरूप लक्ष्मी है और नादरूप विष्णु है। इस प्रकार जो कोई विन्दु और नाद की उपासना करते हैं, वे शिवशक्ति की आराधना के साथ विष्णु और लक्ष्मी की उपासना कर लेते हैं। दोनों में कोई अंतर नहीं रह जाता। यही शंकर-भजन, राम-भजन और गुप्त मत है। इन्हीं कतिपय शब्दों के साथ गोस्वामी के श्रीचरणों में श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए और आपलोगों को धन्यवाद ज्ञापन करते हुए अपना प्रवचन समाप्त करता हूँ।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन जानकी मंदिर ट्रस्ट, भागलपुर में दिनांक 13-08-1989ई0 के तुलसी जयन्ती के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, सितम्बर 1989 ई0)


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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द माताओं एवं बहनो!
आज विश्वकर्मा-पूजन का दिवस है। ‘विश्वकर्मा’ शब्द को मैं ‘सृष्टिकर्ता’ के अर्थ में लेता हूँ, जो परम प्रभु परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं हो सकता। परमात्मा की अद्भुत रचना है, जन साधारण की समझ से बाहर की बात है। गो0 तुलसीदासजी महाराज ने विनय-पत्रिका में लिखा है-
“ केशव! कही न जाइ का कहिये ।
देखत तव रचना विचित्र हरि, समुझि मनहिं मन रहिये ।।
शून्य भीति पर चित्र रंग नहि, तनु बिना लिखा चितेरे ।
धोये मिटइ न मरइ भीति, दुःख पाइय एहि तनु हेरे ।।
रवि कर नीर बसै अति दारुन, मकर रूप तेहि माहीं ।
बदन हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जाहीं ।।
कोउ कह सत्य झूठ कह कोऊ, जुगल अबल कोउ मानै ।
तुलसीदास’ परिहरै तीन भ्रम, सो आपन पहिचानै ।।”
परमात्मा की यह जो रचना है, बड़ी विचित्र है। शून्य की दीवाल है और इस शून्य (माया) भित्ति पर चित्र चित्रित करनेवाला तन-विहीन है। फिर भी उसने चित्र चित्रित कर दिया हैै। हम देखते हैं-आकाश में चन्द्रमा है, सूर्य है, अनगिनत तारे हैं। सब-के-सब आधार-रहित हैं। सबकी अपनी-अपनी गति है। (सृष्टिकर्ता परमात्मा) कैसा चालक है, कोई ग्रह किसी से टकराता है? जबकि प्रतिपल, प्रतिक्षण सभी अपनी-अपनी गति से अपनी-अपनी धुरी पर घूम रहे हैं, चल रहे हैं। वास्तव में ईश्वर की सृष्टि विचित्र है। जिस ओर भी अपनी दृष्टि कीजिए, उस ओर उनकी अनंतता का बोध होगा। इस संदर्भ में किसी कवि की कितनी अच्छी उक्ति है-
“ ध्यान लगाकर जो देखो, तुम सृष्टि की सुघराई को ।
बात-बात में पाओगे, उस ईश्वर की चतुराई को ।।
ये सब भाँति-भाँति के पक्षी, ये सब रंग-रंग के फूल ।
ये वन की लहलही लता औ, ललित-ललित शोभा के मूल ।।
ये पर्वत की रम्य शिखा और शोभा, सहित चढ़ाव-उतार ।
निर्मल जल के सोते झरने, सीमा सहित महा विस्तार ।।
छह प्रकार के ऋतु का होना, नित नवीन शोभा के संग ।
पाकर काल वनस्पति का फलना, रूप बदलना रंग-बिरंग ।।
चाँद सूर्य की शोभा अद्भुत, वारी से आना दिन-रात ।
त्यों अनन्त तारा मंडल से, सज जाता रजनी का गात ।।
लर्जन-गर्जन घन मंडल का, बिजली वर्षा का संचार ।
जिसमें देखो परमेश्वर की, लीला अद्भुत अपरम्पार ।।”
सोचने-विचारने पर बुद्धि से परे की बात हो जाती है। सृष्टि और सृष्टिकर्ता के संदर्भ में गुरु नानकदेवजी महाराज की वाणी कितनी विलक्षण है, गुरु ग्रंथ साहब के एक स्थल पर उन्होंने कहा है-
“ सागर महि बूंद बूंद महि सागरु, कवणु बुझै विधि जाणै ।
उतभुज चलत आपि करि चीनै, आपे ततु पछाणै ।।
अैसा गिआन विचारै कोई । तिसते मुकति परम गति होई ।।
दिन महि रैणि रैणि महि दीनी, अरु उसन सीति विधि सोई ।
ताकी गति मति अवरु न जाणै, गुर बिन समझ न होई ।।
पुरख महि नारि नारि महि पुरखा, बूझहु ब्रह्म गिआनी ।
धुनि महि धिआनु धिआन महि जानिआ, गुरमुखि अकथ कहानी ।।
मन महि जोति जोति महि मनुआँ, पंच मिले गुरभाई ।
नानक तिनके सद बलिहारी, जिन एक सबदि लिव लाई ।।”
संत कबीर साहब ने कहा है-
“ बूँद समाना समुँद में यह जानै सब कोइ ।
समुँद समाना बूँद में, बूझै बिरला कोइ ।।”
समुद्र में बूँद गिर गयी या समुद्र में बूँद है, यह सबकी समझ में आनेवाली बात है; किन्तु बूँद में समुद्र समाया हुआ है, इसकी जानकारी किसी-किसी को होती है। विचारणीय विषय है कि संत कबीर साहब और गुरु नानक साहब ने समुद्र और बूँद की संज्ञा से किसको अभिहित किया है।
संत-वचन और सद्ग्रंथ के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उन्होंने ब्रह्मांड को समुद्र और पिण्ड को बूँद कहा है। यथा-
“ पिण्ड माहिं ब्रह्माण्ड ताहि पार पुनि तेहि लखा ।
तुलसी तेहि की लार, खोलि तीनि पट भिनि भई ।।”
(संत तुलसी साहब, हाथरस)
‘ब्रह्माण्ड लक्षणं सर्व्व देह मध्ये व्यवस्थितम् ।’
तथा- “ देहस्थाः सर्व्वविद्याश्च देहस्थाः सर्व्वदेवताः ।
देहस्थाः सर्व्वतीर्थानि गुरुवाक्येन लभ्यते ।।”
सत्संग-योग नाम की पुस्तक में पूज्यपाद सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने अनंत में सांत, सांत में अनंत तथा ब्रह्मांड में पिंड, पिंड में ब्रह्मांड का सांकेतिक चित्र देकर और तद्विषयक विश्लेषण कर उसपर अद्भुत प्रकाश डाला है, जो दर्शनीय और पठनीय है।
सर्वेश्वर की अनंतता और सृष्टि की गंभीरता का ज्ञान करके संत कबीर साहब ने कहा था, ‘बूझै बिरला कोइ ।’ और गुरु नानकदेवजी महाराज की वाणी में है, ‘उतभुज चलत आपि करि चीनै ।’ अर्थात् इस अद्भुत चरित्र को अपनी साधना के द्वारा कोई जानता-पहचानता है। कितना विस्मयकारी विषय है-दिन में रैन और रैन में दिन है। उष्ण में शीत और शीत में उष्ण है। पुरुष में नारी और नारी में पुरुष है। मन में ज्योति और ज्योति में मन है। एक में सर्व है और सर्व में एक है। यह कैसी बात है? गुरु नानक साहब कहते हैं-‘सद्गुरु देखि दिखाई।’
अर्थात् सद्गुरु ने देखा है, वे ही दिखलाते हैं कि एक परमात्मा में सारी सृष्टि है और सारी सृष्टि में वह परमात्मा व्यापक है।
हमलोगों के शरीर में जितने स्तर हैं, संसार के भी उतने ही स्तर हैं। शरीर के जिस स्तर पर जब हम रहते हैं, संसार के भी उसी स्तर पर तब हम रहते हैं। शरीर के जिस स्तर को जब हम छोड़ते हैं, संसार के भी उसी स्तर को तब हम छोड़ते हैं। उदाहरणार्थ-जरा सोचकर देखा जाए, अभी हम इस शरीर के स्थूल स्तर पर हैं, तो संसार के भी स्थूल स्तर पर हैं। अभी हमारी वर्तमानावस्था जाग्रत की है। इस समय स्थूल शरीर का ज्ञान हमें है, तो स्थूल संसार का ज्ञान भी हो रहा है। जब हम स्वप्न में चले जाते हैं, तब स्थूल शरीर का ज्ञान नहीं रहने से स्थूल संसार का ज्ञान नहीं रहता है। उस समय तन कोई काम नहीं करता, बिछावन पर पड़ा रहता है; लेकिन मन काम करता रहता है। शरीर तो शय्या पर पड़ा रहता है; परन्तु मन कलकत्ता, बम्बई और गुजरातादि की सैर करता रहता है। उस समय मनोमय जगत् में हम घूम रहे होते हैं। शरीर के सात स्तर बतलाये गये हैं, उसी प्रकार संसार के भी सात स्तर हैं। इस तरह यदि हम शरीर के सभी स्तरों को पार कर सकें, तो संसार के सभी स्तरों को पार कर जायेंगे। गुरु नानक देवजी महाराज ने बतलाया, ‘लख लख अकाशा, लख लख पताला।’ हम सामान्य जन तो एक आकाश को ही देखते हैं; लेकिन संत जन लाखों आकाश और लाखों पाताल को देखते हैं। उस दिन एक विद्वान कह रहे थे, ‘अमेरिका ने एक ऐसा रॉकेट छोड़ा है, जो बाईस चन्द्रमाओं को पार गया है।’ हमलोग तो एक ही चन्द्रमा को देख रहे हैं। प्रभु की रचना को समझना बड़ा कठिन है। यह बड़ी गंभीर बात है। गो0 तुलसी- दासजी महाराज ने रामचरितमानस में लिखा है-
“ गूलरि तरु समान तव माया ।
फल अनेक ब्रह्माण्ड निकाया ।।
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया ।
रोम रोम प्रति वेद कहै ।।”
जैसे एक गूलर का वृक्ष है। उस गूलर के वृक्ष में कितने फल हैं, कोई कह नहीं सकता। और एक-एक गूलर फल में कितने कीड़े होते हैं, इसकी गणना कौन करता है? उनमें से किसी कीड़े को भी पता नहीं होता है कि इस गूलर फल के अतिरिक्त और भी गूलर फल हैं तथा यह फल किसी वृक्ष के आधार पर है। मात्र उसी गूलर फल का ज्ञान उसको रहता है, जिसमें वह रहता है। अगर कोई कीड़ा उस गूलर फल को काटकर बाहर निकल आवे, तो वह देखेगा कि उस वृक्ष में कितने गूलर लगे हैं। तब उसको अन्य गूलरों के सहित विटप का भी बोध होगा।
उसी भाँति एक ब्रह्मांड में हमलोग बँधे हुए हैं। अगर इस तरह की कोई साधना हो, कोई विधि हो, कोई प्रक्रिया हो, कोई यत्न हो कि जिसके द्वारा हम इस पिंड को पार कर सकें, तो इस बाह्य संसार-विश्व ब्रह्मांड को पार कर जायेंगे। फिर तो अन्य ब्रह्मांड का भी ज्ञान हमें हो जाएगा; लेकिन जबतक इस पिंड- ब्रह्मांड में ही हम भूले हुए हैं, तबतक दूसरे किसी ब्रह्मांड का ज्ञान कैसे हो सकता है? इन्हीं बातों को प्रकारान्तर से गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
‘सागर महि बूँद’
अर्थात् सृष्टि में यह शरीर है और इस शरीर में भी वह सृष्टि है। लेकिन इसको कौन बूझ (समझ) सकता है? ‘कवणु बुझै विधि जाणै’ अर्थात् इसकी विधि कौन जान सकता है? जिनको संत सद्गुरु के दर्शन हुए, उनसे सद्युक्ति प्राप्त कर सच्ची लगन से जिन्होंने साधना की, सदाचार का पालन किया, वे ही इस अद्भुत चरित को जान सकते हैं। जैसे कोई पूछे कि रसगुल्ले का स्वाद कैसा होता है? तो उसके स्वाद को दूसरा कोई किसी भाषा या वाणी से समझा नहीं सकता है। स्वयं खाकर ही कोई रसगुल्ले का स्वाद जानेगा कि कैसा होता है। जीवन में जिसने कभी नमक नहीं खाया, उसको कोई बतला सकता है कि नमक का स्वाद कैसा होता है? जबतक नमक की एक डली उसकी जीभ पर रख न दीजिए, तबतक सही रूप में उसके स्वाद को वह नहीं जान सकता। वैसे ही सृष्टि की व्याख्या कोई कितनी भी क्यों न कर लें; लेकिन सही पता नहीं लगेगा। अब आगे चलकर गुरु नानकदेवजी महाराज बतलाते हैं कि इस पिंड में उस ब्रह्मांड को किस तरह देखा जा सकता है। उसकी वे क्रिया बतलाते हैं-
दिन में रात करो और रात में दिन करो। उष्ण में शीत करो और शीत में उष्ण करो। लोग कहेंगे, यह तो पागल की बात है। अरे! जब दिन है, तो दिन है; रात है, तो रात है। क्या दिन में कहीं रात होती है और रात में कहीं दिन होता है? तो वे इनका स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं, दिन और रात की बात जो मैं कह रहा हूँ, यह उष्ण-शीत की विधि है। दिन में गर्मी होती है और रात में सर्दी। हमारी जो दायीं और बायीं दो आँखें हैं, इन दोनों से चेतन की धाराएँ निःसृत हो रही हैं। दायीं धार उष्ण है (च्वेपजपअम) और बायीं धार शीत (छमहंजपअम) है।
संतों ने अपनी-अपनी भाषा में इड़ा-पिंगला और गंगा-यमुना भी कहा है। इन्हीं दोनों धारों को एक कर दीजिए। अर्थात् एक विन्दु पर मिला दीजिए। या यों समझिये कि इन दोनों धाराओं का मिलन एक विन्दु पर होता है। जहाँ पर ये दोनों धाराएँ मिलती हैं, वहाँ स्वतः श्वेत विन्दु-प्रकाशमय विन्दु उत्पन्न होता है। अभी हमारे निकट पानी वाली एक बैट्री रखी हुई है। एक (च्वेपजपअम) और दूसरा (छमहंजपअम) यानी शीतधार के लिए एक स्थान और उष्णधार के लिए दूसरा स्थान। बैट्री से विद्युत- धार जैसे ही एम्प्लीफायर में जाती है, वहाँ बल्ब जल उठता है। इसी तरह हमारे अंदर दृष्टि की दोनों धाराएँ जहाँ मिल जाएँगी, बल्ब जल जाएगा, प्रकाश हो जाएगा। जब प्रकाश होगा, तो शब्दानुभूति होगी। फिर नादानु- संधान के सहारे सर्वेश्वर-सर्वाधार तक पहुँचा जाएगा। वे प्रभु हमसे दूर नहीं हैं; लेकिन स्वयं मजबूर हैं, पहचान नहीं सकते। संत गरीबदासजी महाराज ने लिखा है-
“ निकट निरंजन नूर जहूर जुहारिये ।
मीनी मारग खोजि सिन्धु यूँ फारिये ।।
नैनों में ही लाल विशाल अलेख है ।
अरे हाँ कहता दास गरीब रूप नहिं रेख है ।।”
संत केशवदासजी ने कहा है-
“ नहिं जाय दूर हजूर साहिब, फूलि सब तन में रह्यो ।
अमर अछय सदा जुगन जुग, जक्त दीपक उगि रह्यो ।।”
जिस नयन से हम संसार को निहार रहे हैं, उस नयन में भी सबके नयनाभिराम राम रम रहे हैं, फिर भी हम नहीं देख पाते। जो सर्वत्र विराज रहे हों, उनको नहीं देख पाने में राज क्या है? इसका उत्तर गोस्वामीजी की वाणी में सुनिये-
“ है नेरे सूझत नहीं, ल्यानत ऐसो जिन्द ।
तुलसी या संसार को, भयो मोतियाबिन्द ।।”
जिसको मोतियाबिंद की बीमारी होती है, उसको नजदीक की चीज भी नहीं दीखती। उसी तरह परम प्रभु परमात्मा हमारे इतने निकट हैं, जितना निकट और कुछ नहीं, फिर भी समस्या विकट है कि उसको स्वरूपतः हम नहीं जानते, नहीं पहचानते। क्यों? संसार को मोतियाबिंद की बीमारी हो गयी है। एक-दो की बात नहीं, सारे संसार को मोतियाबिंद हो गया है। कहावत है, यदि कुएँ में ही भाँग पड़ गयी हो, तो उसका पानी जो पीता है, वही बौरा जाता है। उसी तरह माया के मद में उन्मत्त हो सभी अंध हो रहे हैं-सबको मोतियाबिंद हो गया है। मोतियाबिंद की भी चिकित्सा होती है। लोग डॉक्टर के पास जाते हैं। वे ऑपरेशन कर देते हैं। आँख के ऊपर जो परदा आया हुआ रहता है, उसको हटा देते हैं। फिर तो सब कुछ सूझने लग जाता है, दीखने लग जाता है। हमारे ऊपर जो मायिक अंधकार, प्रकाश और शब्द के परदे पड़े हैं, इस परदे को हटानेवाले (डॉक्टर) कौन है? गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने इसका उत्तर दिया है-
“ सदगुरु बैद बचन बिस्वासा ।
संजम यह न बिषय कै आसा ।।
रघुपति भगति सजीवन मूरी ।
अनूपान श्रद्धा मति पूरी ।।”
संत सद्गुरु-रूपी वैद्य इसकी युक्ति जानते हैं। वे ही इसको हटा सकते हैं। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ गुरु मिलि ताके खुले कपाट ।
बहुरि न आवै जोनी बाट ।।”
तथा गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
‘बजर कपाट मुक्ते गुरुमती निर्भय ताड़ी लाई ।।’
हमारे प्रातःस्मरणीय परम श्रद्धेय परमाराध्य सद्गुरुदेवजी (महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज) क्या कहते हैं, सुनिये-
‘वज्र कपाट खुलै तम टूटै, ब्रह्म जोति झलकान ।’
संत सद्गुरु रूपी वैद्य द्वारा बतलायी गयी विधि के मुताबिक श्रद्धापूर्वक, निष्ठापूर्वक, प्रेम-प्रीति- पूर्वक जब हम दृष्टियोग करेंगे, तो एकविन्दुता प्राप्त होगी, दिव्यदृष्टि खुल जाएगी, प्रकाश हो जाएगा। कैसा प्रकाश होगा, उसके लिए कहा गया है-
“ परम प्रकाश रूप दिन राती ।
नहिं कछु चहिय दिया घृत बाती ।।”
तब सही रूप में समझ में आता है कि ‘दिन महि रैनि रैनि महि दीनी अरु उसन सीत विधि सोई ।’ यह है।
जबतक साधना नहीं की जाए, तबतक ‘पुरख महि नारि, नारि महि पुरखा।’ तथा-‘धुनि महि धिआनु, धिआनु महि जानिआ गुरुमुखि अकथ कहानी।’ जानी नहीं जाती। इसी प्रकार ‘मन महि जोति जोति महि मनुआ पंच मिले गुरु भाई’ का यथार्थ ज्ञान भी साधना से ही संभव है। फिर भी यथासंभव इस पर कुछ प्रकाश डालने की चेष्टा कर रहा हूँ।
क्षराक्षर पर पुरुषोत्तम परमात्मा में प्रकृति का प्रसार है और समस्त प्रकृति मंडल में परमात्मा व्यापक है। यह ‘पुरख महि नारि, नारि महि पुरखा’ है, किन्त इस विषय को ब्रह्मज्ञानी ही जान सकते हैं। जो कोई अंतर्नाद की उपासना करते हैं अर्थात् अंतर्ध्वनि का ध्यान करते हैं, तो वे उस ध्यान में गुरुमुख कथित इस अकथ कहानी को प्रत्यक्ष जान पाते हैं। ‘मन महि जोति जोति महि मनुआ’ अर्थात् पहले मन में गुरु-ज्ञान का प्रकाश होता है, पीछे ध्यान करने पर अंतःप्रकाश मिलता है, जिसमें मन रमण करता है। मंडलब्राह्मणो- पनिषद् के पंचम ब्राह्मण में लिखा है-
‘ध्वनेरन्तर्गतं ज्योतिर्ज्योतिरन्तर्गतं मनः।’
इस प्रकार जिसका मन अंतःप्रकाश में प्रतिष्ठित हो जाता है, उसको वह अंतर्ध्वनि सुनाई पड़ती है, जिसको अनहद नाद कहते हैं तथा साधना के अंत में एक नाद-सारशब्द मिलता है, जो परम प्रभु परमात्मा से मिलाता है।
सृष्टि-निर्माण-निमित्त प्रभु की मौज यानी आदि शब्द से क्रमशः कैवल्य, महाकारण, कारण, सूक्ष्म और स्थूल; इन पाँच मंडलों की रचना हुई। इस विषय की चर्चा संत दादू दयालजी महाराज ने इस भाँति की है-
“ पंच ऊपना सबद थैं, सबद पंच सौं होय ।
साईं मेरे सब किया, बूझे बिरला कोय ।।”
किसी मंडल के बनने के पूर्व उसके केन्द्र का होना अनिवार्य होता है। इसलिए पाँच मंडलों के पाँच केन्द्र अवश्य हैं। इन्हीं पाँच मंडलों के पंच केन्द्रीय शब्द को कहीं ‘पंच शबद धुनकार धुन’ तो कहीं ‘पंच मिले गुरु भाई’ कहकर गुरु नानक देवजी महाराज ने बखान किया है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने रामचरितमानस में लिखा है-
‘होहिं कुठावँ सुबन्धु सहाये ।’
अर्थात् प्रतिकूल परिस्थिति में सुबन्धु सहायक होते हैं। साधकों के लिए ये पाँच शब्द ‘पंच गुरु भाई’ के रूप में बड़े ही सहायक सिद्ध होते हैं। कारण यह कि शब्द का स्वाभाविक गुण है कि ऊपर का शब्द नीचे दूर तक जाता है, किन्तु नीचे का शब्द ऊपर दूर तक नहीं जाता, श्रवणकर्ता को अपने केन्द्र में आकर्षित करता है। शब्द अपने केन्द्र के गुण को संग लिये रहता है और सुननेवाले को उस गुण से गुणान्वित करता है।
‘पाँचो मंडलों के केन्द्रीय ध्वन्यात्मक सब शब्दों का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर है। इनमें से प्रत्येक शब्द सुरत को अपने-अपने उद्गम स्थान पर आकर्षण करने का गुण रखता है।
‘कैवल्य मंडल का केन्द्र स्वयं परम प्रभु सर्वेश्वर है। महाकारण का केन्द्र कैवल्य और महाकारण की संधि है। कारण का केन्द्र महाकारण और कारण की संधि है। सूक्ष्म का केन्द्र कारण और सूक्ष्म की संधि है। स्थूल का केन्द्र सूक्ष्म और स्थूल की संधि है।’
दृष्टियोग साधन के द्वारा जो कोई अपनी सुरत को आज्ञाचक्र में स्थापित कर सकेगा, उसको स्थूल मंडल का केन्द्रीय शब्द पकड़ में आवेगा। उस शब्द के सहारे उससे आकर्षित हो वह सूक्ष्म के केन्द्र पर पहुँचेगा। इस प्रकार क्रमानुसार कारण और महाकारण को पार कर सारे जड़ावरणों को पार कर जाएगा। अंत में कैवल्य के केन्द्र पर पहुँचेगा, जहाँ वह सारशब्द के आकर्षण से आकर्षित हो परम प्रभु परमात्मा में जा मिलकर एकमेक हो जाएगा। फिर तो गुरु नानकदेवजी महाराज की यह वाणी-
“ जल तरंग जिउ जलहि समाइया ,
तिउ जोति संग जोति मिलाइया ।
कहु नानक भ्रम कटे किवाड़ा ,
बहुरि न होहि जउला जीउ ।।”
चरितार्थ हो जाएगा। इस प्रकार विश्वकर्मा का पूजन और विसर्जन होगा। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक 17-9-1989 ई0 के विश्वकर्मा पूजा के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अक्टूबर 1989 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
किसी सुभाषितकार ने कहा है-
“ तावत् गर्जन्ति शास्त्रणि जम्बुका विपिने यथा ।
न गर्जति महाशक्तिः यावत् वेदान्त केशरी ।।”
अर्थात् जंगल में, वन में सियार आदि वन्य पशु तबतक ही आवाज करते हैं, जबतक सिंह का गर्जन नहीं होता है। सिंह के गर्जन के सामने सभी पशु मूक हो जाते हैं, उसी तरह जबतक वेदान्त ज्ञान सामने नहीं आता है, तबतक अन्य ग्रंथ, शास्त्र अपनी-अपनी बातें कहते हैं, वेदांत ज्ञान के सम्मुख अन्य सारे ज्ञान गौण पड़ जाते हैं, मौन हो जाते हैं। वेदान्त ज्ञान क्या है? वेद और अंत, ये दो शब्द हैं। वेद कहते हैं-ज्ञान को। जहाँ ज्ञान का अंत हो जाता है, वह है वेदान्त ज्ञान। ज्ञान का अंत कहाँ होता है? अनुभव ज्ञान में, प्रत्यक्ष ज्ञान में, अपरोक्ष ज्ञान में। प्रत्यक्षानुभूति में ज्ञान की परिसमाप्ति होती है। पहले श्रवणज्ञान, फिर मनन ज्ञान, तत्पश्चात् निदिध्यासन ज्ञान और अंत में अनुभव ज्ञान होता है। उस अनुभव ज्ञान को प्राप्त करके कागभुशुण्डि गुरुड़जी से कहते हैं-
“ निज अनुभव अब कहउँ खगेसा ।
बिनु हरि भजन न जाहि कलेसा ।।”
अर्थात् जबतक ईश्वर का भजन नहीं करोगे, तबतक क्लेश निःशेष नहीं होंगे। इसलिए ईश्वर का भजन करो। अनु और भव-इन दो शब्दों के योग से अनुभव शब्द बना है। अनु का अर्थ होता है-पीछे और भव का अर्थ होता है-होना। जो ज्ञान सबसे पीछे होता है, जिसके बाद और कोई ज्ञान बाकी नहीं रह जाता, वह अनुभव ज्ञान कहलाता है। अगर कुछ ज्ञान बाकी रह गया, तो वह अनुभव ज्ञान नहीं कहा जाएगा। हरि-भजन करते-करते अनुभव ज्ञान होता है। उसी से शाश्वत सुख और शांति की प्राप्ति होती है। प्रश्न होता है कि हरि-भजन कैसे किया जाए? इसके उत्तर में गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
‘तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त।’
वे प्रभु कैसे हैं? तो कहा-
‘मन क्रम वचन अगोचर व्यापक व्याप्य अनन्त ।।’
गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ ऐसी सेवकु सेवा करै।
जिसका जिउ तिसु आगै धरै।”
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने रामचरित- मानस में लिखा है-
“ सरिता जल जलनिधि महँ जाई ।
होइ अचल जिमि जीव हरि पाई ।।”
जिस तरह सरिता का जल समुद्र में जाकर स्थिर हो जाता है, उसी तरह जब जीव, पीव से मिलकर एक हो जाता है, तो स्थिरता आ जाती है, आवागमन का चक्र मिट जाता है।
सरिता का जल समुद्र में जाकर मिलता है। सरिता में जल आया कहाँ से? समुद्र से वाष्प उठता है। वह वाष्प बादल का रूप धारण करता है। बादल से वर्षा होती है। वृष्टि कितनी ही ऊँचाई पर क्यों न हो; लेकिन वह जल वहाँ पर ठहरता नहीं। जितनी अधिक ऊँचाई पर वर्षा होती है, उतनी ही अधिक तेजी से वह जल नीचे की ओर भागता है। मान लीजिए, पहाड़ की चोटी पर वर्षा हो गयी। वहाँ से वह जल नीचे की ओर प्रवाहित होता है। किसी नाले में चला जाता है। नाले का जल नदी की ओर भागता है। नदी का जल गंगाजी की धारा में जाकर मिलता है और गंगाजी बंगाल की खाड़ी-समुद्र में मिल जाती है। जब पहाड़ की चोटी पर पानी गिरा, तो स्थिर नहीं रहा-चलता रहा। नाले से आकर भी, नदी में जाकर भी चलता रहा। गंगाजी में भी आकर चैन नहीं मिला-चलता रहा। जब वह जल समुद्र में आ गया, तब उसमें स्थिरता आ गयी। मतलब यह कि जहाँ से पृथक्ता हुई थी, वहाँ आ जाने पर स्थिरता आ गयी। उसी तरह यह जीव परम पिता परमात्मा से पृथक होकर पिंड में आया है, यह पुनः वहाँ जाकर उससे मिल जाए, तो स्थिरता आ जाएगी। स्थिरता आ गयी, तो शांति मिल गयी। शांति मिल गयी, तो सुख मिल गया। जबतक यह जीव उस पीव से मिल नहीं जाता, तबतक 84 लाख योनियों में चक्कर काटता रहेगा।
इसके विपरीत कोई पानी पहाड़ पर से नीचे उतरा, एक गढ़े में चला गया, शहर के किनारे वह गढ़ा पड़ता था, वहाँ शहर के किनारे नगरपालिका की रंग-विरंगी बिजली की रोशनी पड़ने लगी। रंग-बिरंगे प्रकाश से पानी में चकमकी आ गयी। वह पानी समझने लगा, जबसे गढ़े में आया हूँ, तबसे ही यह चकमकी आयी है, अतः यहीं पर रह जाऊँ और वह वहीं रह जाता है। परिणाम क्या होता है? समय पाकर वर्षा का समय समाप्त होता है, पानी घटना शुरू होता है। वह सूखने लग जाता है और उसमें कीड़े पड़ने लग जाते हैं। मिट्टी सड़ने लग जाती है, दुर्गन्ध आ जाती है। इसको कोई पूछनेवाला नहीं रह जाता। इसी भाँति यह जीव प्रभु से बिछुड़कर इस स्थूल शरीर और स्थूल संसार में आ गया, तबसे इसको पंच विषयों की चकमकी मिली। दुनिया की आकर्षक दिखावट-भूलभुलैया में पड़कर उससे सम्मोहित होकर मन में सोचा, ऐसी मौज और कहाँ है? परिणामस्वरूप वह इस शरीर और संसाररूपी कारागार में कैदी बनकर दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से संतप्त होकर रहता है और विविध भाँति के दुःखों के थपेड़े खाता हुआ रोता है, चिल्लाता है, आकुल-व्याकुल होता है। इनसे छूटने का कोई उपाय सूझता नहीं-कोई मार्ग दीखता नहीं। करुणा-वरुणालय संत जन कहते हैं कि अपने को इस कारागार से, अंधकूप संसार से निकालकर प्रभु से मिलाओ। इसके लिए कहीं बाहर जाने की जरूरत नहीं, अपने शरीर के अंदर-ही-अंदर चलो। गुरु नानकदेवजी महाराज फरमाते हैं-‘सब कुछ घर में है, बाहर टटोलने की जरूरत नहीं। जिन्होंने बाह्य जगत् में प्रभु को पाने की खोज की, वह भ्रम में, माया में भूला रह गया। लेकिन जिनपर गुरु कृपा हुई, अंतस्साधना की, उनको अपने अंतर में प्रभु की प्राप्ति हुई। फिर तो उनका अंतर-बाह्य सुखी हो गया। प्रभु-प्राप्तिपथ पर अग्रसर होनेवाले पथिक को अपने अंदर में ज्योति और नादरूपी अमृत की वर्षा होती है, जिनको प्राप्त कर सुरत दिन-रात परम प्रभु परमात्मा के संग में आनंद-विनोद करती रहती है। जिस प्रकार जल की लहर जल में मिलकर एक हो जाती है, उसी प्रकार आत्म-ज्योति परमात्म-ज्योति में मिलकर एक हो जाती है। भ्रम का कपाट छिन्न-भिन्न हो जाता है और वह जीव पुनः बंधन में नहीं पड़ता।’
“ सब किछु घर महि बाहरि नाहीं ।
बाहरि टोलै सो भरमि भुलाहीं ।।
गुर परसादी जिनि अंतरि पाइआ ।
सो अंतरि बाहरि सुहेला जीउ ।।
झिमि झिमि बरसै अंम्रित धारा ।
मनु पीवै सुनि शबदु विचारा ।।
अनद विनोद करे दिन राती ।
सदा सदा हरि केला जीउ ।।
जनम जनम का बिछुड़िआ मिलिआ ।
साध क्रिपा ते सूका हरिआ ।।
सुमति पाए नामु धिआए ।
गुरमुखि होए मेला जीउ ।।
जल तरंग जिउ जलहि समाइआ ।
तिउ जोती संगि जोति मिलाइआ ।।
कहु नानक भ्रम कटे किवाड़ा ।
बहुरि न होइअै जउला जीउ ।।”
जल और जल तरंग दो नहीं, तत्व रूप में दोनों एक ही है, उसी भाँति जीव और पीव तत्वरूप में दोनों एक ही है। गोस्वामीजी के शब्दों में हम कह सकेंगे-
‘गिरा अरथ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न ।’
गिरा अर्थात् शब्द। शब्द और उसका अर्थ मात्र कथन के लिए दो हैं; लेकिन दो नहीं, अद्वय हैं। मान लीजिए-एक शब्द जल, जिसका अर्थ होता है-पानी। आप जल कहें अथवा पानी-कहने के लिए दो शब्द हुए; परन्तु तत्वरूप में एक ही है। इसी प्रकार जल और उसकी लहर कहने के लिए भिन्न-भिन्न हैं, लेकिन अभिन्न है। सीता और राम शब्द व्यवहार के लिए पृथक्-पृथक् हैं, वस्तुतः दोनों में अपृथक्त्व है। ठीक इसी समय न्याय से जीव और पीव की भिन्नता और अभिन्नता समझनी चाहिए। सूफी कवि मौलाना रूम ने बड़े जोरदार शब्दों में कहा है-
“ खुदा जुदा की एक सूरत नुकता भेद बताता है ।
नुकता ऊपर नुकता नीचे नुकता आता जाता है ।।
नुकते के हेर फेर से तुमसे जुदा हुआ ।
नुकता जो धरा सर पर खुद ही खुदा हुआ ।।”
फारसी भाषा की लिपि में खुदा और जुदा शब्द लिखने में मात्र एक विन्दु का अंतर रहता है। अर्थात् फारसी में जिसके पेट में बिन्दा रहता है और खे के ऊपर में। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ सुरत फँसी संसार में, ताते पड़िगा दूर ।
सुरत बाँधि सुस्थिर करो, आठो पहर हुजूर ।।”
हमारी सुरत-चेतनवृत्ति संसार में फैली हुई है। इसका पूर्ण सिमटाव होने से इसकी ऊर्ध्वगति होगी, स्थूल-सूक्ष्मादि आवरणों का भेदन होगा। त्रय पट (अंधकार, प्रकाश और शब्द) को पार करने पर द्वैत-बुद्धि मिट जाएगी, तब क्या होगा? परम पूज्य गुरुदेव की वाणी में हम कह सकेंगे-
“ हममें तुममें भेद बुद्धि को जो सकते हैं मिटा ।
वह तुम्हीं तुम वही मेँहीँ प्रश्न पुनि रहते नहीं ।।”
इसलिए हमलोगों को संत-सद्गुरु से ईश्वर- भक्ति की सही विधि जानकर मनोयोगपूर्वक नित्य अभ्यास करना चाहिए। इसके लिए संयम बतलाये गये हैं। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार-इन पंच पापों से हम विरक्त रहें। प्रभु-चरण में अनुरक्त रहें। नित्य सत्संग करते रहें, ध्यानाभ्यास करते रहें। प्रभु-चरण में अनुरक्त रहें। नित्य सत्संग करते रहें-ध्यानाभ्यास करते रहें और जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करें।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक
1-10-1989 ई0 को साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, दिसम्बर 1989 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
मुझे प्रसन्नता हो रही है कि कई वर्ष पहले स्वामी शरणानंदजी महाराज हमारे आश्रम पर (महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर) पधारे थे। उनके दर्शन अपने आश्रम में मैंने किये थे और आज सौभाग्य मिला है कि उनके आश्रम में आकर हमलोग सत्संग कर रहे हैं। सभी धर्मप्रेमियों को मैं धन्यवाद देता हूँ।
मैं सुदूर से आया हूँ, इसलिए ज्ञान से भरपूर हूँ, ऐसी समझ भूल होगी। मैं ज्ञान में पूरा नहीं, बिल्कुल अधूरा हूँ, फिर भी आपलोगों के समक्ष कुछ कहना जरूरी है, वह तो ऐसा समझिये कि मजबूरी है।
मैं जो बात कहूँ, आप वह बात नहीं जानते हैं, ऐसी बात नहीं; लेकिन कहना इसलिए पड़ रहा है कि यदा-कदा ऐसा देखा जाता है कि जो बड़े लोग होते हैं, कभी-कभी उनको भी विस्मृति हो जाती है, तो उनकी स्मृति के लिए कुछ कहना आवश्यक होता है। उदाहरणार्थ-
श्रीसीताजी का हरण हो चुका था। उनकी खोज में चतुर्दिक बहुत-से बंदर-भालू गये हुए थे। दक्षिण की ओर श्रीहनुमानजी, जाम्बवन्त, अंगदजी आदि गये हुए थे। जब वे लोग खोजते-ढूँढ़ते समुद्र के किनारे पहुँचे, तो वहाँ उनको सम्पाति से भेंट हुई। उन्होंने बताया कि श्रीसीताजी रावण-रक्षित लंकापुरी स्थित अशोकवाटिका में हैं। मैं यहाँ से देख रहा हूँ, तुमलोग नहीं देखते।
‘मैं देखौं तुम नाहिंन, गीधहि दृष्टि अपार ।’
इस प्रकार पता लग गया कि श्रीसीताजी लंका में हैं। लेकिन वहाँ जाकर उनके दर्शन कर, उनसे कथा-वार्ता कर, वहाँ का समाचार लेकर आए तो कौन और कैसे? क्योंकि सौ योजन समुद्र का लंघन किये बिना कोई वहाँ जा नहीं सकता था। जितने बंदर-भालू थे, सबने अपने-अपने बल-विक्रम की बात बतायी। किसी ने दश योजन, किसी ने बीस योजन, इसी क्रम में 30, 40, 50, 60, 70, 80, 90 योजन तक लाँघने की बात उनलोगों ने सुनायी। लेकिन समुद्र लंघन करना तो सौ योजन का था। अंगद ने कहा-
“ अंगद कहा जाउँ में पारा ।
मन संशय कछु फिरती बारा ।।”
(रामचरितमानस)
अंगद सौ योजन समुद्र लाँघ सकता था, वहाँ पहुँच सकता था; लेकिन उसको उस ओर से लौटने में संदेह था। जाम्बवन्त बैठे हुए थे हनुमानजी की बगल में। उन्होंने उनसे कहा, ‘रामकाज के लिए तुम्हारा अवतार हुआ है। तुम चुप बैठे हो?’
“ जाम्बन्त कह सुनु हनुमाना ।
का चुप साधि रह्यो बलवाना ।।
राम काज हित तव अवतारा ।
सुनतहिं भये पर्वताकारा ।।”
(रामचरितमानस)
जाम्बवन्त के वचन सुनकर हनुमन्त तो पर्वतवत् बन गये और फिर जोशभरी वाणी में बोले-हे जाम्बवान! आप बताइये कि लंका जाकर वहाँ मुझे करना क्या-क्या है? रावण को मारकर आऊँ या उसको बाँधकर लाऊँ अथवा लंका को समुद्र में डुबाऊँ। आप बताएँ, मैं क्या करूँ? जाम्बवन्त ने कहा, ‘तुमको केवल श्रीसीताजी की खबर लेकर आना है।’ मेरे इस प्रसंग के सुनाने का तात्पर्य क्या हुआ? यह कि उतने बलवीर धीर महावीर जो थे, वे भी अपने बल को भूल गये थे। जाम्बवान ने याद दिलाया तो उनको याद आया और वे छलाँग मार, समुद्र को लाँघ, अक्षय कुमार को मार, लंका को जला, श्रीसीताजी की सुधि ला भगवान श्रीराम के पास उपस्थित हो गये। इसी भाँति आपलोग भी जानते सब बात हैं; किन्तु मैं तो केवल याद दिलाने के लिए आपलोगों के समक्ष उपस्थित हुआ हूँ।
विज्ञापन के द्वारा आपलोगों को यह बात ज्ञात करायी गयी है कि यहाँ संतमत का सत्संग होगा। संतमत कोई नया धर्म, नया मत, नया मजहब या नया सम्प्रदाय नहीं है। यह परम पुरातन, सनातन वैदिक धर्म है। पर वैदिक धर्म होते हुए यह किसी अवैदिक धर्म से घृणा अथवा राग-द्वेष नहीं करता, बल्कि संतमत में सभी संतों का समान रूप से सम्मान किया जाता है, किन्हीं का अपमान नहीं किया जाता। संतमत में कोई संत बड़े और कोई संत छोटे, ऐसा नहीं माना जाता। बल्कि ऐसा माना जाता है-
“ जे पहुँचे ते कहि गये, तिनकी एकै बात ।
सबै सयाने एक मत, तिनकी एकै जात ।।”
आपलोगों ने थोड़ी देर पहले संत-स्तुति सुनी है। उसमें सब संतों की बलिहारी है-‘सब सन्तन्ह की बड़ि बलिहारी। उनकी स्तुति केहि विधि कीजै, मोरी मति अति नीच अनाड़ी।’ वे संत होते हैं तथा वे क्या करते हैं? तो कहा-
“ दुख-भंजन भव-फंदन-गंजन ,
ज्ञान-ध्यान-निधि जग-उपकारी ।
विन्दु-ध्यान-विधि नाद-ध्यान-विधि ,
सरल-सरल जग में परचारी ।।”
तत्पश्चात् कहते हैं-
“ धनि ऋषि सन्तन्ह धन्य बुद्ध जी ,
शंकर रामानन्द धन्य अघारी ।
धन्य हैं साहब सन्त कबीर जी ,
धनि नानक गुरु महिमा भारी ।।
गोस्वामी श्री तुलसि दास जी ,
तुलसी साहब अति उपकारी ।
दादू सुन्दर सूर श्वपच रवि ,
जगजीवन पलटू भयहारी ।।”
सृष्टि के आदिकाल से अबतक तथा जबतक सृष्टि रहेगी, कितने संत हुए और कितने होंगे, उन सबमें किन-किनके नाम पद्य में जोड़ें और किन-किनके नाम छोड़े जाएँ, इस दृष्टि को अपनाकर संत कवि ने अपने हृदय के उद्गार में कहा-
“ सतगुरु देवी अरु जे भये हैं ,
होंगे सब चरणन शिर धारी ।
भजत है ‘मेँहीँ’ धन्य-धन्य कहि ,
गही सन्त-पद आशा सारी ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
इस पद्य में सभी संतों की वंदना है। मैं कुछ अपनी बात नहीं, मैं तो कुछ संतों की, सद्ग्रंथों की और विद्वज्जनों की बात ही आपके समक्ष रखने आया हूँ।
विद्वानों का कथन है कि बिना कारण के कार्य नहीं होता। पहले कारण होता है, पीछे कार्य। आप देखते हैं कि इतना बड़ा विशाल पंडाल बनाया गया है, इतना बड़ा आयोजन किया गया है, इसकी क्या आवश्यकता है? कोई कारण तो होना ही चाहिए। विद्वानों का कथन है, जो कार्य करने के पहले सोच लेता है अर्थात् जो सोचकर कार्य करता है, वह बुद्धिमत्ता कहलाती है। जो काम करते हुए सोचता है, यह सतर्कता कहलाती है। जो कार्य करने के बाद सोचता है, वह मूर्खता कहलाती है।
“ बिना विचारे जो करै सो पीछे पछताय ।
काम बिगाड़े आपनो जग में होत हँसाय ।।
जग में होत हँसाय चित में चैन न आवै ।
राग रंग सम्मान आदि कछु मन नहिं भावै ।।
कह गिरिधर कविराय करमगति टरत न टारै ।
खटकत है उर माहिं करत जो बिना विचारै ।।”
इसलिए कर्म करने के पहले सोच लेना चाहिए। यहाँ कार्यक्रम में आपलोगों ने देखा-सबसे पहले ईश-स्तुति हुई। उसके बाद संत-स्तुति की गयी। पश्चात् सद्गुरु-स्तुति, संतमत-सिद्धांत का पाठ, संतमत की परिभाषा और सद्ग्रंथों का पाठ हुआ। आखिर इसका कारण, इसकी आवश्यकता अथवा इसका उद्देश्य क्या है?
जो इन्सान होता है, जो विवेकशील मानव होता है, उसका जो कोई उपकार करता है, तो वह भी चाहता है उसका उपकार करे।
भगवान बुद्ध के जमाने की बात है। श्रावस्ती नगर में एक बहुत बड़े सेठ थे। नगर सेठ कहलाते थे। वे जितने ही बड़े सेठ थे, उतने ही बड़े वे कंजूस भी थे। भिक्षु लोग भिक्षा के लिए उनके पास जाते थे, तो वे कभी किसी को कुछ देते नहीं थे। भगवान बुद्ध के प्रमुख शिष्य सारिपुत्र भी कई दिन उनके दरवाजे पर जाते रहे; लेकिन उन्होंने उनको भी कभी कुछ नहीं दिया; परन्तु सारिपुत्र ने जाना बंद नहीं किया। एक दिन सेठजी ने पूछा, ‘भिक्षु! मैं तो तुमको कभी कुछ देता नहीं, फिर तुम आते क्यों हो?’ सारिपुत्र ने कहा, ‘तुम देते कैसे नहीं हो? इतने दिनों तक तुम मौन रहे, चुप रहे; लेकिन आज वचन तो तुमने दिये।’ सेठजी ने देखा, यह बड़ा संतोषी भिक्षु है। किसी से कहा, ‘एक कलछी भात इसको दिला दो।’ उनको एक कलछी भात दिला दिया। वे संतुष्ट होकर विहार चले आये। अब होता क्या है? सेठजी के ऊपर उन संत का प्रभाव पड़ता है। उनकी अहैतुकी कृपा होती है। परिणामस्वरूप सेठजी के मन में अपने वैभव से विराग हो जाता है। सोचते हैं-मैंने तो चाहा था, भोगों को भोगेंगे। लेकिन भोग ने ही मुझे भोग लिया। संत कबीर साहब की वाणी में है-
“ हम जाने थे खायेंगे, बहुत जमीं बहु माल ।
ज्यों का त्यों रह गया, पकड़ि ले गया काल ।।” शरीर वृद्ध होता है; लेकिन तृष्णा वृद्धा नहीं होती। वह ज्यों की त्यों युवती बनी रहती है। तुलसीदासजी ने कहा है-‘बुझै न काम अगिनि तुलसी कहुँ विषय भोग बहु घी तें ।’
प्रज्वलित अग्नि में घृत डालने से वह बुझती नहीं, वह बढ़ती है। उसी तरह विषय-भोगों से कभी तृप्ति होती नहीं। बल्कि कामाग्नि अधिकाधिक बढ़ती है। हाँ, तो उक्त संत की अनुकम्पा से सेठजी का मन संसार से उपराम हुआ और वे चले आये भगवान बुद्ध की चरण-शरण में शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करने के लिए। भगवान बुद्ध ने भिक्षुओं को बुलवाया और पूछा, ‘तुमलोग इनको पहचानते हो, ये कौन हैं?’ भिक्षुओं ने कहा, ‘जी हाँ! ये बहुत बड़े सेठ हैं। बहुत धनी हैं।’ भगवान बुद्ध ने पुनः पूछा, ‘तुमलोगों का उपकार इन्होंने कभी कुछ किया है?’ भिक्षुओं ने कहा, ‘भन्ते! ये बहुत बड़े कंजूस हैं, सूम हैं, मक्खीचूस हैं।
संसार में चार तरह के लोग होते हैं-दाता, उदार, सूम (कंजूस) और मक्खीचूस।
अपनी सुख-सुविधा की परवाह नहीं करके जो दूसरों की भलाई करते हैं, उपकार करते हैं, ऐसे विचार के लोगों को दाता कहा जाता है। अपनी अर्जित सम्पत्ति के द्वारा जो अपनी सुख-सुविधा के साथ दूसरों का भी ख्याल रखते हैं, उपकार करते हैं, वे उदार कहलाते हैं। जो स्वयं के सुख-भोग की तो व्यवस्था करते; किन्तु औरों की परवाह नहीं करते, वे सूम कहलाते हैं। जो प्राप्त धन का न तो स्वयं उपभोग करते और न अन्यों को करने देते, धन को बटोर-बटोरकर रखते जाते हैं, वे मक्खीचूस कहलाते हैं। जैसे घीउ में मक्खी चली गयी, उसको वे यों ही निकालकर नहीं फेंकते, बल्कि मक्खी को बाहर निकालने में उसके साथ घीउ न चला जाए, ऐसा विचारकर मक्खी को चूसकर फेंकते हैं, वे मक्खीचूस कहलाते हैं।
हाँ, तो इतने में वहाँ सारिपुत्र आ गये। उन्होंने कहा, ‘भगवन! इन्होंने मेरा बहुत बड़ा उपकार किया है।’ भगवान बुद्ध ने पूछा, ‘क्या उपकार किया है?’ सारिपुत्र ने कहा, ‘एक दिन एक कलछी भात इन्होंने मुझे दिलवाया था।’ भगवान बुद्ध ने कहा, ‘धन्य हो तुम सारिपुत्र! एक कलछी भात दिलानेवाले को भी याद रखते हो, इसलिए तुम्हीं इनको भिक्षु बनाओ। संन्यास-दीक्षा दो।’ भगवान की आज्ञा पाकर सारिपुत्र ने उस सेठजी को संन्यास-दीक्षा दी।
इस कथा के कहने का तात्पर्य यह है कि उत्तम पुरुष कैसे होते हैं? भात देनेवाले की बात कौन कहे, यहाँ तो दिलानेवाले का भी उपकार नहीं भूलते।
अब हम जरा अपनी ओर देखें, सोचें। हमलोग परम प्रभु परमात्मा से कितने उपकृत हैं! जरा विवेक विलोचन से अवलोकन करें। जिस समय हम अपनी माताजी के गर्भ में थे। पिताजी तो हमसे दूर थे। जिस माताजी के पेट में हम थे, वह बेचारी माताजी भी नहीं जानती थीं कि पेट में पुत्र है अथवा पुत्री। फिर हमारे लिए उस समय वहाँ वे कुछ कर ही क्या सकती थीं। नौ-दस महीने हम माताजी के पेट में रह गये; लेकिन हम क्या खाते थे, क्या पीते थे। कब और कैसे जगते थे। वहाँ कैसे बैठते थे, कैसे करवट बदलते थे। कैसे श्वास लेते थे। न जाने वहाँ कैसे-कैसे बचा करते थे अथवा क्या-क्या कैसे-कैसे होता था, कुछ पता नहीं। फिर भी प्रभु-कृपा से एक बूँद से बढ़ते-बढ़ते नौ-दस महीने का सुन्दर सुरक्षित शरीर माता के गर्भ से निकल आया। वहाँ किसने खिलाया। किसने पिलाया। किसने रक्षा की। किसके संरक्षण में रहे। जाड़ा, गर्मी, बरसात सभी मौसम बीत गये। वहाँ गर्मी मौसम में कैसा अद्भुत कूलर लगा था और जाड़े में कैसा हीटर। अद्भुत और आश्चर्य है। आराम से हम रह गये वहाँ नौ-दस महीने। फिर जन्म हुआ। जिस समय इस संसार में आये, उस समय मुँह में एक भी दाँत नहीं था। बात बोलने की शक्ति नहीं थी, तब प्रभु ने हमारे लिए कितनी सुंदर दूध की व्यवस्था की। वह दूध भी कैसा सुस्वादु, सुपाच्य और चौबीस घंटे तरोताजा। उसको कभी औंटने का काम नहीं। ऐसा भी कभी नहीं कि अधिक गर्म हो, तो उसको ठंढा करने की आवश्यकता पड़े। फिर ऐसा भी नहीं कि अधिक ठंढा हो, तो उसको गर्म किया जा जाय, बल्कि नातिशीतोष्ण। वह दूध कभी कमता नहीं। कभी जमता नहीं। कभी घटता नहीं, कभी फटता नहीं। उसमें कभी कीड़े-मकोड़े लगने का भय नहीं। इस तरह की सारी सुव्यवस्था कर दी प्रभु ने माताजी के शरीर में। हम जन्म लेते हैं। भूख लगती है, तो रोते हैं। माताजी हमें स्तन-पान कराती है। मुँह में स्तन डाल देती हैं; परन्तु क्या वे हमें सिखा सकती हैं कि बच्चे! तुम ऐसे दूध चूसो और ऐसे घूँटो तो तुम्हारे पेट में दूध जाएगा, तुम्हारी भूख मिटेगी। किसने सिखलाया कि ऐसे चूसो। किसने सिखलाया कि ऐसे घूँटो। यह सब प्रभु की कृपा है। प्रभु की देन है हम पर। जब दाँत नहीं, तब दूध पीया। और जब दाँत हो गये, तब?
“ अन्न धन फल फूल मेवा कन्द नाना जाति के ।
हैं रचे जिसने हमारे ही लिये सब भाँति के ।।”
कितना मेवा खाया। कितना मिष्टान्न खाया। कितना दूध पीया। कितना दही खाया, न जानें कितनी-कितनी अच्छी-से-अच्छी चीजें खायीं। इन्सान एक कलछी भात दिलानेवाले की भी याद रखते हैं और जिसने हमें इतना खिलाया। इतना पिलाया। अबतक खिलाते हैं और जबतक जीवन रहेगा, तबतक खिलाते रहेंगे। अन्न और जल के बिना तो हम कुछ दिन जीवित रह सकते हैं; लेकिन हवा के बिना हम एक सेकेण्ड नहीं जीवित रह सकते। वह हवा कृपालु प्रभु हमें मुफ्रत देते रहते हैं। उस प्रभु की यदि याद नहीं करें, तो हम कैसे इन्सान हैं।
उपकारक का उपकार करना इन्सानियत है। यदि हम उनका कुछ उपकार नहीं कर सकते हैं, तो कम-से-कम उनका नाम तो लें। प्रभो! तुम धन्य हो। गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा है-
“ तुम्हरीहि कृपा से हम सजे हैं,
न तो मोसे गरीब करोड़न है ।”
हे प्रभु! तुम्हारी ही कृपा से हम सजे हैं, मजे में हैं। सुन्दर शरीर हैं। सुंदर घर है। सुंदर आवास है। सुंदर भोजन है। सुंदर वस्त्र-अलंकार है। सब कुछ सुन्दर-ही-सुन्दर है। नहीं तो मेरे समान कितने तो सड़क पर खड़े हैं, कितने फूटपाथ पर पड़े हैं और कितने पेड़ के नीचे जाड़ा-गर्मी-बरसात सहते हैं; मानो वे यहाँ ही गड़े हैं, उसको कोई पूछनेवाला नहीं है। जो कुछ भी सुख है, जो कुछ भी सुविधा है, जो कुछ भी आराम है, सब उस प्रभु की देन है। उस प्रभु का नाम हम नहीं लें, तो कितने कृतघ्न हैं। इसलिए हमलोग सबसे पहले ईश-स्तुति करते हैं। स्तुति कहते हैं यशगान को, जिससे उनकी विशेषता जानी जाती है। जबतक किसी की विशेषता नहीं जानी जाती, तबतक उस ओर आकर्षण नहीं होता। इस हेतु प्रभु के गुणों का गान अवश्यमेव करना चाहिए।
“ जाने बिनु न होइ परतीती ।
बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ।।
प्रीति बिना नहिं भगति दृढ़ाई ।
जिमि खगेस जल कै चिकनाई ।।”
(रामचरितमानस)
ईश्वर अव्यक्त है। अंतर्बाह्य किसी इन्द्रिय से हम उनको ग्रहण नहीं कर सकते। जो परम तत्त्व आदि-अंत-रहित, असीम, अजन्मा, अगोचर, सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे है, उसे ही सर्वेश्वर-सर्वाधार मानना चाहिए।
ऐसे अव्यक्त परमेश्वर के दर्शन हम इन नेत्रें से कैसे कर सकते हैं! लेकिन उनके व्यक्त रूप संत के दर्शन तो कर ही सकते हैं-करते भी हैं। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ परम पुरुष की आरसी, संतों की ही देह ।
लखा जो चाहे अलख को, इनही में लखि लेह ।।”
और गोस्वामीजी ने विनयपत्रिका में लिखा है-
“ संत भगवंत अंतर निरंतर नहिं,
किमपि मति विमल कह दास तुलसी ।”
इन संतों से भी हम बहुत उपकृत हैं। गोस्वामी जी के ही शब्दों में हम कह सकेंगे-
“ संत उदय संतत सुखकारी ।
विश्व सुखद जिमि इन्दु तमारी ।।”
जैसे चन्द्र और सूर्य का उदय जगन्मंगल के लिए हुआ करता है, उसी तरह संतों का अवतार भी विश्व उपकार के लिए हुआ करता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में कहा है-
“ मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा ।
राम तें अधिक राम कर दासा ।।
राम सिन्धु घन सज्जन धीरा ।
चन्दन तरु हरि सन्त समीरा ।।
सबकर फल हरि भगति सुहाई ।
सो बिनु सन्त न काहूँ पाई ।।
अस बिचारि जोइ कर सतसंगा ।
राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा ।।”
गोस्वामीजी कहते हैं, मेरे मन में तो यह विश्वास है कि राम से अधिक राम के दास होते हैं। किसी ने जिज्ञासा की, ‘गोस्वामीजी! कहाँ तो राम और कहाँ राम के दास? राम से बढ़कर राम के दास कैसे हो सकते हैं? इसके उत्तर में उन्होंने कहा, ‘देखो, राम अगाध समुद्र के समान हैं। समुद्र जैसे स्थिर रहता है, उसी तरह से प्रभु सर्वत्र हैं और जैसे स्थिर रहता है। कहीं आते-जाते नहीं हैं। जाता-आता कौन है? उसी समुद्र से वाष्प उठता है, बादल बनते हैं। वे ही यत्र-तत्र जाकर जल-वर्षा करते हैं। यह मीठा जल सबके लिए सुलभ हो जाता है। और वह जल भी कैसा-डिस्टिल्ड वाटर जैसा विशुद्ध समझ लो। समुद्र का जल होता है खारा। ऐसा खारा कि उसको कोई पी नहीं सकता। जलयान का यात्री उस जल में यात्र करते हुए भी प्यासा मर जाएगा, यदि अन्य पेय जल की व्यवस्था नहीं हो। उसी तरह ईश्वरीय ज्ञान बहुत खारा और गंभीर है, ईश्वर हमारे बाहर-अंदर रहने पर भी हम तृषित हैं। समुद्र संभूत बादल की भाँति प्रभु की मौज से ही संत होते हैं। वे जहाँ-तहाँ विचरण करके उस ईश्वरीय खारे ज्ञान को मीठा बनाकर हमलोगों में वितरित करते हैं। हम अपने गुरुदेव की वाणी में कह सकते हैं-
“ विन्दु-ध्यान-विधि नाद-ध्यान-विधि ,
सरल-सरल जग में परचारी ।”
वर्षा के जल से हमारी खेती पटती है। विविध प्रकार के अन्न-फल होते हैं। हम अन्न-जल खाते-पीते और जीते हैं। हमारा बड़ा उपकार होता है। उसी तरह संत जन संसार में अवतार लेकर अपने ज्ञान की वर्षा कर हमारा सर्वश्रेष्ठ उपकार करते हैं। हमारा उद्धार करते हैं। शहर में, महानगर में घूम-घूमकर ईश्वर के ज्ञान को देते हैं। कभी सद्ग्रंथों को लिखकर, कभी लेखन-द्वारा और कभी प्रवचन-द्वारा प्रभु के ज्ञान को बतलाते हैं। इसलिए संत की स्तुति भी अवश्य करनी चाहिए।
स्वामी दयानन्दजी महाराज ने तो लिखा, ‘ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नित्य करनी चाहिए। जो कोई ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता, वह पशुवत् है।’ इसलिए हमलोग ईश्वर की स्तुति और संत-स्तुति नित्य करते हैं। फिर समय-समय पर उपासना भी करते हैं।
संत बहुत हैं। उन्हीं संतों में से कोई संत हमें ईश्वर पाने की विधि बतलाते हैं यानी दीक्षा देते हैं। संत लोग हमें दीक्षा देते हैं और जो हमारे गुरुदेव होते हैं, वे हमें शिक्षा और दीक्षा दोनों देते हैं। संत चरणदासजी महाराज ने गुरु-महिमा के संदर्भ में कहा है।
बच्चे को जितना प्यार पिता देते हैं, उससे सौ गुणा अधिक प्यार माता देती हैं। हमारे सुधार के लिए कभी-कभी माँ डाँट देती हैं, कभी फटकार भी देती हैं, कभी दो-चार थप्पड़ मार भी देती हैं, पर हृदय में लबालब प्यार रखती हैं। यह डाँट, फटकार और मार की पताका तो बाहर फहराती है; लेकिन उसके भीतर प्यार से भरा सागर लहराता है। जरा सोचकर देखिये-
मान लीजिए, एक कोई छोटा बच्चा है। उसके पिताजी कहीं बाहर जाने के लिए अपने सब कपड़े पहन लिये हैं। यात्र करते समय अपने नन्हें मुन्ने को अपनी गोद में उठाकर कमल से कोमल कपोल को प्यार भरा चुम्बन लेते हैं। यदि उसी समय वह बच्चा उनके सुसज्जित शरीर पर शौच कर कपड़े गंदा कर दे, तो उस समय बच्चा उसके पिताजी का चेहरा देखिये। वे उस बच्चे को तुरंत उतार देंगे। लेकिन यदि यही समस्या माताजी के सामने आवे, तो वे मुख मोड़ेंगी नहीं और भी मुख चूम लेगी। कपड़े बदलकर हँसती हुई चली जाएँगी। माँ के मुख पर तनिक भी मलिनता नहीं आएगी। इसीलिए-
“ पितु सूँ माता सौ गुना, सुत को राखै प्यार ।
मन सेती सेवन करै, तन सूँ डाँट अरु गार ।।
माता सूँ हरि सौ गुना, जिनसे सौ गुरुदेव ।
प्यार करैं औगुन हरैं, चरणदास शुकदेव ।।”
जहाँ हमारे माता-पिता हमारा कल्याण नहीं कर सकते, वहाँ हमारे परम प्रभु परमात्मा हमारा कल्याण करते हैं। इसलिए ‘माता से हरि सौ गुणा।’ लेकिन ‘तिनसे सौ गुरुदेव’ कहा। मतलब यह कि प्रभु से भी सौ गुणा अधिक उपकारी गुरुदेव होते हैं। कैसे?
जबसे यह सृष्टि है और जबसे सृष्टि में हम हैं, तबसे हमारे साथ हमारे प्रभु विराजमान हैं। लेकिन कभी प्रभु ने हमसे नहीं कहा कि मैं तुम्हारे शरीर के इस भाग में-इस कोने में बैठा हुआ है। तुम मेरे दर्शन कर लो, तुम्हारा भव-पाश कट जाएगा, मुक्त हो जाओगे। लेकिन संत सद्गुरु उर-पुर-वासी प्रभु के भरपूर दर्शन करा सभी दुःखों से छुटकारा दिला देते हैं। इसीलिए भक्तिन सहजोबाई ने बड़ी मार्मिक बात कही है-
“ राम तजूँ पै गुरु न बिसारूँ ।
गुरु के सम हरि कूँ न निहारूँ ।।
हरि ने जन्म दियो जग माहीं ।
गुरु ने आवागमन छुटाहीं ।।
हरि ने पाँच चोर दिये साथा ।
गुरु ने लई छुटाय अनाथा ।।
हरि ने कुटुँब जाल में गेरी ।
गुरु ने काटी ममता बेरी ।।
हरि ने रोग भोग उरझायौ ।
गुरु जोगी कर सबै छुटायौ ।।
हरि ने कर्म भर्म भरमायौ ।
गुरु ने आतम रूप लखायौ ।।
हरि ने मो सूँ आप छिपायौ ।
गुरु दीपक दे ताहि दिखायौ ।।
फिर हरि बंधमिुक्त गति लाये ।
गुरु ने सबही भर्म मिटाये ।।
चरणदास पर तन मन वारूँ ।
गुरु न तजूँ हरि कूँ तजि डारूँ ।।”
इस दृष्टि से हरि से भी बढ़कर गुरु होते हैं। गुरु की महिमा बताते हुए गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ बिनु सतिगुर सेवे जोगु न होई ।
बिनु सतिगुर भेटे मुकति न कोई ।।
बिनु सतिगुर भेटे नामु पाइआ न जाइ ।
बिनु सतिगुर भेटे महा दुखु पाइ ।।
बिनु सतिगुर भेटे महा गरबि गुबारि ।
नानक बिनु गुर मूआ जनमु हारि ।।”
संत सुंदरदासजी महाराज ने कहा-
‘गुरु की तो महिमा अधिक है गोविन्द तें ।’
यथा-
“ गोविन्द के किये जीव, जात है रसातल को ।
गुरु उपदेशै सो तो, छूटै यम फन्द तैं ।।
गोविन्द के किये जीव, वश परे कर्मन के ।
गुरु के निवारे सूँ फिरत है स्वछंद तैं ।।
गोविन्द के किये जीव, डूबत भवसागर में ।
सुन्दर कहत गुरु, काढ़ै दुख द्वन्द्व तें ।।
औरहू कहाँ लौं कछु, मुख तें कहूँ बनाय ।
गुरु की तो महिमा अधिक है गोविन्द तें ।।”
इसलिए गुरु की भी स्तुति अनिवार्य है। यही हेतु है कि हमलोग संत-स्तुति करके सद्गुरु की भी स्तुति करते हैं। फिर जिस धर्म के हम हैं, उस धर्म का सिद्धांत यदि हमें मालूम नहीं, तो यह अशोभनीय बात है। सिद्धांत जाने बिना अपने को उस धर्म का मानना वा बताना लज्जास्पद बात है। किसी भी धर्म की परिभाषा का भी पाठ करते हैं। सभी धर्मावलंबियों को अपने-अपने धर्म के सिद्धांत और परिभाषा का ज्ञान होना आवश्यक है।
जितने लोग आस्तिक बुद्धि के हैं, चाहे वे ईसाई, वैदिक, इस्लाम, बौद्ध, जैन, सिख आदि कोई क्यों न हों, सबके प्रभु एक हैं। सारी सृष्टि के प्रभु एक हैं। जगन्नियन्ता एक हैं। सभी ईश्वरवादी उस एक परमात्मा की स्तुति किसी-न-किसी रूप में करते ही हैं, चाहे उसकी संज्ञा हम जो भी दे दें, स्तुति कहें, प्रेयर (च्तमलमत) कहें अथवा नमाज कहें, एक ही बात है।
“ इबादत है किसी नाशाद को फिर शाद कर देना ।
इबादत है किसी बरबाद को फिर आबाद कर देना ।।”
यह इबादत है। तीन बच्चे एक खेल खेल रहे थे। कुछ लोग इस तमाशे को देख रहे थे। उनमें से एक सज्जन के मन में आया कि ये बच्चे बहुत देर से तमाशा दिखा रहे हैं, क्यों न इनको कुछ पैसे दे दिये जाएँ। यह सोचकर उक्त सज्जन ने उन बच्चों को कुछ पैसे दे दिये और कहा, ‘तुमलोगों की जो इच्छा हो, कुछ खरीदकर खा लेना।’ खेल समाप्त होने पर तीनों ने परस्पर विचार करने लगे कि इन पैसों से कौन-सी चीज खरीदी जाए? एक ने तरबूजा, दूसरे ने वाटरमेलन और तीसरे ने हिन्दवाना खरीदने का प्रस्ताव रखा। तीनों अपनी-अपनी मनमानी चीज पाना चाहते थे। भाषा-ज्ञान के अभाव में तीनों आपस में झगड़ पड़े।
पैसे देकर तो वे सज्जन बाजार चले गये थे। उधर से लौटने पर उन्होंने देखा कि तीनों बच्चे झगड़ रहे हैं। उन्होंने पूछा, ‘बच्चो! तुमलोग झगड़ते क्यों रहे हैं?’ तीनों ने अपनी-अपनी बात बतायी। उक्त सज्जन ने कहा, ‘अच्छा! मुझे पैसे दो। मैं तुमलोगों की इच्छित चीज बाजार से लाकर अभी देता हूँ।’ बच्चे ने पैसे दे दिये। वे सज्जन पैसे लेकर बाजार गये और सामान लाकर कपड़े से ढँककर रख दिया। फिर तीनों से क्रम-क्रम से पूछा, ‘क्या चाहिए?’ उन तीनों की माँग के अनुकूल तीनों की मनमानी चीज मिल गयी। वे लोग खुशी-खुशी अपने- अपने घर चले गये।
बात यह हुई कि उन तीन बच्चों में एक तो वैदिक, दूसरा अँग्रेज और तीसरा मुसलमान था। अपनी-अपनी भाषा के अनुकूल तीनों बच्चे अपनी-अपनी चीज माँगते थे। वास्तव में चीज, तो एक ही थी। मात्र नाम-भेद था। भारतीय भाषा में जिसको तरबूज कहते हैं, अँग्रेजी में उसी को वाटरमेलन और फारसी में हिन्दवाना कहते हैं। एक दूसरे की भाषा में अनभिज्ञ रहने के कारण परस्पर विवाद हुआ था। विद्वान सज्जन तीनों भाषा के जानकार थे। इसलिए तीनों को समझाकर समस्या का समाधान कर दिया। उसी तरह वे भले ही राम या ब्रह्म कहो, खुदा या अल्लाह कहो, गॉड या स्वर्गस्थ पिता कहो, एक ही बात है। ईश्वर-वाचक जो शब्द कहना चाहो, कह लो। वास्तव में स्वरूपतः तो वह एक-ही-एक है। भाषा की भिन्नता है, तत्त्व अभिन्न है। भाषान्तर है, भावान्तर वा तत्त्वान्तर नहीं। ‘शब्द’ लेकर झगड़ना बालपने की बात है। वह ईश्वर एक है। उसी एक ईश्वर का ज्ञान इस संतमत-सत्संग के द्वारा दिया जाता है।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिल्ली-हरियाणा-चंडीगढ़ मानव सेवा संघ के प्रांगण करणाल
में दिनांक 1-11-1989ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जनवरी 1990 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द माताओ एवं बहनो!
संतों का अवतरण विश्वकल्याण के लिए हुआ करता है। जो कोई संत-वचन का श्रवण, मनन, निदिध्यासन करके अनुभव प्राप्त कर लेते हैं, उनका इहलोक और परलोक-दोनों कल्याणमय हो जाते हैं। इसलिए संतों का उपदेश केवल सुनने के लिए ही नहीं होता है, सुनने, गुनने, समझने और तदनुकूल आचरण करने के लिए होता है। आचरणहीन और अनुभव ज्ञानविहीन जन जो कुछ समझते और समझाते हैं, उनके लिए गोस्वामीजी ने लिखा है-
“ सुनिय गुनिय समझिय समझाइय,दसा हृदय नहिं आवै ।
जेहि अनुभव बिन मोह जनित भव दारुन विपति सतावै ।।”
कहा बहुत, सुना बहुत और किया कुछ नहीं, तो जो लाभ होना चाहिए, उससे हम वंचित रहेंगे। अभी आपलोगों ने संत कबीर साहब की वाणी सुनी है, उसका एक-एक बोल अनमोल है-
‘बातें हैं अनमोल मोल नहीं एक एक की ।’
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
कबीर साहब के वचन में नर-तन की क्षणभंगुरता और भगवद्भजन की ओर से हमारी लापरवाही बतलायी गयी है। अपने वचन में इन्होंने कहा-शरीर छूटेगा, इस बात को कौन नहीं जानता, देखता कौन नहीं, समझता कौन नहीं, बूझता कौन नहीं; लेकिन मन पर कितना प्रभाव पड़ता है, कितनी देर के लिए पड़ता है।
हम कहीं जाते हैं, कथा सुनने के लिए। कथा सुनकर आते हैं और सुनी हुई कथा की चर्चा भी करते हैं, चाहे वह कथा रामायण की हो, महाभारत की हो अथवा भागवत आदि किसी ग्रंथ की हो। जो कुछ भी कथा हमलोग सुनते हैं, उस कथा का विषय बड़ा रोचक मालूम पड़ता है। उस रोचक कथा से हमारा मनोरंजन होता है; लेकिन उससे हमारी व्यथा चली जाएगी, यह बात नहीं। कथा-श्रवण से मनोरंजन होगा; लेकिन वह दुःखभंजन का कारण नहीं होगा। दुःखभंजन तो तभी होगा, जब दुःखभंजन प्रभु का हम भजन करेंगे। अभी आपलोगों ने सुना-
“ निधड़क बैठा नाम बिनु, चेति न करै पुकार ।
यह तन जल का बुदबुदा, बिनसत नाहीं बार ।।”
(संत कबीर साहब)
निधड़क=निडर। जिसके हृदय में कोई डर नहीं है, वह क्या करेगा? मान लीजिए, गृहपति के भोजन का समय हो गया; लेकिन गृहिणी के मन में मालिक का डर नहीं है, तो वह समय पर भोजन नहीं बनायेगी। सोचेगी, वे आयेंगे, तो हमारा क्या कर लेंगे। समय पर नास्ता नहीं देगी। परिणाम क्या होगा? घर का संतुलन बिगड़ जायेगा। यदि गृहिणी के मन में डर है, तो घर के सभी कार्य ठीक समय पर होंगे, फलतः घर सुचारु रूप से चलेगा। परिवार सुखी रहेगा। एक छोटा बच्चा है, उसको माँ-बाप पढ़ने के लिए पाठशाला भेजते हैं। बच्चे को मँा-बाप का डर है, तो वह पढ़ने जाता है, विद्यालय में अध्यापक के डर से पढ़ता है। सोचता है, नहीं पढूँगा, तो अध्यापक मारेंगे। कुछ बड़ा हो जाने पर न तो माँ-बाप मारते हैं, न गुरुजी मारते हैं; लेकिन एक छड़ी का डर अपने ही लगा रहता है कि अच्छी तरह नहीं पढूँगा तो अच्छे अंक से पास नहीं होऊँगा। कहीं फेल हो गया, तो फिर कहना ही क्या? उस डर के मारे बच्चे पढ़ते हैं। जो डर के मारे पढ़ते हैं, पढ़ते-पढ़ते विद्वान हो ज्ञानवान हो जाते हैं, प्रतिष्ठा होती है उनकी। जीवन सुखमय होता है। जिस बच्चे को माँ-बाप का, गुरुजी का कोई डर नहीं, सड़क पर खेलता है, उसमें मनुष्यता नहीं आ सकती, उसका भविष्य जीवन दूभर हो जाता है।
खेती करनेवाले कृषक जाड़ा, गर्मी, बरसात की कुछ परवाह नहीं करते। जाड़े का दिन है, ठंढी-ठंढी हवा के झोंकों से हाथ-पैर ठिठुर रहे हैं; लेकिन कृषक खेत की रखवाली करते हैं, आर-आर पर घूमते हैं। मन में डर है, कहीं जानवर तो नहीं चरते हैं। बरसात के दिनों में उनके हाथ-पैर सड़ जाते हैं। देह में दुर्गन्ध आ जाती है, धान की खेती, पाट की तैयारी करते-करते। गर्मी के दिनों में जेठ-वैशाख की दुपहरी में खेत पर गर्म-गर्म हवा लगने से चेहरा काला पड़ जाता है, झुलस जाता है; लेकिन हल जोतता है, कुदाल चलाता है, पानी पटाता है, निकौनी करता है-सब कुछ करता है, क्यों? इसलिए कि ठीक समय पर अगर खेती नहीं करूँगा तो अनाज नहीं उपजेगा। मेरे बाल- बच्चे भूखों मरेंगे, मेरा जीवन दुःखमय न हो, इसलिए डर के मारे वह काम करता है।
वाणिज्य करनेवाले व्यापरियों के मन में यह डर है कि व्यापार में हमको हानि न हो जाय, इस डर से वे सतर्क रहते हैं और होशियारी के साथ कार्य करते हैं। इस भाव से खरीदा है, इस भाव में बेचना है, इस तरह से इसको रखना है। इसमें त्रुटि नहीं हो जाय, नहीं तो काम बिगड़ जाएगा, डर है। इस डर के मारे रात को सोना हराम हो जाता है।
फौज सीमा पर खड़ी है। वह जाड़ा, गर्मी, बरसात सब सह रही है। डर है, अगर हम थोड़ी-सी भी असावधानी कर जायेंगे, तो दुश्मन हमारे ऊपर चढ़ आयेंगे, हम पराधीन हो जायेंगे। इस भय से वे सजग-सावधान रहते हैं।
रोगी हैं, दवाई खाते हैं। क्यों खाते हैं? डर है कि औषधि-सेवन नहीं करने से रोग बढ़ जाएगा, कष्ट बढ़ जाएगा, मर जायेंगे। इस प्रकार हम देखते हैं कि हमारे दिन-रात के जितने काम हैं, उन सबके पीछे डर लगा हुआ है। अगर डर नहीं रहे, तो आदमी कुछ नहीं करे। इसलिए संत कबीर साहब ने कहा-
“ डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार ।
डरत रहै सो ऊबरै, गाफिल खावै मार ।।”
उसी तरह जो सोचते हैं कि शरीर छूटेगा, हम कहाँ जायेंगे, कहीं दुर्गति तो नहीं हो जाएगी, तो उस दुर्गति से बचने के लिए डर के मारे वे भगवद्भजन करते हैं। अगर हम भगवद्भजन नहीं करें, तो क्या होगा? गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने लिखा है-
“ ते नर नरक-रूप जीवत जग,
भव-भंजन पद विमुख अभागी ।”
एक जगह तो कहते हैं, ‘बड़े भाग मानुष तन पावा।’ अर्थात् जो मनुष्य-जन्म पाये है, वे बड़भागी हैं; लेकिन मनुष्य-जन्म पाकर भी जो भव-भंजन का भजन नहीं करता, वह अभागी है।
“ निसि वासर रुचि पाप असुचि मन ,
खल मति मलिन निगम पथ त्यागी ।।
नहिं सतसंग भजन नहिं हरि को ,
स्त्रवन न राम - कथा अनुरागी ।
सुत वित दार भवन ममता निसि ,
सोवत अति न कबहुँ मति जागी ।।
तुलसिदास हरिनाम-सुधा तजि ,
सठ हठ पियत विषय-विष माँगी ।
सूकर स्वान सृगाल सरिस जन ,
जनमत जगत जननि दुख लागी ।।”
क्या कहते हैं-निशिवासर। निसि=रात, वासर=दिन। निसिवासर किधर है? ‘निसिवासर रुचि पाप।’ मन कैसा होगा उसका, जो पाप करता रहेगा? असुचि मन। मन अपवित्र रहेगा। जो अपवित्र काम करेगा, मन अपवित्र रहेगा। तब-खल मति, उसकी बुद्धि कैसी होगी? दुष्ट की बुद्धि होगी। ‘निर्मल पथ त्यागी’ जो हमारा शास्त्र कहता है, जो वेद बताता है-यह कर्तव्य है और वह अकर्तव्य है, तो अकर्तव्य को तो वह करेगा और कर्तव्य को नहीं करेगा। करेगा क्या? ‘सुत वित दार भवन ममता निसि’। इसी ममता की आग में वह मत्त रहेगा-हाय पुत्र, हाय धन, हाय स्त्री, हाय फलाँ-इसी तरह हाय हाय करते-करते एक दिन वह चला जाएगा। वह जाता अकेला है, उसके साथ कुछ जाता नहीं। सम्पत्ति, संतति सब यहीं रह जाते हैं।
भगवान बुद्ध ने किसी से पूछा-फलाँ के पास अतुल सम्पत्ति है; लेकिन उसका वह उपभोग नहीं कर पाता, सत्कर्म में लगा नहीं सकता, क्यों?
भगवान बुद्ध ने बतलाया-पूर्व जन्म में शुभकर्म के लिए उसने बहुत खर्च किया था। जितना उसने खर्च किया था, उससे कई गुना अधिक उसको मिल गया है। दान करने के बाद उसके मन में हुआ था कि इतना मैंने खर्च कर दिया। इसी भावना के कारण धन तो उसको मिल गया; लेकिन उसका उपभोग वह नहीं कर पा रहा है। सिपाही बनकर पहरा कर रहा है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-ईश्वर- नाम-रूप अमृत को तो वह छोड़ता है और विषय-विष का पान करता है। वह कैसा है? तो गो0 तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-‘सूकर स्वान शृगाल सरिस जन।’
मनुष्य जन्म पाकर जो ईश्वर-भजन नहीं करता है, तो उसका जीवन व्यर्थ है। रामचरित- मानस में एक बहुत सुंदर प्रसंग आया है-जब भगवान जंगल जाने लगे, तो लक्ष्मण जी ने कहा-भाई साहब! मैं भी आपके साथ चलूँगा। भगवान श्रीराम ने कहा-तुम अपनी पूज्या माताजी से पूछ लो। लक्ष्मणजी अपनी माता सुमित्रजी के पास जाकर कहते हैं-भाई साहब श्रीरामजी पूज्या सीता मैया के साथ जंगल जा रहे हैं, मुझे भी आदेश देकर उनकी सेवा करने का अवसर दो। श्रीराम की सौतेली माँ होने के नाते वे कह सकती थीं-जाने दो जंगल उसको, तुम क्यों जाओगे? राजा ने उसको जंगल भेजा है। तुम घर में रहकर राज्य सुख भोगो, आराम करो। लेकिन सो नहीं कहती है। सुमित्र जी कितनी मार्मिक बात कहती है-
“ पुत्रवती युवती जग सोई ।
रघुपति भगत जासु सुत होई ।।
नतरु बाँझ भल बादि बियानी ।
राम विमुख सुत तें हित जानी ।।”
कहती है-संसार में पुत्रवती नारी वही है, जिसकी संतान ईश्वर की भक्ति करती है। जिसकी संतान ईश्वर की भक्ति नहीं करे, इससे तो उस माँ का बाँझ रहना ही अच्छा था। ‘बियानी’ शब्द लिखकर गोस्वामी तुलसीदासजी ने बहुत कठोर शब्द का प्रयोग किया है; क्योंकि गाय-भैंस आदि बियाती है। ईश्वर-विमुख सुत से प्यार करनेवाली माँ को गोस्वामीजी ने उसी श्रेणी में रखा है। संत पलटू साहब की वाणी सुनिये-
“ जननी रहै तो बाँझ, पै साकट ना जनै ।
जनमत ही मरि जाय, जिये से ना बने ।
पुत्र से भला मदार, फिरै ना दोख में ।
अरे हाँ रे पलटू पुत्रवती सोइ नारि ,
भक्त जेहि कोख में ।।”
जिस नारी की संतान ईश्वर की भक्ति करती है, चाहे वह पुत्र हो अथवा पुत्री, वह देवी धन्य हैं संत कबीर साहब ने इसका भी स्पष्टीकरण कर दिया है-
“ भक्ति करत कन्या भली, साकट भला न पूत ।
छेरी के गल गलथना, जामें दूध न मूत ।।”
इसलिए शरीर छूटेगा, तुम कहाँ जाओगे, जरा सोचकर देखो। कहीं दुःख के स्थान में चले जाओ, इससे डरो। मान लो, रात हो, कमरे में अँधेरा पूर्ण हो, कुछ सूझ नहीं रहा है। गहरी निद्रा में तुम सोये हुए हो। एकाएक कोई आकर तुम्हारी टाँग को पकड़कर खींचे, उस समय तुम्हारा हृदय कैसा होगा? कैसा भय तुम्हारे मन में होगा? कौन है? क्यों खींच रहा है? कहाँ ले जाएगा? क्या करेगा? आदि कितनी बातें तुम्हारे मन में उठने लगेगी। संत कबीर साहब कहते हैं, दूसरे के लिए तुम क्या सोच रहे हो, अपने लिए सोचो। तुम कहाँ हो?
“ इक तो अँधेरी कोठरी, ता में दिया न बाती हो ।
बहियाँ पकरि जम लै चले, कोइ संग न साथी हो ।।”
तुम जहाँ रहते हो, वह अंधकार की कोठरी है। यदि कोई कहे कि ‘जहाँ हम रह रहे हैं, वहाँ बल्ब जल रहा है, मरकरी जल रही है।’ वहाँ तो तुम्हारा शरीर है। तुम जहाँ हो, उस कोठरी को भी देखो। कैसी कोठरी है वह? तुम कहाँ हो? शरीर के अंदर हो। आँख बंद करके देखो, तब पता चलेगा कि कैसी कोठरी है। वहाँ अँधेरा है या उजाला है? बिल्कुल अंधकार-ही-अंधकार मालूम पड़ेगा। इसी अंधकार की कोठरी में तुम हो।
जबतक अंधकार में रहोगे, यम के फंदे से नहीं छूट सकते। तम-राज्य में रहना यम राज्य में रहना है। अंधकार में रहनेवाले को यमराज खींचकर ले जाएगा। तुम्हारी इच्छा नहीं रहेगी, तब भी ले जाएगा।
अविवेकी को संसार इतना सुहावना लगता है कि वह उसे छोड़ना नहीं चाहता। इस विषय की एक रोचक कथा सुनिये।
एक दिन नारदजी वैकुण्ठ गये। नारदजी ने देखा कि भगवान अकेले बैठे हैं। नारदजी ने पूछा कि भगवन! आप अकेले यहाँ बैठे हुए हैं, वैकुण्ठ खाली पड़ा है, क्या बात है? भगवान ने कहा, ‘क्या करूँ, वैकुण्ठ कोई आना ही नहीं चाहता।’ नारदजी ने कहा, ‘भगवन! कैसी बात आप कहते हैं! मर्त्यलोक से आने के लिए इतने लोग उत्सुक हैं कि वैकुण्ठ में सब लोगों को जगह नहीं मिल सकेगी।’ भगवान ने कहा, ‘नारदजी! आप जाइये और मर्त्यलोक से लोगों को भेजिये। जितने लोग यहाँ आयेंगे, उन सबको जगह दूँगा।’ नारदजी वहाँ से इस लोक में आये। देखा-कुछ बच्चे खेल रहे हैं। नारदजी ने बच्चों से कहा, ऐ बच्चो! वैकुण्ठ चलोगे? बच्चों ने कहा, ‘पागल हुए हैं आप। अभी हमलोगों के खाने-पीने, खेलने-कूदने, पढ़ने-लिखने के दिन हैं, हमलोगों ने दुनिया देखी नहीं। अभी वैकुण्ठ जाकर क्या करेंगे?’ नारदजी ने मन में समझा कि ये बच्चे हैं, वैकुण्ठ की बात नहीं समझते हैं, इसलिए वहाँ नहीं जाना चाहते हैं।
कुछ दूर आगे बढ़ने पर उन्होंने देखा कि नवयुवकों-जवानों की सभा लगी हुई है। नारदजी वहाँ गये और बोले, ‘भाइयो! चलो वैकुण्ठ खाली पड़ा हुआ है।’ उनलोगों ने कहा, ‘वैकुण्ठ किस चिड़िया का नाम है, बाबाजी! अभी हमलोग वैकुण्ठ जाने का नहीं, दुनिया का आनंद लुटने, ऐश-आराम, मौज करने का समय है। जाइये, किसी बूढ़े को जाकर कहिये। हमलोगों को क्या जरूरत पड़ी है, अभी वैकुण्ठ जाने की।’ नारदजी ने देखा, ‘कोई जवान भी वैकुण्ठ जाना नहीं चाहता। वे वहाँ से आगे बढ़े। घूमते-घूमते उन्होंने देखा कि एक बूढ़े अपनी दुकान पर बैठे हुए हैं, उनके ललाट पर तिलक लगा हुआ है, हाथ में गोमुख-सुमिरनी है और वे जप कर रहे हैं। नारदजी ने सोचा, ये भक्त मालूम पड़ रहे हैं। इनको कहूँगा, तो ये वैकुण्ठ चलने के लिए जरूर तैयार हो जाएँगे। नारदजी ने उनके पास जाकर कहा, ‘राम-राम सेठ जी! सेठजी ने कहा, ‘राम-राम! बैठिये बाबा! विराजिये।’ नारदजी वहाँ बैठ गये। सेठजी ने पूछा, ‘कहिये बाबा! किधर से आना हुआ, किधर जाना हुआ। नारदजी ने कहा, ‘आपलोगों से भेंट करने आ गया। आपको देखकर बड़ी खुशी हुई। आप भगवान का नाम जपते हैं; बड़ा अच्छा करते हैं। अब वैकुण्ठ चलिये न। सेठजी ने कहा, ‘हाँ-हाँ, मैं तो चलने ही वाला हूँ, मैं तो वैकुण्ठ जाने के लिए तैयार ही हूँ; लेकिन देखिये-अभी लड़का छोटा है। जरा काम-धंधा सँभालने लायक हो जाए, फिर तो चलना-ही-चलना है। कुछ दिनों के बाद आप आइये। कुछ दिनों के बाद लड़का सयाना हो गया। काम- धंधा सब सँभालने लग गया। नारदजी आये और कहा, ‘सेठजी! अब चलिये। सेठजी ने कहा, ‘हाँ नारदजी! बेटे की शादी हो जाए, बहु का मुँह देख लूँ, फिर तो क्या बात है! कुछ दिनों के बाद लड़के की शादी हो गयी। उसके बाद जब नारदजी आये और वैकुण्ठ चलने को कहा, तो सेठजी ने उत्तर दिया, ‘आपके आशीर्वाद से सब तो हो ही गया है, अब केवल एक लालसा बाकी बच गयी है-पोते का मुँह देखना। आपके दुआ से वह भी हो जाए, फिर तो वैकुण्ठ जाने के सिवा मेरे लिए कोई काम ही नहीं रह जाएगा। कुछ दिनों के बाद पोता भी हो गया। इस बार जब नारदजी आये और कहा, ‘सेठजी! प्रभु कृपा से आपको पोता हो गया, अब चलिये।’ तो सेठजी ने आवेश में आकर, झुँझलाकर कहा-‘नारदजी! इतनी बड़ी दुनिया में आपको और कोई नहीं मिला, जो घूम-फिरकर बार-बार मेरे ही पास आते हैं। जाइये, मुझे वैकुण्ठ-तैकुण्ठ जाना नहीं है।’ कुछ दिनों के बाद सेठजी का शरीर छूट जाता है और अधोगति को प्राप्त होते हैं। इसलिए संत कबीर साहब कहते हैं-
“ निधड़क बैठा नाम बिनु, चेति न करै पुकार ।
यह तन जल का बुदबुदा, बिनसत नाहीं बार ।।”
इस अनित्य संसार में क्षणभंगुर शरीर को पाकर घमंडी नहीं बनो, भगवद्भजन करो। इस शरीर का कोई ठिकाना नहीं, कब विनष्ट हो जाएगा।
यह शरीर जल के बुदबुदे के समान है। जब सूर्य की किरण बुदबुदे पर पड़ती है, तो वह नीला, हरा, पीला-बहुत रंग वाला होकर देखने में बहुत अच्छा लगता है। उसी तरह यह शरीर है। ऊपर से देखने में बड़ा सुन्दर मालूम पड़ता है; लेकिन यह बुदबुदा कबतक के लिए है? जबतक उसमें वायु है। बुलबुले से वायु निकल जाए, बुलबुला खतम हो जाएगा। उसी तरह इस शरीर में जबतक साँस है, जीवन है। प्राणवायु के निकल जाने पर यह निष्प्राण हो जाएगा। कहावत है-
“ जबतक साँस तबतक आस ।
जब साँस निकल जाय, तो कोई भी पास न आए ।।”
भक्तप्रवर सूरदासजी महाराज ने कहा है-
“ जा दिन मन पंछी उड़ि जइहैं ।
ता दिन तेरे तन तरुवर के, सबै पात झड़ि जइहैं ।।टेक।।
या देही का गर्व न करिये, स्यार काग गिध खइहैं ।
तीन नाम तन विष्ठा कृम होय, नातर खाक उड़इहैं ।।
कहाँ वह नैन कहाँ वह शोभा, कहँ रंग रूप दिखइहैं ।
जिन लोगन सों नेह करत हौं, सो तोहि देखि घिनइहैं ।।
जिन पुत्रन को बहु विधि पाल्यो, देवी देव मनइहैं ।
तेहि ले बाँस दियो खोपड़ी में, शीश फाड़ि बिखरइहैं ।।
घर के कहत सबेरे काढ़ो, भूत होय घर खइहैं ।
अजहूँ मूढ़ करो सत संगत, संतन में कछु पइहैं ।।
नर वपु धर जो जन नहिं गुरु के, जम के मारग जइहैं ।
सूरदास भगवन्त भजन बिन, वृथा सो जनम गँवइहैं ।।”
अभी थोड़ी देर पहले जो घर का मालिक था, प्राण पखेरू उड़ जाने पर वह भूत और भूतनी बनने को तैयार है, घर खाने के लिए तैयार है। लोगों की कैसी भावना है? कैसी विडम्बना है?
किससे प्रेम करते थे, जरा सोचकर देखो। यदि शरीर से प्रेम करते थे, तो शरीर तो है ही, अब प्रेम क्यों नहीं करते? वास्तव में प्रेम चेतन-आत्मा के कारण होता है। जबतक चेतन आत्मा इसके साथ है, तबतक प्रेम इसके साथ है। चेतन आत्मा का शरीर से संबंध छूट गया, उस शरीर से नाता टूट गया, प्र्रेम टूट गया।
भगवान शंकराचार्य ने जीवन की क्षणभंगुरता, चपलता और सत्संग की विशेषता का वर्णन इस प्रकार किया है-
“ नलिनीदल गत जलमति तरलं
तद्वज्जीवनमतिशय चपलम् ।
क्षणमिह सज्जन संगतिरेका
भवति भवार्णव तरणे नौका ।।”
अर्थ-पद्म पत्र पर पड़े हुए अति चंचल नीर समान ।
अतिशय चपल और क्षणभंगुर इस जीवन को जान ।।
यहाँ एक बस क्षण भर की सत्संगति ही का भाव ।
भवसागर से तरने में बन जाता दृढ़तर नाव ।।
जैसे कमल-पत्र पर पानी पड़ने से वहाँ वह नहीं ठहरता, ढरक जाता है-नीचे गिर जाता है। इस पिंड से प्राण पखेरू कब प्रस्थान कर जाय, कोई ठिकाना नहीं। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ पाँच तत्त्व का पिंजड़ा, ता में पंछी पौन ।
रहिवो का अचरज है, गये तो अचरज कौन ।।”
पुनः कहते हैं-
“ यह तन काँचा कुम्भ है, लिये फिरै था साथ ।
टपका लागा फुटिया, कछु नहिं आया हाथ ।।”
शरीर की नश्वरता के संबंध में परम भक्तिन सहजोबाई कहती हैं-
“ पानी का सा बुलबुला, यह तन ऐसा होय ।
पीव मिलन को ठानिये, रहिये ना पड़ि सोय ।।
रहिये ना पड़ि सोय, बहुरि नहिं मनुखा देही ।
आपुन ही कूँ खोज, मिलै जब राम सनेही ।।
हरि कूँ भूले जो फिरै, सहजो जीवन छार ।
सुखिया जब ही होयगो, सुमिरेगो करतार ।।”
इस असार संसार में भगवद्भजन ही सार है। इसलिए ईश्वर का भजन करो। यही सब संतों ने एक स्वर से कहा है। जगत के जितने काम हैं, वे सारे-के-सारे आपके अभाव में भी पूरे हो सकते हैं। लेकिन एक काम ईश्वर-भजन है, जो आपके बिना आपका यह काम कोई पूरा नहीं कर सकता। जैसे आपको भूख लगे और जिसको आप बहुत प्यारा मानते हैं, उसको भरपेट भोजन करा दें, तो क्या आपका पेट भर जाएगा? कोई रोग आपको हो गया हो, उस रोग को दूर करने के लिए आपका जो परम प्रिय है, उसको उस रोग की दवा खिला दें, तो क्या आपका रोग दूर हो जाएगा? पाखाने-पेशाब की हाजत आपको लगे और जो आपके अत्यन्त प्रेमी हैं, उनको कहें कि मेरे बदले में आप हो आइये, मुझे फुर्सत नहीं है, तो क्या काम चल जाएगा! वास्तविक बात तो यह है कि खाना आपको है। पीना आपको है। सोना आपको है। दवा लेनी आपको है। पाखाना जाना आपको है। पेशाब जाना आपको है। ये आपके शरीर संबंधी जितने आपके काम हैं, जैसे आपके बिना दूसरा कोई नहीं कर सकता, उसी तरह आत्मा संबंधी जो आपका काम है, वह आपके बिना दूसरा कोई नहीं कर सकता। यहाँ ठीकेदारी से काम चलने की आशा नहीं कीजिए। यह स्पष्ट और सीधी बात समझिये। कोई कहता है-5000 बेलपत्रें पर राम-नाम लिखकर शिवजी को चढ़ा दूँगा, 500 रुपये दक्षिणा के रूप में मुझको दे दीजिएगा, आपका काम हो जाएगा। इस तरह से काम चलने को नहीं है। भगवद्भजन आपको स्वयं करना होगा। संतों का जो उपदेश है, बिल्कुल ठोस है। उसमें टस-मस होने की कोई बात नहीं है। कुछ भजन-कीर्तन गा लिया। कुछ किताबें पढ़ी लीं। कुछ कथाएँ सुन लीं। बहुत-से प्रवचन रटकर लम्बा भाषण कर दिया, इससे क्या हुआ? कठोपनिषद् कहती है-
“ नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ स्वाम् ।।”
अर्थात् यह आत्मा वेदाध्ययन-द्वारा प्राप्त होने योग्य नहीं है और न धारणा-शक्ति अथवा अधिक श्रवण से ही प्राप्त हो सकता है। यह (साधक) जिस (आत्मा) का वरण करता है, उस (आत्मा) से ही यह प्राप्त किया जा सकता है। उसके प्रति यह आत्मा अपने स्वरूप को अभिव्यक्त कर देता है।
श्रवण, मनन और अध्ययन द्वारा अर्जित ज्ञान आचरण में उतारने के लिए होता है। श्रवण-मनन किया; किन्तु आचरण नहीं किया, तो क्या लाभ होगा? स्वामी विवेकानन्दजी ने लिखा है-‘हम भले ही सारा जीवन पुस्तकों का अध्ययन करते रहें और बड़े बौद्धिक हो जाएँ, पर अंत में देखेंगे कि हमारी तनिक भी आध्यात्मिक उन्नति नहीं हुई है। यह बात सत्य नहीं कि उच्च स्तर के बौद्धिक विकास के साथ-साथ मनुष्य के आध्यात्मिक पक्ष की भी उतनी ही उन्नति होगी। पुस्तकों का अध्ययन करते समय हमें कभी-कभी यह भ्रम हो जाता है कि इससे हमें आध्यात्मिक सहायता मिल रही है; पर यदि हम ऐसे अध्ययन से अपने में होनेवाले फल का विश्लेषण करें, तो देखेंगे कि उससे अधिक-से-अधिक हमारी बुद्धि को ही कुछ लाभ होता है, हमारी अंतरात्मा का नहीं। पुस्तकों का अध्ययन हमारे आध्यात्मिक विकास के लिए पर्याप्त नहीं है। यही कारण है कि यद्यपि लगभग हम सब आध्यात्मिक विषयों पर बड़ी पाण्डित्यपूर्ण बातें कर सकते है, पर जब उन बातों को कार्यरूप में परिणत करने का-यथार्थ आध्यात्मिक जीवन बिताने का अवसर आता है, तो हम अपने को सर्वथा अयोग्य पाते हैं। जीवात्मा की शक्ति को जाग्रत् करने के लिए किसी दूसरी आत्मा से ही शक्ति का संचार होना चाहिए। संत पलटू साहब ने कहा है-
“ इलम सीख पर अमल, अमल बिना अलम खाक है जी ।
बेहद्द कथै और हद रहै, उसका तो मुँह नापाक है जी ।।”
कुछ करने के लिए ही कुछ पढ़ा-सुना जाता है और जो कुछ किया जाता है, वह कुछ पाने के लिए ही। साथ ही, यह भी समझ लेना आवश्यक है कि प्राप्तव्य वस्तु भी कुछ ऐसी होनी चाहिए कि फिर कुछ पाना बाकी न रहे। वह क्या है? ईश्वर-प्राप्ति- आत्म-लाभ। इसके बिना सब सूना है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
“ चौदह चारो अष्टदश, रस समझव भरपूर ।
नाम भेद जाने बिना, सकल समझ महँ धूर ।।”
अर्थात् कोई व्यक्ति चारो वेद, छहो शास्त्र, आठो व्याकरण और अठारहो पुराण याद कर लें, छंद, अलंकार और काव्यरस के भी मर्मज्ञ हों, किन्तु यदि नाम-भेद नहीं जाना, तो भरपूर जानना भी धूल वत् है। आजकल कितने लोग इतिहास-पुराण की कथा लोगों को सुनाते हैं, लोग सुन-सुनकर बाग-बाग हो जाते हैं और कथावाचक की भूरि-भूरि प्रशंसा भी करते हैं। लेकिन यह सुनिश्चित समझ लें-कितनी ही अच्छी कथा क्यों न हो, उससे भवव्यथा दूर नहीं होती। और तो और, जब कथावाचक की ही व्यथा दूर नहीं होती, तब श्रोता की तो बात ही क्या? किसी सुभाषितकार ने कितना अच्छा कहा है-
“ पढ़े छहो शास्त्र और अठारहो पुराण पढ़े ।
वेद उपवेद आदि अंत कोउ छाना है ।
गीता रामायण श्रुति स्मृति पढ़े ,
सांख्य योग न्याय आदि दर्शन भी जाना है ।।
जाना है बनाना छन्द सोरठा चौपाई को ,
जाना है ध्रुपद राग भैरवी का गाना है ।
इतना जो जाना सब खाक धूर छाना है ।
जाना है सोई जिन आतम पिछाना है ।।”
संतों और सद्ग्रंथों की सम्मति है-आत्मा की पहचान करो कि तुम कौन हो? आत्मज्ञान हो गया, फिर अन्य कोई ज्ञान बाकी नहीं रह जाता। जैसे हाथी के पदचिह्न में अन्य सभी जीवों के पदचिह्न समा जाते हैं, उसी प्रकार आत्म-ज्ञान के अंदर अन्य सभी ज्ञान आ जाते हैं।
आत्मज्ञान कैसे होगा? नाम-भेद को जानने से। लेकिन बिना गुरु के इस नाम-भेद का ज्ञान नहीं होता। श्रीगोस्वामीजी ने लिखा है-
“ भेद जाहि विधि नाम महँ, बिन गुरु जान न कोय ।
तुलसी कहहिं विनीत वर, जौं विरंचि शिव होय ।।”
अर्थात् विरंचि के समान सृष्टि करने की कुशलता तुममें आ जाए या शिव के सदृश संहार करने की शक्ति तुममें हो जाए, फिर भी संत सद्गुरु के अभाव में नाम के भेद को नहीं जान सकते। इसीलिए किसी ने कहा है-
“ भेद यह गुप्त पाना किसी ग्रंथ से ।
है असंभव समझ लो किसी संत से ।।”
तथा-
“ बिन दया संतन की मेँहीँ जानना इस राह को ।
हुआ नहीं होता नहीं वो होनहारा है नहीं ।।”
(महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज)
इसलिए नाम का भेद जानो। पहले ही प्रत्यक्ष में जानना तो दूर की बात है। इसलिए पहले समझ कर जानो। वह क्या है?
“ श्रवणात्मक ध्वन्यात्मक, वर्णात्मक विधि तीन ।
त्रिविध शब्द अनुभव अगम, तुलसी कहहिं प्रवीण ।।”
(गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज)
वह नाम भजन कैसे होगा? रामचरितमानस के मर्म को नहीं जाननेवाले धर्म के ठीकेदारों का कथन है कि हम तो राम-राम जपते ही हैं, नाम-भेद जानना क्या है? रत्नाकर जैसा बड़ा पापी, जो राम-राम नहीं कह सकता था, मरा-मरा जपकर तर गया। हम तो स्पष्ट रूप में राम-राम कहते हैं। हमारा उद्धार क्यों नहीं होगा? इसकी पुष्टि में वे रामचरितमानस की इन चौपाइयों की दुहाई देते हैं-
“ उलटा नाम जपत जग जाना ।
बालमीकि भये ब्रह्म समाना ।।
जान आदि कवि नाम प्रतापू ।
भयेउ सुद्ध करि उलटा जापू ।।”
(रामचरितमानस)
सज्जनो! जरा गंभीरतापूर्वक विचारिये, उलटा नाम क्या होता है, उलटा नाम का तात्पर्य क्या होता है? कितने ही लोगों का यह कथन है कि रत्नाकर बहुत बड़ा डाकू था। हत्यारा था। उसने बहुतों की हत्या की थी। वह इतना बड़ा पापी था कि मुँह से राम-राम का उच्चारण नहीं कर सकता था। चूँकि बहुत लोगों को उसने मारा था, इसलिए उसके मुँह से ‘राम-राम’ नहीं निकलकर ‘मरा-मरा’ शब्द निकलता था। इस तरह ‘मरा-मरा’ कहते-कहते ‘राम-राम’ हो गया और उसका उद्धार हो गया।
आज जो थोड़ा-सा भी ज्ञान रखते हैं। थोड़ी-सी भी विद्या जिनके पास है। थोड़ा-सा भी विवेक जिनका संबल है, वे कोई भी बुद्धिजीवी व्यक्ति सोच सकते हैं कि जो कोई वर्णमाला के ‘म’ और ‘रा’ का उच्चारण कर सकता है, उससे ‘रा’ और ‘म’ का उच्चारण नहीं हो सके, यह कब संभव है? भले ही जिनसे ‘म’ का और ‘रा’ का उच्चारण नहीं हो सके, तो उससे ‘रा’ और ‘म’ का भी उच्चारण नहीं हो सकता है। ये तो देवनागरी वर्णमाला के वर्ण हैं, अक्षर हैं। अतएव यह सरलतापूर्वक समझा जा सकता है कि जो ‘मरा-मरा’ कह सकेगा, वह ‘राम-राम’ भी कहेगा।
दूसरी बात समझने की यह है कि गोस्वामीजी ने ‘उलटा नाम’ लिखा है, न कि ‘उलटा अक्षर’। ‘राम’ की जगह ‘मरा’ कहने से तो अक्षर का उलटना होता है, न कि नाम का।
अतएव अत्यावश्यक है कि हम यह समझने की कोशिश करें कि उलटा नाम क्या है? विपरीत को उलटा कहते हैं। नाम कहते हैं शब्द को। ये दो प्रकार के होते हैं-एक वर्णात्मक और दूसरा ध्वन्यात्मक। वर्णात्मक शब्द वह है, जो वर्णों में लिखा जाता है और जिसका अर्थ होता है। वर्णात्मक शब्द का अर्थ होता है, इसलिए इसको सार्थक कहते हैं। वर्णात्मक के विपरीत या उलटा होता है ध्वन्यात्मक। वह वर्णों में नहीं लिखा जाता है और उसका अर्थ नहीं होता है, इसलिए उसको निरर्थक कहते हैं। हम जो कुछ मुँह से राम शब्द का उच्चारण करते हैं, यह वर्णात्मक शब्द है और उसका अर्थ भी है, जैसे रघुवंशी राम, भृगुवंशी परशुराम, यदुवंशी बलराम। लेकिन एक ऐसा भी राम-नाम है, जो वर्णात्मक नहीं, ध्वन्यात्मक है। उसी ध्वन्यात्मक राम-नाम के लिए गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने लिखा है-
“ बन्दउँ राम नाम रघुबर को ।
हेतु कृसानु भानु हिमकर को ।।
बिधि हरि हर मय बेद प्रान सो ।
अगुन अनूपम गुन निधान सो ।।”
राम अर्थात् जो सबमें रमण करे, जिसमें योगीजन रमण करें। रामनाम=सर्वव्यापक शब्द। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-मैं रघुवर के राम-नाम की वंदना करता हूँ। जो कृशानु, भानु और हिमकर का हेतु है। कृशानु का अर्थ होता है-अग्नि। भानु का अर्थ होता है-सूर्य और हिमकर का अर्थ होता है-चन्द्रमा।
कृशानु से ‘र’ को निकाल लीजिए, तब क्या होगा? किशानु जिसका अर्थ अग्नि नहीं होगा। भानु में से आ निकाल लीजिए, तब क्या होगा? भनु, जिसका अर्थ सूर्य नहीं होगा। हिमकर से ‘म’ निकाल लीजिए। तब क्या होगा? हिकर, जिसका अर्थ चन्द्रमा नहीं होगा। तात्पर्य क्या हुआ? कृशानु से ‘र’ लिया, भानु से ‘आ’ ले लिया और हिमकर से ‘म’ निकाल लिया; तीनों मिलाकर क्या हुआ? राम। यही राम उक्त तीनों-अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा का कारण है। यह भेद है नाम का। पुनः रामनाम की विशेषता बतलाते हुए गोस्वामीजी कहते हैं-
“ बिधि हरि हर मय बेद प्रान सो ।
अगुन अनूपम गुन निधान सो ।।”
अर्थात् वह ब्रह्मा, विष्णु और महेशमय है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश क्या है? ब्रह्मा उत्पादक शक्ति है, विष्णु पालक शक्ति है और रुद्र विनाशक शक्ति है। जिस राम से तीनों शक्तियाँ उत्पन्न हुई हैं, वह कौन हैं? वह है-ओ3म्। इस ओ3म् की विशद व्याख्या हमारे गुरुदेव ने इस भाँति की है-
“ अव्यत्तफ़ अनादि अनन्त अजय, अज आदि मूल परमातम जो ।
ध्वनि प्रथम स्फुटित परा धारा, जिनसे कहिये स्फोट है सो ।।
है स्फोट वही उद्गीथ वही, ब्रह्मनाद, शब्दब्रह्म ओ3म् वही ।
अति मधुर प्रणव ध्वनि धार वही, है परमातम-प्रतीक वही ।।
प्रभु का ध्वन्यात्मक नाम वही, है सारशब्द सत्शब्द वही ।
है सत् चेतन अव्यत्तफ़ वही, व्यत्तफ़ों में व्यापक नाम वही ।।
है सर्वव्यापिनि ध्वनि राम वही, सर्व-कर्षक हरि कृष्ण नाम वही ।
है परम प्रचण्डिनि शत्तिफ़ वही, है शिव शंकर हर नाम वही ।।
पुनि राम नाम है अगुण वही, है अकथ अगम पूर्णकाम वही ।
स्वर-व्यंजन-रहित अघोष वही, चेतन ध्वनि-सिन्धु अदोष वही ।।
है एक ओम् सत्नाम वही, ऋषि-सेवित प्रभु का नाम वही ।
ग ग ग ग ग मुनि-सेवित गुरु का नाम वही ।
भजो ॐ ॐ प्रभु नाम यही, भजो ॐ ॐ ‘मेँहीँ’ नाम यही ।।”
इसलिए उसको वेद का प्राण कहा है। वेद के जितने मंत्र हैं, प्रत्येक के आरंभ में ओ3म् जुड़ा हुआ है। यही हेतु है कि बिना ओ3म् का उच्चारण किये वेदमंत्र का उच्चारण नहीं किया जाता। स्मरणीय रहे जिस ओ3म् का हम मुँह से उच्चारण करते हैं, वह ओ3म् यह नहीं है। वह ओ3म् कैसा है? ज्ञान-संकलिनी तंत्र में लिखा है-
“ अघोषमव्यञ्जनमस्वरं च अतालुकण्ठोष्ठमनासिकञ्च ।
अरेफजातं परमुष्मवर्ज्जितं तदक्षरं न क्षरते कदाचित् ।।”
और भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में ओ3म् के संदर्भ में बतलाया है-
“ सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूध्र्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ।।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गति ।।”
समस्त इन्द्रिय-द्वारों को संयमन करके, मन हृदय में निरुद्ध करके, प्राण को धारण करके, आत्म-समाधि रूप योग का आश्रय लेकर इस ओ3म् ब्रह्मरूप एकाक्षर शब्द का ध्यान करते हुए जो शरीर का त्याग करते हैं, वे परम गति को प्राप्त करते हैं।
उनके कहने का आशय यह है-अगर ओ3म् को जानना चाहते हो, तो इन्द्रियों के जितने द्वार हैं, सभी का संयमन करो और मन को हृदय में निरुद्ध कर लो, तब ओ3म् का स्मरण करो। विवेकीजन विचार सकते हैं कि जब सब इन्द्रियों के द्वार बंद हो जायेंगे। और मन की गति भी नियंत्रित (अवरुद्ध) हो जाएगी, तब ओ3म् का उच्चारण कैसे किया जा सकता है? यदि इसके उत्तर में कहा जाएगा कि बाहर की इन्द्रियों का संयमन कर मन-ही-मन उच्चारण किया जाएगा, तो यह भी युक्ति-युक्त नहीं है; क्योंकि मन को हृदय में रोककर रखने के लिए कहा गया है-‘मनो हृदि निरुध्य च।’
ऐसी स्थिति में जिज्ञासा हो सकती है कि जब समस्त इन्द्रियों के द्वार बंद हो गये, मन भी निरुद्ध हो गया, तब ओ3म् को जानेगा कौन? इसके उत्तर में संत दरिया साहब कहते हैं-
“ मन बुधि चित हंकार की, है त्रिकुटी लग दौड़ ।
जन दरिया इनके परे, ब्रह्म सुरत की ठोर ।।”
तथा हाथरस निवासी संत तुलसी साहब के वचन में है-
“ सहस कँवल दल पार में, मन बुद्धि हिराना हो ।
प्राण पुरुष आगे चले, सोइ करत बखाना हो ।।”
आशय यह है कि जहाँ मन, बुद्धि आदि इन्द्रियों की गति नहीं रहती, वहाँ सुरत-प्राण पुरुष-चेतन आत्मा चलेगी। इसी को इसका ज्ञान होगा और यही तत्संबंधी साधना करेगी।
इस दृष्टि से यह स्पष्ट है कि वर्णित ओ3म् वर्णात्मक नहीं, ध्वन्यात्मक है। ध्वन्यात्मक में भी जड़ात्मक मंडल का जड़ शब्द नहीं, चेतन मंडल का चेतन शब्द है। इसी को श्रीमद्भागवत में प्राणमय शब्द कहा गया है। यथा-
“ शब्द ब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेन्द्रियमनोमयम् ।
अनंतपारं गंभीरं दुर्विग्राह्यं समुद्रवत् ।।”
अर्थात् शब्दब्रह्म अत्यन्त दुर्बोध है। प्राणमय, मनोमय और इन्द्रियमय तीन प्रकार है तथा समुद्र के समान अनंतपार, गंभीर और कठिनता से पार किये जाने योग्य है।
इन्द्रियों के द्वारा जिन शब्दों को हम ग्रहण कर सकते हैं, वे इन्द्रियमय है। मन के द्वारा गृहीत वा मन के संचरण में जो शब्द होता है, वह मनोमय है तथा प्राण के द्वारा जो शब्द ग्रहण होता है, वह प्राणमय है, कथित ओ3म् प्राणमय है।
इतने विवेचन के बाद भी यदि किन्हीं की समझ में आवे कि वह ओ3म् वा राम-नाम सगुण ही है, तो उनके भी भ्रमनिवारणार्थ गो0 तुलसीदासजी महाराज उपर्युक्त चौपाइयों के बाद पुनः कहते हैं-
“ बिधि हरि हर मय बेद प्रान सो ।
अगुन अनूपम गुन निधान सो ।।”
अर्थात् ये भाई! वह शब्द सगुण नहीं, अगुण-निर्गुण है। अनुपम=उपमा-रहित है। और गुण-निधान यानी गुणों का खजाना है। उस राम-नाम के संदर्भ में प्रातः स्मरणीय परम पूज्य अनंतश्रीविभूषित सद्गुरु देवजी महाराज का यह कथन है-
“ रामनाम अमर नाम, भजो भाई सोई ।
सोई सतधुन सब, घट-घट होई ।।1।।
परा न पश्यन्ति न, मधिमा न बैखरि न ,
वर्णात्मक हतधुन नहि कोई ।।2।।
अनहत अनाहत, परसावे सत पद ,
पहुँचि जहाँ पुनि, भव नहि होई ।।3।।
गुरु भेद धरि-धरि, दिव्य दृष्टि करि-करि ,
तीन बन्द बन्द करि, भजो नाम सोई ।।4।।
‘मेँहीँ’ मेँहीँ ध्वनि, अन्तर अन्त सुनि ,
सुरत रमे गुरु आश्रित होई ।।5।।”
हम उस ध्वन्यात्मक नाम को जानें। लेकिन उस नाम को कैसे जानें? बिना जनाये नहीं जानेंगे। जनायेंगे कौन? जिनका जाना हुआ है।
बच्चे जब मैट्रिक पास कर जाते हैं, तब उनके सामने प्रश्न आता है-क्या पढ़ें? आर्ट्स, कॉमर्स वा साइन्स? अपनी इच्छा (Choice) के अनुकूल, मन के अनुकूल वे निर्णय लेते हैं, किधर हमको जाना है? आर्ट्स वे पढ़ना चाहते हैं और साइंस में एडमिशन लेकर पढ़ें, तो वे आर्ट्स नहीं सीख सकते। अगर कॉमर्स सीखना चाहें और आर्ट्स में एडमिशन लें, तो वे कॉमर्स नहीं सीख सकते हैं। कोई साइंस सीखना चाहते हैं और कॉमर्स शिक्षक के पास जाएँ, तो साइंस नहीं सीख सकेंगे। आर्ट्स सीखना है, तो आर्ट्स के शिक्षक के पास जाएँ। कॉमर्स सीखना है, तो कॉमर्स शिक्षक के पास जाएँ। साइंस सीखना है, तो साइंस शिक्षक के पास जाएँ। इसी तरह जो आध्यात्मिक ज्ञान लेना चाहते हैं, अध्यात्म विद्या सीखना चाहते हैं, तो जो उस विषय के शिक्षक हैं, उनके पास जाएँ।
स्कूल के शिक्षक या कॉलेज के प्रोफेसर क्या पढ़ाते हैं? जो बातें किताबों में लिखी होती हैं। यदि कोई कहे कि जब किताबों में लिखी बातों को ही शिक्षक और प्रोफेसर पढ़ातें हैं, तो शिक्षक और प्रोफेसर के पास स्कूल या कॉलेज में जाने की क्या जरूरत है? हम स्वयं पढ़ लेंगे। उत्तर में निवेदन है कि आप पढ़ तो लेंगे; लेकिन सभी बातों को सही रूप में समझ नहीं सकेंगे। इसका कारण यह है कि एक होता है थियोरिटिकल और दूसरा होता है प्रैक्टिल यानी एक होता है सिद्धांत और दूसरा होता है व्यवहार। किताब से हम थियोरिटिकल सीख लेंगे; लेकिन प्रैक्टिकल सीखने के लिए स्कूल के शिक्षक और कॉलेज के प्रोफेसर के पास तो जाना ही पड़ेगा। पुस्तक में हम पढ़ते हैं, दो वाष्पों यानी ऑक्सीजन और हाइड्रोजन को मिलाने से पानी बनता है। मात्र पढ़ने से काम नहीं चलेगा। दोनों वाष्पों को पहचानने और मात्र-भेद जानकर मिलाने की कला सीखने के लिए जाना होगा प्रयोगशाला में। इन बातों की जानकारी प्राप्त करके दोनों वाष्पों को मिलायेंगे, तो पानी हो जाएगा। इसी तरह जो युगल दृष्टिधारों को मिलाने की कला जानते हैं, उनके पास जाएँ, कला सीखें और दोनों धारों को मिलायें।
बाहर की प्रयोगशाला में दो वाष्पों को मिलाने से पानी होता है। यहाँ शरीर-रूपी प्रयोगशाला में दृष्टि की दो धारों को मिलाने से आग निकलेगी यानी ब्रह्मज्योति ज्योतित होगी, ब्रह्म-अग्नि प्रकट होगी, तो वह आपकी देह को नहीं, आपके जन्मों के मनोविकारों को जलाएगी; जिन विकारों के शिकार हम होते रहते हैं, जिन विकारों के अधिकार में हम रहते हैं, उन विकारों पर हमारा अधिकार हो जाएगा।
एक बंगाली संत की अनुभवगम्य वाणी सुनिये। साधना में किस प्रकार आनंदानुभूति होती है। दशेन्द्रियाँ कैसे वश में होती हैं, विकार रूपी शत्रु किस प्रकार पराजित होते हैं, किस प्रकार मनोजय और वासनाक्षय होते हैं आदि।
“ आनन्दे आनन्द बाड़े प्रतिक्षण ,
दशेन्द्रिय थाके शून्य ते बन्धन ।
रिपुचय पराजय सकलि आनन्दमय ,
अनुभव मात्र रय आर सब पाय लय ,
जेमन जीवने जीवन थाके ना ।।”
हमारे परम पूज्य गुरुदेव इस क्रिया को विधि इस भाँति बतलाते हैं-
“ युग दृष्टि की एक तीक्ष्ण नोंक से, चीरि तेजस विन्दु रे ।
सुनो अंदर नाद ही, लखो सूर्य तारे इन्दु रे ।।”
जो दृष्टि की धारों को मिलाकर एक कर सकते हैं, उनको अपने अंदर में प्रकाश मालूम पड़ता है। उस प्रकाश में जो शब्द मिलता है, वह है-उल्टा नाम। इधर नाभि, हृदय, कंठ और मुँह के उच्चारण- स्थानों का स्पर्श करते हुए जो शब्द निकलता है, वह है वर्णात्मक। यह नीचे से ऊपर की ओर का शब्द है। और प्रभु ने जिससे सृष्टि की है, वह शब्द ऊपर से नीचे की ओर आया हुआ है। एक है पिंड से पिंड की ओर और दूसरा है ब्रह्मांड से पिंड की ओर। पिंड का उलटा होता है ब्रह्मांड। ये एक दूसरे के उलटे हैं। इसी प्रकार वर्णात्मक का उलटा ध्वन्यात्मक सार्थक का उलटा निरर्थक है। जो नाभि से निकलकर मुँह से उच्चरित होता है यानी पिंड से निकलकर पिंड में ही रह जाता है, वह सगुण शब्द है। और जो ब्रह्मांड के भी ऊपर से आता है, वह निर्गुण है। वही उलटा नाम है।
जो कोई अपने अंदर में साधना करते हैं, तो पहले दिव्य दृष्टि प्राप्त करते हैं। जिनको दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है, उनको ही उस दिव्य नाद की भी प्राप्ति होती है। जबतक कोई दिव्य दृष्टि प्राप्त नहीं कर ले, तबतक उसे दिव्य नाद की प्राप्ति नहीं हो सकती है। दिव्य दृष्टि प्राप्त करने पर आरंभ में जिस दिव्य नाद की अनुभूति होती है, वह भी सगुण ही है; लेकिन वह सूक्ष्म सगुण है। साकार नहीं है, निराकार है। जब सगुण मंडल के विविध शब्दों की साधना करते हुए आगे बढ़ते हैं, तो अंत में वह निर्गुण निराकार शब्द मिलता है, जिस निर्गुण निराकार शब्द को पकड़कर सर्वेश्वर-सर्वाधार तक पहुँचा जाता है। उसी आदिशब्द को आदिनाम, सार-शब्द, स्फोट, उद्गीथ, प्रणव आदि कहकर अभिहित किया गया है। योगशास्त्र में आया है-‘तस्य वाचकः प्रणवः।’
वह परम प्रभु परमात्मा वाच्य है और ओम् वा प्रणव वाचक है। जो उस प्रणव-ध्वनि को प्राप्त करते हैं, वे परम प्रभु परमात्मा को पाते हैं, इसी जीव और पीव के मिलन को एक बंगाली महात्मा ने युगल मिलन कहा है, जो इस प्रकार है-
“ देह कुंज बन प्रमोद कानन युगल मिलन हृदि माँझे ।।
पीत ज्योति माँझे श्याम घन राजे केमन साजे आजि साजे ।
देख मूरति ज्योति से प्रकृति पुरुष श्रीपति केवा शोभे ।।
भूमि वह्नि जल वायू नभस्तल मन बुद्धि बल अहं आदि ।
एरा अष्ट सखी से रूप निरखि, निरखि निरखि आछे भूले ।।
चरणे चरण प्राणे ते अपान, प्रणव बाजन बाँशी बाजे ।
गुरु मुखे जान युगल मिलन, हृदि वृन्दावन मिलवे तवे ।।”
बाह्य जगत् में राधाकृष्ण का जो मिलन है, वह अंतर्जगत् के जीव-पीव मिलन का प्रतीक है। राधा- कृष्ण का मिलन प्रमोद कानन के कुंज वन में हुआ था। हमलोगों का यह शरीर ही कुंज वन और प्रमोद कानन है। इसी में युगल-मिलन होता है। जीव और पीव यानी राधा और कृष्ण।
“ पीत ज्योति माँझे श्याम घन
राजे केमन साजे आजि साजे ।”
जो कोई श्याम घन में ध्यान करते हैं, अंधकार में ध्यान करते हैं, उनको पीत ज्योति मिलती है। गोया वह भगवान श्रीकृष्ण का पीताम्बर है। उस पीताम्बर को पहने भगवान वहाँ विराजित हैं। वहाँ की साज सज्जा अद्भुत है। वह अलौकिक दृश्य है, उसका कोई वर्णन नहीं कर सकता। कहते हैं कि राधाजी के साथ में उनकी आठ सखियाँ-सहेलियाँ थीं। ये आठ सखियाँ क्या हैं? संत कवि कहते हैं-
“ भूमि वह्नि जल वायू नभस्तल
मन बुद्धि बल अहं आदि ।
एरा अष्ट सखी से रूप निरखि,
निरखि निरखि आछे भूले ।।”
राधाजी चेतनात्मिका परा प्रकृति हैं और उनकी आठ सखियाँ-अहि, अप, अनल, अनिल, आकाश, मन, बुद्धि और अहं-यह अष्टधा (अपरा) प्रकृति जड़ात्मिका प्रकृति है। वहाँ के सौन्दर्य और माधुर्य को देखकर ये सखियाँ अपने को भूल जाती हैं-
“ चरणे चरण प्राणे ते अपान,
प्रणव बाजन बाँशी बाजे ।”
भगवान श्रीकृष्ण अपने एक चरण पर दूसरा चरण रखकर बाँसुरी बजाते हैं। यह इसका संकेत है कि जो अपने प्राण और अपान को मिलाते हैं-सम करते हैं, उनको अंतर्ध्वनि सुनायी पड़ती है। साधक विविध ध्वनियों को सुनते हुए बाँसुरी-मुरली की ध्वनि भी सुनते हैं।
उपनिषद् एवं अन्य संतों की वाणियों में भी हम बाँसुरी-मुरली-ध्वनि की चर्चा पाते हैं। नादविन्दूप- निषद् में लिखा है-नादानुसंधान के साधक को साधनारंभ में समुद्र, बादल, दुंदुभि, जलप्रपात से निकले हुए जैसे नाद मालूम होते हैं और मध्य में मर्दल, घंटे और सिंघा जैसे। यथा-
“ आदौ जलधि जीमूत भेरी निर्झर संभवः ।
मध्ये मर्दल शब्दाभो घण्टा काहलजस्तथा ।।”
अन्तिम अवस्था में किंकिणी (मजीरा), मुरली, वीणा और मधुमक्खियों की भनभनाहट-जैसे। इस प्रकार वह अनेक बारीक-से-बारीक नादों को सुनता है। यथा-
“ अन्ते तु किंकिणी वंश वीणा भ्रमर निःस्वनः ।
इति नानाविध नादाः श्रूयन्ते सूक्ष्मसूक्ष्मतः ।।”
संत कबीर साहब के विचार से यह मुरली ध्वनि साधक को भँवर-गुफा में सुनाई पड़ती है। यथा-
“ भँवर गुफा में सोहं राजे,
मुरली अधिक बजाया है ।
जहँ ताल जो बाजै बिना हाथ ।
जहँ शंख पखावज एक साथ ।।
जहँ बिन पग घुँघरू की टकोर ।
जहँ बिन मुख मुरली घनघोर ।।”
(संत चरणदासजी महाराज)
“ तल्ली ताल तरंग बखानी ।
मोहन मुरली बजै सुहानी ।।”
संत तुलसी साहब के कथनानुसार मुरली नाद के श्रवण से साधक का मन सो जाता है और विषवत् विषयरस की विस्मृति हो जाती है।
“ मुरली नाद साध मन सोवा ।
विषयरस वादि विधी सब सोवा ।।”
नाद-साधना की स्वानुभूति हमारे परम पूज्य गुरुदेव ने इस भाँति लिखा है-
“ आगे शून्य समाधि, नाद ही नाद की ।
लहै सन्त का दास, जाहि सुधि आदि की ।।
मीठी मुरली सुनै सुरत के कान से ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ बड़ा कौतुहल होइ,
ध्वनिन के ध्यान से ।।15।।”
कल्याण वेदांत अंक में एक लेखक ने नादब्रह्म-मोहन की मुरली शीर्षक निबंध में लिखा है-
“ नादात्मकं नादबीजं प्रयतं प्रणवस्थितम् ।
वन्दे तं सच्चिदानन्दं माधवं मुरलीधरम् ।।
नादरूपं परं ज्योतिर्नादरूपी परो हरिः ।।”
नादानुसंधान की क्रिया करते-करते अंत में प्रणवध्वनि सुनायी पड़ती है। जो कि परम प्रभु परमात्मा से मिलाती है। उस स्थिति में जीव पीव से मिलकर आत्मैक्य प्राप्त कर लेता है। द्वैतभाव मिट जाता है, अद्वैत हो जाता है। इसी को जीवात्मा और परमात्मा का मिलन कहते हैं। इसी का बाह्य प्रदर्शन राधा-कृष्ण का मिलन वा यगुल-मिलन है।
संत कवि का कथन है कि हृदयरूपी वृंदावन में जो युगल-मिलन होता है, वह क्रियावान शुद्धाचारी संत सद्गुरु द्वारा ही जाना जा सकता है, अन्यथा नहीं। इसलिए ऐसे गुरु की शरण में जाएँ, जो अंतर्ज्योति और अंतर्नाद की शिक्षा-दीक्षा देते हों।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन मालदा, पश्चिम बंगाल में दिनांक 22-1-1990 ई0 को अवसर पर अपराह्णकालीन सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जुलाई+अगस्त+सितम्बर 1990 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द माताओ एवं बहनो!
एक साधु बाबा थे। वे दिन के समय मशाल जलाकर बाजार में घूम रहे थे। किसी ने पूछा-‘बाबा! आप दिन के समय मशाल लेकर क्यों घूम रहे हैं?’ साधु बाबा ने उत्तर दिया-‘मानव की खोज कर रहा हूँ।’ उसने कहा, ‘इतना बड़ा शहर है, इसमें आपको कोई मानव नहीं दीख रहा है?’ साधु बाबा ने अपनी मशाल उसके हाथ देकर कहा, ‘तुम्हीं देखो।’ उसने उस प्रकाश में देखा कि किसी का मानव-शरीर तो है; लेकिन उसमें मानवता नहीं है। और भी उसने देखा कि कोई बिल्ली है, कोई कुत्ता है, कोई बगुला है, कोई ऊँट है, कोई बैल है आदि। हमलोग भी उस ज्ञान मशाल को अपने सामने करके देखें कि हममें मानवता कितनी है। जितने अंश में मानवता हममें होगी, उतने ही अंश में हम मानव हैं। किसी ने बड़ा ही अच्छा कहा है-‘अपने सुख के लिए जो दूसरे को दुःख नहीं देता, वह मानव है। जो दूसरों को दुःख देकर स्वयं सुख पाना चाहता है, वह दानव है। जो स्वयं दुःख सहता है; किन्तु दूसरों को सुख देता है, वह देवता है और जो स्वयं दुःख सहकर दूसरों को दुःख देता है, उसकी संज्ञा ही नहीं है।’ हम अपने लिए सोचें-‘किस श्रेणी में हैं?’
अभी आपलोगों ने रामचरितमानस के पाठ में सुना, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का यह महावाक्य-‘बड़े भाग मानुष तनु पावा।’
यह पंक्ति कितनी ही बार पढ़ने और सुनने को मिली है; किन्तु अबतक इसकी उपयोगिता सीखी है? अगर सीखी है तो कितने अंश में? एक बकरी है। उसको मारकर खानेवाले उसका मांस खा जाते हैं। उसके चमड़े से विविध काम लेते हैं। बकरी का दूध भी पीने के काम में आता है। जो बेचारी घास-पात खाती है, उसका दूध काम में लेते हैं। एक बेचारी गाय है, वह जीवन पर्यन्त हमें दूध देती है। बल्कि यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि जितना दूध अपनी माताजी का पीते हैं, उससे कितना गुणा अधिक हम गाय का दूध पीते हैं। माता का दूध पीने का तो समय निश्चित है कि इतने ही दिनों तक पीना है; लेकिन गाय का दूध जीवन-पर्यन्त पीते हैं। उसका दही बनाकर खाते हैं, खोवा आदि विविध प्रकार के मिष्टान्न बनाकर खाते हैं। गाय बछड़ा देती है, उससे खेती करते हैं। उससे हल चलाते हैं, गाड़ी चलाते हैं, उससे सुखोपभोग करते हैं। बछिया देगी, तो गाय का काम बछिया करने लगती है। उसका गोंत, गोबर काम आती है। उसको खिलाते हैं हम घास-भूसा। जो घास-भूसा खाती है, उससे हम कितने उपकृत होते हैं? हमने अपने बारे में भी कभी सोचा है कि हम खाते हैं हलुवा, पूड़ी, टिकरी, रसगुल्ला, बर्फी, अंगूर, बेदाना, मेवा-मिष्टान्न-क्या-क्या खाते हैं, कितना गिनाया जाए? इस शरीर के लिए कभी सोचा कि इसका चमड़ा काम आएगा? इसकी हड्डी काम आएगी? इसका गोंत काम आएगा? इसका गोबर काम आएगा? इस दृष्टि से हम उस पशु से बढ़कर हैं या बदतर?
महात्मा गाँधी ने लिखा है-‘पशु चरागाह से भरपेट भोजन करके लौटना जातना है; लेकिन मनुष्य अपने पेट का अंदाजा नहीं जानता। यही कारण है कि मनुष्य-जननेन्द्रिय से पशु-जननेन्द्रिय अधिक संयमित होती है। पशु को अपनी त्वचा पर जितना अधिकार है, उतना अधिकार मानव को नहीं है। आप देखेंगे किसी गाय या बैल को, जहाँ पर मक्खी बैठती है, वहाँ के चमड़े को हिला देती है, मक्खी उड़ जाती है। उसको समूचे शरीर को हिलाना नहीं पड़ता। हमलोगों के शरीर पर भी मक्खी बैठती है, सिर्फ उसी स्थान को हिलाकर मक्खी नहीं उड़ा सकते। संत और सद्ग्रंथ कहते हैं, हम देवदुर्लभ शरीर पाये हुए हैं। अगर हम देव-दुर्लभ शरीर पाए हैं, तो हमारा काम भी देव-दुर्लभ होना चाहिए। शरीर तो है मानव का; लेकिन मानवता नहीं, दानवता से बढ़कर है। बाघ सिंह से भी अधिक खूँखार बने हुए हैं, तो मानव-शरीर की क्या उपयोगिता हुई? इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी को कहना पड़ा-
“ लाभ कहा मानुष तन पाये ।
काय वचन मन सपनेहु कबहुँक, घटत न काज पराये ।।”
अगर परोपकार में हमारा तन नहीं गया, हमारा मन नहीं गया, हमारा धन नहीं गया, अरे! कम-से-कम वचन से भी किसी का उपकार नहीं हो सका, तो मनुष्य-शरीर किस काम का?
बृहदारण्यक उपनिषद् में मनुष्य-शरीर को उलटा वृक्ष बतलाया गया है। वृक्ष की जो जड़ होती है, वह नीचे होती है। जड़ को लोग सीर भी कहते हैं। वृक्ष का सीर नीचे रहता है और मनुष्य का सिर ऊपर होता है। वृक्ष के ऊपर भाग में छिलका होता है, उसके नीचे लकड़ी होती है। मनुष्य-शरीर के ऊपरी भाग में त्वचा होती है, उसके नीचे मांस होता है और उसके नीचे हड्डी होती है। वृक्ष के ऊपर किसी अस्त्र-शस्त्र के प्रहार कीजिए, पानी चूने लगेगा। मनुष्य-शरीर पर किसी अस्त्र-शस्त्र से प्रहार कीजिए, रक्त चूने लग जाएगा। वृक्ष में इतने पत्ते होते हैं, जिनकी हम गणना नहीं कर सकते हैं। इसी प्रकार मनुष्य-शरीर में इतने रोएँ होते हैं, जिनकी हम गणना नहीं कर सकते। वृक्ष का सिर को काट दीजिए, वृक्ष समाप्त हो जाएगा। मनुष्य का सिर काट दीजिए, मनुष्य समाप्त हो जाएगा। यह उलटा वृक्ष है। वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है कि वृक्ष को भी सुख-दुःख होते हैं। वृक्ष के नीचे हम पेशाब करते हैं, पैखाना करते हैं, उससे वृक्ष को दुःख होता है। उसकी जड़ में जाकर पानी डालते हैं, तो उसको सुख होता है। उसकी डाल तोड़ते हैं, तो वह दुःखी होता है। उसको हम सींचते हैं, तो वह सुखी होता है। दुःख-सुख का अनुभव उसको उसको भी है; लेकिन वह व्यक्त नहीं कर सकता है। यदि वह व्यक्त भी करता है, तो हम समझ नहीं पाते हैं। वैज्ञानिकों ने इसका चित्र लेकर देखा है। वृक्ष की जड़ में पानी देते हैं, तब कैसा होता है और कुल्हाड़ी से काटते हैं, तब कैसा होता है। वृक्ष से अधिक ज्ञान का संचार पशुओं में है। वृक्ष में जैसे सुख-दुःख का ज्ञान होता है, वैसे पशुओं में भी होता है; लेकिन पशुओं के दुःख को अध्ययन करते-करते हम कुछ समझने लग जाते हैं। लेकिन वह पशु भी मुँह से बोलकर व्यक्त नहीं कर सकता। जैसे मानव का एक छोटा निरा बच्चा है, उसके पेट में दर्द है। वह मानव है; लेकिन मुँह में बोल नहीं होने के कारण अभिव्यक्त नहीं कर सकता है; क्योंकि अभी उसका ज्ञान विकसित नहीं है। एक पत्थर है, उसमें प्राण है। एक पत्थर है, उसमें प्राण नहीं है। पत्थर भी सजीव-निर्जीव होते हैं। पत्थर से अधिक विकास वृक्ष में, वृक्ष से अधिक विकास पशु में और पशु से अधिक विकास मानव में है। जिस मनुष्य में ज्ञान का विकास नहीं है, उसको हम क्या कहते हैं? कहते हैं कि यह बैल है, यह जानवर है आदि।
इस मनुष्य-शरीर की बड़ी प्रशंसा है; लेकिन प्रशंसा के योग्य बनाकर रखें तब तो। एक संत हुए काष्ठ जिह्वा स्वामी। उन्होंने कहा है-
“ कोई सफा न देखा दिल का,
साँचा बना झिलमिल का ।।टेक।।
कोइ बिल्ली कोइ बगुला देखा,
पहिरे फकीरी खिलका ।
बाहर मुख से ज्ञान छाँटते,
भीतर कोरा छिलका ।।1।।
भजन करन में गजब आलसी,
जैसे थका मँजिल का ।
औरन के पीसन में सुरमा,
जैसें बट्टा सिल का ।।2।।
पढ़े लिखे कुछ ऐसेहि वैसे,
बड़ा घमण्ड अकिल का ।।
जहरी वचन यों मुख से निकले,
साँप निकलता बिल का ।।3।।
भजन बिना सब जप तप झूठा,
झूठ तवक्का फजल का ।।
क्या कहिये गुरु ‘देव’ न पाया,
महरम आँख के तिल का ।।4।।”
अगर आँख के तिल का हाल जाना जाए, तो साँप बिल का छूट जाएगा। गरुड़जी काग- भुशुण्डिजी से पूछते हैं-सबसे उत्तम शरीर कौन है? कागभुशुण्डिजी महाराज ने उत्तर दिया-
“ नर समान नहिं कवनिउ देही ।
जीव चराचर जाँचत जेही ।।
नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी ।
ज्ञान विराग भगति सुख देनी ।।”
मनुष्य-शरीर के समान कोई दूसरा शरीर नहीं है। जितने चराचर जीव हैं, सभी मनुष्य-शरीर पाने के लिए याचना करते हैं। इस शरीर की विशेषता यह है कि इसमें स्वर्ग ले जाने की सीढ़ी है, इसमें नरक ले जाने की निसेनी है और नजात में जाने के लिए जीना लगा हुआ है। आप जिधर जाना चाहें, जा सकते हैं। जैसे कोई बच्चा मैट्रिक पास कर जाता है, तो कॉलेज में एडमिशन लेने के लिए सोचता है कि आर्ट्स लें कि साइन्स लें कि कॉमर्स लें, तो जिधर उसका ज्यादा झुकाव है, उसमें वह एडमिशन करा लेता है। उसी तरह हमलोग देखें कि नरक की ओर जाने का झुकाव और कर्म है अथवा मोक्ष की ओर जाने का झुकाव और कर्म है। जिस तरफ जाने का झुकाव होगा, उसी तरफ जाएँगे। अपने मीटर से देखें, दूसरे के मीटर से नहीं देखा जा सकता है। अपना मीटर अपने ही पास है। स्कूल-कॉलेज में तो परीक्षा होती है और परीक्षक उस पर अंक डालते हैं; लेकिन यहाँ कोई दूसरा परीक्षक नहीं। यहाँ परीक्षार्थी और परीक्षक स्वयं हैं। परीक्षा देकर देख लें कि हमने किस श्रेणी के अंक लाए।
जैसे ईंट का भट्ठा है। उस भट्ठे को तोड़कर उसकी ईंटों से देव-मंदिर बना लें, चाहे रहने का मकान बना लें, चाहे पखाने का घर बना लें। ईंट का भट्ठा हमारे पास है। उसी तरह मनुष्य का शरीर मिला हुआ है। भगवान ने कर्म करने की छूट दे रखी है।
‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।’
अब अपने को हम नरक में ले जाएँ, अपने को स्वर्ग में ले जाएँ अथवा अपने को मोक्ष में ले जाएँ, यह अपने अधिकार की बात है। नरक में कोई जाना चाहता नहीं, चाहे वह नरक में जाने का ही कर्म क्यों न करता हो; क्योंकि वहाँ कष्ट-ही-कष्ट है। कुछ लोग स्वर्ग जाने की इच्छा रखते हैं; लेकिन अधिक विचारवान हैं, वे स्वर्ग की आशा नहीं करते हैं; क्योंकि स्वर्ग में भी वही सुख है, जो सुख यहाँ उपलब्ध है। दोनों जगहों के भोगों में यही अंतर है कि यहाँ सुख प्राप्त करने के लिए बहुत यत्न, बहुत परिश्रम करना पड़ता है। स्वर्ग में सब प्राप्त-ही-प्राप्त है। जैसे यहाँ सुन्दर मकान बनाने के लिए, साज सजाने के लिए, रहने-खाने के लिए बहुत परिश्रम करके पैसा कमाना पड़ता है, उसकी सुरक्षा- व्यवस्था करनी पड़ती है। लेकिन यहाँ से जो अमेरिका जाते हैं, वहाँ आलीशान मकान बने हुए हैं। एक-एक मकान सौ-सौ मंजिलों का बना हुआ है। सुंदर बगीचे बने हुए हैं। जहाँ जिस होटल में ठहरना चाहें, ठहर सकते हैं। वहाँ खाने-पीने, ऐश-मौज करने, घूमने-फिरने, मन बहलाव करने आदि की सारी व्यवस्था है, अपनी ओर से व्यवस्था की आवश्यकता नहीं। सिर्फ डॉलर चाहिए। लेकिन कबतक? जबतक डॉलर आपके पास रहेगा, तबतक। डॉलर खतम हुआ कि एक-दो-तीन। वापस होना पड़ेगा अपने घर के लिए। जिस तरह अपना कमाया हुआ वहाँ जाकर खा-पी लिया और लौट आया, उसी तरह जो सुकर्म किया था, धर्म किया था, वही जमा किया हुआ स्वगर् में जाकर खाया-पिया, ऐश-मौज किया और जब पुण्य समाप्त हो गया, तो फिर इस मर्त्यलोक में आ गये। पुण्य क्षीण होने के बाद वहाँ ठहर नहीं सकते। इसीलिए संत तुलसी साहब ने कहा-
“ नर तन दुर्लभ देव को, सब कोइ कहत पुकार ।।
सब कोइ कहत पुकार, देव देही नहिं पावै ।
ऐसे मूरख लोग, स्वर्ग की आस लगावै ।।
पुन्य छीन सोइ देव, स्वर्ग से नरक में आवै ।
भरमै चारिउ खानि, पुन्य कहि ताहि रिझावै ।।
तुलसी सत मत तत गहे, स्वर्ग पर करे खखार ।
नर तन दुर्लभ देव को, सब कोइ कहत पुकार ।।”
दूसरी बात यह भी है कि स्वर्ग में सबको एक समान सुख नहीं मिलता है। पुण्य करते हैं सब कोई, कोई कम, कोई बेसी। उसी कम-बेशी के अनुसार वहाँ रहने का स्थान और रहने की व्यवस्था है। जिन्होंने कम पुण्य किया, उसके लिए कम व्यवस्था है।
वैदिक सिद्धांत के अनुसार देवता मनुष्येतर सुख-सम्पन्न एक दूसरे ही लोक में रहनेवाले पुरुष हैं। मनुष्य-सुख से सौ गुणा अधिक सुख पितरों को होता है। पितरों से सौ गुणे सुख के समान गंधर्व लोक का सुख है। गंधर्वों के सुख से सौ गुणा अधिक सुख कर्मदेवों को, उनसे भी अधिक जन्मदेवों को प्राप्त होता है। इस सिद्धांत को जानकर देवताओं के स्वरूप के संबंध में बहुत कुछ उत्सुकता शांत हो जाती है। देवताओं के सुख से सौ गुणा अधिक सुख प्रजापति लोक में तथा उससे भी अधिक ब्रह्मलोक में मिलता है। देवता मनुष्यों से बहुत उन्नत; परन्तु ब्रह्मलोक निवासियों से वे बहुत अवनत दशा में रहनेवाले प्राणिविशेष हैं।
जो नीचेवाला है, वह ऊपरवाले को देखता है कि वह इतना अधिक सुखी है। उससे ऊपर चलें। और उससे ऊपरवाले को देखता है कि वे उससे इतने अधिक सुखी हैं, तो वहाँ भी राग-द्वेष में जलते रहते हैं। ऐसी स्थिति में वहाँ सुख कहाँ? संतों ने कहा, नरक में कोई जाना चाहता नहीं, स्वर्ग की आकांक्षी कुछ लोग हो सकते हैं, जो नहीं जानते हैं और जो जाननेवाले हैं, वे मोक्ष की चाहना करते हैं और तदनुकूल कर्म करते हैं। केवल इच्छा से नहीं। इच्छा तो सबकी रहती है कि गुलाबजामुन, टिकरी, रसगुल्ला सब दिन खायँ; लेकिन मिलता नहीं। मिलता है उसी को, जो इसके लिए प्रयत्नशील होते हैं। उसी तरह मोक्ष में जानेवाले की जो क्रिया है, नहीं करेंगे, तो नहीं जाएँगे। वास्तव में यह मनुष्य-शरीर जो मिला है, ईश्वर-भजन कर प्रभु प्राप्त करने के लिए। भगवान श्रीराम ने कहा है-
‘एहि तन कर फल विषय न भाई ।’
तो हमारे गुरु महाराज ने कहने की कृपा की-‘एहि तन कर फल निर्विषय भाई।’ और वह निर्विषय तत्त्व क्या है? वह निर्विषय तत्त्व परमात्मा है और जो ईश्वर की भक्ति करते हैं, उसी को मुक्ति मिलती है।
“ जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई ।
कोटि भाँति कोउ करइ उपाई ।।
तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई ।
रहि न सकइ हरि भगति बिहाई ।।”
जिस तरह थल के बिना जल नहीं रह सकता, उसी तरह भक्ति के बिना मुक्ति रह नहीं सकती। इसलिए अगर मुक्ति की चाहना है, तो भक्ति करो। इसी भक्ति का प्रचार इस संतमत- सत्संग के द्वारा होता है। यह भक्ति अंधभक्ति नहीं है।
‘ज्ञान विराग नयन उरगारी’ वाली भक्ति है। नेत्रधारी होकर भक्ति करो, अंधविश्वासी होकर नहीं। ज्ञान-योगयुक्त ईश्वर की भक्ति का प्रचार संतमत के द्वारा होता है।
भक्ति का जो रूप है, वह स्थूल भी है और सूक्ष्म भी। सगुण भी है और निर्गुण भी और सगुण-निर्गुण के परे भी भक्ति है। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ सर्गुण की सेवा करो, निर्गुण का करु ज्ञान ।
निर्गुण सर्गुण के परे, तहाँ हमारा ध्यान ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ निर्गुण सर्गुण त्रिहु गुण ते दूरि ।
नानक अलिप्तु रहिआ भरपूरि ।।”
हमारे गुरुदेव के वचन में आया है-
“ है निर्गुण सगुण ब्रह्म दोउ अंश जाको ।
समता न पाता कोई भी है जाको ।।”
श्रीमद्भगवद्गीता के अनुकूल-क्षर पुरुष सगुण, अक्षर पुरुष निर्गुण है। क्षर पुरुष असत्य है, अक्षर पुरुष सत्य है। भगवान कहते हैं-
“ द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।”
क्षर पुरुष और अक्षर पुरुष के जो परे है, वह है पुरुषोत्तम। उसको जानो। जो कोई इस पुरुषोत्तम को जान लेता है, तो उसको जानने के लिए कुछ बाकी नहीं रह जाता है। उसका ज्ञान इस संतमत-सत्संग के द्वारा दिया जाता है। भगवान बुद्ध ने कहा है-
“ नत्थि झानं अपञ्ञस्स पञ्ञ नत्थि अझायतो।
यम्हि झानञ्च पञ्ञा च सब्बे निब्बाण सन्ति के ।।”
अर्थात् ज्ञान के बिना ध्यान नहीं और ध्यान के बिना ज्ञान नहीं। जो ज्ञान और ध्यान दोनों रखते हैं, वे निर्वाण के समीप हैं। यह ज्ञान कैसे होता है? पहले श्रवण ज्ञान होता है। फिर मनन ज्ञान, पश्चात् निदिध्यासन ज्ञान और अंत में अनुभव ज्ञान होता है। पहले कुछ सुनेंगे, तब मनन करने लगेंगे। मनन करते-करते समझ में बात आएगी, तब दृढ़ता के साथ अभ्यास करने लगेंगे। धीरे-धीरे आगे का रास्ता कटेगा और अंत में साक्षात्कार होगा। यही अनुभव ज्ञान है।
“ है कुछ रहनि गहनि की बाता ।
बैठा रहे चला पुनि जाता ।।”
‘कहने का तात्पर्य है ऐसा, ‘जस पंथी बोहित चढ़ि जैसा।’ मन जबतक चक्कर काटता रहेगा, रास्ता नहीं कटेगा। रास्ता कटेगा तब, जब मन बैठेगा। इसलिए देहात में लोग कहा करते हैं-‘बैठे चूत तऽ निकले सूत।’ मन को बिठाने के लिए मानस जप और मानस ध्यान है। मानस जप और मानस ध्यान के द्वारा मन एकाग्र होता है। मन भागता है, उसको रोकते हैं। रुकते-रुकते वह रुकने लग जाता है।
“ जहँ जहँ मन भगि जाइ, ताहि तहँ-तहँ से तत्छन ।
फेरि-फेरि ले आइ, लगाइय ध्येय में आपन ।।
ऐसेहि करि प्रतिहार, धारणा धारण करिके ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ औरो आगे बढ़िय ,
चढ़िय धर धारा धरिके ।।6।।”
मन भागता है उसको रोकते हैं, मन भागता है उसको राकते हैं। इसका नाम है प्रत्याहार और जब आकर मन कुछ टिकता है, फिर भागता है। इसका नाम है धारणा और जब धारणा अधिक देर तक होने लगती है, तो उसकी संज्ञा हो जाती है ध्यान की। जब ध्यान में पूर्णता आ जाती है, तब समाधि हो जाती है। उसका नाम है अनुभव ज्ञान। यह क्रम है बढ़ने का; लेकिन बढ़ेंगे कौन? हमारे गुरुदेव कहा करते थे-जिस तरह Qके साथ न् का संबंध है, उसी तरह ईश्वर-भक्ति के साथ सदाचार का संबंध है। जो सदाचारी होकर ध्यानाभ्यास करेंगे, उनको सफलता अवश्य मिलेगी।
गुड्डी आकाश में उड़ती है। उसमें थोड़ा-सा ढेला बाँध दीजिए, नहीं उड़ेगी। उसी तरह मन सूक्ष्म है। गति इसकी बहुत तेज है; लेकिन आसक्ति का ढेला जबतक इसमें बँधा हुआ है, तबतक विषयों की सीमा में चक्कर काटता रहेगा, ऊपर नहीं बढ़ सकता है। गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ भूलिउ मन माइआ उरझाइउ ।
जो जो करम कीउ लालच लगि,
तिह तिह आपु बंधाइउ ।।”
आसक्ति का ढेला बँध जाता है, आगे चल नहीं सकते हैं। इस संबंध की एक रोचक कहानी है-काशी में लोगों ने विचार किया कि नाव से इलाहाबाद चला जाए। रात में हमलोग भोजन कर लें और नाव पर चढ़ें और नाव खेते हुए इलाहाबाद पहुँच जाएँ। सब लोग खाने-पीने के बाद नाव पर बैठ गये। संध्या हो गयी, अँधेरा हो गया। वे लोग लगे नाव खेने, घंटों बीत गये, सोचने लगे-कितने घ्ांटे नाव खेते हो गये। कहाँ तक हमलोग आ गये होंगे? अँधेरी रात थी। दीखता तो कुछ था नहीं। परस्पर बातें करते हैं। कहते हैं, इतने घंटे में इतनी दूर आ गये होंगे। हमलोग ठीक हैं, नाव चलाओ। चलते-चलते कुछ देर के बाद फिर कहते हैं, अब कितनी दूर आ गये होंगे? उत्तर मिलता है-अब थोड़ी ही बाकी होगा। हमलोग इलाहाबाद के निकट आ गये होंगे। रात बीती, अब साफ होने लग गया। कुछ प्रकाश हो रहा है। उस प्रकाश में देखा तो कुछ मकान नदी के किनारे देखने में आए। परस्पर कहने लगे, हमलोग इलाहाबाद पहुँच गये क्या? सूर्योदय हुआ, पूरा साफ हो गया, तो देखते हैं कि हमलोग काशी के काशी में ही पड़े हुए हैं। सब चकित हो गये कि बात क्या हुई? तब किसी ने कहा कि लंगर तो उठाया नहीं। लंगर उठता तब तो नाव चलती।
उसी तरह हमलोगों को भजन-भेद लिए वर्षों हो गये; लेकिन आसक्ति का लंगर जो गड़ा हुआ है, उठा ही नहीं, सफलता कहाँ से मिलेगी। जबतक आसक्ति छूटेगी नहीं, आगे प्रगति नहीं होगी। अरे! कम-से-कम जिस समय हम ध्यान करने के लिए बैठते हैं, उस समय भी तो आसक्ति को कम-से-कम छोड़ें। लेकिन जिस समय ध्यान करने के लिए बैठते हैं, उस समय और दुनिया भर की बात मन में आती है। जो नियमित रूप से साधना करते हैं, वे देखते हैं कि मानस जप और मानस ध्यान में कुछ सिमटाव हुआ। दृष्टिसाधन में पूर्ण सिमटाव हुआ। पूर्ण सिमटाव में ऊर्ध्वगति हो गयी और अंधकार से प्रकाश में प्रतिष्ठित हो गये। फिर वहाँ शब्द की अनुभूति होती है। उस शब्द को पकड़कर वे आगे चलते हैं। अंत में सारशब्द को पकड़कर चलते-चलते परम प्रभु परमात्मा तक पहुँच जाते हैं, फिर तो परमात्मा को पाकर-‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई।’ हो जाते हैं। वे भी वही हो जाते हैं। फिर आवागमन का चक्र छूट जाता है। दैविक, दैहिक और भौतिक-इन त्रितापों से जो मानव संतप्त होते रहते हैं, उनसे वे सदा के लिए मुक्त हो जाते हैं। यही मनुष्य-शरीर की उपादेयता है। यह थोड़ी-सी बात मैंने आपलोगों की सेवा में कहा।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन झारखंड प्रांत के साहेबगंज जिलान्तर्गत पंचम वार्षिक अधिवेशन, बरहेट अंचल के हाथीगढ़ ग्राम में दिनांक 1-4-1991 ई0 के प्रातःकालीन
सत्संग में हुआ था।

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समवेत समादणीय सज्जनवृन्द, आदरणीय माताओ एवं करुणामयी बहनो!
जब हम वकील साहब को देखते हैं, तो मन में मुकदमे, गवाह और कचहरी की याद आती हे। जब हम डॉक्टर साहब को देखते हैं, तो रोग, रोगी और Dispensary की याद आती है। जब हम प्रोफेसर साहब को देखते हैं, तो विद्या, विद्यालय और विद्वानों की याद आती है। जब हम पादरी साहब को देखते हैं, तो Prayer, बाइबिल और गिरिजा की याद आती है। जब हम मुल्ला साहब को देखते हैं, तो नमाज, मस्जिद और कुरान की याद आती है। जब हम पंडितजी को देखते हैं, तो पूजा, मन्दिर और पुराण की याद आती है; किन्तु जब हम साधु-सन्तों के दर्शन करते हैं, तब क्या याद आता है? इसका उत्तर संत कबीर साहब ने दिया है-
“ कबीर दर्शन साधु के, साहब आवै याद ।
लेखा की वाही घड़ी, बाकी के दिन बाद ।।”
अर्थात् जब संत के दर्शन होते हैं, तो परम प्रभु परमात्मा की याद आती है, जिस क्षण जिस घड़ी यह याद आती है, उसी का हिसाब परमात्मा के दरबार में होता है। उसके बाद के हमारे क्रिया-कलाप व्यर्थ के हैं-‘बाकी के दिन बाद।’ ऐसा क्यों? इसलिए कि नरतन की उपयोगिता विषयभोगों की बहुलता में नहीं, भगवद्भजन की मादकता में है। प्रभु-दर्शन के लिए संतों की देह आरसी का काम करती है। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ परम पुरुष की आरसी, संतों की ही देह ।
लखा जो चाहो अलख को, इनहीं में लखि लेह ।।”
जिस तरह अपने रूप को हम आईने में देखते हैं, उसी तरह परम प्रभु के रूप को हम संतों की देह में देख सकते हैं। पुनः जिज्ञासा होती है-‘साधु-संतों के दर्शन से पारलौकिक लाभ तो होते हैं; लेकिन लौकिक लाभ क्या होता है?’ इसके उत्तर में संत कबीर साहब कहते हैं-
“ कबीर दर्शन साधु के, बड़ भागे दरसाय ।
जो होवे सूली सजा, काँटे ही टल जाय ।।”
अयोध्याजी में एक अच्छे विद्वान साधु थे। वे पी-एच0डी0 किये हुए थे। उन्होंने जब हमारे गुरु महाराज की महिमा-विभूति के संदर्भ में सुना, तो उनकी इच्छा हुई उनके दर्शन की, वे वहाँ से चलते हैं। उस समय ट्रेन में First class, second class और Third classass होते थे। वह second class में यात्र कर रहे थे। उसी compartment में एक नवयुवक अपनी पत्नी के साथ आया। वे दोनों भी इसी compartment में बैठ गये। गाड़ी खुली, आगे बढ़ी। आगे स्टेशन पर चार-पाँच व्यक्ति वेश-भूषा से तो पढ़े-लिखे सज्जन-से लगते थे; किन्तु ट्रेन खुलते ही उन लोगों ने अपनी दुर्जनता का परिचय देना आरंभ किया। उस नवयुवक की पत्नी के साथ छेड़खानी शुरू की। उसके पति ने विरोध किया, तो दो दुर्जनों ने उसके पति को पकड़कर पाखाने के घर में बंद कर दिया और उसके पहरे पर बैठ गये। बचे हुए तीन ने फिर उसके साथ छेड़खानी शुरू की। ये साधु बाबा जो वहाँ बैठे हुए थे, उनसे देखा नहीं गया। उन्होंने कहा, ‘देखो भाई! तुमलोगों को जो रुपये-जेवर लेने हों, ले लो। लेकिन इसके साथ इस तरह का दुर्व्यवहार ठीक नहीं।’ उनलोगों ने कहा, ‘हमलोग तो समझ रहे थे कि आप साधु हैं, इसलिए आपको कुछ नहीं कहा था। किन्तु अब तो जो कुछ कहना है, आपही को पहले कहेंगे, फिर उसको। इतना कह उनलोगों ने साधु बाबा को गाड़ी से बाहर फेंक दिया। रात का समय था। जब वे गाड़ी से फेंके जा रहे थे, उन्होंने मन ही मन कहा-सुना था संतों के दर्शन से सूली की सजा काँटे पर ही टल जाती है और मैं तो संतदर्शन के लिए जा ही रहा हूँ कि मेरी यह दुर्गति? इतना सोचते ही वे निकट में लगे बिजली के खंभे से टकराकर नीचे गिरते हैं, जहाँ पहले से पुआल जमा था। साधु बाबा को गाड़ी से गिरते हुए गार्ड साहब ने देखा।
उन्होंने गाड़ी रोक दी और उनके निकट आकर पूछा-‘बाबा! क्या हुआ?’ साधु बाबा ने उत्तर दिया- ‘मुझको कुछ नहीं हुआ है। आप इतने नम्बर के compartment में जाकर देखिये-क्या हो रहा है?’ गार्ड साहब पुलिस के साथ वहाँ पहुँच जाते हैं। पुलिस को देखकर कुछ बदमाश तो भाग जाते हैं। बचे हुए को पुलिस पकड़कर ले जाती है। साधु बाबा जब हमारे गुरुदेव के दर्शनार्थ भागलपुर-कुप्पाघाट आश्रम पहुँचते हैं, उस समय परम पूज्य गुरुदेव महाराज का प्रवचन हो रहा था और वे प्रवचन के क्रम में कह रहे थे-
“ कबीर दर्शन साधु के, बड़ भागे दरसाय ।
जो होवे सूली सजा, काँटे ही टल जाय ।।
जाको राखै साइयाँ, मारि सकै नहिं कोय ।
बाल न बाँका करि सके, जो जग बैरी होय ।।”
प्रवचन समाप्त होने पर परम पूज्य गुरुदेव के चरणों में साष्टांग प्रणाम करते हुए उन साधु बाबा ने कहा, ‘महाराजजी! आपका प्रवचन मैं सुन रहा था। मुझे तो ऐसा लगा, जैसा आपने मेरे लिए ही सारी बातें कही हों; क्योंकि मेरे साथ ऐसी ही घटना घटी है।’
संत गरीब दासजी ने इसका बड़ा ही स्पष्टीकरण किया है कि ये संत-साधु लोग कैसे क्या होते हैं। वे कहते हैं-
“ साहब से सतगुरु भये, सतगुरु से भये साध ।
ये तीनों अंग एक है, गति कछु अगम अगाध ।।
साहब से सतगुरु भये, सतगुरु से भये संत ।
धरि धरि भेष विलास अंग, खेलैं आदि और अंत ।।”
अर्थात् परम प्रभु परमात्मा ही साधु-संत के वेश में अवतरित हुए हैं। इसलिए साधु-संतों के संग की बड़ी महिमा है। संत कबीर साहब ने कहा-
“ दर्शन कीजै साधु का, दिन में कइ एक बार ।
आसोजा का मेह ज्यों, बहुत करै उपकार ।।”
आसोजा यानी आश्विन महीना। आश्विन महीने के हस्तनक्षत्र में वर्षा होने से धान की फसल लहालहा उठती है। धान में जान आती है। धान सूख रहा हो, यदि उसको हथिया का पानी मिल जाए, तो फसल अच्छी हो जाती है। उसी तरह जो जीवन सूख रहा हो, उसको यदि संतों के दर्शन हो जाएँ, तो जीवन का पुनरुत्थान हो जाता है। इसलिए संत कबीर साहब दिन में कई बार संतदर्शन करने का आदेश देते हैं। पुनः कहते हैं-
“ कई बार नहिं करि सकै, तो दोय बखत करि लेय ।
कबीर साधु दरस तें, काल दगा न देय ।।
दोय बखत नहिं करि सकै, तो दिन में करु एक बार ।
कबीर साधू दरस ते, उतरे भवजल पार ।।”
अर्थात् प्रतिदिन संत-दर्शन करते रहोगे, तो संसार-सागर से पार कर जाओगे। फिर कहते हैं-
“ एक दिना नहिं करि सकै, तो दूजे दिन करि लेहि ।
कबीर साधू दरस तें, पावै उत्तम देहि ।।
दूजे दिन नहिं करि सकै, तीजे दिन करि जाय ।
कबीर साधू दरस तें, मोच्छ मुक्ति फल पाय ।।
तीजे चौथे नहिं करै, तो बार-बार करि जाय ।
या में विलम्ब न कीजिये, कह कबीर समुझाय ।।
बार-बार नहिं करि सकै, तो पाख पाख करि लेय ।
कह कबीर सो भक्त जन, जनम सुफल करि लेय ।।
पाख पाख नहिं करि सकै, तो मास-मास करि जाय ।
या में देर न कीजिये, कह कबीर समुझाय ।।
मास मास नहिं करि सकै, तो छठे मास अलबत्त ।
या में ढील न कीजिये, कह कबीर अविगत्त ।।
छठे मास नहिं करि सकै, बरस दिना करि लेय ।
कह कबीर सो भक्त जन, जमहिं चुनौती देय ।।
बरष बरष नहिं करि सकै, ता को लागै दोष ।
कहै कबीरा जीव सो, कबहुँ न पावै मोष ।।”
इसलिए साधु-संतों के दर्शन अवश्य करो। जिनको साधु-संतों के दर्शन-स्पर्शन हों, उनका अहो भाग्य है। इससे क्या होगा? गोस्वामीजी ने लिखा है-
“ जब द्रवहिं दीनदयाल राघव, साधु संगति पाइये ।
जेहि दरस परस समागमादिक, पाप रासि नसाइये ।।”
अर्थात् उनके दर्शन, स्पर्शन और समागम आदि से पापपुंज विनाश होंगे। जैसे आग की चिनगारी सूखी घास को भस्मसात् करती है, वैसे ही संतों की सद्युक्ति अघ-ओघ को नाश करती है। मात्र श्रवण- मनन से काम पूरा नहीं होगा। श्रवण-मनन के पश्चात् निदिध्यासन करने के लिए भी वे बतलायेंगे। इसके लिए कहीं बाहर जाकर कुछ करना होगा, ऐसी बात नहीं, बल्कि अपने ही अंदर करना होगा। अभी आप लोगों ने सुना-
“ कोई चतुर न पावे पार, नगरिया बाबरी ।।
लाल लाल जो सब कोइ कहै, सबकी गाँठी लाल ।
गाँठि खोलि के परखै नाहीं, तासे भयो कंगाल ।।
काया बड़े समुद्र केरो, थाह न पावै कोइ ।
मन मरि जैहैं डूबि के हो, मानिक परखै सोइ ।।
ऊँचा महल अगमपुर जहवाँ, सन्त समागम होइ ।
जो कोइ पहुँचे वही नगरिया, आवागमन न होइ ।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, का खोजो बड़ी दूर ।
जो कोइ खोजै यही नगरिया, सो पावै भरपूर ।।”
संत कबीर साहब ने इस पद्य में तीन नगरों की चर्चा की है। उन्होंने प्रथम नगरिया इस संसार को लिए प्रयोग किया है। इस संसार के लोग अपने को बड़ा चतुर समझते हैं। दुनियादारी में वे भले ही चतुर हों; लेकिन इस चतुराई से संसार का पार पाना संभव नहीं है।
“ कहै कबीर सुनो भाइ साधो, का खोजो बड़ी दूर ।
जो कोइ खोजै यही नगरिया, सो पावै भरपूर ।।”
दूसरा नगर यह शरीर है। जो इस शरीररूपी नगर में खोजेंगे, उनको ही भरपूर रूप से प्रभु-परमात्मा मिलेंगे। तीसरे नगर के संदर्भ में कबीर साहब ने कहा-
“ ऊँचा महल अगमपुर जहवाँ, सन्त समागम होइ ।
जो कोइ पहुँचे वही नगरिया, आवागमन न होइ ।।”
अर्थात् वह तीसरा नगर परमात्म-धाम है, जहाँ से कोई लौटता नहीं, आवागमन मिट जाता है। पहला नगर संसार, दूसरा नगर शरीर और तीसरा नगर हुआ परमात्म-धाम, जहाँ जाकर संत-समागम करते हैं। संत किनसे समागम करते हैं? अनंत से, परमात्मा से। जो परमात्म-धाम में पहुँच जाते हैं, उनका आवागमन नहीं होता है, उनका पुनः संसार में आना नहीं होता। अर्थात् ईश्वर से युक्त होनेवाले आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाते हैं।
जिस तरह दूध में घृत रहने पर भी उससे हम पूड़ियाँ नहीं छान सकते। दूध को मथते हैं, घृत को पृथक् कर लेते हैं, पश्चात् हम पूड़ियाँ छान लेते हैं। इसी प्रकार जड़ और चेतन की जो ग्रंथि है, उसमें भी परमात्मा हैं। जड़ में भी परमात्मा हैं और चेतन में भी हैं। वे सर्वत्र हैं। लेकिन सर्वत्र रहने पर भी उनको हम पहचान नहीं सकते। जहाँ एक बूँद दूध होता है, वहाँ उसी मात्र में घी भी रहता है। इसी तरह सारे संसार में परमात्मा परिव्याप्त हैं; लेकिन ध्यान की मथनी से मथकर ही चेतन आत्मा से परम प्रभु परमात्मा को पाया जाता है। यह जीव पुनः संसार में लिप्त नहीं होता। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ दूध को मत्थकर घीर्त न्यारा किया,
बहुरि फिर तत्व में ना समावै ।”
स्वामी ब्रह्मानंदजी ने कहा है-
“ जिमि दूध के मथन से, निकसत है घी जतन से ।
तिमि ध्यान की लगन से, परब्रह्म ले निहारा ।।”
यह ध्यान की क्रिया ऐसी नहीं, जिसको कोई कर सकते और कोई नहीं कर सकते, मानव मात्र कर सकते हैं। जाति-पाँति का कोई प्रतिबंध नहीं कि अमुक जाति के लोग कर सकते हैं और अमुक जाति के लोग नहीं। बल्कि-
“ जाति पाँति पूछै नहिं कोई,
हरि को भजै सो हरि का होई ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
‘चहुँ वरना को दे उपदेश, ता पंडित को सदा अदेश ।’
गुरु नानकदेवजी महाराज चारो वर्णों के लोगों को भगवद्भजन करने का आदेश देते हैं। और हम अपने गुरुदेव के पास आते हैं, तो वहाँ क्या पाते हैं? वे कहते हैं-
“ जितने मनुष तनधारि हैं, प्रभु भक्ति कर सकते सभी ।
अंतर व बाहर भक्ति कर, घट-पट हटाना चाहिए ।।”
‘मनुष तन धारि’ शब्द में सभी जातियों, सभी वर्णों के नर और नारी आ जाते हैं।
‘अंतर व बाहर भक्ति कर घट-पट हटाना चाहिए।’
अंतर और बाहर भक्ति क्या है?
“ धर्मकथा बाहर सत्संगा ।
अंतर सत्संग ध्यान अभंगा ।।”
संतों के दर्शन, प्रवचन-श्रवण और सद्ग्रंथ- अध्ययन बाहरी सत्संग और अंतस्साधना-ध्यान करना आंतरिक सत्संग है। इन दोनों प्रकार के सत्संगों से बाह्यान्तर दोनों प्रकार की भक्ति हो जाती है। उस भक्ति में जप और ध्यान की प्रधानता है। जप और ध्यान किस-किस समय में करो? इस संदर्भ में संत चरणदासजी महाराज ने कहा है-
“ दिन को हरि सुमिरन करो, रैनि जागि कर ध्यान ।
भूख राखि भोजन करो, तजि सोवन को बान ।।
चारि पहर नहिं जगि सकै, आधि रात सूँ जाग ।
ध्यान करो जप हीं करो, भजन करन कूँ लाग ।।
जो नहिं सरधा दोपहर, पिछले पहरे चेत ।
उठ बैठो रटना रटो, प्रभु सूँ लावहु हेत ।।
जागै ना पिछले पहर, करै न गुरु मत जाप ।
मुँह फारे सोवत रहै, ताकूँ लागै पाप ।।”
जो ब्राह्ममुहूर्त यानी पिछले पहर रात्रि के समय जप-ध्यान नहीं करते, उनको पाप लगता है। यह साधना इतनी सरल है कि भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
‘तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।’
इसके अतिरिक्त शांत-एकांत और पवित्र स्थान में बैठकर ध्यान की एक अन्य क्रिया भगवान ने इस भाँति बतायी है, जो श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में लिखित है-
“ समंकाय शिरो ग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ।।”
अर्थात् शरीर, गर्दन और मस्तक को सम करके अचल और स्थिर होकर किसी दिशा को नहीं देखते हुए नासिकाग्र में देखें। यह भेद गुप्त है। बिना गुरु के जाना नहीं जा सकता।
“ बिन दया संतन की ‘मेँहीँ’ जानना इस राह को ।
हुआ नहीं होता नहीं वो, होनहारा है नहीं ।।”

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, चुटिया, राँची में दिनांक
22-06-1991 ई0 को मास-ध्यान के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, दिसम्बर 1991 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आप अस्पतालों में जब लोगों की अधिक भीड़ देखें, तो यह समझें कि उस क्षेत्र के लोगों का स्वास्थ्य पतन हो चुका है। जब कचहरियों में लोगों की अधिक भीड़ देखें तो यह समझें कि उस क्षेत्र के लोगों का नैतिक पतन हो चुका है। जब सिनेमाघरों में लोगों की अधिक भीड़ देखें तो समझें कि उस क्षेत्र के लोगों का चारित्रिक पतन हो चुका है। और, जब सत्संग के नाम पर इस तरह की उमड़ती भीड़ देखें, तो यह समझें कि उस क्षेत्र के लोगों का आध्यात्मिक उन्नति हो रही है। तो, इस आज गुरु-पूर्णिमा के अवसर पर गुरु-पूजा हेतु आपलोगों की आध्यात्मिक उन्नति जानकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है और इसके लिए आपलोगों को बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ।
इस चिलचिलाती धूप में ग्रीष्म-वर्षा की चिन्ता नहीं कर यत्र-तत्र से आपलोग यहाँ एकत्र हुए हैं, यह इस बात का द्योतक है कि आपलोगों को गुरुदेव के प्रति कितनी अधिक आस्था है। यहाँ आपलोगों के निवास, भोजन आदि किसी की भी समुचित व्यवस्था नहीं है, फिर भी आपलोग प्रसन्न मन से सत्संग में संलग्न हैं।
आज आषाढ़ पूर्णिमा है। आज की तिथि को ही पराशर मुनि के पुत्र व्यासदेवजी का जन्म हुआ था। इसलिए इसको व्यास-पूर्णिमा भी कहते हैं। वास्तव में इनका नाम कृष्णद्वैपायन था। ये कृष्ण वर्ण के थे और द्वीप में इनका अवतरण हुआ था। वेद को चार भागों में विभक्त करने के कारण इनकी संज्ञा ‘वेद व्यास’ पड़ी। ये बहुत बड़े विद्वान थे। इन्होंने अठारहो पुराणों की रचना की। शास्त्रर्थ के लिए बुलाने पर ये ईरान गये थे। वहाँ उनकी विजय हुई और जगत्-गुरु की उपाधि मिली। तबसे व्यास-पूजा को लोग गुरु-पूजा के नाम से अभिहित करने लगे। उस तिथि को गुरु- श्रद्धालु भक्तगण अपने-अपने गुरु की पूजा करते हैं।
अवश्य ही जो ‘गुरु’ हैं, उनकी पूजा होनी चाहिए। संत सद्गुरु की पूजा में सबकी पूजा हो जाती है। जैसे वृक्ष की जड़ में पानी डालने से संपूर्ण वृक्ष हरा-भरा रहता है, इसी प्रकार एक गुरु-पूजा से समस्त देवी-देव प्रसन्न हो जाते हैं। क्यों? इसलिए कि-
“ देवी देव समस्त पूरण ब्रह्म परम प्रभू ।
गुरु में करैं निवास कहत हैं संत सभू ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
जैसे हाथी के पद-चिह्न में सभी प्राणियों के पद-चिह्न समा जाते हैं, वैसे ही गुरु-पूजा हो जाने पर और कोई पूजा बाकी नहीं रह जाती, सबकी हो जाती है।
संत-सद्गुरु की महिमा अनन्त है। वे अपने शिष्य के अनन्त लोचन का उन्मेष कराकर अनन्तस्वरूपी सर्वेश्वर का साक्षात्कार करा अनन्त उपकार करते हैं। इसलिये तो संत कबीर साहब ने कहा था-
“ सतगुरु की महिमा अनन्त, अनन्त किया उपकार ।
लोचन अनन्त उघारिया, अनन्त दिखावनहार ।।”
सच्छास्त्रें में गुरु की तुलना कहीं देव से, तो कहीं त्रिदेव से कही गयी है। कहीं ईश्वर से, तो कहीं ईश्वर से बढ़कर की गयी है। यथा-
‘यस्य देवे परा भत्तिफ़र्यथा देवे तथा गुरौ।’
(योगशिखोपनिषद्, यजुर्वेद)
अर्थात् जिसकी देव में अत्यन्त भक्ति है (उसकी गुरु में भी, वैसी ही होनी चाहिए), गुरु और देव समान हैं।
इसी योगशिखोपनिषद् के पंचम अध्याय में त्रिदेव से तुलना करते हुए इस प्रकार कहा गया है-
“ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवः सदाशिवः ।
न गुरोरधिकः कश्चिन्त्रिषु लोकेषु विद्यते ।।
दिव्यज्ञानोपदेष्टारं देशिकं परमेश्वरम् ।
पूज्येत्परया भक्त्या तस्य ज्ञान फलं भवेत ।।
यथा गुरुस्तथैवेशो यथैवेस्तथा गुरुः ।
पूजनीयो महाभक्त्या न भेदो विद्यतेऽनयोः ।।”
अर्थात् गुरुदेव ही ब्रह्मा, विष्णु और सदाशिव हैं। तीनों लोकों में गुरु से बढ़कर कोई नहीं है। दिव्य ज्ञान के उपदेश देनेवाले उपस्थित प्रत्यक्ष परमेश्वर की भक्ति के साथ उपासना करे, तब वह शिष्य ज्ञान का फल प्राप्त करेगा। जैसे गुरु हैं, वैसे ही ईश हैं; जैसे ईश हैं, वैसे ही गुरु हैं। इन दोनों में भेद नहीं है, इस भावना से पूजा करे। संत चरणदासजी महाराज कहते हैं-
“ गुरु ही शेष महेश, तोहि चेतन करैं ।
गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु होय खाली भरैं ।।”
गो0 तुलसीदासजी महाराज गुरु और हरि की समानता इस भाँति बतलाते हैं-
“ श्रीहरि गुरु पद कमल भजहिं, मन तजि अभिमान ।
जेहि सेवत पाइय हरि, सुख निधान भगवान ।।”
संत कबीर साहब गुरु को परमात्म-रूप में देखते हैं। वे कहते हैं-
‘परमातम गुरु निकट विराजैं, जागु जागु मन मेरे ।’
हमलोग प्रतिदिन प्रातःकालीन गुरु-स्तुति में परम पुरुष से गुरु विशेष हैं, का पाठ करते हैं-
“ नमो नमो सतगुरु नमो, जा सम कोउ न आन ।
परम पुरुष हू तें अधिक, गावैं संत सुजान ।।”
संत चरणदासजी महाराज की शिष्या गुरु भक्तिन सहजोबाई ने हरि से गुरु की विशेषता के कारण का विश्लेषण बड़े ही मार्मिक ढंग से किया है-
“ राम तजूँ पै गुरु न विसारूँ ।
गुरु के सम हरि कूँ न निहारूँ ।।
हरि ने जन्म दियो जग माहीँ ।
गुरु ने आवागमन छुटाहीँ ।।
हरि ने पाँच चोर दिये साथा ।
गुरु ने लई छुटाय अनाथा ।।
हरि ने कुटुँब जाल में गेरी ।
गुरु ने काटी ममता बेरी ।।
हरि ने रोग भोग उरझायौ ।
गुरु जोगी कर सबै छुटायौ ।।
हरि ने कर्म भर्म भरमायौ ।
गुरु ने आतम रूप लखायौ ।।
हरि ने मो सूँ आप छिपायौ ।
गुरु दीपक दे ताहि दिखायौ ।।
फिर हरि बंधमिुक्त गति लाये ।
गुरु ने सबही भर्म मिटाये ।।
चरणदास पर तन मन वारूँ।
गुरु न तजूँ हरि कूँ तजि डारूँ ।।”
जबसे हम इस संसार में आये हैं-शरीर में आये हैं, हमारे प्रभु हरदम, हरपल हमारे साथ रहे हैं; किन्तु उन्होंने कभी भी मुझसे नहीं कहा कि मैं तुम्हारे साथ ही हूँ, दर्शन कर लो, कल्याण हो जाएगा; भव दुःख मिट जाएगा, आवागमन का चक्र छूट जाएगा। हमारे प्रभु सतत हमारे अंग-संग रहते हम दुःखी हैं। इसीलिए तो गो0 तुलसीदासजी ने कहा था-
“ अस प्रभु हृदय अछत अविकारी ।
सकल जीव जग दीन दुखारी ।।”
अपने गुरुदेव की वाणी में भी हम पढ़ते हैं कि प्रभु से गुरु विशेष हैं; क्योंकि बिना गुरु के प्रभु नहीं मिलते, यद्यपि वे हमारे उरपुर में भरपूर हैं-
“ प्रभु हू से गुरु अधिक जगत विख्यात अहै ।
बिनु गुरु प्रभु नहिं मिलैं, यदपि घट माहिं रहै ।।
उर माँही प्रभु गुप्त अन्धेरा छाइ रहै ।
गुरु गुर करत प्रकाश प्रभु को प्रत्यक्ष लहै ।।
हरदम प्रभु रहें संग कबहुँ भव दुख न टरै ।
भव दुख गुरु दें टारि सकल जय जयति करैं ।।”
इस संदर्भ में अब संत सुंदरदासजी सुंदर उक्ति उनकी ही सुंदर वाणी में सुनिये-
“ गोविन्द के किये जीव, जात है रसातल को ।
गुरु उपदेशै सो तो, छूटै यम फन्द तैं ।।
गोविन्द के किये जीव, वश परे कर्मन के ।
गुरु के निवारे सूँ, फिरत है स्वछंद तैं ।।
गाविन्द के किये जीव, डूबत भवसागर में ।
सुन्दर कहत गुरु, काढ़ै दुख द्वन्द्व तें ।।
औरहू कहाँ लौं कछु, मुख तें कहूँ बनाय ।
गुरु की तौ महिमा, अधिक है गोविन्द तें ।।”
गुरु की जितनी महिमा गायी जाए, थोड़ी होगी। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय ।
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविन्द दियो बताय ।।
सब धरती कागद करूँ, लेखनी सब बनराय ।
सात समुँद की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय ।।”
विद्या-वरदा वीणापाणि जैसी वक्ता और गणपति जैसे लेखनकर्ता द्वारा भी गुरु-गुण बखान कर उनकी महिमा का अवसान नहीं किया जा सकता। चतुर्मुख ब्रह्मा, पंचमुख शिव, षण्मुख कार्तिकेय और सहस्त्रमुख शेष भी जिनके यशगान कर निःशेष नहीं कर सकते, फिर मुझ जैसा गोबर गणेश कुछ विशेष कैसे कह सकता है? इसी हेतु हमारे गुरुदेव ने कहा था-
“ गुरुगुण अमित अमित को जाना ।
संक्षेपहिं सब करत बखाना ।।”
किसी ने कितना अच्छा कहा है-क्या, कल्पतरु को किसी अन्य पुष्प द्वारा सजाया जा सकता है? क्या चंदन पर कोई लेप लगाया जा सकता है? क्या आकाश को कोई उबटन लगा सकता है? अथवा उसको और अधिक ऊपर उठाया जा सकता है? क्या कर्पूर की सुगंधि को बढ़ाने के लिए उसमें कुछ मिश्रित करने की आवश्यकता है? यदि नहीं, तो इसी प्रकार संत सद्गुरु का गुण-गान कर उसका समापन नहीं किया जा सकता।
जैसे सूर्य के प्रकाश से समस्त जगत् प्रकाशित होता है, फिर भी श्रद्धालु भक्त उनको प्रदीप दिखाते हैं। इसी भाँति संत सद्गुरु के ज्ञानालोक से विश्व आलोकित होता है, तथापि श्रद्धालु शिष्य अपने गुरु के प्रति अपनी श्रद्धा सुमन चढ़ाकर संतुष्ट होते हैं। सदगुरु की महिमा का वर्णन करते हुए संत दादू दयालजी महाराज कहते हैं-
“ सतगुरु पशु मानस करैं, मानस थैं सिध सोय ।
दादू सिध थैं देवता, देव निरंजन होय ।।”
संत सद्गुरु क्या नहीं कर सकते। वे पतित को पावन करनेवाले और नीचे का ऊपर उठानेवाले हैं, वे शिष्यों की पाशविक वृत्ति को दूर करनेवाले होते हैं। दानवता को दूर कर मानवता प्रदान करते हैं। इतना ही नहीं, देवताओं का देवत्व और प्रभु का प्रभुत्व उनमें ला देते हैं। वे सर्वेश्वर दाता होते हैं। वे क्या नहीं दे सकते! क्या नहीं कर सकते! वे सर्वसमर्थ होते हैं। जो प्रभु नहीं दे सकते, वे गुरु दे सकते हैं-
“ गुरु देवैं तासौं अधिक, राम सकै नहिं देय ।
मूर्ख बिगाड़े आपने, गुरु तजि रामहिं सेय ।।
गुरु रुचि स्वीकृत राम को, जानहु बारंबार ।
जो गुरु रुचि देवन नहीं, कभी न दे करतार ।।”
इसका अर्थ यह नहीं है कि जैसे-तैसे को गुरु धारण कर लिया जाए। इस संबंध में बहुत सोच- समझ की आवश्यकता है। हमारे यहाँ यह कहावत तो सुप्रसिद्ध है ही-
‘गुरु कीजिये जान, पानी पीजिये छान ।’
‘गुरु’ कहते किनको हैं? संत कबीर साहब कहते हैं-
“ गुरु नाम है ज्ञान का, शिष्य सीख ले सोय ।
ज्ञान मर्याद जाने बिना, गुरु अरु शिष्य न कोय ।।”
इस विषय में शास्त्र की सम्मति इस प्रकार है-
“ गु’ शब्दस्तवन्धकारः स्याद् ‘रु’ शब्दस्तन्निवारकः ।
अंधकार निरोधीत्वाद् गुरुरित्यभिधीयते ।।”
इस प्रकार ‘गुरु’ शब्द का अर्थ अंधकार का निवारक होता है। तात्पर्य यह कि जो अज्ञानांधकार को दूरीभूत कर प्रकाशपुंज में प्रतिष्ठित करें, वे गुरु हैं।
गो0 तुलसीदासजी के विचार में-‘जो अज्ञानपद से ऊपर उठकर ज्ञान का कथन करते हों, अंधकारहीन होकर प्रकाश का वर्णन करते हों और त्रयगुण से परे निर्गुण में प्रतिष्ठित होकर अगुण का गुणगान करते हों, वे गुरु हैं। संत पलटू साहब कहते हैं-
“ धुन आनै जो गगन की सो मेरा गुरुदेव ।।
सो मेरा गुरुदेव सेवा मैं करिहौं वाकी ।
शब्द में है गलतान अवस्था ऐसी जाकी ।।
निस दिन दसा अरूढ़ लगै ना भूख पियासा ।
ज्ञान भूमि के बीच चलत है उलटी स्वासा ।।
तुरिया सेति अतीत सोधि फिरि सहज समाधी ।
भजन तेल की धार साधना निर्मल साधी ।।
पलटू तन मन वारिये मिलै जो ऐसा कोउ ।
धुन आनै जो गगन की सो मेरा गुरुदेव ।।”
एक धनी दूसरे धनी को अपना धन देकर धनवान बना सकता है। एक विद्वान अपनी विद्या का दान देकर दूसरे को विद्वान बना सकता है, तब एक संत सद्गुरु अपने योगबल से शिष्य के योगबल को बढ़ावे, इसमें संशय कहाँ है?
पारस पत्थर अपने स्पर्श से लोहे को सोना बना सकता है। चंदन वृक्ष अपने सुगंध से अन्य वृक्षों को चंदन बना सकता है। तब यदि कोई योग्य गुरु अपने श्रद्धालु शिष्य में अपनी यौगिक शक्ति का संचार कर उसको योग्य बना दे, तो इसमें विस्मय की बात ही क्या है?
पूरे और सच्चे सद्गुरु को धारण करने का फल तो अपार है ही; परन्तु ऐसे गुरु का मिलना अति दुर्लभ है। उनकी पहचान भी आसान नहीं है। फिर भी जो ज्ञान-नेत्रधारी हैं, वे तो कुछ-कुछ जान भी सकते हैं; लेकिन अनजान के लिए तो कहना ही क्या? सूर्य को सब कोई देख सकते हैं; किन्तु उल्लू नहीं देख पाता।
“ फूटी आँख विवेक की, लखे न संत असंत ।
जाके संग दश बीस है, ताका नाम महंत ।।”
महंत और महंत-संतान बनने से कल्याण नहीं होगा। उद्धार तो तभी होगा, जब हम संत वा संत-संतान बन सकेंगे। हमारे गुरुदेव का अनमोल वाक्य है-
“ संतमता बिनु गति नहीं, सुनो सकल दे कान ।
जौं चाहो उद्धार को, बनो संत संतान ।।”
आज गुरु-पूजा का दिन है। पूजा किनकी हो? इसकी विशद व्याख्या संत पलटू साहब ने की है। उन्होंने कहा-‘बड़ा होय तेहि पूजिये, संतन किया विचार।’ बड़ा कौन? ताड़ वृक्ष बड़ा होता है; लेकिन उसकी पूजा कोई नहीं करता, करता है तुलसी बिरवा की, जिसकी ऊँचाई बहुत थोड़ी होती है। हिमालय पहाड़ बहुत बड़ा और उसकी ऊँचाई गगनचुम्बी है। लोग उसकी पूजा नहीं कर छोटे-से पत्थर शालिग्राम- शिवलिंग की पूजा करते हैं।
वास्तविक बात तो यह है कि वेश-विशेष के कारण नहीं, बल्कि गुण-विशेष के कारण पूजा होती है। जो गुरु के गुण से गुणान्वित हों, उनकी पूजा अवश्य होनी चाहिए। अब पलटू साहब की पूरी वाणी सुनिये-
“ बड़ा होय तेहि पूजिये, संतन किया विचार ।।
संतन किया विचार, ज्ञान का दीपक लीन्हा ।
देवता तैंतिस कोट, नजर में सबको चीन्हा ।।
सबका खंडन किया, खोजि के तीनि निकारा ।
तीनों में दुइ सही, मुक्ति का एकै द्वारा ।।
हरि को लिया निकारि, बहुरि तिन मंत्र विचारा ।
हरि हैं गुण के बीच, संत हैं गुण तें न्यारा ।।
पलटू प्रथमै संत जन, दूजे हैं करतार ।
बड़ा होय तेहि पूजिये, संतन किया विचार ।।”
वैदिक संस्कृति में तैंतीस करोड़ देवी-देवता बताये गये हैं। कोई भी उपासक एक-एक करके इतने देवी-देवताओं की पूजा वा उपासना नहीं कर सकते। मान लिया-किसी ने किसी प्रकार से एक करोड़ की पूजा करके उनको प्रसन्न कर भी लिया, तो फिर भी बत्तीस करोड़ देवी-देवता तो उससे अप्रसन्न ही रहेंगे। ऐसी अवस्था में क्या उपाय है कि उन सबको प्रसन्न किया जाय? संत पलटू साहब ने उन तैंतीस करोड़ों का मनन-चिन्तन कर त्रिदेव का चयन किया। पुनः तीनों में उन्होंने हरि को चुनकर देखा, तो उनको त्रिगुण में अैर संत को निर्गुण के भी पर पाया।
“ सगुण की सेवा करो, निर्गुण का करु ज्ञान ।
निर्गुण सगुण के परे, तहाँ हमारा ध्यान ।।”
(संत कबीर साहब)
“ निरगुन सरगुन त्रयगुण ते दूरि ।
रहा अलिप्त नानक भरपूरि ।।”
(गुरु नानकदेव जी)
हम अपने गुरुदेव के वचन में पाते हैं-
“ हैं निर्गुण सगुण ब्रह्म दोउ अंश जाको ।
समता न पाता कोई भी है जाको ।।”
और भी-
“ सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर औरु अक्षर पार में ।
निर्गुण सगुण के पार में सत असत हू के पार में ।।”
गोस्वामी तुलसीदासजी भी इस विचार से सहमत हैं। संत कैसे होते हैं, इस विषय में वे अपना विचार व्यक्त करते हैं-
“ शांत निरपेच्छ निर्मम निरामय
अगुण शब्द ब्रह्मैक पर ब्रह्म ज्ञानी ।”
इन्ही संतों में से कोई एक हमारे सद्गुरु होते हैं। संतों का ज्ञानोपदेश सामूहिक होता है, किन्तु वो हमारे गुरुदेव होते हैं, वे व्यक्तिगत रूप से हमें शिक्षा-दीक्षा देते हैं।
सभी संतों का समान रूप से सम्मान हो, किन्हीं का भी अपमान नहीं हो। इसलिये “ सब सन्तह की बड़ि बलिहारी” कहकर उन सबकी हम स्तुति करते हैं। तथा-
“ एकहि साधे सब सधै, सब साधे सब जाय ।
जो गहि सेवै मूल को, फूले फलै अघाय ।।”
जैसे तरुवर की जड़ में जल देने से सम्पूर्ण वृक्ष हरा-भरा होकर फल-फूल से भर जाता है, वैसे ही एक सन्त सद्गुरु के भजन-पूजन में सबके भजन-पूजन सम्पन्न हो जाते हैं।
जैसे वेसन में नमक डाल देने से छोटी-बड़ी सभी प्रकार की पकौड़ियों में समान रूप से लवण हो जाता है। उसी तरह एक गुरुदेव की उपासना में छोटे-बड़े सभी देवियों और देवों की उपासना हो जाती है।
स्वयं भगवान् श्रीराम संत-संतगुरु का गुणगान करते हैं। श्री शवरी जी को नबधाभक्ति का उपदेश देते हुए कहते हैं-
‘प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा ।’
तथा
“ सातवँ सम मोहि मय जग देखा ।
मोतें अधिक संत करि लेखा ।।”
कहा है। तीसरी भक्ति में मान-रहित होकर “ गुरुपद पंकज सेवा” का आदेश दिया है।
वनवास-काल में जब भगवान् श्रीराम वाल्मीकि मुनि जी के आश्रम में जाते हैं और उनसे अपने निवास के लिए स्थान पूछते हैं, वाल्मीकि जी क्या उत्तर देते हैं, रामचरितमानस में पढ़िये-
“ तुम्हतें अधिक गुरुहिं जिय जानी ।
सकल भाव सेवहिं सनमानी ।।”
अर्थात हे राम! जो कोई अपने मन में तुम से बढ़कर अपने गुरु को जानता हो और सब तरह से सम्मान कर सेवा करता हो, उसके हृदय में निवास करो।
जब सुरारि रावण पर असुरारि श्रीराम विजय प्राप्त कर अयोध्या आये, तो माता कौशल्या जी प्यार-पूर्वक पूछती हैं-बेटा! कहाँ तुम्हारा सुकोमल शरीर और कहाँ दुर्जय दानव रावण, जिसने देव, दानव, मानव, यक्ष, गन्धर्व, किन्नरादि सब पर आधिपत्य कर रखा था, उस को ससैन्य तुमने कैसे मारा? भगवान श्रीराम कहते हैं-माँ!
“ गुरु वशिष्ठ कुल पूज्य हमारे ।
तिनकी कृपा दनुज रण मारे ।।”
अब तुलसीकृत हनुमान चालीसा की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा। यहाँ आप सर्वप्रथम गुरु का स्थान पायँगे, द्वितीय में श्रीराम का और तृतीय स्थान हनुमान जी का। यथा-
“ श्रीगुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधार ।
वरनौं रघुवर विमल यश, जो दायक फल चार ।।
बद्धिहीन तनु जानिकै, सुमिरौं पवन कुमार ।
बल बुधि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेश विकार ।।”
और तो और, आगे चलकर देखिये, वे और क्या कहते हैं-
“ जय जय जय हनुमान गोसाईं ।
कृपा करो गुरुदेव की नाईं ।।”
गुरुदेव की कृपा के आकांक्षी हैं। गोस्वामी जी, न कि श्री रामजी वा हनुमान जी की। क्यों? इसलिये कि गुरुदेव की कृपा अन्यों की अपेक्षा अपना विशेष स्थान रखती है।
“ रामनाम कलि कामतरु, राम भगति सुरधेनु ।
सकल सुमंगल मूल जग, गुरु पद पंकज रेनु ।।”
कहने का तात्पर्य यह कि कल्पवृक्ष और काम धेनु को पाकर आंशिक मंगल होगा, सकल सुमंगल नहीं। अतएव यदि हम सकल सुमंगल चाहते हैं- उभय लोक में कल्याण चाहते हैं, तो वह है-‘गुरु पद पंकज रेनु’ अर्थात् गुरु-पद-पप्र-पराग में अविचल अनुराग।
गुरु-पूजा का यही हेतु है। सूर्य दिन में, चन्द्र रात्रि में और दीपक भवन के भीतर उजाला करता है, किन्तु सन्त-सद्गुरु अपने ज्ञानालोक से शिष्य के अन्तर्जगत् को अहर्निश आलोकित करते रहते हैं।
पूरे गुरु की पूजा के लिये यह गुरु-पूर्णिमा पर्व मनाया जाता है। हमारे गुरुदेव पूर्ण थे। त्रिकालज्ञ थे। भूत, भविष्य, वर्त्तमान सबके वे ज्ञाता थे। इस सन्दर्भ में जितना सुनाया जा, थोड़ा होगा। फिर भी, एक घटना सुना रहा हूँ-
परम पूज्य गुरुदेव के पार्थिव तन परित्याग के कुछ वर्ष पूर्व की बात है, वे कटिहार से कार-द्वारा पटना के लिये प्रस्थान किये थे। मेरे सहित तीन-चार सज्जन और भी उसी गाड़ी में थे। गाड़ी कटिहार शहर से बाहर निकलने पर एक अपरिचित सज्जन की जीप भी उसी के पीछे-पीछे चली, जिस पर कई सज्जन बैठे थे। पुरैनियाँ पहुँचने पर गुरुदेव ने अपनी गाड़ी रुकवा दी। जीप आगे बढ़ गया। गाड़ी रुकी रही। हमलोग अपनी अदूरदर्शिता के कारण समझ रहे थे कि यहाँ व्यर्थ समय बर्बाद हो रहा है। इतनी देर में गाड़ी कितनी अधिक दूर चली गयी होती। आत्म-दृष्टि प्राप्त हमारे गुरुदेव जानते थे, भविष्य में क्या होने वाला है। लगभग आधे घण्टे के बाद गाड़ी चलाने का आदेश गुरुदेव देते हैं गाड़ी चली। गेड़ाबाड़ी से आगे पहुँचने पर हमलोगों ने देखा, एक वृक्ष के गिर जाने के कारण वह जीप चूर-चूर हो गयी है और उस पर बैठे सज्जनों की लाशें सड़क पर बिछी हैं।
ऐसे महिमा-मण्डित थे हमारे गुरुदेव। उन पहुँचे हुए सन्त-सद्गुरु की पूजा-हेतु ही हमलोग आज यहाँ समवेत हुए हैं। उन्होंने हमलोगों को ईश्वर-प्राप्ति का सरल और सीधा मार्ग बताया है, जिस पर चलने के अधिकारी सभी नर-नारियाँ हैं। उनका उद्घोष है-
“ जितने मनुष तन धारि हैं, प्रभु-भत्तिफ़ कर सकते सभी ।
अन्तर व बाहर भत्तिफ़ कर, घट-पट हटाना चाहिए ।।
गुरु जाप मानस ध्यान मानस, कीजिए दृढ़ साधकर ।
इनका प्रथम अभ्यास कर, स्त्रुत शुद्ध करना चाहिए ।।
घट तम प्रकाश व शब्द पट त्रय, जीव पर हैं छा रहे ।
कर दृष्टि अरु ध्वनि-योग-साधन, ये हटाना चाहिए ।।
इनके हटे माया हटेगी, प्रभु से होगी एकता ।
फिर द्वैतता नहिं कुछ रहेगी, अस मनन दृढ़ चाहिए ।।
पाखण्ड अरुऽहंकार तजि, निष्कपट हो अरु दीन हो ।
सब कुछ समर्पण कर गुरू की, सेव करनी चाहिए ।।”
आपके उपदेशों का सार है-एक ईश्वर पर अचल विश्वास, पूर्ण भरोसा तथा अपने अन्दर में उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखना, सत्संग करना नित्य नियमित रूप से ध्यानाभ्यास करना और सद्गरु की निष्कपट सेवा करनी-इन पंच विधि कर्मों के परिपालन के साथ पंच निषिद्ध कर्मों के परित्याग का भी आपने प्रबल आदेश दिया है, वे हैं-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार। उनके ही शब्दों में हम कह सकेंगे-
“ सत्संग नित अरु ध्यान नित, रहिये संलग्न हो ।
व्यभिचार चोरी नशा हिंसा, झूठ तजना चाहिये ।।”
आपने साथ ही, जीवन-यापन के लिए पवित्र कमाई करने की शिक्षा दी।
आपके आदेश और उपदेश के परिवेश में यदि हम अपने को रख सकेंगे, तो हमारा भव-क्लेश निःशेष होगा, यह सुनश्चित है।
यह महर्षि मेँहीँ आश्रम पावन तपोभूमि है। परम पूज्य गुरुदेव ने यहाँ तपस्या की थी तथा साधना कर सिद्धि-लाभ किया था। इसको हम अपवित्र नहीं बनावें। प्रत्येक सत्संगी सज्जन का यह पुनीत कर्त्तव्य है कि वे इसकी मर्यादा की रक्षा कर पुण्य के भागी बनें।
इन्हीं कतिपय शब्दों के साथ सद्गुरुदेव के पाद-पप्रों में अनन्त प्रणाम निवेदित करते हुए अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ और आपलोगों को अनेकानेक धन्यवाद देता हूँ!
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक 26-7-1991 ई0 के साप्ताहिक सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अगस्त 1991 ई0)

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आदरणीय सजजनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं बहनो!
अभी आपलोग भगवान् श्रीराम का राज्या- भिषेक, उनका जंगल जाना, सीता-हरण, लक्ष्मणजी का मूर्च्छित होना आदि के संबंध में कथा सुन रहे थे। कथित प्रसंग बतलाता है कि वास्तव में यह संसार दुःखालय है।
दुःख + आलय = दुःखालय अर्थात् दुःख का घर। सबसे भारी दुःख का कारण तो हमलोगों का शरीर है। जो कोई शरीर में आते हैं, तो वे संसार में आते हैं। शरीर में रहने के कारण ही दैहिक, दैविक, भौतिक-इन त्रितापों से संतप्त होते रहते हैं। संतों ने कहा है कि ऐसा उपाय करो, जिससे शरीर में आना न हो। जब शरीर में हम आयेंगे ही नहीं, तो फिर दुःख पायेगा कौन? जिससे शरीर में हम नहीं आवें, इसका यत्न यह है कि ईश्वर की भक्ति करें। संसार में जो कोई आयेंगे, चाहे वे बहुत बड़े पद पर हों धनवान हों, बलवान हों, विद्वान हों, गुणवान आदि कोई हों, दुःख निश्चित रूप से होगा ही। जैसे न सदा दिन रहता है और न सदा रात रहती है। दिन के बाद रात और रात के बाद दिन होता रहता है। उसी तरह दुःख के बाद सुख और सुख के बाद दुःख चक्के की तरह घूमता रहता है। न सदा पूर्णमासी रहती है, न सदा अमावस्या ही। अमावस्या भी होती है और पूर्णमासी भी। उसी तरह जीवन में दुःख भी देखने में आते हैं और सुख भी। आज से कुछ महीने पूर्व जिस नदी में बालू उड़ रहा था, उसमें आज पानी उमड़ रहा है। इस तरह चलते-चलते यह बाढ़ भी समाप्त हो जायगी, फिर धूल उड़ने लग जायगी। समस्त जीवन में इसी तरह उलट-फेर का चक्र चलता रहता है। संतों ने इससे बचने का उपाय बतलाया है-ईश्वर का भजन करो। भक्तप्रवर संत सूरदासजी महाराज ने उपर्युक्त विषय की सम्पुष्टि में कहा-
“ ताते सेइये यदुराई ।
सम्पति विपति विपति सौं सम्पति, देह धरे को यहै सुभाई ।।
तरुवर फूलै फलै परिहरै, अपने कालहिं पाई ।
सरवर नीर भरै पुनि उमडै़, सूखे खेह उड़ाई ।।
द्वितीय चन्द्र बाढ़त ही बाढ़े, घटत घटत घटि जाई ।
सूरदास सम्पदा आपदा, जिनि कोऊ पतिआई ।।”
वनवास-काल में रात्रि के समय भगवान श्रीराम भगवती सीताजी के साथ जब पत्ते की शय्या पर विश्राम कर रहे थे, थोड़ी दूर पर लक्ष्मण जगकर पहरा दे रहे थे। उनके निकट गुह-निषाद आते हैं और भगवान् श्रीराम और भगवती सीताजी को इस विषम परिस्थिति में देखकर बड़े दुःखी होते हैं। निषाद के मन में विषाद होता है और वे लक्ष्मणजी से कहने लग जाते हैं कि कैकेयी ने यह अच्छा नहीं किया। राजराजेश्वर श्रीराम और राजरानी सीता को वनवास दे दिया। लक्ष्मणजी ने कहा-
“ काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
निज कृत कर्म भोग सुनु भ्राता ।।”
हे भाई! आप कैकेयी को व्यर्थ क्यों दोष देते हैं? कोई किसी को सुख या दुःख देने वाला नहीं है। सब कोई अपने-अपने किये हुए कर्मों का फल भोगते हैं। जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम अपने कर्म का फल जंगल में भोग रहे हैं।
इसी प्रकार सीताजी भी अपने कर्म का फल भोग रही हैं। कथा है कि सीताजी ने एक सुग्गी पाल रखी थी। राजपुत्री होने के नाते सुग्गी को सोने के पिंजरे में रखती थीं, और उसको दूध-भात खिलाती थीं। सुग्गी ने शाप दे दिया सीताजी को-‘सीते! तुमने मुझे पति से वियोग करवाया है। तुमको भी पति-वियोग होगा। पति के वियोग में पत्नी की क्या हालत होती है, उसका अनुभव तुमको नहीं है, वह हो जायगा। इसी कारण रावण ने सीता का हरण किया और सोने की लंका में जाकर रखा। सीताजी सुग्गी को दूध-भात खिलाती थी। सीता जी के भोजन के लिए इन्द्र ने खीर की व्यवस्था कर दी थी। वास्तव में कर्म का फल अमिट होता है। जैसे जिस खेत में हम जो बीज बोते हैं, समय पूरा होने पर उस खेत से हम वही फसल काटकर घर लाते हैं। जिस खेत में हम गेहूँ बोते हैं, उस खेत से हम चना नहीं ला सकते, गेहूँ ही काटकर लाते हैं। जिस खेत में हम कटहल के पेड़ लगाते हैं, उस पेड़ में आम खोजेंगे, तो नहीं मिलेगा। जिस खेत में आम का पेड़ लगाते हैं, उसमें कटहल खोजें, तो वह भी नहीं मिलेगा। गो0 तुलसीदासजी कहते हैं-
“ तुलसी यह तन खेत है, मन वच कर्म किसान ।
पाप पुण्य दुइ बीज है, बुवै सो लुणै निदान ।।”
हमलोगों का यह शरीर खेत-जैसा है। इसमें मन, वचन और कर्म किसान हैं। जैसे किसान खेत में बीज बोते हैं, वैसे ही कुछ कर्म हम मन से, कुछ कर्म वचन से और कुछ कर्म तन से करते हैं। इस तनरूपी खेत में हम पाप-पुण्य के बीज डालते हैं। पाप के बीज का फल होता है-दुःख और पुण्य के बीज का फल होता है-सुख। किसी ने कितना अच्छा कहा है-
“ कर भला होवै भला करके भलाई देख ले ।
कर बुरा होवै बुरा करके बुराई देख ले ।।”
विचारणीय विषय है कि जिस खेत में जितना हम बीज बोते हैं, काटने के समय उतना ही नहीं काटते हैं। एक मन बीज के बदले कई मन अनाज हमें मिलता है। एक आम की गुठली हम लगाते हैं। जब उस आम की गुठली लगाई जाती है, तो उससे अंकुर निकलता है, वही पेड़ हो जाता है। लगाया तो एक ही आम; लेकिन प्रतिवर्ष कितने आम मिलते हैं? उसी तरह हम कर्म थोड़ा ही क्यों न करें; लेकिन कर्म का फल बहुत बनकर आता है। चाहे बुरा कर्म हो या अच्छा-दोनों के फल अलग-अलग होंगे। खेत में जो अनाज बोते हैं, उसमें तो कभी-कभी ऐसा भी होता है कि बाढ़ आयी, तो फसल खतम। लेकिन कर्म-बीज ऐसा होता है कि उसका नाश नहीं होता है। सामान्य जन की तो बात क्या, पुराण यह प्रमाणित करता है कि त्रेतायुग के किये कर्मों का फल भगवान् श्रीराम ने द्वापर युग के श्री कृष्ण-शरीर में भोगा है। कथा-प्रसंग इस प्रकार है-
भगवान् श्री राम की मैत्री जब सुग्रीव से हुई तो उन्होंने सुग्रीव से पूछा-कहो मित्र! तुमको क्या कष्ट है? मेरे मित्र होने के नाते तुम्हारा सुख-दुःख मेरा सुख-दुःख है अर्थात् तुम्हारे सुख से सुखी और तुम्हारे दुःख से दुःखी होना मेरा धर्म है; क्योंकि-
“ जे न मित्र दुख होहिं दुखारी ।
तिन्हहि विलोकत पातक भारी ।।”
सुग्रीव ने उत्तर दिया-दूसरे से मुझे कोई कष्ट नहीं, अपने ही भाई से मुझे कष्ट है। उस भाई ने हमारा धन-दौलत, राज-पाट तो लिया ही, हमारे पत्नी को भी ले लिया है। यह सुनकर भगवान राम ने कहा-मित्र! अब वह तुम्हारा दुश्मन भाई मेरा दुश्मन हुआ।’ अतएव सुनो-
“ सुनु सुग्रीव मैं मारिहौं, बालिहिं एकहिं बाण ।
ब्रह्म रुद्र शरणागतहूँ, गये न उबरहिं प्राण ।।”
बालि को वरदान था कि जो कोई उसके सामने आकर युद्ध करेगा, उसका आधा बल इसमें आ जायगा। अगर भगवान् श्रीराम भी उसके सम्मुख युद्ध करने के लिये आते, तो उनका आधा बल इसमें आ जाता। इसलिए युद्ध-हेतु भगवान् श्रीराम बालि के सामने नहीं जाकर वृक्ष की आड़ लेकर उसको बाण मारते हैं, जिस तरह कोई व्याधा कोई आड़ लेकर शिकार खेलता है। भगवान् श्रीराम के बाण से जब बालि गिर जाता है, तब वे उसके पास जाते हैं, जिस तरह कोई व्याधा शिकार पर बाण मारता है और वह गिर जाता है, तो उसको उठाने के लिये उसके निकट जाता है। बालि बड़ा बलशाली और निर्भीक था। बालि कहता है- “ भगवान! आपका अवतार धर्म-रक्षा और धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु हुआ है; किन्तु मेरे साथ जो व्यवहार किया, वह साधु का नहीं, व्याधा का है। अर्थात् जैसे व्याधा छिपकर मारता है, आपने भी मुझे छिपकर मारा है।
अब देखिये, अन्तिम परिणाम क्या होता है? त्रेतायुग के भगवान् श्रीराम द्वापर में श्री कृष्ण होते हैं। वही बालि व्याधा होता है। भगवान श्रीकृष्ण के जीवन-काल में ही सम्पूर्ण यदुवंशियों का नाश हो जाता है। वे उदास हो जंगल की एक झाड़ी में पैर फैलाकर बैठ जाते हैं। उसी जंगल में वह व्याधा आता है शिकार खेलने के लिये भगवान का सम्पूर्ण शरीर तो झाड़ी की ओट में छिपा था; किन्तु उनके कमल-से कोमल चरण का तलवा लाल-लाल झलक रहा था। व्याध ने सोचा-हिरण दौड़कर कहीं से आया है और श्रान्त-क्लान्त हो अपनी जीभ निकाल रहा है। अब क्या था, वह वहाँ से ही तीर मारता है। वह तीर भगवान के पद-पप्र को चीरकर बाहर निकल आता है। दौड़ता है वह व्याधा हिरण जानकर उठाने के लिये। किन्तु वहाँ तो साक्षात् भगवान् हैं, देखकर वह अवाक् रह गया। दुःख-सन्ताप एवं पश्चात्ताप के अनल में वह जलने लगा। भगवान् ने उसको सान्त्वना दी।
यहाँ विचारणीय विषय यह है कि जिस भगवान के शरीर में महाभारत के युद्धकाल में अनगिनत तीर लगे; लेकिन वे सारे तीर उनके शरीर में वैसे ही विलीन होते गये, जैसे समुद्र में गिरकर बिजली। किन्तु अफसोस! आज का एक तीर उनके शरीर त्यागने का कारण बन जाता है। क्यों? इसलिए कि भगवान ने अपने पूर्व जन्म में छिपकर बालि का वध किया था। यद्यपि भगवान सुख-दुःख, हानि-लाभ सबसे परे हैं, फिर भी वे नर-लीला करके दिखलाते हैं कि हम भगवान होकर भी अपने कर्म के फल को भोगते हैं, तो तुम किस खेत के मूली हो! तुमको भी अपने शुभाशुभ कर्मों का फल सुख-दुःख भोगना ही पड़ेगा। निष्कर्ष यह कि जो कुछ हम सुख या दुःख पाते हैं, सब अपने किये हुए कर्मों का फल है। कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं कि एक जमाना था, जब यह बात लागू होती थी; लेकिन अबके जमाने में यह बात नहीं है। आजकल तो यही देखा जाता है कि जो बुरे कर्म करते हैं, वे अच्छी-से-अच्छी तरह रहते हैं; खाते-पीते हैं, ऐश-मौज करते हैं और जो अच्छे-अच्छे कर्मों को करते हैं, वे दुःखी देखे जाते हैं। हमारे पड़ोसी प्रान्त-बंगाल में भी कुछ लोग ऐसा ही कहा करते हैं-
“ जे करे पाप, सेई सात छेलेर बाप ।
जे करे पुन्न, ताँर काये लागे घुन ।।”
लेकिन यह बात सही नहीं है। यह केवल कहावत है। संतों और सद्ग्रंथों ने कर्मफल को अमिट बताया है। इस संदर्भ में अपने गुरुदेव के मुख से कथित एक घटना मैंने सुनी थी, जो आज भी स्मृति पटल पर अटल है। बात नयी नहीं, वर्षों की पुरानी है, जो कि गंगा उत्तर पार एक परिवार की कहानी है। उस समय भारत स्वतंत्र नहीं था, अंग्रेजों के अधीन था। पुरैनियाँ जिले में एक अच्छे सुसम्पन्न सज्जन थे। जमीन जायदाद अच्छी थी। गाँव के लोगों में उनकी प्रतिष्ठा थी। आज्ञाकारी गुणवान पुत्र, लक्ष्मी रूपा सुशीला पुत्र-वधू, तीन-चार पौत्र-पौत्रियाँ; इस प्रकार सुखी, सुन्दर और सराहनीय घर था।
लगभग साठ वर्ष की उम्र में गृहपति की पत्नी परलोग सिधार गयी। ये बेचारे अति विकल हो उठे। पत्नी के अभाव में स्वभाव चिड़चिड़ा हो गया। भरा-पूरा गृह श्माशान-सा लगने लगा। हरा-भरा उद्यान वीरान प्रतीत होने लगा। मन की शांति भंग हो गयी। दुनियावी हरियाली के लिए मित्रें के बीच अपने पुनर्विवाह का मन्तव्य प्रकट किया। किसी मित्र ने मजाक किया, किसी ने समझाने की चेष्टा की, किसी ने अपनी राय दी-‘साठ वर्ष की उम्र हो जाने के कारण तुम्हारी बुद्धि सठिया गयी, शादी हरगिज न करना। अब शादी क्या होगी, बरबादी होगी।’ लेकिन उनके मन ने नहीं माना, पुनर्विवाह कर लिया। परिणामस्वरूप इष्ट-मित्र, कुटुम्ब, गाँव-घर आदि के समस्त लोगों की दृष्टि से वे नीचे गिर गये। पिता-पुत्र में भी वैमनस्य हो गया। उनकी दृष्टि में उनके नये साले साहब हितचिंतक होने के कारण सलाहकार बने। फलतः अपने वाग्जाल में फँसाकर उन (जीजा जी) की सारी जमीन अपने नाम लिखवा ली। अभी रजिष्ट्री नहीं हुई थी। लड़के को अपने मामा का षड्यंत्र मालूम हुआ। उसने रजिष्ट्रार साहब से मिलकर सारी बातें सही-सही बता दीं और जमीन रजिष्ट्री नहीं करने के लिए निवेदन किया। रजिष्ट्रार साहब ने उसकी परिस्थिति को अच्छी तरह समझा और सोचकर कहा-‘देखिये, मेरे सामने कागज आएगा, तो उसको मैं अस्वीकार कैसे कर सकता हूँ? फिर भी, मैं आपको एक सप्ताह का समय देता हूँ। यदि आप अपने पिताजी को राजी कर सकें, आपकी बात मान जाएँ, तो रजिष्ट्री नहीं होगी।’ लड़के ने अपने पिताजी और मामाजी के पास जाकर बहुत प्रकार से अनुनय- विनय की; किन्तु सब व्यर्थ। लड़के ने पुनः अपने मामाजी के पैर पकड़ लिए और फूट-फूटकर रोते हुए कहा-‘मामाजी! मेरे ऊपर मेहर कीजिए। जरा मेरे भविष्य के ऊपर नजर कीजिए।’ उसके मामाजी ने उसकी एक न सुनी, बल्कि झटका देकर उसको दूर हटा दिया और कड़कती आवाज में बोले-‘रजिष्ट्री होगी, रजिष्ट्री होगी, इसको कोई शक्ति नहीं टाल सकती।’ दुःख से आकुल और अधीर हो आह भरता हुआ उस लड़के ने कहा-‘मामाजी! आपने मुझे अपनी पैतृक संपत्ति से वंचित कर मेरी भविष्य आशावेलि पर तुषारापात किया है। अगर भगवान सत्य और मेरा हक सत्य है, तो आपके ऊपर वज्रपात होगा।
रोता हुआ लड़का अपने में कमरे में चला गया और उसका मामाजी पाट (जूट) तैयारी करवाने के लिए खेत पर गये। मजदूर पानी में बैठकर पाट तैयार कर रहा था। थोड़ी दूर पर किनारे में बैठकर निगरानी कर रहे थे।
प्रभु की लीला अद्भुत है। उनके विधान में व्यवधान कौन डाल सकता है? अनंतस्वरूपी सर्वेश्वर की अनंत शक्ति का सामान्यजन को क्या पता, वह तो थोड़े ही धनैश्वर्य को पाकर छोटी नदी की तरह अपने को बहुत बड़ा समझकर इठलाता फिरता है। पता नहीं, कहाँ से बादल उमड़-घुमड़कर आये, बिजली चमकी और हृदय विदीर्ण करनेवाली कड़ाके की आवाज के साथ उनके शरीर पर वज्रपात हुआ, वे वहाँ ही धराशायी हो गये। लौटकर घर नहीं आ सके। खेत पर ही उनका रामनाम सत्य हो गया। जमीन ज्यों-की-त्यों पड़ी रह गयी, रजिष्ट्री नहीं हो सकी।
यह घटना अन्यान्य शिक्षाओं के साथ यह बतलाती है कि दुर्बल को सताओ नहीं, दूसरे का हक अपनाओ नहीं, अन्यथा परिणाम भयंकर होगा। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ दुर्बल को न सताइये, जाकी मोटी हाय ।
मुए खाल की साँस से, लोह भसम हो जाय ।।”
किसी शायर ने कितना अच्छा कहा है-
“ गरीब को मत सताओ, वह रो देगा ।
कहीं उसका मालिक सुन लेगा,
तो जड़ मूल से तुमको खो देगा ।।”
संतों ने कहा, बुरे कर्म का फल दुःख तो भोगना चाहता है नहीं, इसलिए बुरे कर्म करो ही नहीं। और अच्छे कर्म का फल यद्यपि सुख होता है, तथापि वह सुख भी सदा रहता नहीं है। पुण्यकर्म के कारण स्वर्ग भले ही चले जाएँ; लेकिन वहाँ भी सबको समान रूप से सुख उपलब्ध नहीं होता। सब दिन स्वर्ग में रह भी नहीं सकते; क्योंकि कोई कम पुण्य करके और कोई अधिक पुण्य करके वहाँ जाते हैं। जो कम पुण्य किये हैं, उनके लिए कम व्यवस्था है और जो अधिक पुण्य किये हैं, उनके लिए अधिक व्यवस्था है। उससे भी जो अधिक पुण्य किये हैं, उनके लिए और भी अधिक व्यवस्था है। इसलिए एक दूसरे के सुख को देखकर दुःखी होते रहते हैं। वहाँ भी राग-रोष और ईर्ष्या-द्वेष आदि दुर्गुण सताते रहते हैं। दूसरे की उन्नति देखकर जैसे यहाँ जलते हैं, वैसे वहाँ भी जलते हैं।
संतों ने कहा है कि स्वर्ग और नरक के परे चले जाओ। नरक-स्वर्ग के झमेले से परे जो है, वही मोक्ष है।
“ भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय ।
जिन जिन मन आलस किया, जनम जनम पछताय ।।”
भक्ति से मुक्ति होती है-
“ जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई ।
कोटि भाँति कोउ करै उपाई ।।
तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई ।
रहि न सकइ हरि भक्ति बिहाई ।।”
जिस तरह थल के बिना जल नहीं रह सकता, उसी तरह भक्ति को छोड़कर मुक्ति अलग नहीं रह सकती। इसीलिए भक्ति करो, सारे क्लेशों से छूट जाओगे। दैहिक, दैविक, भौतिक-इन त्रय तापों से जो संतप्त हो रहे हो, इनसे सदा के लिए मुक्त हो जाओगे। इसका यत्न संत सद्गुरु से सीखो। भगवान श्रीराम ने अपनी प्रजा से कहा था-
“ सरल सुखद मारग यह भाई ।
भगति मोरि पुरान श्रुति गाई ।।”
यह भक्ति का मार्ग कठिन नहीं है, सरल है और सुखद है। सब कोई कर सकते हैं-क्या ब्राह्मण, क्या क्षत्रिय, क्या शूद्र, क्या धनी, क्या निर्धन, क्या विद्वान, क्या अविद्वान, क्या वैदिक, क्या अवैदिक, क्या नर-नारी। गुरु नानकदेव ने कहा-
“ चहुँ वरणा को दे उपदेश।
ता पंडित को सदा अदेश ।।”
और हमारे गुरुदेव का उद्घोष है-
“ जितने मनुष तन धारि हैं, प्रभु-भत्तिफ़ कर सकते सभी ।
अन्तर व बाहर भत्तिफ़ कर, घट-पट हटाना चाहिए ।।”
मनुष्य का शरीर होना चाहिए। सदाचार का पालन होना चाहिए; सद्युक्ति मिलनी चाहिए, सत् साधना करनी चाहिए।
“ सत्संग नित अरु ध्यान नित, रहिये करत संलग्न हो ।
व्यभिचार चोरी नशा हिंसा, झूठ तजना चाहिए ।।”
पंच पापों से वर्जित रहेंगे, ध्यान-सत्संग हम नित्य करते रहेंगे, तो भगवान श्रीकृष्ण का आश्वासन है-
“ नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रयते महतो भयात् ।।”
-गीता अ0 2/40
अर्थात् इस योग के आरंभ का नाश नहीं होता, उलटा परिणाम नहीं होता। इसका थोड़ा-सा अभ्यास भी महाभय से बचाता है। और गीता के छठे अध्याय में है-‘जो सदा अभ्यास करता है, उस अभ्यास के बल से शरीर छूटने पर उसको विशाल स्वर्ग-सुख की प्राप्ति होती है। स्वर्ग-सुख भोग करने के बाद संसार में फिर आता है। उसका जन्म किसी श्रीमान् के घर में अथवा योगी-कुल में होता है। पुनः पूर्व जन्म के संस्कार से प्रेरित होकर वह योगाभ्यास करने लग जाता है, करते-करते कई जन्मों में नित्य विराजने वाली शांति को वह प्राप्त कर लेता है। आवागमन के चक्र से छूट जाता है। सदा के लिए मुक्त हो जाता है। संतों के आदेश और उपदेश के परिवेश में जो कोई अपने को रखेंगे, उनका भव-क्लेश अवश्य निशेष होगा।
“ भक्ति बीज बिनसै नहीं, जौं जुग जाय अनन्त ।
ऊँच नीच घर जनम लै, तऊ सन्त को सन्त ।।
भक्ति बीज पलटै नहिं, आय परे जो चोल ।
कंचन जौं विष्ठा पड़ै, घटै न ताको मोल ।।”
-संत कबीर साहब
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन तिलकामाँझी, भागलपुर में दिनांक 12-08-1991 ई0 को महावीर मंडल के द्वारा आयोजित सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, सितम्बर 1991 ई0)

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आदरणीय सजजनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
ईश्वर अद्भुत हैं। उनकी सृष्टि भी अद्भुत है। उनकी सृष्टि में जिस ओर दृष्टि कीजिए, उनकी अनंतता की परिपुष्टि मालूम होगी। छोटी-से-छोटी चीज अथवा बड़ी-से-बड़ी चीज लीजिए, उसके अंदर प्रभु की महानता भरी हुई होती है। आवश्यकता है कि उस महान प्रभु को देखने के लिए उस दृष्टि को हम अपना सकें। प्रभु की रचना में यह मानव-शरीर सर्वोत्कृष्ट है।
एक सज्जन आयेंगे, वे आपकी हस्तरेखा को देखकर उस आधार पर आपकी भाग्य-रेखा के संदर्भ में बतलायेंगे। एक ज्योतिषी जी आपकी जन्म-टिप्पणी को देखकर उस आधार पर आपके लिए कुछ भविष्यवाणी कह देंगे। एक वैद्य आयेंगे, वे वैद्यक-दृष्टि से आपको देखेंगे और वे कुछ उसी तरह की बात बतला देंगे। डॉक्टर साहब आयेंगे, तो अपनी दृष्टि से देखेंगे, फिर वे कुछ बतला देंगे। ये सारी-की-सारी बाह्य दृष्टियाँ हैं। संतों ने इस शरीर को आंतरिक दृष्टि से देखा और कहा-
“ कबीर काया समुँद है, अन्त न पावै कोय ।
मिरतक होइ के जो रहै, मानिक लावै सोय ।।”
संत कबीर साहब ने इस शरीर को समुद्र बतलाया और कहा कि इस शरीर के अंदर जो मरजीवा होकर रहेगा, वह माणिक यानी मालिक (ब्रह्म-परमात्मा) को पावेगा। पुनः उन्होंने कहा-
“ बूँद समाना समुँद में, यह जानै सब कोय ।
समुँद समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय ।।”
समुद्र में बूँद गिर गयी, उसमें समा गयी; यह बात सब कोई जानते हैं; लेकिन बूँद में समुद्र समाया हुआ है, यह बिरले जन ही जानते हैं।
एक वृक्ष है, उसमें फल लदे हुए हैं। वृक्ष में फल लदे हुए हैं, इसको हम देखते हैं; लेकिन उस वृक्ष का जो बीज है, उस बीज में समूचा वृक्ष समाया हुआ है, उसको तत्त्ववेत्ता के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं देखता।
मान लीजिए, हमारे सामने आम का एक बहुत विशाल वृक्ष है। उस विशाल वृक्ष को हम देखते हैं; लेकिन उस वृक्ष का आरंभ गुठली से है और सम्पूर्ण वृक्ष का विस्तार उस गुठली में है, उसको कोई नहीं देखते हैं। इसी भाँति इस संसार में हमारा शरीर है, यह हम देखते हैं; लेकिन इस शरीर में समस्त संसार समाया हुआ है, यह नहीं देख पाते। इसी विषय को गुरु नानकदेवजी ने इस तरह कहा है-
“ सागर महि बूंद बूंद महि सागरु
कवणु बुझै विधि जाणै ।
उतभुज चलत आपि करि
चीनै आपे ततु पछाणै।
अैसा गिआन विचारै कोई ।
तिसते मुकति परम गति होई ।।”
सागर में बूँद और बूँद में सागर है अर्थात् ब्रह्माण्ड में पिण्ड और पिण्ड में ब्रह्माण्ड है, इसको कौन समझता है? जबतक कोई इस आंतरिक साधना- विधि को जानता नहीं, देखने और सुनने की विधि को जानकर अभ्यास नहीं करता है, तबतक तत्त्वतः जानता नहीं है। जानता वही है, जो साधनाकी सही विधि जानकर अभ्यास करते-करते सफलता प्राप्त करता है। जैसे एक पैथोलॉजिस्ट (Pathologist) डॉक्टर हमारे शरीर से रक्त लेते हैं। वे एक शीशे के छोटे-से टुकड़े पर उसको रख देते हैं। हमारी नजर में मात्र रक्त है; लेकिन वे डॉक्टर साहब जब यन्त्र लगाकर देखते हैं, तो कहते हैं कि रक्त में अमुक रोग का कीड़ा है। हम सामान्य जन तो रक्त की एक बूँद देखते हैं लेकिन डॉक्टर साहब रक्त में रोग के कीटाणुओं को देखते हैं। क्यों? इसलिये कि हम रक्त देखने की सही विधि नहीं जानते हैं और वे देखने की विधि जानते हैं। उसी तरह सारा संसार इस शरीर में है, इसको हम नहीं जानते हैं। संतों ने अन्तस्साधना करके दिव्य दृष्टि और आत्म-दृष्टि प्राप्त कर अपनी अनुभूति की बात कही है।
“ सबकी दृष्टि पड़ै अविनासी, बिरले संत पिछानै ।
कहै कबीर यह भरम किवाड़ी, जो खोलै सो जानै ।।”
वस्तुतः हम देखकर भी नहीं देख पाते। मान लीजिये, रूस की भाषा हम नहीं जानते हैं और उस भाषा की किताब हमारे सामने रखी हुई। उसके पन्ने उलटाकर देख लेने पर भी उसमें क्या लिखा हुआ है, हम पढ़ सकते हैं? कदापि नहीं, क्यों? इसलिये कि वह दृष्टि हमको प्राप्त नहीं है। हमारी दृष्टि में अक्षर तो है; लेकिन क्या है? नहीं जानते हैं। उसी तरह ईश्वर सर्वत्र है। हममें भी हैं; किन्तु हम देख नहीं पाते। जो सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे हैं, वे कहाँ नहीं हैं? क्या वे हमारी दृष्टि में नहीं हैं? वे हमारी दृष्टि में भी हैं? लेकिन हम पहचान नहीं रहे हैं। यह शरीर क्या है? अथाह समुद्र है।
“ यह शरीर सागर अवगाहा ।
यहि कर नहिं कोई पावत थाहा ।।
अन्तर उलटि निरेखै जोई ।
आवागमन मिटावै सोई ।।”
जबतक हम बहिर्मुख रहेंगे, तबतक पता नहीं चलेगा। जब हम अन्तर्मुख होंगे, तभी पता चलेगा कि इस छोटे-से शरीर में प्रभु ने गुप्त रूप से क्या-क्या वस्तु रखी है। गुरु नानकदेव ने कहा है-
“ इस कइया अन्दरि बसतु असंखा ।
सतगुरु खोजि मिलै ता वेखा ।।”
असंख्य वस्तुएँ इसमें भरी पड़ी हैं; लेकिन जिनको सच्चे गुरु मिलते हैं, उनसे सद्युक्ति मिलती है। सदाचार का पालन करते हुए संत-साधना करते हैं, वे उसको जानते हैं। पाँच तत्त्वों-क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर तथा तीन गुणों-सत, रज, तम से निर्मित यह शरीर है। इस शरीर के अन्दर पाँच कर्मेन्द्रियाँ-हाथ, पैर, मुख, गुदा, उपस्थ; पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ-नेत्र, कर्ण, नासिका, जिभ्या, त्वचा; ये दश इन्द्रियाँ बाहर की हैं और भीतर की चार इन्द्रियाँ-मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार; ये कुल चौदह इन्द्रियाँ हैं। इन चौदहो इन्द्रियों के द्वारा हम जग-व्यवहार करते हैं। एक-एक इन्द्रिय के एक-एक देवता नियुक्त हैं। यथा-
“ मन के देव चन्द्र बुद्धि ब्रह्मा, वासुदेव चित्त केरे ।
अहंकार शिव दिशा करन के, मन भानु सिर हेरे ।।
रसना वरुण त्वचा के, मारुत नासा अश्विनि जानो ।
मुख के अग्नि इन्द्र हाथन के देव गुदा यम मानो ।।
लिंग के देव प्रजापति सिरजत चरणन विष्णु विराजै ।
चौदह देव वसत यहि तन सँग नित निर्भय ह्वै गाजै ।।”
ये इन्द्रिय-सुर हमें बहिर्मुख करते हैं-विषयमुख करते रहते हैं; क्योंकि इनको आत्मज्ञान सुहाता नहीं है। देवताओं के चरित्र का चित्रण किया है। गो0 तुलसीदास जी महाराज ने राचरितमानस में।
“ इन्द्रिय सुरन्ह न ज्ञान सुहाई ।
विषय भोग पर प्रीति सदाई ।।
इन्द्रिय द्वार झरोखा नाना ।
तहँ-तहँ सुर बैठे करि थाना ।।
आवत देखहिं विषय बयारी ।
ते हठि देहिं कपाट उघारी ।।
जब सो प्रभंजन उर गृह जाई ।
तबहिँ दीप विज्ञान बुझाई ।।”
ये इन्द्रियाँ के जो देव हैं, ये क्या करते हैं? जब विचार आती है, तो ये बंद पट को खोल-उघार विषय-रूप हवा भीतर प्रवेश कर ज्ञानी की बुद्धि को विकल कर देती है। परिणाम-स्वरूप वह काम-कंचन के फेर में पड़ जाता है। गोस्वामी जी लिखते हैं-
“ मुनि ज्ञान-निधान, मृगनयनी विधुमुख निरखि ।
विवस होई हरिजान, नारि विष्णु माया प्रगट ।।”
ज्ञान के भण्डार मुनि (वाचक ज्ञानी) भी मृगनयनी युवती स्त्री) के चन्द्रमुख को देखकर विवश उसके अधीन हो जाते हैं। कागभुशुण्डि जी कहते हैं-हे गरुड़जी साक्षात् भगवान विष्णु की माया ही स्त्री रूप से प्रकट है।
श्रीरामकृष्ण परमहंसजी महाराज ने कहा है-जैसे गिद्ध और चील आकाश में बहुत ऊँचाई पर उड़ते हैं; लेकिन उनकी नजर नीचे पृथ्वी पर के लाशों पर मँड़राती है, उसी प्रकार वाचक बातें बहुत लंबी-चौड़ी करते हैं; किन्तु उनका मन काम और कंचन पर घूमता रहता है। जबतक कोई अंतस्साधना द्वारा मन पर काबू नहीं करता, तबतक वह मदमस्त गजराज की भाँति वाटिका में विचरण करता रहता है। बाहर की इन्द्रियाँ मन के द्वारा संचालित होती हैं। प्रभु ने एक-एक इन्द्रिय को एक-एक काम सौंपा है। साथ ही कर्मेन्द्रियों के साथ पाँचों ज्ञानेन्द्रियों का संबंध बाँधा है। यथा-
“ मुख ते श्रवण कहत एक सुनई ।
त्वचा पाणि स्पर्शइ गुनई ।।
रसन उपस्थ भोग दोउ चाहै ।
गुदा नासिका नेह निवाहै ।।
नयन चरण ते प्रीति रहावै ।
नैन फँसे पद ले पहुँचावै ।।”
मुख कर्मेन्द्रिय है और कान ज्ञानेन्द्रिय हैं मुँह का कान से संबंध है। हम कान से जो सुनते हैं, मुँह से वही बोलते हैं। जैसे जो बच्चा कान से A B C D… से सुनता है, तो वह मुँह से A B C D… बोलता है। कान से जो बच्चा अलिफ बे पे ते... सुनता है, तो मुख से वही बोलता है-अलिफ बे पे ते...। जो बच्चा कान से क ख ग घ... सुनता है, तो मुँह से क ख ग घ... का उच्चारण करता है। जो कान से नहीं सुनता है, वह मुँह से नहीं बोलता है। यह प्रायः देखने में भी आता है कि जो बहरा होता है, वह गूँगा भी होता है।
जो शब्द हमारा कर्णप्रिय होगा, वही हमारा वाक्प्रिय भी। कान से सुनने में जो शब्द हमको अच्छा लगता है, मुँह से बोलने में भी हमको वही अच्छा लगता है। कैसे? उत्तर में निवेदन है कि अगर हमारे कान को भगवत्- भजन, कीर्तन, भगवत्-यश, संतवचन आदि सुनने में अच्छा लगता है, तो हमारे मुँह से भी भगवत्-भजन-कीर्तन, भगवत्-यश, संत- वचन आदि ही निकलेंगे।
अगर हमारा कान सिनेमा का गाना पसंद करता है, तो हमारा मुँह सिनेमा का गाना गावे, स्वाभाविक है। जिनका कान सिनेमा का गाना पसंद नहीं करता, उनके मुँह से आप कभी भी सिनेमा का गाना नहीं सुनेंगे। ठीक इसी प्रकार जिसका कान भगवत्-भजन सुनना नहीं चाहता, उसके मुँह से कभी भगवत्-भजन नहीं निकल सकता। इसीलिए कहा-
‘मुख ते श्रवण कहत एक सुनई ।’
अगर हम अपने कान को वश में कर सकते हैं, तो हम अपने मुख को भी वश में कर सकते हैं। यानी जिनका कान पर अधिकार है, उनका मुँह पर अधिकार होना अस्वाभाविक नहीं।
‘त्वचा पाणि स्पर्शइ गुनई ।’
त्वचा कहते हैं-चमड़े को, यह ज्ञानेन्द्रिय है और हाथ है कर्मेन्द्रिय। इन दोनों का परस्पर संबंध है। त्वचा को जितना कठोर वा मुलायम पसंद होगा, हाथ को भी वैसा ही स्वीकार होगा। त्वचा जितना शीत वा गर्म सह सकती है, हाथ को वह सहज ही बर्दाश्त होगा।
‘रसन उपस्थ भोग दोउ चाहै ।’
रसन कहते हैं-जिभ्या को और उपस्थ कहते हैं-लिंगेन्द्रिय को। जिभ्या ज्ञानेन्द्रिय है और लिंग कर्मेन्द्रिय। इन दोनों का संबंध है। एक संत ने कहा है-
“ जिभ्या इन्द्री एके नाल ।
जो रोकै सो बाचै काल ।।”
जिसकी जिभ्या अपने अधिकार में नहीं है, वह अपनी लिंग इन्द्रिय पर कभी अधिकार नहीं पा सकता है। महात्मा गाँधीजी ने लिखा है-
“ पशु चरागाह से भरपेट भोजन करके घर लौटना जानता है; लेकिन मनुष्य अपने पेट का अंदाजा नहीं जानता। यही कारण है कि मनुष्य जननेन्द्रिय से पशु-जननेन्द्रिय अधिक संयमित होती है। पशु-जननेन्द्रिय के लिए समय निश्चित है; लेकिन मनुष्य के लिए कोई समय निश्चित नहीं है। किसी भी जानवर का हरी-भरी घास चरते-चरते जब पेट भर जाता है, तो वह उसी खेत में बैठकर जुगाली करने लगता है। लेकिन मनुष्य में यह संयम नहीं है।”
‘गुदा नासिका नेह निवाहै ।’
गुदा कर्मेन्द्रिय और नासिका ज्ञानेन्द्रिय है। जो प्राणवायु को काबू में कर सकते हैं, वे अपान वायु को भी काबू में कर सकते हैं। जिनकी प्राणवायु काबू में नहीं है, वे अपनी अपानवायु को काबू में नहीं कर सकते हैं। तात्पर्य यह कि जिनका प्राण पर अधिकार है, उन्हीं का अपान पर अधिकार हो सकता है। एक इन्द्रिय गंध त्यागनेवाली है और दूसरी इन्द्रिय है गंध ग्रहण करनेवाली।
“ नैन चरण ते प्रीति रहावै ।
नैन फँसे पद ले पहुँचावै ।।”
आँख ज्ञानेन्द्रिय है और पैर कर्मेन्द्रिय। जिस रूप में आँख फँस जाएगी, पैर वहाँ पहुँच जाएगा। जैसे हमलोग बाजार घूमने के लिए जाते हैं। वहाँ चौराहे पर देखते हैं कि सिनेमा का बहुत बढ़िया चित्र लगा हुआ है। जिस चित्र को बढ़िया कहकर नेत्र ने पसंद कर लिया, उसको देखने के लिए पैर सिनेमा-हॉल में अवश्य पहुँचावेगा। जिसको जिस चौराहे का चित्र पसंद नहीं होगा, वह सिनेमा-हॉल में क्यों जाएगा। इसलिए कहा-नैन फँसे पद ले पहुँचावै ।’
प्रभु ने एक-एक इन्द्रिय को एक-एक काम सौंप दिया है। एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रिय का काम नहीं कर सकती। जैसे आँख का काम रूप देखने का है। वह रूप देखेगी; लेकिन सुनेगी नहीं, रसास्वादन करेगी नहीं, गंध ग्रहण करेगी नहीं, स्पर्श करेगी नहीं। नासिका का काम गंध ग्रहण करने का है, वह मात्र गंध ग्रहण करेगी, न देखेगी, न सुनेगी, न रसास्वादन करेगी और न स्पर्श करेगी। जिभ्या का काम स्वाद का ज्ञान करने का है। वह रसास्वादन करेगी, न देखेगी, न सुनेगी, न गंध ग्रहण करेगी और न स्पर्श ही करेगी। इसी प्रकार त्वचा है। इससे हम स्पर्श का ज्ञान करेंगे; लेकिन यह देखेगी नहीं, सुनेगी नहीं, रसास्वादन करेगी नहीं और न गंध ग्रहण करेगी।
बाहर की जो पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं, इनके भी अपने-अपने भिन्न-भिन्न कार्य है। जैसे हाथ से ग्रहण करना, पैर से चलना, मुँह से भोजन करना। उपस्थ से लघुशंका करना और गुदा से मल-विसर्जन करना। उसी तरह भीतर की चार इन्द्रियाँ हैं। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। मन का काम है-संकल्प-विकल्प करना। बुद्धि का काम है विचार करना। अमुक काम को करना है या नहीं, इसका निर्णय देना। बुद्धि में भी अगर तामसी वृत्ति रही, तो वह अनाप-शनाप विचार देगी। रजोगुणी वृत्ति चंचलता पैदा करेगी। सात्त्विकी वृत्ति रहने पर वह उत्तम विचार देगी। चित्त का काम है स्पन्दित करना और अहंकार का काम है मैं-पन का बोध दिलाना। इस भाँति प्रभु ने इस चौदहो इन्द्रियों को चौदह कार्यों के हेतु नियुक्त किये हैं। अर्थात् एक-एक इन्द्रिय का एक-एक काम है। लेकिन ये चौदहो इन्द्रियाँ किनकी हैं? हमारी हैं। और हम किनके हैं? प्रभु के। तो, हमारे लिए भी तो कुछ काम होना चाहिए या नहीं।? हमारे लिए क्या काम है? इस जीव के लिए प्रभु ने कौन-सा काम सौंपा है? इस जीव का काम है उस पीव से मिलना। संत कबीर साहब की वाणी में है-
‘जाके संग ते बीछुड़ा, ताही संग लाग ।’
परम प्रभु से मिलन, आत्मज्ञान, आत्मसुख वा आत्म-साक्षात्कार कैसे होता है? बहुत पढ़-लिख लेने से, बहुत-से शास्त्रें के अध्ययन-मनन से? बहुत लंबा-चौड़ा व्याख्यान देने से? अथवा बहुत बड़ा मेधावी बनने से? नहीं-नहीं! कठोपनिषद् के प्रथम अध्याय में लिखा है, यम नचिकेता से कहा था-
“ नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनू ँ ् स्वाम् ।।”
अर्थात् यह आत्मा वेदाध्ययन-द्वारा प्राप्त होने योग्य नहीं है और न धारणा-शक्ति अथवा अधिक श्रवण से ही प्राप्त हो सकता है। यह (साधक) जिस (आत्मा) का वरण करता है, उस (आत्मा) से ही यह प्राप्त किया जा सकता है। उसके प्रति यह आत्मा अपने स्वरूप को अभिव्यक्त कर देता है।
इसी प्रकार छांदोग्योपनिषद् के सप्तम अध्याय में एक कथा आयी है कि नारद ऋषि सनत्कुमार अर्थात् स्कन्द के यहाँ जाकर कहने लगे-‘मुझे आत्मज्ञान बतलाओ।’ तब सनत्कुमार बोले-‘पहले बतलाओ, तुमने क्या सीखा है, फिर मैं बतलाता हूँ’। इसपर नारद ने कहा-‘मैंने इतिहास, पुराणरूपी पाँचवें वेद-सहित ऋग्वेद प्रभृति समग्र वेद, व्याकरण, गणित, तर्कशास्त्र, कालशास्त्र, नीतिशास्त्र, सभी वेदांग, धर्मशास्त्र, भूतविद्या, नक्षत्र विद्या, क्षत्र विद्या और सर्पदेवजन विद्या प्रभृति सब कुछ पढ़ा है; परन्तु जब इससे आत्म-ज्ञान नहीं हुआ, तब अब तुम्हारे यहाँ आया हूँ।’ इसको सुनकर सनत्कुमार ने यह उत्तर दिया-‘तूने जो कुछ सीखा है, वह तो सारा नाम-रूपात्मक है, सच्चा ब्रह्म इस नाम-ब्रह्म से बहुत आगे है।’ और फिर नारद को क्रमशः इस प्रकार पहचान करा दी कि इस नामरूप से अर्थात् सांख्यों की अव्यक्त प्रकृति से अथवा वाणी, आशा, संकल्प, मन-बुद्धि और प्राण से भी परे एवं इनसे बढ़-चढ़कर जो है, वही परमात्मरूपी अमृत तत्त्व है। गुरु भक्तिन सहजोबाई ने कहा है-
“ ना सुख विद्या के पढ़े, ना सुख वाद विवाद ।
साध सुखी सहजो कहै, लागै सुन्न समाध ।।”
और किसी सुभाषितकार की सुभाषित वाणी है-
“ पढ़े छहो शास्त्र और अठारहो पुराण पढ़े ।
वेद उपवेद आदि अंत कोउ छाना है ।
गीता रामायण श्रुति स्मृति पढ़े,
सांख्य योग न्याय आदि दर्शन भी जाना है ।।
जाना है बनाना छन्द सोरठा चौपाई को ,
जाना है ध्रुपद राग भैरवी का गाना है ।
इतना जो जाना सब खाक धूर छाना है ।
जाना है सोई जिन आतम पिछाना है ।।”

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक
1-09-1991 ई0 को साप्ताहिक सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अक्टूबर 1991 ई0)


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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
रामचरितमानस में एक प्रसंग आया है। जब भगवान श्रीराम रावण की बाँहों और सिरों को काट देते थे, तो वे पुनः हो जाते थे। इस तरह बाँहों और सिरों को कटकर धरती पर गिरते और पुनः पूर्ववत् होते देख रावण का अहंकार बढ़ गया और वह बढ़-चढ़कर भगवान श्रीराम से बोलने लगा, तब भगवान श्रीराम ने कहा-
“ जनि कल्पना करि सुजस नासहिं,
नीति सुनहिं करहि क्षमा ।
संसार महँ पुरुष त्रिविध,
पाटल रसाल पनस समा ।।
एक सुमन प्रद एक सुमन फल,
एक फलही केवल लागही ।
एक कहहिं कहहिं करहिं अपर
एक करहिं कहत न बागहीं ।।”
भगवान श्रीराम कहते हैं-बकवास करके तुम अपने सुयश का नाश मत करो। जो तुमको करना है, वह कर दिखलाओ। संसार में तीन प्रकार के पुरुष होते हैं। एक गुलाब के पौधे के समान, दूसरा आम वृक्ष के समान और तीसरा कटहल पेड़ के समान। मतलब यह कि गुलाब के पौधे में केवल फूल होता है, फल नहीं होता। आम के वृक्ष में फूल होता है और फल भी होता है। कटहल के पेड़ में केवल फल होता है, फूल नहीं। भगवान श्रीराम कहते हैं कि इसी तरह आदमी भी तीन प्रकार के होते हैं कुछ लोग केवल बोलनेवाले होते हैं, करनेवाले नहीं, जैसे गुलाब में केवल फूल-ही-फूल लगता है, फल नहीं। दूसरे होते हैं आम वृक्ष के समान। उसमें फूल और फल दोनों होते हैं। मानो कुछ लोग ऐसे होते हैं कि कहते भी हैं और करते भी हैं। तीसरे वे होते हैं, जो कटहल वृक्ष के समान होते हैं। जैसे कटहल में फल-ही-फल होता है, फूल नहीं होता है। उसी तरह तीसरे प्रकार के लोग बोलते तो कुछ नहीं; लेकिन जो करना चाहिए, वह करके दिखला देते हैं। ये तीन तरह के लोग होते हैं। भगवान श्रीराम कहते हैं कि बकबक क्यों करते हो? मुझे मारना चाहते हो, तो मारकर दिखला दो। केवल बोलते क्यों हो? कबीर साहब के वचन में आया है-
“ कहता पै करता नहीं, मुख का बड़ा लबार ।
आखिर धक्का खायगा, साहब के दरबार ।।”
एक संत ने कहा है-संसार में चार तरह के लोग होते हैं। एक तो नारियल के समान, दूसरे होते हैं बेर के समान, तीसरे होते हैं शिला के समान और चौथे होते हैं अंगूर के समान। नारियल का ऊपरी भाग होता है कड़ा और भीतर का भाग होता है बड़ा मुलायम और बहुत साफ, उसके साथ जल भी रहता है। उसी तरह कुछ लोगों की बाहर की बोली तो कड़ी होती है; लेकिन उनका भीतर बड़ा साफ होता है और शीतलता लिए होता है। दूसरा बेर के समान होता है। बेर के ऊपरी भाग में कुछ गुदा रहता है और भीतर में बड़ी कड़ी उसकी गुठली रहती है। उसी तरह कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो बाहर से तो चिकनी चुपड़ी बात बोलते हैं; लेकिन भीतर उसका बड़ा कठोर होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
“ बोलहिं मधुर वचन जिमि मोरा ।
खाहिं महा अहि हृदय कठोरा ।।”
मयूर की बोली बड़ी मीठी होती है, वह देखने में बड़ा सुन्दर होता है; लेकिन बड़े-बड़े सर्पों को वह निगल जाता है। उसी तरह कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो मधुरभाषी होते हैं; किन्तु बड़े-बड़े भयानक कर्मों को करने में उनकी हिचक नहीं होती।
एक दीवाल पर एक गिरगिट बैठा हुआ है। उसी दीवाल पर एक मक्खी बैठी हुई है। गिरगिट तेजी से दौड़कर जाता है और लपककर उस मक्खी को पकड़ लेता है और निगलकर समाप्त कर देता है। उसी तरह दीवाल पर एक तरफ मकड़ी जाल बनाये रहती है और जाल के एक बगल में वह बैठी रहती है। कोई मक्खी उड़ते-उड़ते आती है और उस जाल में फँस जाती है। वह मकड़ी बड़े प्रेम से जाती है और उसको निगल जाती है। मतलब यह है कि जो सीधे आघात करता है, वह गिरगिट के समान है। दूसरा वह होता है, जो अपनी चिकनी-चुपड़ी बातें कहकर लोगों को फँसाकर रखता है; लेकिन वास्तव में दोनों-के-दोनों डकैत है। तीसरी तरह के वे लोग हैं, जो शिला के समान होते हैं। शिला कहते हैं-पत्थर को। वह बाहर-भीतर एक समान होता है। बाहर वचन बोलने में कड़ा और भीतर भी कठोर। चौथे होते हैं अंगूर के समान। ऊपर भी मुलायम, भीतर भी मुलायम और सुस्वादु भी होता है। उसी तरह कितने लोग होते हैं, जो बोलते भी मधुर हैं, उनका व्यवहार भी मधुर होता है और वे रहते भी मुलायम हैं।
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने रामचरित- मानस में लिखा है-
“ विषयी साधक सिद्ध सयाने ।
त्रिविध जीव जग बेद बखाने ।।”
एक विषयी होते हैं, दूसरे साधक होते हैं और तीसरे सिद्ध होते हैं। इन तीनों की तीन प्रकृतियाँ होती हैं। विषयी की उपमा दी गई है, गुबरैला मक्खी से, साधक की उपमा दी गयी है घरों की मक्खी से और सिद्ध की उपमा दी गयी मधुमक्खी से। जैसे इधर तीनों तरह के नर हैं, उसी तरह उधर तीन तरह की मक्खियाँ हैं। लेकिन जैसे तीनों मक्खियों में भिन्नता है, उसी तरह तीनों नरों में भी भिन्नता है। विषयी लोग कैसे होते हैं? गुबरैला मक्खी के समान। गुबरेला मक्खी क्या करती है? लोग जो मैदान में शौच जाते हैं, वहाँ वह मक्खी पाखाने की गोलियाँ बनाती है और उनको घुमाती-फिराती रहती है। उसके निकट ही अच्छे-अच्छे फूलों की सुगंधों से सुगन्धित फुलवाड़ी हो; लेकिन वह गुबरैला मक्खी कभी उस फुलवाड़ी में नहीं जायगी। उसी तरह जो विषयी लोग होते हैं, दुनियादारी में मस्त रहते हैं। हाय पैसा, हाय बेटा, हाय काम, हाय धाम! उसी हाय-हाय में लगे रहते हैं। उनके आस-पास ही सत्संग हो, सत्कथा होती हो, हरिकथा-भगवत्चर्चा होती हो, साधु-महात्मा आये हों, तो वे वहाँ नहीं जायेंगे।
दूसरे होते हैं साधक। उनकी उपमा दी गयी है घरों की मक्खियों से। घरों की मक्खियाँ क्या करती हैं? घरों में जब मिठाइयाँ बनती हैं, तो उन मिठाइयों पर वे जाकर बैठती हैं और उसी घर में यदि कोई नन्हा-मुन्ना पाखाना कर देता है, तो वह यहाँ आकर भी बैठती है। मिठाइयों से उड़ाइये तो पाखाने पर और पाखाने से उड़ा दीजिए तो मिठाइयों पर। उसी तरह साधक कभी तो भगवान का नाम लेता है और कभी दुनियादारी भी करता है। यानी कभी काम में, कभी नाम में और जो सिद्ध लोग होते हैं, वे तो मधुमक्खी के समान होते हैं, जिनका अनुराग केवल परम प्रभु परमात्मा के पदपप्र-पराग से रहता है। ये तीन तरह के लोग होते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि चार तरह के लोग और होते हैं-
“ राम भगत जग चारि प्रकारा ।
सुकृति चारिउ अनघ उदारा ।।
चहु चतुरन कहँ नाम अधारा ।
ज्ञानी प्रभुहिँ विशेष पियारा ।।”
श्रीमद्भगवद्गीता में भी चार प्रकार के भक्त बतलाये गये हैं; यथा-आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी। एक आर्त यानी दुःखी है। वह अपने दुःख के निवारणार्थ प्रभु के नाम का जप करता है।
“ जपहिं नाम जन आरत भारी ।
मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी ।।”
वे अपने दुःखों से-कष्टों से छुटकारा पाने के लिए प्रभु को भजते हैं, पुकारते हैं; जैसे द्रौपदी कौरवों की सभा में अपनी लज्जा बचाने के लिए भगवान को पुकारने लगी थी। भगवान् ने द्रौपदी की आर्त पुकार सुनकर उसकी लज्जा बचा ली।
दूसरे प्रकार के भक्त होते हैं अर्थार्थी। उनके धन की कमी है, इसके लिए वे भगवान का भजन करते हैं कि भगवान हमें धन दो। भगवान श्रीकृष्ण का महावाक्य है-‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’। अर्थात् जो मेरा भक्त होता है, उसका योगक्षेम करता हूँ। जो आवश्यकता हमारे भक्त की होती है, वह देता हूँ और देकर उसकी रक्षा भी करता हूँ। इस संदर्भ में एक बड़ी अच्छी कथा है-सुदामा जो बड़े गरीब थे। भगवान श्रीकृष्ण और सुदामाजी एक ही साथ बचपन में पढ़ते थे। बड़े होने पर दोनों दो जगह चले गये। भगवान श्रीकृष्ण अपना राज्य सिंहासन सँभालने लगे और ये बेचारे गरीब ब्राह्मण अपने घर आये, विवाह किया; लेकिन अर्थाभाव था। अपने बचपन के बालमित्र की चर्चा वे कभी-कभी अपनी पत्नी के निकट किया करते थे, तो पत्नी कहा करती थी कि आप कहते हैं कि आपके मित्र बड़े धनी हैं, राजा हैं। आप जाइये उनके पास और कुछ ले आइये। लेकिन वे जाना नहीं चाहते थे। मित्रता की बात कुछ और है और माँग-चाँग की बात कुछ और होती है। रहीम कवि ने कहा है-
‘रहिमन वे नर मर चुके, जे कहिं माँगन जाय ।’
कबीर साहब ने तो कहा है-
‘मर जाऊँ माँगूँ नहीं, अपने तन के काज ।’
तथा-
‘माँगन से मरना भला, यह सद्गुरु की सीख ।’
माँगना अच्छा नहीं है। पुनः रहीम कवि कहते हैं-
“ रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट ह्वै जात ।
नारायणहु को भयो, बावन अंगुल गात ।।”
जो कोई कहीं कुछ माँगने जाता है, वह कितना भी बड़ा क्यों न हो, माँग करने पर छोटा हो जाता है।
भगवान विष्णु गये थे राजा बलि के यहाँ माँगने के लिए, तो वहाँ वे बावन अंगुल के बन गये थे। इसलिए माँगना ठीक नहीं है। यह जानकर सुदामा जो श्रीकृष्ण से कुछ माँगने के लिए जाते नहीं थे। गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी कहा है-
“ तुलसी कर पर कर करो, कर तर कर न करो ।
जा दिन कर तर कर करो, ता दिन मरन भलो ।।”
देनेवाले का हाथ ऊपर होता है और लेनेवाले का हाथ नीचे। तुलसीदासजी कहते कि कर के ऊपर कर करो। कर के नीचे कर नहीं करो। कर के नीचे कर करने से यानी माँगने से मर जाना अच्छा है। इसलिए वे भगवान के पास माँगने के लिए जाते नहीं थे; लेकिन धर्मपत्नी जब बहुत प्रेरणा देने लगी तो वे बोले-‘अच्छा, जायेंगे मित्र के यहाँ तो खाली हाथ कैसे जायेंगे!’ उनकी धर्मपत्नी ने थोड़ा-सा तण्डुल एक पोटली में बाँध दिया। वे उस पोटली को काँख के नीचे दबाकर अपने मित्र श्रीकृष्ण से मिलने के लिए चले। चलते-चलते जैसे उनके दरवाजे पर वे पहुँचते हैं, तो देखते हैं कि फाटक पर पहरेदार पहरे पर खड़ा है। इनके पैरों में जूते नहीं, तन पर फटा हुआ कपड़ा है। इनकी दुर्बल गात देखकर पहरेदार ने इनका पता पूछा। अपना नाम बताते हुए सुदामाजी ने कहा-श्रीकृष्ण मेरे मित्र हैं। मैं उनसे मिलने आया हूँ। पहरेदार ने भगवान श्रीकृष्ण से जाकर कहा कि एक आदमी फाटक पर खड़ा है। उसके तन पर फटा हुआ चिथड़ा है, पैर में जूते नहीं और न माथे पर पगड़ी है। लेकिन वह अपने को आपका सखा बतला रहा है। वे आपसे मिलने के लिए आये हैं। भगवान के हृदय में दया उमड़ आयी। अपने बचपन की मित्रता की याद आ गयी। दौड़े हुए आते हैं और सुदामाजी के गले से लिपट जाते हैं। उनको अपने हृदय से लगा लेते हैं और आदर से अपने साथ अन्तःपुर ले आते हैं। सिंहासन पर बिठाते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण की पटरानी रुक्मिणी जी उनका पद-प्रक्षालन करती हैं। आदर-सत्कार कर कुशल-समाचार पूछते हैं और कहते हैं कि मित्र! बहुत दिनों के बाद आये हो। कहो, क्या सन्देश लाये हो? बेचारे को काँख के नीचे से पोटली निकालने में बड़ी लज्जा लग रही थी। सोचने लगे-थोड़ा-सा तण्डुल इतने विभूतिवान् के सामने कैसे रखूँ! संकोच के मारे निकाल नहीं रहे थे। लेकिन भगवान् तो अन्तर्यामी थे। उनकी काँख के नीचे की पोटली खींचकर प्रेम से तण्डुल खाने लगे। एक बार, दूसरी बार और जैसे ही तीसरी बार वे अपने मुँह में तण्डुल डालते हैं, तो रुक्मिणी जी उनके हाथ पकड़ लेती हैं और कहती हैं कि बहुत दे चुके, हो गया, इनको अब और आप क्या देना चाहते हैं? श्री सुदामाजी कई दिनों तक वहाँ रहे। भगवान् ने बड़े आदर-सत्कार के साथ उनको रखा। जब वे चलने लगे, तो भगवान् ने बाहर दिखावे में कुछ दिया नहीं। रास्ते में श्री सुदामा जी सोचते हैं कि मेरा मन नहीं था, तब भी मेरी पत्नी ने मुझे अपने मित्र के पास माँगने के लिये भेजा। अच्छा हुआ कि उन्होंने कुछ दिया नहीं। लेकिन सुदामा जी जब अपने घर पहुँचते हैं तो देखते हैं कि झोपड़ी की जगह अट्टालिका है। अब वे दुःखित हो गये कि हमारा घर उजाड़कर कौन धनी आदमी यहाँ आकर बस गया है। जब सुदामा जी की पत्नी ने अपने पति को देखा, तो दौड़कर उनके निकट आयी और आरती उतारने लगी। सुन्दर वस्त्रलंकार से सजी-धजी रहने के कारण पहले पत्नी को सुदामाजी पहचान नहीं सके, बोले-अरे! कौन मेरे पास आ गयी? जब गौर करके देखते हैं, तो पाते हैं कि वह उनकी ही पत्नी है। बडे़ प्रसन्न होते हैं। भगवान् ने सुदामाजी के साथ में धन इसलिए नहीं दिया कि रास्ते में चोर-डकैत छीन लेंगे। इसलिये वहाँ धन नहीं देकर घर ही में सब कुछ दे दिया। भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने इस वाक्य-‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ को चरितार्थ कर दिखा दिया।
तीसरे प्रकार के भक्त होते हैं-जिज्ञासु। वे खोज कर रहे हैं कि प्रभु कहाँ है-परमात्मा कहाँ है, कैसे मिलेंगे? इसके लिए क्या करना होगा? किनसे सद्युक्ति मिलेगी? किस रास्ते से जाना होगा? आत्मस्वरूप क्या है? परमात्मस्वरूप क्या है? उसको कौन प्राप्त करेगा? आदि जिज्ञासाएँ हैं। जिज्ञासु के लिए भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है-‘जिज्ञासुरपि योग्स्य शब्द ब्रह्मातिवर्त्तते।’
चौथे प्रकार के ज्ञानी भक्त होते हैं। वे ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ जानते हैं। वे सबमें एक-ही-एक आत्मा को देखते हैं। इन चार प्रकार के भक्तों को नाम का आधार होता है। गोस्वामी जी ने लिखा है-
“ कहु चतुरन कहँ नाम अधारा।”
प्रभु के नाम वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक, दोनों तरह के होते हैं। इन दोनों प्रकार के नामों का आधार इन चारों भक्तों को होता है। ये चारो भक्त पुण्यवान् होते हैं; अच्छे कर्मों को करनेवाले होते हैं; अनघ-निष्पाप होते हैं और उदार होते हैं।
“ राम भगत जग चारि प्रकारा ।
सुकृत चारिउ अनघ उदारा ।।”
उदार किनको कहते हैं? जो अपने लिये जिस प्रकार की सुख-सुविधा की व्यवस्था करते हैं, उसी तरह दूसरों के लिये भी करते हैं, वे उदार हैं। इससे भी अधिक दाता होते हैं। उनकी स्वयं की परवाह नहीं रहती, दूसरों की ओर ही अधिक ध्यान देते हैं, वे दाता कहलाते हैं। हमलोगों के यहाँ दाता कर्ण की बड़ी चर्चा है। कर्ण बड़े दानी थे। मैं हरियाणा प्रान्त के करणाल शहर में सत्संग-सेवार्थ गया हुआ था। वहाँ हरियाणा, दिल्ली और चण्डीगढ़ का संयुक्त सत्संग था। दाता कर्ण के नाम पर ही करणाल नाम पड़ा है। वहाँ एक बड़ा विशाल पार्क है, जिसका नाम कर्ण पार्क है। वहाँ एक चौराहा है, जिसका नाम कर्ण चौराहा रखा गया है। वहाँ एक चबूतरा है, जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण की, अर्जुन की और कर्ण की मूर्ति है। भगवान् कृष्ण की तो एक चतुर्भुजी मूर्त्ति है और एक ब्राह्मण वेश की मूर्ति है। उसकी कथा इस प्रकार है। कर्ण पांडवों का ही भाई था; किन्तु पांडवों को यह बात मालूम नहीं थी। इसी प्रकार कर्ण को भी ज्ञात नहीं था कि पाँचो भाई पाण्डव मेरे ही भाई हैं। इसलिए महाभारत के मैदान में ये दोनों एक- दूसरे के विरुद्ध युद्ध करते थे। कुन्ती ने कर्ण के पास जाकर जब परिचय दिया कि वे पाँचो भाई भी तुम्हारे ही भाई हैं, तुम उन्हीं के भाई हो, तो कर्ण ने कहा-दुनिया के लोग जानते हैं कि कुन्ती के पाँच पुत्र हैं; लेकिन छठा पुत्र कर्ण है, इसको कोई नहीं जानता है। तुम कहती हो कि मैं तुम्हारा पुत्र हूँ, तो मैं वचन देता हूँ कि तुम्हारे पाँच पुत्र के पाँच पुत्र रहेंगे। मेरा युद्ध अर्जुन के साथ होगा। अर्जुन को मैं मार दूँगा, तो भी मेरे सहित तुम्हारे पाँच पुत्र रहेंगे और यदि अर्जुन मुझे मार देगा, तो भी तुम्हारे पाँच पुत्र रहेंगे। मार डालने का मौका आने पर भी मैं तुम्हारे अन्य चार पुत्रें को नहीं मारूँगा, छोड़ दूँगा। कर्ण ने मात्र कहा ही नहीं, अपने वचन का पालन भी किया। कर्ण ने कई बार पकड़-पकड़कर इन चार भाइयों को छोड़ दिया। अर्जुन के साथ घमासान युद्ध हुआ। अर्जुन उसपर प्रहार किया। अर्जुन के बाण से वे गिर गये। अभी उनके प्राण निकले नहीं थे। अब उनकी देह मृत्यु शय्या पर पड़ी हुई थी। अब पांडवों के दल में खुशियाँ मनायी जा रही थीं कि प्रबल शत्रु मारा गया। लेकिन भगवान श्रीकृष्ण रह-रहकर बोलते थे-आह! आज संसार से दानी उठ गया। अपने शत्रु की प्रशंसा भगवान श्रीकृष्ण के मुख से सुनकर अर्जुन के मन में बड़ा कष्ट हुआ। वह कहता है भगवान श्रीकृष्ण से कि यह आप क्या कह रहे हैं। हमलोग खुशियाँ मना रहे हैं और आप आह भर रहे हैं! शत्रु के निधन से आपको प्रसन्नता होनी चाहिए?
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-अर्जुन! वह बड़ा दानी था। उतना बड़ा दानी कोई नहीं। अर्जुन ने कहा- क्या हमारे भाई युधिष्ठिर महाराज और हमलोग दानी नहीं हैं? भगवान ने कहा-तुम्हारे भाइयों की और तुम्हारी दानवीरता में तथा कर्ण की दानवीरता में बहुत अंतर है। देखो, अभी कर्ण मरा नहीं है, जिन्दा है; लेकिन मृत्युशय्या पर है। अभी भी मैं उनकी दानवीरता तुम्हें दिखला सकता हूँ। चलो तुम मेरे साथ। रात्रि का समय था। भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों साथ-साथ चले युद्ध-मैदान की ओर। वह युद्ध का क्या मैदान था? श्मशान था। लाशें बिछी थीं। कुत्तों और गीदड़ों का साम्राज्य था। भगवान् श्रीकृष्ण ब्राह्मण का रूप धारण कर लेते हैं और अर्जुन को कहते हैं, तुम पीछे रहो। देखो कि क्या होता है? भगवान श्रीकृष्ण दूर से कहते हैं, कहाँ हो दाता कर्ण! दाता कर्ण! अपना नाम सुनकर कर्ण के मन में सत्साहस का संचार होता है; लेकिन वह चलने में असमर्थ है। कहते हैं, कौन हो भाई! मेरे नजदीक आओ। मेरा तो अंतिम समय है। भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मण-वेश में नजदीक आते हैं। ब्राह्मण को देखकर कर्ण प्रणाम करते हैं और पूछते हैं-ब्राह्मण देवता! आप कहाँ आये हैं? ब्राह्मण-वेशधारी भगवान कहते हैं, सुना है कि तुम बड़े दानी हो। मुझे दो सरसों के बराबर सोने की जरूरत है। वही तुमसे माँगने आया हूँ। कर्ण कहते हैं, दो सरसों के बराबर सोना बहुत थोड़ा हुआ। ब्राह्मण! आपको अपनी इच्छा के अनुसार सोना मिलेगा, आप मेरे घर जायँ, वहाँ मेरी पत्नी आपको दे देगी। ब्राह्मण वेशधारी भगवान डाँटकर कहते हैं-सुना था, तुम बड़े दानी हो। क्या यही तुम्हारी दानवीरता का परिचय है! माँगता हूँ तुमसे और तुम बहाना बनाते हो-मेरी पत्नी के पास जाओ। देना है तो दो, नहीं तो साफ कह दो। ‘उस दाता से सूम भला, जो तुरत दे जवाब।’ कर्ण कहते हैं-रुकिये ब्राह्मणदेव! कर्ण को याद हो आता है कि उसके दाँत सोने के बने हुए हैं। उन्होंने कहा-लीजिए ब्राह्मण देवता! अब तो मैं दुनिया से जा ही रहा हूँ। आप मेरे दाँतों को तोड़कर सोना ले लीजिए। ब्राह्मण वेशधारी भगवान कहते हैं-छिः! ब्राह्मण का यही काम है, दूसरे का दाँत तोड़ना। यही सिखलाते हो तुम मुझको। रखो तुम अपना सोना। विनयपूर्वक कर्ण कहते हैं-रुकिये! मैं ही देता हूँ; लेकिन मुझमें तो शक्ति नहीं है। एक पत्थर मुझे दे दीजिए, उस पत्थर से दाँत तोड़कर में आपको दे दूँगा। भगवान ने कहा-वाह रे दानी! मुझसे पत्थर ढूला लोगे, उसके बदले सोना दोगे और दानी भी कहलाओगे! यह मेरी मजदूरी हुई की तुम्हारी दानवीरता? कर्ण जैसे-तैसे घिसकते हैं। घिसकते-घिसकते पत्थर के पास जाते हैं और अपना मुँह उसपर दे मारते हैं। सारे दाँत झड़ जाते हैं और लहू-लूहान होकर दाँत निकालते हैं। कर्ण अपने हाथ में दाँत ले लेते हैं और कहते हैं-लीजिए ब्राह्मण देवता! ब्राह्मणरूपी भगवान आगे आते हैं, देखते हैं कि दाँत लहू-लूहान हैं। बिगड़ उठते हैं और कहते हैं-यही रक्तरंजित जूठा सोना मुझको दोगे। रखो, तुम अपना सोना। कर्ण कहते हैं-रुकिये विप्र देव! मैं आपको स्वच्छ सोना देता हूँ। फिर येन-केन प्रकारेण शरीर की सँभाल करके वे पृथ्वी में तीर मारते हैं। उससे पानी निकलता है। उस पानी से उन दाँतों को साफ करके कहते हैं-लीजिए ब्राह्मण देवता! अब भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो जाते हैं और कहते हैं-कर्ण! मैंने तुम्हारी परीक्षा ली थी। तुम परीक्षा में उत्तीर्ण हो गये। माँगो, तुम क्या वरदान माँगते हो। कर्ण कहते हैं-केशव! कर्ण तो देना जानता है, लेना नहीं। अगर आप देना ही चाहते हैंं, तो आप इस अंतिम समय में अपना दर्शन दे रहे हैं। मुझे इससे अधिक और क्या चाहिए! इस तरह कह भगवान के श्री-चरणों में अपना सिर रखकर कर्ण अपने प्राण छोड़ देते हैं।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन झारखण्ड राज्यान्तर्गत जमशेदपुर जिला वार्षिक अधिवेशन के अवसर पर तुलसी भवन में 26-01-1992 ई0 को हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जुलाई 1994 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आपलोगों को ज्ञात कराया गया है कि यहाँ संतमत का सत्संग होगा। संतमत-सत्संग के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है। ईश्वर-भक्ति में तीन बातों की प्रधानता होती है-स्तुति, प्रार्थना और उपासना। स्तुति कहते हैं-यशगान करने को। कितने आदमी कहते हैं कि ईश्वर की स्तुति क्यों की जाए? क्या ईश्वर खुशामदी है कि हम उनका यशगान करें। अपनी खुशामद सुनकर वे हमपर प्रसन्न हो जाएँगे? ईश्वर खुशामदी नहीं हैं, वे महान उपकारक हैं।
आपलोगों ने एक कथा पढ़ी वा सुनी होगी? बादशाह शाहजहाँ के दरबार में अमर सिंह राठौर नामक सेनाध्यक्ष था। वह बहुत अच्छी तरह काम करता था; किन्तु शाहजहाँ की पत्नी चाहती थी कि अपने भाई को सेनाध्यक्ष बनावें। इसके लिए वह बादशाह से कहा करती थी। बादशाह बड़े न्यायप्रिय थे। वे उत्तर देते, ‘जबतक किसी का दोष देखा नहीं जाए, तबतक किसी को पदच्युत या बहिष्कृत नहीं करना चाहिए।’ रानी दोष खोजने लगी, ताकि उसको पदच्युत किया जा सके। संयोगवश अमर सिंह का विवाह तय हुआ। वह बादशाह से छुट्टी लेकर घर गया। जितने दिनों की छुट्टी लेकर वह गया था, घर में उससे अधिक दिन लग गये। रानी ने बादशाह से कहा, ‘देखिए, आपने उसे इतने दिनों की छुट्टी दी और इतने अधिक समय हो गये हैं, अभी तक आया नहीं है। उसने आपकी अवहेलना की है। इससे बड़ा और अपराध क्या हो सकता है?’ बादशाह ने कहा, ‘पहले जुर्माना होता है, जब जुर्माना दाखिल नहीं किया जाए, तब उसे पदच्युत किया जा सकता है।’ उसकी पत्नी ने कहा, ‘कुछ इस तरह का जुर्माना कीजिए, जो वह दे न सके।’ जब वह 13 दिन देर से दरबार में आया, तो बादशाह ने कहा, ‘पहले 13 लाख रुपये दाखिल करो, तब तुम अपनी नौकरी करो, अन्यथा तुम्हें सेनाध्यक्ष पद से हटाया जाता है।’ नौजवान तो था ही, तैस में आ गया। म्यान से तलवार निकालकर वह शाहजहाँ पर वार करना चाहा। बादशाह पीछे के रास्ते से निकल गए और बादशाह की सेना इसपर टूट पड़ी। जहाँ तक इससे हुआ युद्ध किया और अंत में आगरे के किले के ऊपर घोड़ा पर चढ़कर नीचे कूद गया। घोड़ा तो मर गया; लेकिन अमर सिंह अमर रहा। अभी भी आगरे किले के आगे लकड़ी का घोड़ा बना हुआ है।
जब विवाह करके अमर सिंह लौट रहा था, तो रास्ते में रेगिस्तान पड़ता था। उस रेगिस्तान में उसे एक मुसलमान सज्जन से भेंट हो गयी। वे सज्जन बड़े पिपासित थे। पानी के बिना व्याकुल हो रहे थे। वे अमर सिंह के पास आकर बोले कि मैं जल के लिए व्याकुल हूँ, जल पिलाओ। अमर सिंह ने उसे एक गिलास जल पिला दिया। मुसलमान सज्जन ने कहा कि आपने जो मुझे जल पिलाया है, इसके बदले मैं आपको अपना खून दूँगा। जब अमर सिंह किले से बाहर निकला, तब उस मुसलमान सज्जन ने उनकी रक्षा में लड़ते-लड़ते अपने प्राण दे दिए। एक मुसलमान सज्जन ने अपना ईमान रखा, जैसा कहा, वैसा किया। जब एक गिलास पानी पिलानेवाले पर एक सज्जन व्यक्ति अपने प्राण न्योछावर कर सकते हैं, तो क्या हमने कभी सोचा है कि प्रभु ने हमारे लिए क्या-क्या उपकार किये हैं। आज जाड़ा लगता है, तो विविध प्रकार के कपड़े ओढ़ते हैं, घर में हीटर लगाते हैं, आग तापते हैं। गर्मी का समय आता है, तो हाथ-पंखा, बिजली-पंखा, कूलर इत्यादि उपयोग करते हैं। जरा सोचिए, जिस दिन हम अपने माता के गर्भ में थे, वहाँ कौन-सा कूलर था, कौन-सा हीटर था? किस तरह खाए, किस तरह सोए? एक बूँद पानी से बढ़ते-बढ़ते सुन्दर शरीर बन आया। नौ-दस मास माँ के पेट में रहे, वहाँ किसने हमारी प्राण-रक्षा की। वहाँ प्रभु ने हमारी रक्षा की। जब जन्म लेकर संसार में आए, तो हमारे मुँह में एक भी दाँत नहीं था। उस समय हमारे परम कृपालु प्रभु ने हमारे लिए कितनी अच्छी व्यवस्था की अपनी माँ के शरीर में ही दूध की व्यवस्था कर दी और दूध भी ऐसा कि जो कभी ठंढा नहीं होता कि उसे गर्म करना पड़े या वह दूध इतना गर्म भी नहीं होता कि उसे ठंढा करना पड़े। वह दूध कभी कमता नहीं, कभी जमता नहीं, कभी घटता नहीं, कभी फटता नहीं। बच्चा जितना दूध पीना चाहे, मन भर पी ले। महात्मा गाँधी ने लिखा है कि माता के शरीर में इतना दूध है कि बच्चा अगर सब दूध पी ले, तो जीवन भर उसे दूध, दही, घी, मक्खन खाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। लेकिन आश्चर्य की बात है कि बच्चा सब दूध पी नहीं पाता है; क्योंकि उसका हिस्सेदार दूसरा बच्चा जन्म लेकर खड़ा हो जाता है। जब मुँह में दाँत हुआ, तब-
“ अन्न फल मेवा कन्द नाना जाति के ।
हैं रचे जिसने हमारे ही लिए सब भाँति के ।।”
जिस प्रभु ने इतने प्रकार के सब कुछ दिए हैं, उनके लिए हम क्या करते हैं? उपकारी के प्रति हमारा भी कुछ कर्तव्य होता है। प्रभु का उपकार हम कुछ नहीं कर सकते हैं, तो कम-से-कम उनका नाम तो लें और उनका गुणगान भी नहीं करें, तो हमसे बढ़कर कृतघ्न और कौन होगा? स्वामी दयानंदजी ने लिखा है, ‘प्रत्येक मानव का कर्तव्य है कि वे प्रत्येक दिन स्तुति, प्रार्थना, उपासना नहीं करता है, वह पशु के समान है।’ स्तुति से क्या होता है? ईश्वर की महिमा जानी जाती है। किन्हीं की महिमा-विशेषता जानने पर ही, उनके प्रति आकर्षण होता है। और किन्हीं की निन्दा सुनने पर उनके प्रति घृणा होती है। प्रभु की हमलोग बड़ाई करते हैं, यशोगान करते हैं, उससे प्रभु की ओर हमारा आकर्षण होता है।
“ जाने बिनु न होय परतीती ।
बिनु परतीति होय नहिं प्रीती ।।
प्रीति बिना नहिं भगति दृढ़ाई ।
जिमि खगेश जल के चिकनाई ।।”
कौन अच्छा है और कौन बुरा है, जबतक नहीं जानते हैं, तबतक उसके प्रति जैसा व्यवहार होना चाहिए, नहीं कर पाते हैं। कुछ दिन पहले सत्संग-कार्यक्रम से मैं बोकारो गया हुआ था। सत्संग के पश्चात् टहलने के लिए निकला। साथ में डी-एस-पी- साहब थे। वहाँ एक जवाहर जैविक उद्यान है। वहीं टहलने के लिए जाने का विचार हुआ। वहाँ का नियम था कि संध्या पाँच बजे के बाद भीतर किसी को प्रवेश करने नहीं दिया जाता था। हमलोग जबतक वहाँ पहुँचे, तो गेट बंद हो चुका था। पहले तो दरबान ने गेट खोलना नहीं चाहा, पर जब डी-एस-पी- साहब ने अपना परिचय दिया, तो उसने गेट खोल दिया और घुमाने के लिए एक आदमी साथ कर दिया। जबतक नहीं जानते थे, तो कहने लगे कि प्रवेश निषेध है और परिचय मिलने पर सलामी बजाने लगे।
हमलोग प्रातःकाल ईश-स्तुति के बाद संत- स्तुति करते हैं। संत-स्तुति क्यों करते हैं? इसलिए कि भगवान श्रीराम ने अपने से विशेष संत को बतलाया है-
“ सातवँ सम मोहिमय जग देखा ।
मो तें अधिक सन्त करि लेखा ।।”
दूसरी बात यह है कि परमात्मा यहाँ आकर हमलोगों को उपदेश नहीं देते हैं, संत लोग ही आकर उपदेश देते हैं और रास्ता बतलाते हैं।
“ हरदम प्रभु रहैं संग, कबहुँ भव दुख न टरै ।
भव दुःख गुरु दें टारि, सकल जय जयति करै ।।”
जब से सृष्टि हुई, तब से हम हैं; लेकिन प्रभु ने कभी नहीं कहा कि हम तुम्हारे अंदर छिपे हुए हैं। तुम मुझे देख लो और तुम्हारा बेड़ा पार है। रामचरितमानस में लिखा है-
“ मोरे मन प्रभु अस विस्वासा ।
राम ते अधिक राम कर दासा ।।”
गो0 तुलसीदासजी कहते हैं कि मेरे विचार में तो यही आता है कि राम से अधिक रामके दास होते हैं। कैसे? कहाँ तो राम और कहाँ राम का दास। उपमाण-प्रमाण द्वारा बतलाते हैं-
“ राम सिन्धु घन सज्जन धीरा ।
चन्दन तरु हरि सन्त समीरा ।।”
राम अर्थात् परमात्मा, समुद्र के समान हैं। कहीं आते-जाते नहीं हैं। ईश्वर सर्वत्र हैं, स्थिर हैं। जो सब जगह है ही, तो उसका आना-जाना कहाँ होगा। वे स्वरूपतः अनन्त हैं, उनका कहीं आना-जाना संभव नहीं। आना-जाना तो माया का होता है। संत कबीर साहब की वाणी में है-
“ आवे जाय सो माया साधो, आवे जाय सो माया ।
है प्रतिपाल काल नहिं वाको, ना कहिं गया न आया ।।”
अगर कोई समुद्र में यात्र करे, पानी साथ नहीं ले जाए, तो वह पानी के बिना प्यासा मर जाएगा। समुद्र गहरा है, फिर भी पानी खारा है, इसलिए अपेय है। संत कबीर साहब ने कहा-
“ पानी बिच मीन पियासी,
मोहि सुनि सुनि आवत हाँसी ।”
जिस समुद्र के जल से हमारी खेती पटती नहीं, उसी समुद्र-जल से वाष्प उठता है और उससे बादल बनता है। वह बादल घूम-घूम कर संसार में वर्षा करता है और खेती पटती है। वह (शुद्ध जल) Distilled water की तरह स्वच्छ होता है। वह जल समुद्र से ही निकला हुआ है, पर अब उसमें खारापन नहीं, मीठापन आ जाता है।
उसी तरह परमात्मा का जो ज्ञान खारा है, उसको संत लोग मीठा बनाकर बरसाते फिरते हैं, जिससे हमारे प्राण बचते हैं। हमलोग सुख-शांति प्राप्त करते हैं। जिस तरह समुद्र से वाष्प उठता है, तो वह वर्षा करके हमारा कल्याण करता है; लेकिन समुद्र कल्याण नहीं करता, उसी तरह परमात्मा से निकले हुए संत हैं, वे हमारा कल्याण करते हैं; लेकिन परमात्मा हमारे अंग-संग रहने पर भी हमसे हमारे कल्याण की बात कभी नहीं करते।
चन्दन का वृक्ष एक जगह स्थिर है, उसमें सुगंध है। अगर हवा नहीं हो, तो हमको उसकी सुगंध नहीं मिलेगी। उसी तरह ईश्वर है, उसकी महिमा विभूति भरपूर है; लेकिन जबतक संत रूप हवा नहीं है, तबतक उसके लाभ से हम वंचित रहेंगे। उस लाभ से लाभान्वित करानेवाले संत ही होते हैं। यों तो कहा गया है-
“ संत भगवन्त अंतर निरंतर नहीं,
किमपि मति विमल कह दास तुलसी ।।”
लेकिन कुछ ऐसी बात है, जिससे कि संत भगवन्त से विशेष जाने जाते हैं। कैसे? अयोध्या में एक संत हुए पलटूदासजी, उन्होंने कहा-
“ बड़ा होय तेहि पूजिये, संतन किया बिचार ।।
संतन किया बिचार, ज्ञान का दीपक लीन्हा ।
देवता तेंतीस कोट, नजर में सबको चीन्हा ।।
सबका खंडन किया, खोजि के तीनि निकारा ।
तीनों में दुइ सही, मुत्तिफ़ का एकै द्वारा ।।
हरि को लिया निकारि, बहुरि तिन मंत्र बिचारा ।
हरि हैं गुण के बीच, संत हैं गुण से न्यारा ।।
पलटू प्रथमै संत जन, दूजे हैं करतार ।
बड़ा होय तेहि पूजिये, संतन किया बिचार ।।”
आपने सीताराम का, राधाकृष्ण का अथवा शिव-पार्वती का चित्र देखा होगा। कहीं-कहीं यह चित्र ओऽम् से घिरा हुआ रहता है। ओऽम् अर्थात् वे तीनों गुणों के घेरे में भगवान रहते हैं। अभी इस घेरे के फेरे से निकले नहीं हैं, इन्हीं में डेरा डाले हुए हैं। इसलिए पलटू साहब ने कहा है-‘हरि हैं गुण के बीच, संत हैं गुण ते न्यारा।’ संतों की अंतिम साधना होती है; इन तीन गुणों से परे की होती है। इसलिए संत कबीर साहब ने कहा-
“ सर्गुन की सेवा करौ, निर्गुन का करु ज्ञान ।
निर्गुन सर्गुन के परे, तहाँ हमार ध्यान ।।”
गुरु नानकदेवजी क्या कहते हैं, यह भी देखिए-
“ निर्गुण सगुण त्रय गुण ते दूरि ।
रहा अलिप्त नानक भरपूरि ।।”
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने बतलाया कि एक है-क्षर पुरुष, दूसरा है-अक्षर पुरुष और इन दोनों के परे हैं- पुरुषोत्तम। उसको भी जानना चाहिए।
हमारे गुरुदेव के वचन में है-
“ है निर्गुण सगुण ब्रह्म दोउ अंश जाको ।
समता न पाता कोई भी है ताको ।।
जो है परम पुर्ष सबको अधारा ।
सोई पीव प्यारा सोई पीव प्यारा ।।”
सत्संग के आरंभ में पहले संत की स्तुति करते हैं, उसके बाद सद्गुरु की स्तुति करते हैं ऐसा क्यों? इसलिए कि संतों का ज्ञान सामूहिक ज्ञान होता है। उन्हीं संतों में से कोई हमारे गुरु होते हैं, जो व्यक्तिगत रूप से हमें शिक्षा एवं दीक्षा देते हैं।
सैद्धांतिक रूप से बतानेवाले संत होते हैं और व्यावहारिक रूप से बतलानेवाले गुरु होते हैं। इसलिए कि संतों में जो गुरु होते हैं, उनकी भी स्तुति हमलोग करते हैं। गुरु की योग्यता सबसे बढ़कर होती है। वाल्मीकिजी तो भगवान श्रीराम से यहाँ तक कहते हैं कि-
“ तुम्हते अधिक गुरु हि जिय जानी ।
सकल भाव सेवइ सनमानी ।।”
हे राम! जो तुमसे अधिक गुरु को जानते हैं, उनके हृदय में आप निवास कीजिए।
जब रावण का संहार कर विभीषण को लंका का राज्य देकर भगवान श्रीराम अयोध्याजी आ जाते हैं, तो अपनी माताजी के श्रीचरणों में प्रणाम करते हैं। माताजी अपनी बाँहों में भरकर उनको अपनी गोद में बैठा लेती हैं और पूछती हैं कि बेटा! राक्षस तो बड़े दुर्दान्त होते हैं, उसमें भी उसके अधिपति रावण। उसके डर से तो तीनों लोक काँपते थे। तुमने उस दुर्दान्त रावण का संहार कैसे किया? तो भगवान श्रीराम उत्तर देते हैं-
“ गुरु वसिष्ठ कुल पूज्य हमारे ।
तिनकी कृपा दनुज रन मारे ।।”
देखिए, गुरु का क्या स्थान होता है। इसीलिए हमलोग गुरु की स्तुति करते हैं। लेकिन गुरु होना चाहिए, गोरू नहीं।
“ गुरु नाम है ज्ञान का, शिष्य सीख ले सोय ।
ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरु शिष्य न कोय ।।”
जिस ज्ञान से मोक्ष होता है, उस ज्ञान के दाता को गुरु कहते हैं। जो उस ज्ञान दान में समर्थ नहीं है, ऐसे गुरु को छोड़ देना चाहिए। महाभारत तो स्पष्ट कहता है-
“ गर्वित कार्य अकार्य नहीं, जानत चलत कुपन्थ ।
ऐसे गुरु कहँ त्यागिये, यही कहत शुभ ग्रन्थ ।।”
जो सच्चे सद्गुरु हैं, उनकी स्तुति करनी चाहिए। स्तुति के बाद है प्रार्थना। प्रार्थना कहते हैं, विनयपूर्वक कुछ माँग लेना। हमलोगों के वैदिक धर्म में प्रार्थना कहते हैं, कोई उसे प्रेयर (Prayer) कहते हैं, कोई नमाज कहते हैं; लेकिन भाव एक ही है।
ऐसा कोई हृदय नहीं, जिसमें कुछ माँग नहीं है। तुलसी साहब ने कहा है-
“ एक दिल लाखों तमन्ना, उस पै और ज्यादा हविस ।
फिर ठिकाना है कहाँ, उसको बिठाने के लिए ।।”
कितनी माँगे हैं, ठिकाना नहीं। लेकिन माँगो तो किससे और क्या माँगो, यह भी समझ लेना आवश्यक है। जो स्वयं माँगता फिरता है, उससे क्या माँगो। माँगो तो उससे माँगो, जो सर्वदाता है। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
“ मोर दास कहाइ नर आसा ।
करहिं तो कहौ कहा विस्वासा ।।”
दास तो मेरा (भगवान का) कहलाते हो और भरोसा दुनिया का करते हो, फिर मेरे ऊपर क्या विश्वास रहा। माँगो तो प्रभु से माँगो। संत सुन्दरदासजी ने कहा है-
“ जौं दस बीस पचास भये सत,
होइ हजार तु लाख मँगैगी ।
कोटि अरब्ब खरब्ब असंख्य,
धरापति होने की चाह जगैगी ।।
स्वर्ग पताल को राज करैं,
तृस्ना अधिकी अति आग लगैगी ।
‘सुन्दर’ एक संतोष बिना सठ,
तेरी तो आग कभी न बुझैगी ।।”
यह आग कब बुझेगी, तो गो0 तुलसीदासजी कहते हैं-
“ बिनु संतोष न काम नसाहीं ।
काम अछत सुख सपनेहु नाहीं ।।
राम भजन बिनु मिटहि कि कामा ।
थल विहीन तरु कबहु कि जामा ।।”
ईश्वर-भजन करने में ही कामनाओं का अंत होता है। कबीरसाहब कहते हैं कि कुछ भी स्थिर रहनेवाला नहीं है, क्या माँगा जाए-
“ क्या माँगौ कछु थिर न रहाई ।
देखत नैन चल्यो जग जाई ।।”
किसी ने कहा-बाल-बच्चे ही माँग लो। कबीर साहब कहते हैं-
“ इक लाख पूत सवा लाख नाती ।
जा रावन घर दिया न बाती ।।”
भगवान बुद्ध की एक शिष्या थी, विशाखा। उसने उस जमाने में भगवान बुद्ध के प्रचार में 27 करोड़ स्वर्ण मुद्रायें खर्च की थी। उसका पोता मर गया। वह भींगे वस्त्र में रोते- रोते भगवान बुद्ध के पास गयी। भगवान बुद्ध पूछते हैं, ‘विशाखे! तुमको क्या हुआ?’ विशाखा कहती है, ‘भगवन्! मात्र एक पोता था, वह भी संसार से चल बसा।’ भगवान बुद्ध पूछते हैं, ‘विशाखा! इस बस्ती में कितने लोग रहते हैं?’ वह बतलाती है कि इस बस्ती में तो बहुत लोग रहते हैं। भगवान बुद्ध कहते हैं, ‘अगर तुमको इतने पोते दे दूँ, तो खुश हो जाएगी?’ विशाखा कहती है, ‘भगवन्! तब तो खुशी का ठिकाना ही क्या?’ पुनः भगवान बुद्ध कहते हैं, ‘क्या इस नगर में कोई मरते भी हैं?’ उसने उत्तर दिया, ‘भगवन्! जहाँ इतनी बड़ी आबादी है, वहाँ तो 2-4 लोग रोज मरते ही रहते हैं।’ भगवान बुद्ध कहते हैं, ‘विशाखा! अगर तुमको इतने पोते हो जाएँ और दो-चार प्रत्येक दिन मरते रहें, तो क्या तुम्हारी भींगी साड़ी कभी सूखेगी?’ विशाखा गंभीर हो गयी और कहने लगी, ‘भगवन्! मैं अब समझ गयी, मुझे कुछ नहीं चाहिए।’ कबीर साहब से प्रश्न किया गया कि कुछ सोना-चाँदी ही माँग लिया जाए। तब उन्होंने कहा-
“ सोने का महल रूपे का छाजा ।
छोड़ि चले नगरी के राजा ।।”
किसी शायर ने बड़ा ही अच्छा कहा है-
“ माँगो उसी से जो दे दे खुशी से ।
कहो उसी से जो कहै न किसी से ।।”
इस विषय पर गो0 तुलसीदासजी अंतिम निर्णय देते हुए कहते हैं-
“ जग जाँचिये काहु न जाँचिये जो,
जग जानकी जानहिं जाँचिये जी।
जेहि जाचत जाँचकता जरि जाय,
जो जारत जोर जहानहिं जी ।।”
अगर कुछ माँगना ही है, तो प्रभु राम से माँगो। कुछ ऐसा माँगो कि तुम्हारी सारी माँग समाप्त हो जाए, फिर कुछ माँगना न पड़े। जो अनित्य है, वह माँगकर क्या करोगे। इसलिए नित्य वस्तु को माँगो। अर्थात् प्रभु से प्रभु को ही माँगो।
स्तुति-प्रार्थना के बाद है, उपासना। उप+आसन अर्थात् प्रभु के समीप आसन। उपासना में भी पहले स्थूल उपासना है, फिर सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम उपासना है। इसी क्रम में पहले मानस जप और मानस ध्यान बतलाया जाता है, फिर दृष्टियोग और नादानु- संधान की क्रिया है। सच्चे सद्गुरु से उपासना की क्रिया सीखकर पंच पापों (झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार) से बचते हुए जो नित्य नियमित रूप से अभ्यास करते हैं, वे परमात्मा से मिलकर एकमेक हो जाते हैं। उनका आवागमन का चक्र छूट जाता है और वे सुख-शान्ति लाभ करते हैं। यही संतमत का सार है।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन खगड़िया में दिनांक 11-02-1992 ई0 को मास-ध्यान-
साधना के अवसर पर आयोजित सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जुलाई 2006 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
इस समय के सत्संग का विषय माया और ब्रह्म है। पूर्ववक्ताओं के प्रवचन में आपलोग माया और ब्रह्म के सम्बन्ध में सुन चुके। जब ब्रह्म की चर्चा हो गई, तो अब मैं जो चर्चा करूँगा, वह तो भ्रम की चर्चा हो जायगी। इसलिए मैं कम कहूँगा, जिससे आपके मन मे वहम न हो।
एक सज्जन बंगाल के सुप्रसिद्ध संत रामकृष्ण परमहंस देव जी महाराज के पास आए और हाथ जोड़कर प्रार्थना की- “ देव! मैं गृहस्थ हूँ। मेरे पास समय का अभाव है। इसलिए आप एक ही वाक्य में ऐसा उपदेश दें, जिससे सारे भव-क्लेश निःशेष हो जायँ।” रामकृष्ण परमहंस देव जी महाराज ने कहा- “ ब्रह्म सत्य जगन्मिथ्या।”
इसको अच्छी तरह जान लो, कल्याण हो जायगा। ब्रह्म सत्य है। जिनको हम ब्रह्म कहते हैं, गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने उनको ‘राम’ की संज्ञा से अभिहित किया है। उन्होंने कहा है-
“ राम ब्रह्म परमारथ रूपा ।
अविगत अलख अनादि अनूपा ।।
सकल विकार रहित गत भेदा ।
कहि नित नेति निरूपहि वेदा ।।”
ब्रह्म सत्य है। सत्य वह है, जो त्रयकाल- अबाधित हो, अर्थात् पूर्व में जो था, अभी है, आगे भी रहेगा। जो भूत, वर्त्तमान और भविष्यत्, तीनों कालों में एकरूप, एकरस रहे, वह है ब्रह्म। आप देखेंगे कि एकरस क्या रहता है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-
“ तुलसी राम सनेह कर, त्याग सकल उपचार ।
जैसे घटै न अंक नौ, नौ के लिखे पहाड़ ।।”
कहते हैं, जितने भी पहाड़े हैं, सबको आप लिखिए। उन पहाड़ों में आपको न्यूनाधिक अंक मिलेंगे। किन्तु एक नौ का ही पहाड़ा है, जो एकरस रहता है। उसके अतिरिक्त अन्य जितने पहाड़े हैं, सब परिवर्त्तनशील हैं। तात्पर्य यह कि जिस तरह नौ का पहाड़ा एकरस रहता है, उसी तरह वह ब्रह्म एकरस रहता है।
जिसने इस ब्रह्म को जान लिया, उसका भ्रम समाप्त हो गया। इस ब्रह्म को संतों ने कहीं ‘राम’ शब्द से अभिहित किया है, तो कहीं ‘साईं’ शब्द से। इसी प्रकार कहीं आत्मा, कहीं परमात्मा आदि विविध नामों से सम्बोधित किया है। लेकिन विचार करके देखने पर तो हम उस प्रभु का नाम क्या रख सकते हैं? वे तो अनामी हैं।
“ जो कोइ चाहै नाम, सो नाम अनाम है ।
लिखन-पढ़न में नाहि, निअक्षर काम है ।।
रूप कहौं अनरूप पवन अनरेखते ।
अरे हाँ रे पलटू, गैब दृष्टि से संत नाम वह देखते ।।”
गुरु नानकदेव जी महाराज ने तो स्पष्ट कहा-
‘पिता जनम कि जाने पूत ।’
अरे! पिता पुत्र का नाम रख सकता है। पुत्र क्या पिता का नाम रख सकता है? हम सब तो परमात्मा की संतान हैं। हम उनका क्या नाम रख सकते हैं?
जिस ईश्वर का नाम नहीं, वह ईश्वर कैसा? हमलोग नित्य पाठ करते हैं- “ जो परम तत्त्व आदि- अन्त-रहित, असीम, अजन्मा, अगोचर-सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे हैं, उसे ही सर्वेश्वर-सर्वाधार मानना चाहिए।” अब इस ‘अगोचर’ शब्द पर आप गौर कीजिए। हमलोग ईश्वर के लिए नित्य पाठ में प्रयोग करते हैं ‘अगोचर’ शब्द का। अन्य संतों ने भी यही कहा है। अब हम वेद का पन्ना उलटें, वह क्या कहता है? “ अवाघ्मनस्गोचर।” ऋग्वेद कहता है। उपनिषद् पढ़िए। शाण्डिल्य उपनिषद् में आया है-
‘यतो वाचौ निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ।’
इस प्रकार ईश्वर के लिए क्या वेद, क्या उपनिषद् सब-के-सब ‘अगोचर, अगोचर’ शब्द बोल रहे हैं। संत गोरखनाथजी के पास जाइए; उनसे पूछिए, वे क्या कहते हैं-
“ बस्ती न शून्यं शून्यं न बस्ती अगम अगोचर ऐसा ।
गगन सिखर महँ बालक बोलहि वाका नाम धरहुगे कैसा ।।”
ये भी ईश्वर-स्वरूप के लिए कहते हैं ‘अगोचर’। वह बस्ती है या शून्य है, भरा है या खाली है-कुछ कहा नहीं जा सकता।
अगर हम मुँह में ला देते हैं, वाणी में ला लेते हैं, तो “ अवाघ्मनस्य् नहीं कह सकते।
एक यात्री यात्र कर रहा था। रास्ते में जंगल मिल गया। एक साधु बाबा की कुटिया थी। वहाँ पर वह यात्री पहुँचता है और पूछता है कि “ बाबा! बस्ती कितनी दूर पर है?” साधु बाबा ने कहा- “ बस जंगल पार करो, बस्ती मिल जायेगी।” वह जंगल पार करता है। देखता है कि श्मशान है। लौटकर वह आता है और कहता है कि बाबा! आपने कहा था कि बस्ती जंगल पार करने पर मिलेगी, वहाँ तो बस्ती नहीं है, वहाँ तो श्मशान है। साधु बोला-अरे! बस्ती किसको कहते हैं? जिसको तुम बस्ती कह रहे हो, वास्तव में वह बस्ती नहीं है, वह तो उजाड़ है, वहाँ से लोग रोज मर-मरकर यहाँ बास करते हैं, बस्ती तो यह है। यहाँ से कभी उजड़ते नहीं। जिसको तुम उजाड़ (श्मशान) कहते हो, वही बस्ती है और जिसको तुम बस्ती कहते हो, वह उजाड़ है।
जब जग-व्यवहार की ऐसी बात है, तब उस प्रभु के लिए क्या कहा जाय कि वह बस्ती है या शून्य है। प्रभु-स्वरूप के सन्दर्भ में संत कबीर साहब क्या कहते हैं, सुनिये-
“ नैना बैन अगोचरी, श्रवणा करनी सार ।
बोलनि कै सुख कारनै, कहिए सिरजनहार ।।”
ये भी ‘अगोचर’ कहते हैं। गुरु नानकदेव जी महाराज से पूछा जाय, वे क्या कहते हैं-
“ अलख अपार अगम अगोचरि ना तिसु काल न करमा ।
जाति अजाति अजोनी संभउ ना तिसु भाव न भरमा ।।
साचे सचिआर विटहु कुरबाणु ।
ना तिसु रूप बरनु नहि रेखिआ साचे सबदि निसाणु ।।
ना तिसु मात पिता सुत बंधप ना तिसु काम न नारी ।
अकुल निरंजन अपर परम्परु सगली जोति तुमारी ।।
घट-घट अन्तरि ब्रह्मु लुकाइआ घटि-घटि जोति सबाई ।
बजर कपाट मुकते गुरुमती निरभय ताड़ी लाई ।।
जंत उपाइ काल सिरिजन्ता बसगति जुगति सबाई ।
सतगुरु सेवि पदारथु पावहि छूटहि सबदु कमाई ।।
सूचै भाड़ै साचु समावै विरले सूचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ।।”
तो गुरु नानकदेव जी महाराज भी कहते हैं, परमात्म-स्वरूप अगोचर है।
कतिपय सज्जन आक्षेप करते हैं कि कबीर साहब और गुरु नानकदेव जी महाराज निर्गुणियाँ संत थे। इसीलिए ईश्वर-स्वरूप के लिए उन्होंने ‘अगोचर’ शब्द का व्यवहार किया है। सूरदास जी और तुलसीदास जी महाराज-ये दोनों सगुणियाँ सन्त थे। क्या इन युगल संतों की वाणियों में भी ‘अगोचर’ शब्द आया है। वैचारिक दृष्टि से अवलोकन करने पर यह प्रतीत होता है कि कोई भी संत बिल्कुल निर्गुणियाँ अथवा बिल्कुल सगुणियाँ नहीं होते। आरम्भ से अंत तक कोई सगुणियाँ वा कोई निर्गुणियाँ होकर रहे नहीं। अवश्य ही आरम्भ में सब-के-सब सगुणियाँ थे और अन्त में सब-के-सब निर्गुणियाँ हुए। हमारे गुरुदेव तो कहा करते थे कि कोई कहे कि मैं पैर काट करके दौड़ूँगा, तो वह दौड़ नहीं सकता। कोई कहे कि मैं अपना सिर काटकर जीवित रहूँगा, तो ऐसा करके कोई जीवित रह नहीं सकता।” शरीर के लिए पैर भी चाहिए और सिर भी।
उसी तरह अध्यात्म-जगत् में जीने के लिए स्थूल सगुण साकार से उपासना का आरम्भ होगा और निर्गुण निराकार में अन्त। सन्तों की साधना-पद्धति यही है।
“ सगुन की सेवा करौ, निर्गुन का करु ज्ञान ।
निर्गुन सगुन के परै, तहैं हमारा ध्यान ।।”
गुरु नानकदेव जी महाराज कहते हैं-
“ निर्गुन सर्गुन त्रिहुगुण ते दूरि ।
नानक अलिप्तु रहिआ भरपूरि ।।”
अब आप तुलसीदास जी महाराज के वचन में भी सुन लीजिए ‘अगोचर’ शब्द का व्यवहार उन्होंने किस प्रकार किया है-
“ राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति-नेति नित निगम कह ।।”
ज्ञातव्य है कि एक होता है रूप, दूसरा होता है सरूप और तीसरा होता है स्वरूप। रूप-जो इन आँखों से देखा जाय। सरूप-जो उस रूप के सहित हो और स्वरूप अर्थात् निजरूप। वह निज रूप कैसा है? गोस्वामी जी के ही शब्दों में सुनिये-
“ अनुराग सो निज रूप जो जगतें बिलच्छन देखिए ।
संतोष सम सीतल सदा दम देहवन्त न लेखिये ।।”
संत सूरदास जी महाराज के वचन में-
“ अविगत गति कछु कहत न आवै ।
ज्यों गूँगहि मीठे फल को रस, अन्तरगत ही भावै ।।
परम स्वाद सबही जु निरन्तर, अमित तोष उपजावै ।
मन वाणी को अगम अगोचर सो जानै जो पावै ।।”
“ रूप रेख गुन जाति जुगति बिनु ,
निरालम्ब मन चक्रित धावै ।
सब विधि अगम विचारहि तातें,
सूर सगुन लीलापद गावै ।।”
बड़े स्पष्ट शब्दों में सूरदास जी महाराज कहते हैं-
‘अविगत गति कछु कहत न आवै ।’
कुछ कहने में नहीं बनता है; क्योंकि वह मन-वाणी के लिए अगम और अगोचर है।
किस तरह कहने में नहीं आता है? इसके उत्तर में वे उपमा देकर समझाते हैं-
“ ज्यों गूँगहि मीठे फल को रस, अन्तरगत ही भावै ।”
कोई गूँगा है, उसको मीठा फल आप खिला दीजिए और पूछिए, स्वाद कैसा लगा? वह क्या बतलावेगा? कुछ नहीं; क्योंकि उसके मुँह में वाणी नहीं है। जिस तरह से उसके मुँह में वाणी नहीं है, उसी तरह ‘ब्रह्म’ वाणी का विषय नहीं है। लेकिन क्या गूँगे को मीठे फल का स्वाद नहीं लगा? स्वाद लगा; लेकिन वह वर्णन कर नहीं सकता। उसी तरह से ब्रह्म की जो प्राप्ति होती है, उस अनुभूति की अभिव्यक्ति की शक्ति वाणी में नहीं है। संत तुकाराम जी महाराज कहते हैं-
“ गुँगे का गुड़ है भगवान् । बाहर भीतर एक समान ।।”
सूरदास जी महाराज दूसरी जगह कहते हैं-
“ ज्यों गूँगो गुर खायो, अपुनपौ आपुन ही में पायो ।।”
ये भी ‘अगोचर’ की ही बात कहते हैं। ये तो वैदिक संतों की वाणियाँ है। आप कहेंगे, किन्हीं जैन, बौद्ध की भी बात होनी चाहिये, तो उनकी बात भी सुनना चाहें, तो सुन लीजिए-एक जैन संत हुए, जिनका नाम टीकारामनाथजी था, वे कहते हैं-
“ विराजै रोम-रोम में राम, नहि कहुँ दूजो धाम ।
अगम अपार अनादि अगोचर सज्जन मनोभिराम ।।”
ये भी ‘अगोचर’ कहते हैं-यदि पूछा जाय कि वे अगम, अगोचर ईश्वर कितने? उत्तर होगा-एक। ऋग्वेद कहता है-एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति। वे एक हैं, सभी उन्हें अनेक नामों से अभिहित करते हैं। ईसाई उनको ळव्क् कहते हैं, मुसलमान उनको अल्लाह कहते हैं, पारसी उनको अहुरमज्द कहते हैं, चीनी उसको तितीन कहते हैं, वैदिक धर्मावलम्बी उन्हीं को ब्रह्म-परमात्मा कहते हैं। कोई उनको सगुण कहते हैं, कोई उनको निर्गुण कहते हैं; लेकिन वे न केवल सगुण हैं, न केवल निर्गुण। बल्कि सगुण-निर्गुण में रहकर भी वे उनसे परे हैं।
कोई माता के रूप में उनको पूजते हैं, कोई उनको पिता के रूप में पूजते हैं; लेकिन न वे स्त्री हैं, न पुरुष ही। वास्तव में वे जगत् के माता-पिता अवश्य हैं।
संत कबीर साहब कहते हैं, ईश्वर कितने हैं?
“ मेरा साहब एक तू, दूजा कहा न जाय ।
दूजा साहब जौं कहौं, साहब खड़ा रिसाय ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज बतलाते हैं-
‘एकोएक सो अपर परम्परु परखि खजाने पाइदा ।’
ये भी कहते हैं-ईश्वर एक हैं।
और संत सुन्दरदास जी महाराज की वाणी सुनिए, वे क्या कहते हैं-
“ एक सही सबके उर अंतर,
ता प्रभु कूँ कहु क्यूँ नहीं ध्यावै ।
संकट माहि सहाय करै पुनि
सो अपनो पति क्यूँ बिसरावै ।।
चारि पदारथ और जहाँ लौं
आठहु सिद्धि नवो निधि पावै ।
सुन्दर छार पड़े तिनके मुख
जो हरिकूँ तजि आनकूँ ध्यावै ।।”
बादशाह अकबर के दरबार में बहुत-से कवि रहते थे। वे जितने भी कवि थे, सब प्रतिदिन एक-एक कविता बादशाह अकबर को सुनाया करते थे। उनमें एक कवि का नाम था श्रीपति। उनकी जितनी कविताएँ हुआ करती थीं, ईश्वरपरक ही होती थीं। अन्य जितने कवि थे, सब बादशाह की प्रसन्नता के लिए उनकी स्तुति-प्रार्थनापरक कविता बनाया करते थे। सभी दरबारी कवियों की नजर में श्रीपति चढ़ गए कि ये कभी बादशाह की प्रशंसा में कोई कविता नहीं बनाते हैं, क्यों न बादशाह की नजर से इनको गिराया जाय। अन्य दरबारी कवियों ने बादशाह से मिलकर यह कहवा दिया कि आगामी कल की कविता जो बनेगी, उस कविता में यह पंक्ति अवश्य रहनी चाहिए- “ करो सब आस अकब्बर की।”
दरबारी कवियों ने मन मे ंसोचा कि अगर श्रीपति कवि अपनी कविता में यह पंक्ति नहीं देते हैं तो वे बादशाह की नजर से गिरेंगे और अगर यह पंक्ति रखते हैं, तो हमलोग उनको उपालभ्भ देंगे कि आज ईश्वर-परक आपकी टेक कहाँ गयी? क्या बात हुई? दूसरे दिन सबने कविता बनाई और सबने अपनी-अपनी कविता बादशाह को सुना दी। अब जब श्रीपति जी की बारी आयी तो सब लोग प्रतीक्षा कर रहे थे कि ये क्या सुनाते हैं, देखें। श्रीपति जी ने अपनी कविता निम्न प्रकार सुनायी-
“ एकहि छाड़ि जो दूजो भजै,
सो जरै रसना अस लब्बर की ।
अबकी दुनिया गुनियाँ जो बनी
सब बाँधत फैंट अडब्बर की ।।
कवि श्रीपति आसरो रामहिँ को,
हम फैंट गही बड़ जब्बर की ।
जिनको उन एक की टेक नहीं,
सो करो सब आस अकब्बर की ।।”
वह एक क्या है? परम प्रभु परमात्मा। उन्हीं एक की टेक धारण करने के लिए संतजन कहते हैं। उस एक को जानो। जो उस एक को जान लेता है, उसका कल्याण हो जाता है। कभी अकल्याण नहीं होता।
ऋग्वेद कहता है-हाथ, पैर, आँख, कान, नाक, त्वचा आदि इन्द्रियों के द्वारा ईश्वर को प्राप्त करने की चेष्टा करनी झूठ ही एक खेल करना है; क्योंकि वह इन्द्रियातीत है। जो कोई उनपर विश्वास लेते हैं, उनकी सहायता वे करते हैं।
एक राजा था। उसका मंत्री ईश्वर-विश्वासी था। जो कुछ भी घटना होती थी, वह यही कहता था कि ईश्वर जो कुछ करते हैं, हमारी भलाई के लिये करते हैं। एक दिन वह राजा शिकार खेलने के लिए जंगल गया। वहाँ संयोगवश अपने ही हथियार से राजा की अंगुलि कट गई। मंत्री ने कहा ईश्वर जो कुछ करते हैं अच्छे के लिए करते हैं। भविष्य में आपका कल्याण होनेवाला है। इसीलिए अंगुली कटी है। राजा के मन में बड़ा दुःख हुआ कि मेरी अंगुली कटी है और यह कहता है, जो कुछ ईश्वर करते हैं, अच्छे के लिए करते हैं। राजा ने उक्त मन्त्री को नौकरी से बर्खास्त कर दिया और कहा-तुम्हारी अब आवश्यकता नहीं है। तुम अपने घर चले जाओ। मंत्री घर चला गया। राजा के घाव की मरहम-पट्टी हुई। घाव छूट गया। कुछ दिनों के बाद राजा पुनः शिकार खेलने के लिए जंगल गया। एक शिकार के पीछे घोड़ा दौड़ाते-दौड़ाते वह घनघोर जंगल में पहुँच गया। वहाँ चारो तरफ से डकैतों ने उसे घेर लिया और उसके जितने वस्त्र और अलंकार थे, सब उतार लिये। डकैतों ने काली की महिमा गानी शुरू की और कहा, देखो! काली माई की कितनी महिमा है। रात में हमलोगों ने मनौती की थी कि मन के अनुकूल धन मिल जाय तो एक नरबलि देंगे, तो हमलोगों को मनोऽनुकूल धन भी मिल गया और देखो बलिदान के लिये नर भी कितना सुन्दर आ गया। पश्चात् राजा को नहलाया गया, नया वस्त्र पहनाया गया, गले में फूल की माला डाली गई और बलिदान के लिए काली के सामने ले जाया गया। अब उनपर तलवार चलने ही वाली थी कि एक डकैत की नजर पड़ गई उनकी कटी अंगुलि पर। उसने कहा, रुक जाओ, तलवार मत चलाओ। डकैतो ने पूछा-क्या बात है? उसने कहा-भाई! यह तो अंग-भंग है। अंग-भंग का बलिदान नहीं होता। हमारे यहाँ जो कोई बकरा चढ़ाते हैं; कितने आदमी तो गला काटते हैं, कितने आदमी कान काटकर छोड़ देते हैं। जिस बकरे का काट हुआ रहता है, फिर वह बकरा दुबारा बलिदान पर नहीं चढ़ता है, इसकी तो अंगुलि पहले ही कट गई, छोड़ दो इसको। डकैतों ने राजा को छोड़ दिया। राजा अपना कपड़ा पहनकर अपने घर की ओर भागता है जान लेकर। राजा मन में सोचता है-मंत्री बड़ा बुद्धिमान था, क्यों न उसको बुला लिया जाय। खबर देकर मन्त्री को बुला लिया जाता है। मन्त्री आ जाता है। राजा ने मन्त्री से जंगल की अपनी बीती घटना बतायी। मन्त्री के कहा-राजन्! मैंने तो पहले ही आपसे कहा था कि ईश्वर जो कुछ करते हैं, अच्छे के लिए करते हैं, लेकिन आपको मेरी बात अच्छी नहीं लगी। राजा ने पूछा-अच्छा, मेरे लिए तो भगवान् ने बहुत अच्छा किया कि मेरी अंगुलि कट गई तो मेरा गला बच गया। लेकिन तुम जो इतने दिनों तक घर में बैठै रहे, तुमको पैसे नहीं मिले, इससे तुम्हारा क्या लाभ हुआ? मन्त्री ने कहा-राजन्! आप जब शिकार खेलने जाते थे तो मुझे साथ में ले जाया करते थे। आप उस दिन भी मुझे साथ ले जाते, डकैतों से हम सब कोई घिर जाते, तो अंगुलि तो आपकी कटी थी, मेरी नहीं कटी थी। इसलिए गला तो मेरा ही कट जाता आपके बदले में। राजन्! जान है तो जहान है। इतने दिनों के पैसे ही न नहीं मिले। जीवन है, तो रुपये कमा लेंगे। राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने कहा कि वास्तव में तुम सही कह रहे हो। तुम बड़े ईश्वर-विश्वासी और सन्तोषी हो। मन्त्री जितने दिनों घर में बैठे थे, राजा ने उतने दिनों के सभी पैसे दे दिए। मन्त्री ने कहा-राजन्! देखिये, काम तो कुछ किया नहीं और दाम पूरा मिल गया।
तो वे ईश्वर हमारी रक्षा करते हैं। उन ईश्वर को हम स्वरूपतः जान लें, तो हमारा परम कल्याण हो जायगा। अब ईश्वर को हम कैसे जानेंगे, कैसे पहचानेंगे, अब कल के सत्संग में आप लोग सुनेंगे।
बोलिए प्रेम से श्रीसद्गुरु महाराज की जय!
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 16-02-1992 ई0 को अखिल भारतीय संतमत- सत्संग के 81वें वार्षिक महाधिवेशन चित्रकूट (भगवान् श्रीराम की पावन तपोभूमि) के प्रमोदवन में अपराह्नकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जुलाई 1993 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
घड़ी में बज गए पूरे दस, इसीलिए प्रवचन होना चाहिए बस; लेकिन लोग नहीं हो रहे हैं, टस-से-मस; क्योंकि मिल रहा है, उनको सत्संग का रस।
इस समय सत्संग का विषय है-संतमत की साधना। वक्ताओं से तत्संबंध में आपलोगों ने विशद व्याख्याएँ सुनीं। अब इतनी व्याख्या के बाद कहने के लिए क्या रह गया, मैं यह सोचने में लग गया हूँ।
संतमत की साधना में ध्यान की प्रधानता है। जब ध्यान की बात आ गई, तो ध्यान की बातों को जब ध्यान देकर सुनेंगे, तभी ध्यान में रहेंगी। आपका ध्यान कहीं अलग रहेगा और ध्यान की बात सुनना चाहेंगे, तो ध्यान की बात ध्यान में नहीं रहेगी। दैनिक जीवन में ध्यान शब्द का व्यवहार हम विविध रूपों में करते हैं। किसी कार्यवश कोई कलकत्ता जा रहे हैं, तो हम कहते हैं कि भाई आप कलकत्ता जा रहे हैं, तो मेरे अमुक काम का ध्यान रखना। लौटकर वे आते हैं और हम पूछते हैं-‘कहो भाई! मेरा काम हुआ?’ वे उत्तर देते हैं-‘क्या करें, ध्यान से उतर गया।’ बच्चों को हम कहते हैं-‘ध्यान से पढ़ो।’ यह ध्यान क्या है? ध्यान एकाग्रता के लिए व्यवहृत हुआ है। अन्तस्साधना में ध्यान का सातवाँ स्थान है। योग के आठ अंग हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
हमलोग जिसे ध्यान कहते हैं, अरबी, फारसी में उसी को ‘मराकवा’ और अंग्रेजी में मेडिटेशन (Meditation ) कहते हैं। अंग्रेजी में इसकी परिभाषा इस प्रकार दी गई है- All attentions without any tension are Meditation. हमलोगों के यहाँ वैदिक धर्मशास्त्र का उद्घोष है-‘ध्यानं शून्यगतं मनः।’ ज्ञान संकलिनी तंत्र कहता है-
“ न ध्यानं ध्यानमित्याहुर्ध्यानं शून्यगतं मनः ।
तस्य ध्यानप्रसादेन सौख्यं मोक्षं न संशयः ।।”
ध्यान को ध्यान नहीं कहते, शून्यगत मन को ही ध्यान कहते हैं। इस ध्यान से सुख मिलता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
कुछ लोग कहते हैं कि ध्यान करने के लिए बैठता हूँ, पर मन नहीं लगता है। साधनारंभ में सबकी स्थिति यही होती है। संत दादू दयाल जी महाराज आश्वासन देते हैं-
“ सब काहू को होत है, तन मन पसरै जाइ ।
ऐसा कोई एक है, उल्टा माहिं समाइ ।।”
वे कहते-तुम्हारी ही यह गति नहीं है, सबकी ऐसी ही गति होती है कि ध्यान में बैठने पर मन भागने लगता है; लेकिन ऐसा कोई विरले होता है, जो मन को समेटकर अंतर की ओर उलटता है, वह बहिर्मुख से अन्तर्मुख होता है।
‘क्यों करि उल्टा आणिये पसरि गया मन फेरि।’
साधक कहते हैं-हम मन को अंतर्मुख तो करते हैं, पर फिर भाग जाता है, तब क्या करें?
संत दादू दयालजी महाराज कहते हैं-
‘दादू डोरि सहज की यौं आणै घेरि घेरि।’
जिस तरह से आकाश में पतंग उड़ती रहती है और लटेर आदमी के हाथ में रहता है। लटेर अगर हाथ में है और धागा उसमें बँधा है, तो पतंग कभी-न- कभी आएगी ही। लटेर ही छूट गया या धागा ही टूट गया, तो पतंग भी लूट गयी।
मन भाग गया, तो क्या करोगे, उसे छोड़ दोगे? छोड़ो मत। जहाँ भाग गया है, वहाँ से तोड़ो और अपने लक्ष्य में जोड़ो। इसी का नाम है-प्रत्याहार। पहले प्रत्याहार होता है, पश्चात् धारणा, तत्पश्चात् ध्यान और अंत में समाधि। प्रत्याहार=प्रति+आहार। जैसे कोई भावना मन में उठे, तुरत उसको आहार कर जाओ, निगल जाओे। अगर तुम उसको नहीं निगलते हो, तो वही तुमको निगल जाएगा। प्रत्याहार में हार मत जाओ। हमारे गुरुदेव का आदेश है-
“ जहँ-जहँ मन भगि जाइ, ताहि तहँ-तहँ से तत्छन।
फेरि-फेरि ले आइ, लगाइय ध्येय में आपन।।
ऐसेहि करि प्रतिहार, धारणा धारण करिके।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ औरो आगे बढ़िय,
चढ़िय धर धारा धरिके।।”
गुरुदेव ने कितना सुंदर शब्द ‘तत्छण’ का प्रयोग किया है। मन को यदि तत्क्षण समेट लेंगे, तो आगे बढ़ने में देर नहीं लगेगी। अन्यथा मन कहाँ-कहाँ जाएगा और तुरत में क्या-क्या कर लेगा ठिकाना नहीं है। यह मन बहुत सूक्ष्म है, पर बड़ा शक्तिशाली है। संत पलटू साहब ने कहा है-
“ मन नहिं पकड़ा जाय, बहादुर ज्वान है ।
करत रहे खुरखुन्द, बड़ा शैतान है ।।”
इसको समेटने के लिए ध्यान है। किसी मंदिर में जाते हैं, तो पहले हम स्नान करके पवित्र हो जाते हैं; फिर मंदिर में प्रवेश करते हैं। अपवित्र शरीर से मंदिर में प्रवेश नहीं करते। इसी तरह ब्रह्माण्ड-रूपी मंदिर में प्रवेश करने के पहले मन को पवित्र करना पड़ेगा। बाहर के स्नान से हमारा शरीर पवित्र होता है; लेकिन हमारे भीतर जो मलीन मन है, इसकी पवित्रता कैसे होगी? शरीर पर या कपड़े पर मिट्टी लग जाती है, तो उसको हम पानी से साफ कर देते हैं। पानी अगर गंदा हो जाता है, उसको हम आग से साफ करते हैं। आग जब गंदी होती है, तो उसको हम हवा से साफ करते हैं और हवा भी जब गंदी होती है, तो उसे हम आकाश से साफ करते हैं। आप सोचेंगे कि मैं उल्टी बातें बोले जा रहा हूँ। अरे भाई! उल्टी नहीं, सुल्टी बातें हैं। मिट्टी लगी तो पानी से साफ कर दिया, मिट्टी साफ हो गई। गुरु महाराज के साथ ऐसी-ऐसी जगह हमलोग गए हैं, जहाँ का पानी पीने योग्य नहीं रहता था। जैसे नेपाल की तराई। पानी ऐसा सुंदर कि स्नान कीजिए और साधु बन जाइए-उजला वस्त्र भी गैरिक हो जाता था। वहाँ क्या करते थे? गुरु महाराज हमलोगों से पानी औंटवाते (खौलवाते) थे। खूब औंटकर तब उसको ठंढा करते थे। पानी की जो गंदगी थी, कुछ तो तैरने लगती थी और कुछ नीचे बैठ जाती थी। फिर उसे छानकर काम में लाते थे। इस तरह आग के द्वारा पानी साफ हुआ कि नहीं? उस तरफ (नेपाल में) एक बड़े अच्छे प्रचारक थे, लच्छन दासजी। वे कभी-कभी गुरु महाराज को नेपाल में प्रचार हेतु ले जाने के लिए आते थे। मैं लच्छन दासजी को कभी-कभी हँसी में कहता था-‘लच्छन दासजी! आप गुरु महाराज को ले जाने के लिए इतना परेशान क्यों होते हैं? हमलोग पहले से ही आपके यहाँ जाने के लिए तैयार हैं।’ वे कहते थे-‘आपलोग भागलपुर शहर के रहनेवाले हैं और हमलोग निट्ठाह देहात के। आपलोग वहाँ जाना क्यों पसंद करेंगे? आपलोग वहाँ थोड़े ही रह पाएँगे?’ मैं उत्तर देता-‘लच्छन दासजी! यह बात तो पूछिए मत। आप हमारे भागलपुर का दूध औंटियेगा, तो उसमें छाली (मलाई) नहीं मिलेगी, पर आपके यहाँ के पानी को औंटें, तो उसमें छाली मिलती है। आपके यहाँ के पानी का मुकाबला हमारे यहाँ का दूध नहीं कर सकता है, फिर आपके यहाँ नहीं जाएँ, तो भागलपुर में रहकर क्या करेंगे!’
आजकल तो गैस का जमाना है। पहले माई लोग लकड़ी या कोयले से चूल्हा जलाती थीं। जरूरत है आग की; लेकिन निकल रहा है धुआँ। अग्नि में गंदगी पैदा हो गई, तो उसे साफ करने के लिए हवा देते हैं। हवा देते-देते धुआँ हट जाती है और आग साफ हो जाती है। आग की जो गंदगी थी, वह हवा से साफ हो जाती है।
हमलोग कहीं बाहर जाते हैं, तो कभी- कभी दो-चार महीने के बाद लौटकर आते हैं। इतने दिनों तक खिड़कियाँ और दरवाजे बंद रहते हैं। लौटकर जब आते हैं, तो कमरे की हवा गंदी हो जाती है, कमरे से दुर्गंध आने लगती है। आते ही सर्वप्रथम हम सभी खिड़कियाँ- दरवाजे खोल देते हैं। बाहर-भीतर का आकाश एक हो जाता है। आकाश एक होने से हवा आपस में मिल जाती है और हवा की दुर्गंध समाप्त हो जाती है। इस तरह मिट्टी की सफाई जल से, जल की सफाई अग्नि से, अग्नि की सफाई हवा से और हवा की सफाई आकाश से हो गई। ठीक उसी तरह मन की सफाई सत्संग से और आत्मा की सफाई ध्यान से होती है।
ध्यान की परम्परा आज की नहीं है, यह प्राचीन काल से चली आ रही है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ध्यान करते थे। उन्होंने हनुमानजी को ध्यान करने का निर्देश दिया था। भगवान श्रीकृष्ण भी ध्यान करते थे। उन्होंने अर्जुन और उद्धवजी को ध्यान करने की क्रिया बतलाई। भगवान शिव स्वयं ध्यान करते थे और माता पार्वती को ध्यान करने का उपदेश देते थे। रामचरितमानस में आया है-
“ निशि प्रवेश मुनि आयसु दीना ।
सबहि संध्या वन्दन कीना ।।”
मुनि के आदेश से भगवान श्रीराम, लक्ष्मणजी आदि सभी संध्या-वंदन करते थे। वैदिक धर्म में त्रिकाल संध्या करने की परम्परा है-(1) ब्रह्म-मुहूर्त्त में, (2) दिन में स्नान के बाद और (3) सायंकाल। श्रीमद्भागवत में आया है-
“ ब्राह्मे मुहूर्ते उत्थाय वार्युपस्पृश्य माधवः ।
दध्यौ प्रसन्नकरण आत्मानं तमसः परम् ।।”
भगवान श्रीकृष्ण प्रतिदिन ब्रह्म-मुहूर्त्त में उठ जाते और हाथ-मुँह धोकर अपने आत्म-स्वरूप का ध्यान करने लग जाते। उस समय उनका रोम-रोम आनंद से खिल उठता था।
किसी समय जंगल में बैठकर शमीक मुनि ध्यान कर रहे थे। राजा परीक्षित शिकार खेलने के लिए जंगल गए। उन्होंने एक मरा हुआ साँप उनके गले में डाल दिया था। मुनि के एक शिष्य ने राजा को शाप दे दिया। यह कथा सर्वविदित है। स्वामी दयानंदजी महाराज ने त्रिकाल संध्या का आदेश दिया है। वे स्वयं भी त्रिकाल संध्या करते थे। आज यदि आर्य समाज के लोग त्रिकाल संध्या नहीं करें, तो स्वामी दयानंद के आदेशों का आदर कैसे हुआ? हमारे गुरुदेव त्रिकाल संध्या करते और सत्संगियों से करवाते थे। अगर संतमत-सत्संगी त्रिकाल संध्या नहीं करे, तो सत्संगी कैसा? हमारा धर्मग्रंथ वेद त्रिकाल संध्या करने का आदेश देता है। यदि हम त्रिकाल संध्या नहीं करें, तो हम वैदिक कैसे? रामचरितमानस बतलाता है कि काक- भुशुण्डिजी भी ध्यान-साधना करते थे।
“ आम छाँह करि मानस पूजा।
तजि हरिभजन काज नहिं दूजा ।।
पीपर तरु तर ध्यान सो धरई।
जाप यज्ञ पाक तर करई ।।”
वे जप-यज्ञ, मानस ध्यान और सूक्ष्म ध्यान करते थे। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि यज्ञों में जप-यज्ञ सर्वश्रेष्ठ है। जप के भी चार प्रकार हैं-वाचिक जप, श्वास जप, उपांशु जप और मानस जप। मानस जप सब जपों का राजा है। गुरुनाम का मानस जप यदि किया जाए, तो यह परम तप है और सब कार्यों को सिद्ध करनेवाला है। गुरुदेव कहते हैं-
‘गुरु जाप जपन साँचो तप, सकल काज सारनं।’
पहले मानस जप एकाग्रतापूर्वक करना चाहिए। जिस तरह से भवन बनाने के पहले नींव मजबूत करते हैं, अगर नींव मजबूत नहीं हो, तो भवन भव्य नहीं बन सकता, उसी तरह जप नींव है। जप का मंत्र लम्बा नहीं हो। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
“ मंत्र परम लघु जासु बस, विधि हरिहर सुर सर्व ।
महामत्त गजराज कहँ, बस कर अंकुश खर्व ।।”
हाथी बहुत बड़ा जानवर होता है; लेकिन उसको वश में करनेवाला अंकुश बहुत छोटा होता है। उसी तरह मन बड़ा ऐरावत हाथी है, उसको वश में करनेवाला अंकुश मंत्र है।
मंत्र का अर्थ है, मन को त्रण देनेवाला। मन अशांत है, बेचैन है, मंत्र जपते-जपते त्रण मिल जाता है, शांति मिल जाती है। जिसको शांति नहीं मिलती, वह मंत्र जप करके देख ले। कितना भी अशांत मन है, मंत्र जाप करने लग जाए, देखिए थोड़ी देर में उसको शांति मिल जाएगी। जप के बाद मानस ध्यान करना चाहिए। मानस ध्यान में इष्ट-रूप का मन से ध्यान किया जाता है। जिस इष्ट का नाम जपते हैं, उसी इष्ट के रूप का ध्यान भी करना चाहिए; क्योंकि जिस नाम का स्मरण करते हैं, उनका रूप हमारे सामने आना स्वाभाविक है।
हमारे चार बेटे हैं। उनमें जिस एक बेटे का नाम लेकर हम पुकारेंगे, उसी एक बेटे का रूप हमारे सामने आएगा, अन्य तीन का नहीं; लेकिन इष्ट रूप मानस पटल पर आएगा कैसे? हमारे हृदय में कैसा प्रेम है? हमारे पड़ोस का कुत्ता भी पहचानता है। रोटी लेकर तू-तू पुकारेंगे, तो कुत्ता हमारे पास पहुँच जाएगा और अगर लाठी लेकर पुकारेंगे, तो कुत्ता नहीं आएगा। जब एक मामूली कुत्ता हमारे हृदय के प्रेम को पहचानता है, तब जिस इष्ट का नाम लेकर हम पुकारते हैं, क्या उनमें क्षमता नहीं है कि हमारे हृदय के भावों को पहचान सके? अगर उनमें क्षमता नहीं है, तो हमारे इष्ट कैसे हैं! ‘श्रीरामकृष्ण परमहंसजी महाराज ने कहा-‘संतों की दृष्टि में आम लोगों का हृदय काँच की आलमारी की तरह होता है। जैसे काँच की आलमारी में रखी हुई चीज लोग बाहर से देख लेते हैं, उसी तरह संत जन लोगों के अंतःकरण की बातों को जान लेते हैं।’
किसी समय मुंगेर कॉलेज के प्रोफेसर श्रीशिवचन्द्र बाबू थे। कॉलेज के किसी कार्य विशेष से वे भागलपुर युनिवर्सिटी आए। उस समय वहाँ दिनकरजी टण्ब् (उपकुलपति) थे। कार्य हो गया, तो उनके मन में हुआ कि नजदीक में ही कुप्पाघाट है, क्यों नहीं वहाँ जाकर महर्षिजी (महर्षि मेँहीँ परमहंसजी) के दर्शन किया जाए; लेकिन जैसे ही उन्होंने जेब में हाथ डाला, तो देखा कि उतने पैसे नहीं हैं कि कुप्पाघाट जाकर फिर वहाँ से लौटकर मुंगेर पहुँच सकें। मन में क्षोभ हुआ कि इतने नजदीक आकर महर्षिजी के दर्शन नहीं कर सका। अब देखिए, गुरु महाराज की क्या प्रेरणा होती है?
दिनकरजी कहते हैं-‘शिवचन्द्र बाबू ! सुनने में आया है कि यहाँ से निकट ही कुप्पाघाट में एक बहुत बड़े संत रहते हैं। चला जाए, उनके दर्शन के लिए।’ इनके मन में तो था ही। कहा-‘हाँ, हाँ ! चला जाए। मैंने कई बार उनके दर्शन किए हैं। बड़े अच्छे संत हैं। इस बार भी मेरे मन में है कि उनके दर्शन किए जाएँ।’ दिनकरजी की गाड़ी में शिवचन्द्र बाबू भी बैठ गए। दिनकरजी पूछते हैं-‘अच्छा, शिवचन्द्र बाबू ! एक बात बतलाइए कि मैं यदि उनसे कुछ पूछूँगा, तो क्या वे उसका उत्तर देंगे ?’ उन्होंने उत्तर दिया-‘हाँ। वे बड़े सरल महात्मा हैं, जो आप पूछेंगे, वे उसका उत्तर जरूर देंगे।’ दिनकरजी ने कागज में क्रम-क्रम से सात प्रश्न लिखकर कहा-‘इन सातो के उत्तर उनसे लेने हैं।’ वहाँ से गाड़ी चली, दोनों सज्जन आश्रम में उतरे। गुरु महाराज के श्रीचरणों में प्रणाम निवेदित कर दोनों ने एक-दूसरे का परिचय दिया। करुणा-वरुणालय गुरुदेव ने उनलोगों को संकेत किया बैठने के लिए। वे लोग बैठ गए। कुशल-समाचार ज्ञात होने के उपरान्त उनकी जेब में लिखित प्रथम प्रश्न का उत्तर बिना पूछे ही गुरुदेव दे देने की कृपा करते हैं। जैसे ही प्रथम प्रश्न का उत्तर उनको मिला, वैसे ही वे आश्चर्यचकित होकर शिवचन्द्र बाबू की ओर देखने लगे। जब क्रम-क्रम से उनको सातो प्रश्नों के उत्तर बातचीत के क्रम में मिल गए, तब तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। वे कहने लगे कि वस्तुतः महर्षिजी हृदय की बात जानते हैं।
यदि मानस ध्यान एकाग्रता पूर्वक ठीक-ठीक किया जाय, तो मानस ध्यान करना आसान हो जाता है। मानस ध्यान में इष्ट का रूप हू-ब-हू सामने आना चाहिए। यह कैसे होगा? मन जब पवित्र रहेगा, तभी इष्ट रूप को देख सकेंगे। हमारे हृदय में अगर काम, क्रोधादि विकार हैं, तो इष्ट रूप सामने कैसे आएगा? हमलोग जूता पहनकर चलते हैं। जूते में अगर कंकड़ आ जाता है, तो तुरत जूता खोल देते हैं। कंकड़ निकालकर तब चलते हैं। हमारा पैर कंकड़ नहीं सह सकता है। जो हमारे प्रभु के चरण हैं, वे कितने कोमल से भी कोमल हैं और हमारे हृदय में काम, क्रोधादि के काँटे लगे हुए हैं। उसमें प्रभु कैसे आएँगे। इसलिए हृदय को पवित्र कर तब उन्हें पुकारिये।
आप कोयला खान में जाइए। वहाँ मजदूर लोग कोयला निकालते हैं, खान से निकालकर ट्रक पर लादते हैं। उन मजदूरों को यदि कोयला के पत्थर पर बैठने के लिए कहिए, तो वे मजे में बैठ जाएँगे; लेकिन उसी कोयलाखान के ऑफिस में जो बाबू काम करते हैं, उनको यदि वहाँ पर बैठने के लिए कहिए, तो वे नहीं बैठेंगे। जहाँ साफ कुर्सी होगी, वे उसी पर बैठेंगे। जो जिस तरह का होता है, उसके बैठने का आसन भी उसी तरह का होना चाहिए। हमारे हृदय में विकार भरा रहेगा, राग-रोष रहेंगे, ईर्ष्या-द्वेष रहेंगे, इतने काँटे भरे रहेंगे, तो क्या हम प्रभु को वहाँ बिठा सकते हैं? कभी नहीं बिठा सकते। अर्थात् मानस ध्यान कभी हो ही नहीं सकता। संत तुलसी साहब का वचन है-
“ दिल का हुजरा साफ कर, जाना के आने के लिए ।
ध्यान गैरों का उठा, उसको बिठाने के लिए।।”
और गोस्वामी तुलसीदासजी का वचन है-
“ पर-सुख सम्पति देखि सुनि, जरहिं जे जड़ बिनु आगि ।
तुलसी तिनके भाग तें, चलै भलाई भागि ।।”
मानस ध्यान स्थूल ध्यान है। उसके बाद सूक्ष्म ध्यान होता है। सूक्ष्म ध्यान के दो भेद हैं-रूप ध्यान और अरूप ध्यान। इसको दृष्टियोग और नादानु- संधान कहते हैं। इसकी चर्चा रामचरितमानस में इस प्रकार की गई है-
“ लोचन चातक जिन्ह करि राखे ।
रहहिँ दरस जलधर अभिलाखे ।।
निदरहि ँ सरित सिंधु-सर भारी ।
रूप-विन्दु-जल होहिँ सुखारी ।।
तिनके हृदय सदन सुखदायक ।
बसहु बन्धु सिय सह रघुनायक ।।”
चातक पक्षी स्वाती की बूँद पाने के लिए टकटकी लगाकर आसमान की ओर देखता है। उसी तरह गुरु-युक्ति द्वारा एकटक लगाकर अपने लक्ष्य की ओर देखो। अर्थात् अपने अंतर में देखने की कला जानकर देखो, यह दृष्टि साधन है। गुरु नानकदेव ने कहा है-
‘एक द्रिसटि करि समसरि जाणै जोगी कहिये सोई।’
दृष्टिधारों को सम कर एक करनेवाला ही योगी होता है। दृष्टिधारों को एक करने के लिए दृष्टि-साधन की क्रिया है, जिसके लिए आपलोगों ने पाठ में सुना-
‘उलटि देखो घट में ज्योति पसार।’
उलटने की बात बहिर्मुख से अन्तर्मुख होने की बात है, नौवीं द्वार से दशवीं द्वार में जाने की बात है। उलटिये का मतलब ये नहीं कि पैर ऊपर कर दीजिए और माथा नीचा कर दीजिए। अपनी वृत्ति को उलटिए। दृष्टि-साधन के द्वारा वृत्ति को उलटिए। इससे क्या होगा?
“ मुर्शिद नैनों बीच नबी है।
स्याह सफेद तिलों बिच तारा, अविगत अलख रवि है।”
जब कोई दृष्टि-साधन की क्रिया करते हैं, तो अवश्य ही पहले सियाह मालूम पड़ेगा, काला मालूम पड़ता है। फिर तारे और सूर्य दिखते हैं। संत तुलसी साहब कहते हैं-
“ तिल परमाने लगे कपाटा ।
मकर तार जहँ जीव का बाटा ।।
इतना भेद जाने जो कोई ।
तुलसीदास साध है सोई ।।”
तिल एक तेलहन होता है। वह काला भी होता है और उजला भी। काला तिल की मात्र अधिक मिलती है, जबकि उजले तिल की कम। उसी तरह अंतर में काला तिल देखनेवाले साधक अधिक होते हैं और उजला तिल देखनेवाले कम होते हैं। जो साधक साधना करते हैं, उन्हें पहले काला तिल मिलता है, पीछे उजला, फिर तारा मिलता है। जब तारा मिलता है, तो वह झनकारा भी सुनता है।
‘विन्दुपीठं विनिर्भिद्य नादलिंगमुपस्थितम् ।’
उपनिषद् कहता है कि जो अंतराकाश के अंधकार में दृष्टि को एकाग्र करते हैं, उनके सुरत का सिमटाव होता है और उन्हें एकविन्दुता प्राप्त होती है। तब ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ हो जाता है। साधक अंधकार से प्रकाश में चला जाता है, असत् से सत् में प्रतिष्ठित हो जाता है और मृत्यु से अमृतत्व लाभ करता है। जबतक तम मंडल में रहते हैं, तबतक यम मंडल में रहते हैं। जबतक हम तम के घेरे में हैं, तबतक यम के फेरे में हैं। अगर यम के घेरे से अपने आपको निकालना है, तो तम के घेरे से निकलो। जो तम के घेरे से अपने आपको निकाल लेता है, वह यम के घेरे से निकल जाता है। फिर जब उसका शरीर छूटता है, तो यम को कौन कहे, यम का लकड़नाना भी उसको नहीं पकड़ सकता। गुरु गोरखनाथजी महाराज कहते हैं-
“ काया हंस संगि ह्वै आवा ।
जाता जोगी किनहुँ न पावा ।।”
जिस समय संसार में जीव आता है, शरीर के साथ आता है और जब जाने लगता है, तो शरीर को छोड़कर जाता है। जोगी की ऐसी तेज गति होती है कि यम उसको पकड़ नहीं पाता है। यदि मेल एक्सप्रेस ट्रेन चली है और उसको पकड़ने के लिए माल ट्रेन चले, तो क्या उसे पकड़ लेगी? नहीं पकड़ सकेगी। उसी तरह जब योगी का जीव चलता है, तो यम पीछे रह जाता है; लेकिन-
“ एक तो अँधेरी कोठरी, तामे दिया न बाती हो।
बहियाँ पकड़ि यम ले चलै, कोई संग न साथी हो।।”
जब अंधकार मंडल में रहोगे, तो यम पकड़कर ले ही जाएगा। चाहे बातें कितनी ही लम्बी-चौड़ी बना लो, पर यम छोड़नेवाला नहीं है। वहाँ बचानेवाला कोई संगी-साथी भी नहीं मिलेगा।
“ वाक्य ज्ञान अत्यन्त निपुन, भव पार न पावइ कोई ।
निशि गृह-मध्य दीप की बातन्हि, तम निवृत्त नहिं होई ।।”
बातों से तम निवृत्त नहीं होता है, अंधकार का निवारण नहीं होता है। इसलिए अपने को अंधकार से प्रकाश में ले चलो। प्रकाश में शब्द मिलता है। शब्द में आकर्षण होता है, अपनी ओर खींचने का। अँधेरी रात है, एक जगह हम खड़े होकर ‘तू-तू’ कहकर कुत्ता को पुकारते हैं। कुत्ता हमारे पास आ जाता है। कैसे? हमारी आवाज सुनकर, उससे खिंचाते हुए वह हमारे पास आ जाता है। जब हमारी आवाज सुनकर कुत्ता हमारे पास आ जाता है, तो प्रभु परमात्मा की आवाज हमारे अंदर में होती है और उस आवाज को जब हम पकड़ेंगे, तो परम प्रभु परमात्मा के पास नहीं जाएँगे? लेकिन वह आवाज मिलेगी कहाँ पर-
“ क्यों भटकता फिर रहा तू ऐ तलाशे यार में ।
रास्ता शहरग में है दिलवर पै जाने के लिए ।।”
शहरग अर्थात् सुषुम्ना में परमात्मा के पास जाने का रास्ता है। वहाँ दृष्टि टिकाओ, तो परमात्मा की आवाज को सुनोगे। शब्द को कैसे सुनोगे-
“ गोश बातिन हो कुशादा जो करे कुछ दिन अमल ।
ला इला अल्लाह हो अकबर पै जाने के लिए ।।
यह सदा तुलसी की है आमिल अमल कर ध्यान दे ।
कुनकुराँ में है लिखा अल्लाह हो अकबर के लिए ।।”
सर्वश्रेष्ठ परमात्मा के पास जाना चाहते हैं, तो दृष्टि-साधन की क्रिया करो। इससे तुम्हारे भीतर के कान खुल जाएँगे। हमारे गुरुदेव कहते हैं-
“ दृष्टि योग अभ्यास अतिहि, करतहिं करत ।
कँपनी सहजहि छूटै, प्रौढ़ होवै सुरत।।
तिल दरवाजा टुटै, नजर के जोर से।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ लगे टकटकी
खूब जोर बरजोर से।।”
जिस तरह कोई दंड-बैठक करना शुरू करे, तो पहले उसकी जाँघें काँपती हैं और जब वह नित्य दंड-बैठक करना शुरू कर देता है, तब जाँघ मजबूत हो जाती है। उसी तरह दृष्टियोग अभ्यास जिस समय कोई करते हैं, तो पहले दृष्टि स्थिर नहीं रहती है, काँपती है, थरथराती है। अभ्यास करते-करते दृष्टि स्थिर हो जाती है। जब जोर-बरजोर से टकटकी लगाकर दृष्टियोग करेंगे, तो क्या होगा?
“ दोउ नैना बीच सन्मुख देख।
इक बिन्दु मिले दृष्टि दोउ रेख ।।
सुखमन झलकै तिल तारा।
निरख सुरत दशमी द्वारा ।।
जोति मंडल में अचरज जोत।
शब्द मंडल अनहद शब्द होत ।।”
दशमद्वार में प्रवेश करने पर ज्योतिर्मय तारों का दर्शन होगा। चन्द्र, सूर्यादि का अद्भुत प्रकाश देखने में आएगा। सांसारिक प्रकाश की तुलना आंतरिक प्रकाश से करते हुए हमारे गुरुदेव कहते हैं-तुम्हारे अंदर जो सूर्य का प्रकाश है, उसके सामने बाहरी सूर्य अंधकार सदृश है।
“ जा सन्मुख या सूर्य अमित अंधार है ।
ऐसो सूर्य महान चन्द हद पार है ।।”
सहस्त्रदलकमल में चन्द्र के दर्शन होंगे। आगे बढ़ो, त्रिकुटी में जाओ, तो सूर्य के दर्शन होंगे। उस सूर्य के दर्शन से तुम्हारे सारे विकार शांत हो जाएँगे। तुम्हारा मन जो छटपटाता है, उछल-कूद करता है, वह शांत हो जाएगा।
सासाराम कभी बंगाल में था। फरीद खाँ वहाँ का रहनेवाला था। बंगाल में बहुत शेर होते थे। एक दिन उन्होंने एक ही हाथ से तलवार की वार कर एक शेर को मार दिया। उस दिन से उसका नाम फरीद खाँ से शेर खाँ हो गया। पश्चात् वहाँ के नवाब की नवाबी दूर कर, उसे जीत कर खुद नवाब बन गया। जब हुमायूँ ने उसपर चढ़ाई कर दी, तो उसके साथ युद्ध कर राजधानी दिल्ली तक दखल कर लिया और अब उसने अपना नाम शेरशाह रख लिया। समझने की बात यह है कि एक शेर को मारनेवाला शेरशाह हो गया और चालीस सेर का एक मन होता है। जो इसपर विजय प्राप्त कर लेगा, वह क्या होगा? वह बादशाहों का बादशाह हो जाएगा।
बादशाह सिकन्दर के पिता के पास एक उम्दा घोड़ा था। उस घोड़े पर कोई चढ़ नहीं सकता था। स्वस्थ और सुन्दर घोड़े को देख एक दिन सिकन्दर ने घुड़साल के सेवकों से पूछा- ‘इस घोड़े पर कौन चढ़ता है?’ उनलोगों ने उत्तर दिया-‘इस घोड़े पर कोई नहीं चढ़ता है।’ फिर सिकन्दर ने पूछा-‘ऐसा क्यों?’ उसे उत्तर मिला-‘इस घोड़े की पीठ पर जब कोई चढ़ता है, तो घोड़ा जोर से उछाल देता है। किसी की टाँग टूटती है, तो किसी का हाथ। इसलिए कोई चढ़ नहीं पाता है।’ सिकन्दर बड़ा होशियार था। उसने घोड़े को ठीक से परखा और कहा-‘ठीक है, सूर्योदय के समय इस घोड़े को कसकर मेरे सामने लाना। मैं इसकी सवारी करूँगा।’ सूर्योदय का समय हुआ, घोड़े को कसकर सिकन्दर के सामने लाया गया। सिकन्दर ने घोड़े का मुँह पूर्व दिशा की ओर कर दिया और उसपर सवार हो गया। वस्तुतः घोड़ा अपनी छाया देखकर भड़क जाता था, पर उसकी इस आदत का किसी को पता नहीं था। सिकन्दर ने इसका पता लगा लिया था। इसलिए घोड़े का मुँह सूर्य की ओर कर देने से घोड़े की छाया पीछे पश्चिम चली गई और अपनी ही छाया नहीं देख पाने के कारण घोड़ा दौड़ता चला गया। इतने दिनों का दाने पर पला घोड़ा दौड़ते-दौड़ते पस्त हो गया, पसीना-पसीना हो गया। सिकन्दर ने घोड़ा रोक दिया। बैठकर आराम किया, भोजन किया। घोड़ा को भी दाना खिलाया। उसे तो लौटकर घर आना था। जब सूर्य पूरब से पश्चिम आ गया, तो उसने घोडे़ को पश्चिम मुँह कर दिया। फिर छाया पूरब चली गई और घोड़े को दौड़ाते हुए वह घर ले आया। एक ही दिन में घोड़ा पस्त हो गया। मेरे कहने का मतलब यह हुआ कि सिकन्दर का जो घोड़ा था, वह छाया देखकर भड़कता था, लेकिन हमलोगों का जो मन है, वह माया देखकर भड़कता है। जिस तरह सिकन्दर ने घोड़े को सूर्य की ओर मुँह कर दिया, तो घोड़ा शांत हो गया, उसी तरह हमलोग भी अपने मनरूपी घोड़े का मुँह आंतरिक सूर्य की ओर कर दें, तो वह भी शांत हो जाएगा। जहाँ आन्तरिक सूर्य के दर्शन होंगे, वहीं आन्तरिक ध्वनि भी सुनायी पड़ेगी।
‘बिन बाजे तहँ धुनि सब होवै, विगसि कमल कचनार ।’
वहाँ कोई बाजा नहीं है, फिर भी सभी बाजे बजते हैं। वृत्ति बहिर्मुखी होने के कारण हम उसे सुन नहीं पाते। ध्यान के द्वारा अंदर प्रवेश करने पर उसे सुनते हैं। संत कबीर साहब ने बड़ा अच्छा कहा-
“ यहि घट बाजै तबल निशान ।
बहिरा शबद सुनै नहिं कान ।।”
उस शब्द को सुनने के बाद क्या करेंगे? हमारे गुरुदेव कहते हैं कि पाँच तरह की नौबतें अंतर में बजती हैं, उन्हें सुनते हुए ऊपर चढ़ो।
“ बजती है पाँच नौबतें, सुनि एक-एक को ।
प्रति एक पै चढ़ि जाय के, निज नाह खोजना ।।”
आप देखिए, बाहर आकाश में काले- काले बादल मँडराते हैं, बिजलियाँ कड़कती हैं और मेघ गरजते हैं। उसी तरह जो कोई साधक साधना करते हैं, उनके अंदर काले-काले बादल मँडराते हैं। वहाँ गुरु-निर्देशित युक्ति से जब दृष्टि को टिकाते हैं, बिजली चमकती हैं और मेघ की गर्जना सुनाई पड़ती है।
‘सावन घटा घनघोर चहूँ दिसि आई है।’
-संत बुल्ला साहब
जब हल्की बिजली चमकी, तो आवाज भी हल्की मालूम पड़ती है। जब तेज बिजली चमकती है, तो कान पहले बंद कर लेते हैं कि बहुत जोर की आवाज होगी। जब तेज बिजली दिखाई पड़ती है, तो तेज आवाज मालूम पड़ती है। हमलोग जो कान से सुनते हैं, उसको शब्द कहते हैं और जिसको हम सुरत से सुनते हैं, उसको ‘स्वण’ कहते हैं।
“ शृण्वे वृष्टेरिव स्वनः पवमानस्य शुष्मिणः ।
चरन्ति विद्युतो दिवि ।।”
वृष्टेरिव स्वनः, जिस तरह बाहर में वर्षा होती है, उसी तरह अंतर में भी वर्षा होती है। बाहर में किसकी वर्षा होती है? पानी की वर्षा होती है।
“ झिमि झिमि बरसे अंम्रित धारा ।
मनु पिवै सुनि शबदु विचारा ।।
अनद विनोद करे दिन राति ।
सदा सदा हरि केला जीउ ।।”
अंतर में ज्योति और शब्द की वर्षा होती है। यही तो जीवन का आधार है। जबतक शरीर में ज्योति और नाद है, तबतक हमारा जीवन है। बिना ज्योति-नाद के यह शरीर बर्बाद है। जिस तरह से शरीर में ज्योति और नाद है, तो वह जीवित है, उसी तरह से जिस धर्म में ज्योति और नाद की उपासना है, वह धर्म जीवित है। जिस शरीर में ज्योति और नाद नहीं, वह मृतक है, उसी तरह जिस धर्म में ज्योति और नाद नहीं है, वह धर्म भी मृतक है। रामचरितमानस में आया है-
“ जबतें राम प्रताप खगेसा।
उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा ।।
पूरि प्रकाश रहेउ तिहुँ लोका।
बहुतेन्ह सुख बहुतेन्ह मन सोका ।।
जिन्हहिं सोक ते कहउँ बखानी।
प्रथम अविद्या निसा-नसानी ।।
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने।
काम क्रोध कैरब सकुचाने ।।
विविध कर्म गुण काल सुभाऊ।
ये चकोर सुख लहहिं न काऊ ।।
मत्सर मान मोह मद चोरा।
इन्ह कर हुनर न कबनिहु ओरा ।।”
जबतक हमारे अंदर अंधकार रहेगा, तबतक ‘मत्सर, मान, मोह, मद चोरा’ आदि विकार भी रहेंगे; लेकिन जब प्रकाश होगा, तब ‘इनकर हुनर न कवनिउ ओरा’-इनकी कलाबाजी नहीं चलेगी।
“ धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना ।
ये पंकज बिकसे बिधि नाना ।।
सुख सन्तोष बिराग बिवेका ।
बिगत सोक ये कोक अनेका ।।”
“ यह प्रताप रवि जाके, उर जब करइ प्रकाश ।
पिछले बाढ़हिं प्रथम जे, कहे ते पावहिं नास ।।”
सूर्य के प्रकाश में सारे विकार शांत हो जाएँगे और सद्गुणों का विकास होगा। जिस तरह से अग्नि जलती है, प्रकाश होता है और बहुत से फतिंगे जा-जाकर उसमें गिरते हैं, जलकर मरते हैं। उसी तरह जिसके अंदर वह प्रकाश होगा, उसके विकार रूपी सारे फतिंगे जलकर समाप्त हो जाएँगे। कोई कहे कि कैसे होगा? तो गुरुयुक्ति से करके देख लो। जो कोई आंतरिक प्रकाश पाते हैं, उन्हें वहाँ शब्द भी मिलता है। पहले स्थूल मंडल का शब्द मिलता है। उस शब्द को जो कोई पकड़ते हैं, वे खींचकर सूक्ष्म के केन्द्र पर पहुँच जाते हैं। सूक्ष्म के केन्द्र के शब्द को पकड़ते हैं, तो खींचकर कारण के केन्द्र पर पहुँचते हैं। कारण के केन्द्र के शब्द को पकड़कर महाकारण के केन्द्र पर पहुँचते हैं। अंत में कैवल्य के शब्द को पकड़कर परम प्रभु परमात्मा के पास पहुँच जाते हैं। अंतर में शब्द की धार है। जिस तरह से मकरी जाले के सहारे छत से नीचे चली आती है और उसी धागे को पकड़ती हुई पुनः छत पर चली जाती है। उसी तरह जिस शब्द-धार के सहारे जीव संसार में आया है, उसी शब्द-धार को पकड़ कर उलटते हुए वह संसार से पार हो जाएगा।
दूसरी बात यह कि शब्द में जो गुण होता है, सुननेवाले को उससे गुणान्वित करता है। हमलोग जब टी0वी0 देखते हैं, तो जब हँसने का प्रसंग आ जाता है, हमलोग ठठाकर हँस देते हैं। जब कारुणिक दृश्य हमारे सामने आ जाता है, तो हम भी रोने लग जाते हैं। टी0वी0 की कहानी से हमारा लेना-देना कुछ नहीं है, फिर भी हँसने-रोने लग जाते हैं। जब कोई हमारे पास हँसकर बोलता है, तो हम भी हँसकर बोलने लग जाते हैं। जब कोई आक्रोश में गाली-गलौज करता है, तो हम भी आक्रोश में आकर गाली-गलौैज करने लग जाते हैं। जो उनके मुँह से शब्द निकलता है, वह हमें गुणान्वित कर देता है। इसी तरह परमात्मा का शब्द हम तक आता है। जब हम उसे सुनेंगे, तो हममें किसका गुण आएगा? परमात्मा का गुण आएगा। परमात्मा तो सर्वव्यापक हैं, सर्वांतर्यामी हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वशक्तिमान हैं, इसलिए जो उनके शब्द (सार शब्द) को प्राप्त कर लेते हैं, वे उन्हीं समस्त गुणों से आभूषित हो जाते हैं। सर्व अंतर्यामी हो जाते हैं। यही संतमत की सार शिक्षा मैंने आपलोगों के सामने रखी।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अ0भा0 संतमत-सत्संग के 81वाँ महाधिवेशन के अवसर पर चित्रकूट में दिनांक 17-02-1992 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, मार्च 2009 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो !
गत कल जब मैं यहाँ आया था, तो आपलोगों कि संख्या बहुत कम थी और आज आपलोगों की उपस्थिति अच्छी देखकर मन प्रसन्न हो रहा है। चन्द्रमा जब पूर्ण रूप में उदय होता है अर्थात् सोलहो कला लेकर उदय होता है, तो प्रसन्नता के मारे सागर उससे मिलने के लिए उतावला हो जाता है। सागर चाहता है, चन्द्रमा का आलिंगन करने के लिए। इसलिए पूर्णिमा तिथि में उसमें ज्वार उठता है। लेकिन उसी पूर्ण चन्द्र को देखकर राहू को अच्छा नहीं लगता है। वह उसको ग्रसना चाहता है, आपलोगों ने अनेक बार देखा होगा कि जिस दिन शुद्ध पूर्णिमा कि रात होती है, तो चन्द्र-ग्रहण लग जाता है। इसी तरह कितने लोगों को दूसरे कि शुभ उन्नति अच्छी नहीं लगती है। जिनको सत्संग की उन्नति अच्छी नहीं लगती, वे सत्संग के राहू हैं।
मन का देव चन्द्रमा है। वास्तव में हमारा मन ही मलिन है। जब ध्यान करने के लिए बैठते हैं, तो मन में विविध बातें आती हैं। कुछ देर के लिए तो मालूम पड़ता है, जैसे चन्द्र-ग्रहण लग गया हो। यानी जब ग्रहण लगता है, तब कभी कुछ अंश में, कभी आधे भाग में और कभी तो ऐसा मालूम पड़ता है कि पूर्ण ग्रास हो गया, चन्द्रमा का पता ही नहीं रहता। थोड़ी ही देर के बाद पूर्ण प्रकाश हो जाता है। सूर्य के प्रकाश को बादल कितनी देर तक ढककर रख सकता है? सत्य का प्रकाश फैलेगा। हमारे मन का देव ‘चन्द्र’ है और हमारा मन अपवित्र है, इसलिए हम देव-दर्शन अर्थात् चन्द्र-दर्शन नहीं कर पाते हैं। यदि हमारा मन शुद्ध हो, आज्ञाचक्र से आगे सहस्त्रदल कमल में पहुँच सके, तो चन्द्र-दर्शन कर सकते हैं। संतों ने कहा-बाहर में चन्द्र तो देखते ही हैं, हमलोगों के अन्दर भी चन्द्र है।
“ यहि घट चन्दा यहि घट सूर
यहि घट बाजे अनहद तूर ।
यहि घट बाजे तबल निसान
बहिरा शब्द सुनै नहीं कान ।।”
-सन्त कबीर साहब
‘रवि ससि लउके तनु किंगुरी बाजै सबदु निरारी ।’
-गुरु नानक साहब
हमारे परम पूज्य गुरुदेव की वाणी में है-
‘चन्दा उगत उदय हो रविहू, धूर शब्द मिल जाता है ।’
जबतक हमारा मन मलिन, अपवित्र रहेगा, तबतक ये दिव्य दर्शन नहीं हो सकते। संत कबीर साहब ने मन की मलिनता के सम्बन्ध में कहा है-
“ मन जानै सब बात, जानि बुझै अवगुण करै ।
काहे की कुशलात, लै दीपक कुएँ पड़ै ।।”
क्या सत्य है, क्या असत्य है? क्या उचित है, क्या अनुचित है? क्या कर्तव्य है, क्या अकर्तव्य है? मन सारी बातों को जानता है; लेकिन जान-बूझकर अवगुण करता है। इसलिए कहा-‘लै दीपक कुएँ पड़ै।’ मन के विषय में शास्त्र कहता है-‘संकल्प विकल्पात्मको मनः।’
जो संकल्प-विकल्प करता है, वह मन है। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुकूल मन ग्यारहवीं इन्द्रिय है; यथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और भीतर की चार इन्द्रियों में एक ‘मन’ है। पश्चात् बुद्धि, चित्त और अहंकार है। हम जिस समय पूजा, ध्यान, जपादि करने के लिए बैठते हैं, उस समय मन को तो नहीं देखते हैं; लेकिन मन की गति से अवगत होते हैं।
एक वाइस प्रिंसपल बनमनखी कॅालेज में थे। वे गुरु महाराज से दीक्षित थे, एक दिन ये गुरुदेव के दर्शनार्थ सिकलीगढ़ धरहरा आए। गुरु महाराज अपने आसन पर आसीन थे। उन्होंने बड़ी नम्रतापूर्वक प्रणाम किया और थोड़ी दूर पर नीचे बैठ गये। कुशल समाचार के पश्चात् गुरुदेव ने उनसे पूछने की कृपा की। आपने तो भजन-भेद लिया है; भजन-ध्यान करते हैं न?
उक्त सज्जन ने उत्तर दिया- गुरुदेव! जिस समय मैंने भजन-भेद लिया था, उस समय कुछ दिनों तक ध्यानाभ्यास किया, उसके बाद मैंने छोड़ दिया।’ गुरुदेव पूछते हैं-‘छोड़ क्यों दिया?’ उन्होंने कहा-‘जब ऑफिस का कार्य करता हूँ अथवा बच्चों को पढ़ाता हूँ, उस समय तो मन उस ओर रहता है, दूसरी ओर नहीं जाता; किन्तु जब ध्यानाभ्यास करने के लिए बैठता हूँ, तो न जाने किस आदम जमाने की बात याद आने लगती है। मैंने सोचा कि ध्यान-भजन बनता ही नहीं, तो व्यर्थ का समय बर्बाद करने से क्या लाभ? इसलिए ध्यानाभ्यास करना छोड़ दिया।’
उनकी बातों को सुनने के पश्चात् गुरुदेव ने उनको समझाने की कृपा की। उन्होंने अपनी भूल स्वीकार कर नित्य भजन करने का वचन दिया। यह बात केवल उनके लिए ही नहीं, साधनारम्भ में प्रत्येक साधक के साथ होती है। संत दादू दयाल ने कहा-
“ सब काहू को होत है, तन मन पसरै जाय ।
ऐसा कोइ एक है, उलटा माहिं समाय ।।”
संत कबीर साहब कहते हैं-
“ जेति लहर समुद्र की, तेती मन की दौर ।
सहजे हीरा नीपजै, जो मन आवै ठौर ।।”
जिस तरह समुद्र में लहरें उठती हैं, उसी तरह मन में भी लहरें उठती हैं। समुद्र की उपरी सतह पर बहुत-सी सीपियाँ तैरती रहती हैं, उनमें जब किसी सीपी में स्वाति की बूँद पड़ जाती है, तो यह सीपी ऊपर में नहीं तैरती, समुद्र की नीची सतह में चली जाती है और वहाँ मोती बनाने का काम शुरू कर देती है। धीरे-धीरे मोती बन जाता है। उसी तरह जगत् के ऊपरी तल पर घूमनेवाले हम जैसे बहुत हैं; लेकिन गुरुदेव का ज्ञान पाकर मोती बनानेवाले बहुत कम है। यदि हम अपने को बहिर्मुख से अन्तर्मुख कर सकें, तो मोती बन जाएगा। फिर तो हम कबीर साहब की भाँति कहने लग जाएँगे-
“ मेरे नजर में मोती आया है ।
कोइ कहे हल्का कोई कहे भारी ,
दोनों भूल भूलाया है ।।”
मन की चंचलता से समुद्र लहर की उपमा देकर संत कबीर साहब को संतोष नहीं हुआ, तो वे कहते हैं-
“ समुद्र लहर तो थोड़िया, मन की लहरे घनिनाय ।
केतिक आय समाइहैं, केतिक जाय विसराय ।।”
विचार करें, हमलोगों के मन में आज सबेरे से कितनी लहरें आयी हैं, मन में कितनी बातें आयी हैं, कुछ बातें याद होंगी और बाकी बातें समाप्त। ऐसा होता क्यों है? संतों ने समझाने की चेष्टा की-देखिये साधना के आरम्भ में ऐसा होता ही है। निरंतर अभ्यास करते रहने से धीरे-धीरे प्रत्याहार होते-होते धारणा होती है और धारणा होते-होते तब ध्यान होता है । ध्यान तो योग का सातवाँ अंग है; यथा-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और आठवाँ है समाधि। मन का पसरना प्रायः सबसे होता है; लेकिन बहिर्मुख से अन्तर्मुख होना किन्हीं-किन्हीं से होता है। संध्या का समय मेरे टहलने का हो गया था, परम पूज्य गुरुदेवजी से आदेश प्राप्त कर मैं टहलने के लिए चला। उक्त वाइस प्रिंसिपल साहब ने मुझसे पूछा-‘आपके साथ मैं चल सकता हूँ?’ मैंने उत्तर दिया-‘मुझे कोई आपत्ति नहीं। प्रसन्नतापूर्वक मेरे साथ चल सकते हैं।’
सिकलीगढ़ धरहरा सत्संग मंदिर से दक्षिण आम का बगीचा है। जब उस बगीचे में हम दोनों पहुँचे, तो मैंने उनको बातचीत के क्रम में पूछा-‘आपने गुरुदेव से कैसे कह दिया कि ध्यानाभ्यास नहीं करता हूँ। आपके जैसे पढ़े-लिखे विद्वान यदि ध्यानाभ्यास नहीं करें, तो कौन करेंगे?’ उन्होंने बड़े ही सरल हृदय से उत्तर दिया कि देखिये, झूठ तो कभी नहीं बोलना चाहिए, फिर भी मौका पाकर कभी-कभी झूठ बोल भी देते हैं लोक व्यवहार में। परन्तु जब स्वयं गुरुदेव पूछते हैं, तो उनके सामने झूठ कैसे बोला जाय? इसलिए जो सच्ची बात थी, उनके सामने मैंने रख दी।’’ मैंने उनसे पूछा-‘आपने कभी साबुन से कपड़ा धोया है?’ उन्होंने उत्तर दिया-‘एक नहीं, अनेक बार धोया है।’ पुनः मैंने पूछा-‘जिस समय आप कपड़ा में साबुन देते हैं और खिंचते हैं, तो उससे कुछ निकलता भी है?’ उन्होंने उत्तर दिया-‘मैल निकलती है।’ मैंने पूछा-‘आप कपड़ा धोते हैं, उसको साफ करने के लिए और निकलती है मैल। यह तो उल्टी बात हो गयी!’ उन्होंने कहा-‘जबतक मैल निकलेगी नहीं, तो कपड़ा साफ होगा कैसे?’ मैंने कहा-‘उसी तरह आप जब ध्यानाभ्यास करने के लिए बैठते हैं और जपादि क्रिया का आरम्भ करते हैं, तो आपके भीतर जो पूर्व-कर्म-कृत मैल जमी हुई है, वह निकलती है। जबतक वह मैल नहीं निकलेगी, तबतक मन साफ होगा कैसे?’ परम पूज्य गुरुदेव की वाणी है-
“ जहँ-जहँ मन भगि जाय, ताहि तहँ-तहँ से तत्क्षण ।
फेरि-फेरि ले आइ, लगाइय ध्येय में आपन ।।
ऐसहि करि प्रतिहार, धारणा धारण करिके ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’, औरो आगे बढ़िय,
चढ़िय धर धारा धरिके ।।”
जैसे मन भागे, उसी समय तुरन्त समेटकर ध्येय में लगाइये। उस व्यायाम में थकिये नहीं। मन का भागना और उसको समेटना प्रत्याहार है। बहुत बार प्रत्याहार होते-होते जब अल्प टिकाव होता है, उसी को कहते हैं धारणा और वही धारणा जब देर तक होने लग जाती है, तब उसकी संज्ञा ध्यान की हो जाती है। संत पलटू साहब ने कहा है-
“ मन नहीं पकड़ा जाय, बहादुर ज्वान है ।
करत रहै खुरखुन्द बड़ा शैतान है ।।
ऐसा यार हरीफ बसै इस हलक में ।
अरे हाँ रे पलटू उड़ता कोस हजार
पंख बिन पलक में ।।”
मन एक ऐसा पक्षी ह,ै जिसको पर नहीं परन्तु पल भर में ही, हजार कोश उड़कर चला जाता है और चला आता भी है। मन के संबंध में सुन्दर दासजी महाराज के संबंध में आया है-
“ पल ही में मरी जाय, पल ही में जीवत है ।
पल ही में पर हाथ देखत बिकानो है ।।
पल ही में फिरत नवखण्डहू ब्रह्मांड सब ।
देख्यो अनदेख्यो सो तो या तो नहीं छानो है ।।
जातो नहीं जानियत आवतो न दीसै कछु ।
ऐसो बलाय अब तासो परयो पानो है ।।
सुन्दर कहत याकी गतिहू न लखि पड़ै ।
मन की प्रतीत कोउ करै सो दिवानो है ।।”
यह मन तुरत ही आपकी अधीनता स्वीकार कर लेगा और तुरत ही सिर पर सवार हो जाएगा। मौका पाने की देर हो सकती है; किन्तु इसके बदलने में देर नहीं होती है।
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
‘सुनिय गुनिय समझिय समझाइय दशा हृदय नहिं आवै ।’
हम सुनते हैं, गुनते भी हैं और दस बात दूसरों को समझा भी देते हैं; लेकिन जैसा हम समझा देते हैं, वैसी दशा हमारी नहीं हो पाती, क्यों? इसलिए कि हम अपने को श्रवण, अध्ययन और मनन तक ही सीमित कर लेते हैं। उसके बाद निदिध्यासन कर अनुभव ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते हैं। विचारणीय विषय है बैल, घोड़ा, गदहा आदि जानवर अपनी पीठ पर ज्ञान की पुस्तक ढो सकता है; लेकिन ज्ञान की एक भी बात बोल नहीं सकते है। अज्ञानी ज्ञान की बहुत-सी बातों को ढो सकता है यानी बोल सकता है; लेकिन उसको आचरण में उतार नहीं सकता है। वास्तव में जो विद्वान है, वे बोलते भी हैं और जीवन में उतारते भी हैं। इसलिए कहा गया है बोलना जितना सहज है, आचरण में उतारना उतना ही कठिन है।
यदि संत सद्गुरु से सद्युक्ति प्राप्त कर सदाचार समन्वित हो नित्य साधना करें, तो उसमें अदभुत आनन्द की अनुभूति होगी। योगीवर पंचानन भट्टाचार्य अपनी अनुभूति की बातें बताते हैं।
“ आनन्दे आनन्द बाड़े प्रतिक्षण ,
दशेन्द्रिय थाके शून्य ते बन्धन ।
रिपुचय पराजय सकलि आनन्दमय ,
अनुभव मात्र रय आर सब पाय लय ,
जेमन जीवने जीवन थाके ना ।।”
गो0 स्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
“ ब्रह्म पीयूष मधुर शीतल, जो पै मन सो रस पावै ।
तो कत मृग जल रूप, विषय कारण निशिवासर धावै ।।”
हमारे गुरुदेव कहते हैं-‘सुखमन के झीनानाल से अमृत की धारा बहि रही’। अपने मन को सुषुम्ना में प्रतिष्ठित करो, दशम द्वार में प्रवेश कराओ; वहाँ अमृत रस मिलेगा, तब यह मन वश में होगा। जबतक दशवें द्वार में मन नहीं जाएगा, तबतक मन वश में नहीं आएगा। सहजोबाई ने कहा-
“ भया जी हरिरस पी मतवारा ।
आठ पहर झूमत ही बीते, डारि दियो सब भारा ।।
इड़ा पिंगला ऊपर पहुँचे, सुखमन पाट उघारा ।
पीवन लगे सुधा रस जबहीं, दुर्जन पड़ी बिडारा ।।
गंग जमुन बिच आसन मार्यो, चमक चमक चमकारा ।
भँवर गुफा में दृढ़ ह्वै बैठे, देख्यो अधिक उजारा ।।
चित स्थिर चंचल मन थाका, पाँचो का बल हारा ।
चरनदास किरपा सूँ सहजो, भरम करम भयो छारा ।।”
यह होगा कैसे? तो मुक्तिकोपनिषद् में भगवान राम ने हनुमान जी को उपदेश दिया है-
“ एकतत्त्वदृढाभ्यासाद्यावन्न विजितं मनः ।। 40।।
प्रक्षीणचित्तदर्पस्य निगृहीतेन्द्रियद्विषः।
पद्मिन्य इव हेमन्ते क्षीयन्ते भोगवासनाः।। 41।।”
भावार्थ-जबतक मन नहीं जीता गया हो, तबतक एक तत्त्व के दृढ़ अभ्यास से चित्त एवं अहंकार को पूर्ण रूप से नष्ट करके इन्द्रिय शत्रु को निग्रह करना। ऐसा होने से हेमन्तकाल के कमल-सदृश भोग-वासना का नाश हो जायगा।।
“ अंकुशेन विना मत्तो यथा दुष्टमतंगजः ।
अध्यात्मविद्याधिगमः साधुसंगतिरेव च ।। 44।।
वासना संपरित्यागः प्राणस्पन्दनिरोधनम् ।
एतास्ता युक्तयः पुष्टाः सन्ति चित्तजये किल ।। 45।।”
अर्थ- जैसे बिना अंकुश के दुष्ट मस्त हाथी वश नहीं होता, वैसे ही अध्यात्म-विद्या की शिक्षा, साधु-संग, वासना-परित्याग तथा प्राणस्पन्दन-निरोध के बिना चित्त नहीं जीता जाता। ये सब चित्त के जय करने के प्रधान उपाय हैं ।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन गोड्डा जिला संतमत सत्संग के 45वें वार्षिक अधिवेशन के सुअवसर पर ग्राम सुरनी में दिनांक 31-3-1992 अपराह्णकालीन सत्संग में हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, मार्च 1999 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
जब हमें वकील साहब से भेंट होती है, तो मामले, मुकदमे और कचहरी की याद आती है। जब डॉक्टर साहब से भेंट होती है, तब रोग, दवाई, अस्पताल की याद आती है; जब हमें प्रोफेसर साहब से भेंट होती है, तो पाठ्य पुस्तक और महाविद्यालय की याद आती है; जब मौलाना साहब से भेंट होती है, तो नमाज, कुरान और मस्जिद की याद आती है; जब पंडितजी से भेंट होती है, तब पूजा, पाठ और पुराणों की बात याद आती है; लेकिन जब साधु-संतों के दर्शन होते हैं, तब कौन-सी बात याद आती है? संत कबीर साहब कहते हैं-
“ कबीर दर्शन साधु के, साहब आवैं याद ।
लेखा की याही घड़ी, बाकी के दिन बाद ।।”
जब साधु-संतों के दर्शन होते हैं, तो प्रभु की याद आती है। प्रभु के दरबार में उसी घड़ी की गिनती है, जिस घड़ी हमें साधु-संतों के दर्शन होते हैं। बाकी के दिन बाद समझिए अर्थात् बर्बाद समझिए। साधु-संतों के दर्शन से प्रभु की याद क्यों आती है? संत कबीर साहब ने कहा है-
“ परम पुरुष की आरसी, संतों की ही देह ।
लखा जो चाहे अलख को, इनहीं में लखि लेह ।।”
जैसे अपने चेहरे को आइने में देखते हैं, उसी तरह संतों की जो देह है, वह परम पुरुष का आईना है।
सत्पुरुष के सम्पर्क में आकर हमारा कल्याण होता है। जिस तरह रेलगाड़ी चलती है और चलते-चलते कभी-कभी इंजन लौह लीक को छोड़ देता है, नीचे गिर जाता है। सैकड़ों आदमी मिलकर चाहें कि पटरी पर ला दें, संभव नहीं होता; लेकिन एक क्रेन आता है, वह उसको पकड़कर सीधे लौह लीक पर रख देता है। पुनः पूर्ववत् वह गाड़ी खींचने लग जाता है। उसी तरह पतित को पावन करनेवाला है तो सत्संग। अपावन को पावन करनेवाले संत होते हैं, साधु होते हैं, सत्संग होता है।
गो0 तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
“ जब द्रवहिं दीन दयाल राघव, साधु संगति पाइये ।
जेहि दरस परस समागमादिक, पाप राशि नसाइये ।।
जिनके मिले सुख दुख समान, अमानतादिक गुण भये ।
मद मोह लोभ विषाद क्रोध, सुबोध तें सहजे गये ।।”
जब परम प्रभु परमात्मा की अनुकम्पा होती है, तब साधु-सन्तों के दर्शन होते हैं। उनके दर्शन से, स्पर्शन से और समागमादिक से पापराशि का नाश होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ‘आदिक’ शब्द के द्वारा कहना चाहते हैं कि वे संत कुछ करने के लिए भी कहेंगे। हम कुछ करेंगे, तब ‘पाप राशि नसाइये’ होगा।
वे क्या करने के लिए बतलाएँगे? वे ध्यान करने के लिए बतलाएँगे। जब हम ध्यान करेंगे, तब पाप का नाश होगा। इसके लिए संत-समागम की अनिवार्य आवश्यकता है।
भगवान शंकर पार्वतीजी से कहते हैं-
“ गिरिजा सन्त समागम, सम न लाभ कछु आन ।
बिनु हरि कृपा न होय सो, गावहिं वेद पुरान ।।”
संतों के समागम के समान और कोई लाभ नहीं है। कागभुशुण्डिजी ने कहा था-
“ नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं ।
सन्त मिलन सम सुख कछु नाहीं ।।”
संतों की संगति, सत्य की संगति ही सत्संग है। सत्य की परिभाषा भगवान श्रीकृष्ण ने इस तरह बतलायी है-
‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।’
(गीता, 2/16)
जो सत्य है, वह त्रय काल अबाधित है या उसका अस्तित्व है। जो असत्य है, उसका अस्तित्व नहीं है।
सत्य था, है और रहेगा। अपरिवर्तनशील पदार्थ सत्य है। गोपीचन्द भरथरी का नाम आपलोगों ने सुना होगा। गोपीचन्द के मन में जब वैराग्य हुआ, तो वे घर छोड़कर चले गए साधु-संतों की संगति में। संतों की खोज में जाते-जाते एक दिन संत सद्गुरु के पास पहुँचते हैं। वे आदेश देते हैं-‘जाओ, अपनी माताजी से भिक्षा माँग लाओ।’ वे जाते हैं अपनी माताजी से भिक्षा माँगने के लिए। उनकी माताजी कोई सामान्य नारी नहीं थीं, योग में पहुँची हुई थीं। वे कहती हैं-‘स्वादिष्ट भोजन करना, मुलायम बिछावन पर सोना और मजबूत गढ़ के अन्दर रहना। जाओ, तुमको यही भिक्षा देती हूँ।’
गोपीचन्दजी ने कहा-‘माताजी! आपके इन तीनों उपदेशों में से एक भी मेरे लिए सम्भव नहीं है। राज-पाट, घर-द्वार सब छोड़ चुका हूँ। अब स्वादिष्ट भोजन कहाँ? मुलायम शय्या कहाँ और गढ़ में रहना कहाँ?’ उनकी माताजी ने कहा-‘बेटा! तुमने मेरी शिक्षा का अर्थ समझा नहीं। जब खूब भूख लगे, तब रूखा-फीका जो मिल जाएगा, वही स्वादिष्ट भोजन होगा। जब तुमको भूख नहीं लगी रहेगी, तो उत्तम-से-उत्तम भोजन भी फीका लगेगा। इसलिए जब खूब भूख लगे, तब भोजन करना। जब खूब नींद आ जाए, तब जहाँ सोओगे, वही मुलायम शय्या हो जाएगा और सत्संग ही मजबूत गढ़ है, उसमें अपने को रखो।’
‘सत्संग गढ़ में वास हो, भव पाश क्या करे।’
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
दुनिया क्या है? असत्य है। सत्य क्या है? परम प्रभु परमात्मा। हाथरस के संत तुलसी साहब ने कहा है-
“ सत सुरत समझि सिहार साधौ निरखि नित नैनन रहौ ।
धुनि धधक धीर गंभीर मुरली मरम मन मारग गहौ ।।”
यह सुरत-जीवात्मा सत्य है। इसकी सँभाल करते रहो। इसकी सँभाल क्या है?
“ सुरत फँसी संसार में, ताते पड़िगा दूर ।
सुरत बाँधि सुस्थिर करो, आठो पहर हुजूर ।।”
सुरत संसार में फँस गयी है, इसका सिमटाव करो। वृत्ति का जो बिखराव हो गया है, उसका एकत्रीकरण करो। सिमटाव करके इसको प्रभु से मिलाओ। सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। किसी चीज का जब सिमटाव होता है, तो उसकी ऊर्ध्वगति हो जाती है। यह जीव संसार में फँसा हुआ है, इसकी वृत्ति को समेटो- ऊर्ध्वगति करो। बहिर्मुख से अन्तर्मुख करो, अंधकार से प्रकाश में करो, प्रकाश से शब्द में करो और शब्द से ‘निःशब्द परमं पदम्’ में जाकर मिला दो। यह जीव सत्य है और परम प्रभु परमात्मा भी सत्य है। इस जीव का जब उस पीव-परमात्मा से मिलन होगा, तभी असली सत्संग होगा।
सत्य का सत्य से संग ही सत्संग है; लेकिन यह बड़ी ऊँची बात है। इतनी ऊँची बात है कि इससे ऊँची बात हो ही नहीं सकती। जबतक जीव का पीव से मिलन नहीं हो जाता, तबतक जिस सत्पुरुष का जीव उस पीव से मिल चुका है, उसका संग करो। जो जीव पीव को पा लेता है, तो फिर उसकी संज्ञा जीव की नहीं रह जाती। उसी तरह जो महापुरुष साधना करके अपने को परम प्रभु परमात्मा से मिला लेते हैं, वे परम प्रभु परमात्मा के स्वरूप हो जाते हैं। उनका संग करो। जिस तरह से कोई नदी जाकर समुद्र में मिल जाती है, तो फिर उसकी संज्ञा नदी की नहीं रह जाती, समुद्र की हो जाती है, उसी तरह जो जीवात्मा परमात्मा से मिल जाता है, जीवात्मा उसकी संज्ञा नहीं रह जाती। जिन्होंने इसकी साधना की है, परमात्मा का साक्षात्कार किया है, वैसे अनुभवी पुरुष का संग करो। गोस्वामीजी ने लिखा है-
“ सोइ जानहि जेहि देहु जनाई ।
जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ।।”
जो प्रभु को पाते हैं, वे प्रभु ही हो जाते हैं; लेकिन ऐसे सत्पुरुष का सत्संग भी सदा सुलभ नहीं है, दुर्लभ है। इनके वचन का संग भी सत्संग कहलाता है। इसीलिए गो0 तुलसीदासजी ने कहा है-
“ सठ सुधरहिं सतसंगति पाई ।
पारस परस कुधातु सुहाई ।।”
“ कदली सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुण तीन ।
जैसी संगति बैठिए, तैसी ही फल दीन ।।”
केले के वृक्ष में स्वाति की बूँद पड़ती है, तो वहाँ वह कर्पूर हो जाती है। सीपी में जब स्वाति बूँद पड़ती है, तो वहाँ वह मोती हो जाती है। साँप के मुँह में यदि वह बूँद पड़ जाती है, तो वह मणि का रूप धारण करती है। बाँस में वह बूँद पड़ जाने पर वंशलोचन हो जाती है। हाथी के मुँह में पड़ने से गजमुक्ता हो जाती है। स्वातिबूँद एक ही है; लेकिन स्थान-भेद से गुण-भेद हो जाता है। उसी तरह यह जीव सुजन का सत्संग करेगा, तो सज्जन बन जाएगा और दुर्जन का संग करेगा, तो दुर्जन बन जाएगा।
कोई अपनी हानि नहीं चाहते हैं, सब कोई अपना लाभ-ही-लाभ चाहते हैं, तो हानि कहाँ होती है, इसको जानिये।
गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
“ हानि कुसंग सुसंगति लाहू ।
लोकहू बेद विदित सब काहू ।।”
कुसंग से हानि होती है और सुसंग से लाभ होता है। यह लोक और वेद-सबमें प्रसिद्ध है। उपमा देकर वे समझाते हैं-
“ गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा ।
कीचहिं मिलइ नीच जल संगा ।।”
जो धूल सबके पैरों के नीचे रहती है, वही जब पवन का प्रसंग करती है, तो वह गगनगामिनी हो जाती है। पुनः वही धूल जब जल का संग करती है, तो कीचड़ में मिल जाती है। इसी तरह जो सज्जन का संग करते हैं-सत्संग करते हैं, तो साधना में चलते-चलते परम प्रभु परमात्मा तक पहुँच जाते हैं। इतनी ऊँचाई में चले जाते हैं कि परमात्म-स्वरूप को प्राप्त करके परमात्मा ही हो जाते हैं; लेकिन कुसंग प्राप्त करके पता नहीं, पाताल-रसातल कहाँ-कहाँ चले जाएँगे, चौरासी लाख योनियों में चले जाएँगे, जिनके दुःखों का कोई ठिकाना नहीं।
“ धूम कुसंगति कारिख होई ।
लिखिय पुरान मंजु मसि सोई ।।”
शुक-सारिका यानी तोता-मैना सुसंग पाकर राम-राम जपते हैं और कुसंग पाकर गालियाँ बकते हैं। इसलिए सत्संग की बड़ी बड़ाई है। यह सत्संग क्या है? गोस्वामीजी कहते हैं-
“ देहि सत्संग निज अंग श्रीरंग
भव भंग कारण शरण शोकहारी ।।”
यह सत्संग श्रीरंग का निज अंग है, जो भवभंग का कारण और शोक का निवारण करनेवाला है। भगवान श्रीराम को लंका जाने के लिए समुद्र में नल और नील पुल बना रहे थे। बन्दर-भालू सब-के-सब सामान लाकर देते थे। नल-नील उसको पानी पर रखते थे। बड़े-बड़े पहाड़ों और बड़े-बड़े वृक्षों को वे पानी पर रखते थे, वे पहाड़ और वृक्ष सब-के-सब पानी पर तैरते रहते थे, डूबते नहीं थे। यह देखकर बन्दर और भालुओं को बड़ा आश्चर्य हुआ। उनलोगों ने भगवान श्रीराम से जाकर कहा- ‘भगवन्! बड़े-बड़े पहाड़ों और वृक्षों को ला-लाकर हमलोग नल-नील को देते हैं। नल-नील उन वृक्षों और पहाड़ों को समुद्र की सतह पर रखते हैं; किन्तु वे पहाड़ और वृक्ष पानी के नीचे नहीं जाकर ऊपर-ही-ऊपर तैरते रहते हैं। क्या करामात है? प्रभु! बड़ा आश्चर्य है। पानी पर वृक्ष-पहाड़, पत्थर सभी स्थिर रह रहे हैं, डूबते नहीं।’ भगवान लीलाधारी हैं। उन्होंने अपनी माया फैलायी और कौतूहलपूर्वक पूछा-‘क्या जी, बात सच है?’ बन्दर-भालुओं ने कहा-‘जी हाँ, हमलोग तो देखकर आए हैं। हमलोग तो पहाड़, पत्थर, वृक्ष आदि लाकर देते ही हैं। बिल्कुल सत्य है।’ भगवान कहते हैं-‘अच्छा, चलो तो मैं भी देखूँ।’ चलते हैं भगवान देखने के लिए। वहाँ जाकर देखते हैं कि बन्दर-भालूगण बड़े-बड़े वृक्षों, पहाड़ों, पत्थरों को ला-लाकर नल-नील को देते हैं। वे दोनों उन वृक्षों, पहाड़ों को रखते जाते हैं; लेकिन वे डूब नहीं रहे हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम पूछते हैं-‘नल-नील! क्या बात है कि इतने-इतने वजन के पहाड़, पत्थर आदि पानी पर स्थिर रह रहे हैं?’ नल-नील ने कहा-‘भगवन्! यह तो आपकी महिमा है।’ भगवान श्रीराम ने कहा-‘जब मेरी महिमा से पत्थर तैर रहे हैं, तो मैं जो पत्थर रखूँगा, वह पानी पर रहेगा न?’ उन्होंने कहा-‘भगवन्! हाथ कंगन को आरसी क्या? एक पत्थर लेकर जल पर रख दिया जाय।’ किसी बन्दर ने भगवान के हाथ में पत्थर का एक छोटा-सा टुकड़ा रख दिया। पत्थर के उस टुकड़े को भगवान जैसे ही पानी की सतह पर रखते हैं, वैसे ही वह गड़गड़ाकर पानी के नीचे चला जाता है। भगवान ने कहा-‘नल-नील! तुमलोग कहते थे कि मेरी महिमा से ये पत्थर पानी पर स्थिर हैं, तो मेरे हाथ से छोड़ा हुआ पत्थर का टुकड़ा पाताल कैसे चला गया?’ नल-नील ने श्लेष भाषा में उत्तर देते हुए कहा-‘भगवन्! यह पत्थर तो जड़ है। आपके हाथ से यदि चेतन ब्रह्मा भी छूट जाएँ, तो वे किस रसातल को चले जाएँगे, ठिकाना नहीं।’ यह सत्संग क्या है? प्रभु का निज अंग है। सत्संग को जो कोई छोड़ देता है, वह प्रभु के अंग को छोड़ता है। वह किस रसातल को जाएगा, क्या ठिकाना? इसलिए सत्संग की अनिवार्य आवश्यकता है। कबीर साहब कहते हैं-
“ कबीर संगति साधु की, ज्यों गंधी का वास ।
जो कुछ गंधी दे नहीं, तौं भी वास सुवास ।।”
आप गंधी की दुकान पर जाइये-इत्र बेचनेवाले की दुकान पर जाइये। वह इत्र का फाहा आपको नहीं भी दे, तो भी आपको उस दुकान से स्वाभाविक ही सुंगधि आएगी। उसी तरह संत-महात्मा के पास जाइये। संत-महात्मा कुछ नहीं भी बोलें, फिर भी उनकी नैसर्गिक आभा आपमें प्रवेश करेगी और आपमें परिवर्तन लाएगी।
इंग्लैंड से पॉल ब्रन्टन नामक व्यक्ति भारत आए थे संतों की खोज में। खोजने-ढूँढ़ने पर उनकी दृष्टि में भारत में कोई संत नहीं मिले। वे लौटकर चले जा रहे थे। जहाज का टिकट कटाकर जहाज पर बैठ चुके थे। एकाएक क्या प्रेरणा होती है कि वे जहाज से उतर जाते हैं। अरुणाचल में महर्षि रमण के आश्रम चले जाते हैं। महर्षि रमण अद्भुत संत थे। महर्षिजी ने उनको देखा; लेकिन कुछ बोले नहीं। वे रहते-रहते उस आश्रम में कई महीने रह गए। फिर जो प्रभावित हुए, तो गये अपने देश और उन्होंने एक पुस्तक लिखी ‘गुप्त भारत की खोज।’ उसमें उन्होंने महर्षि रमण की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
गुरु-भक्तिन सहजोबाई अपने गुरु के पास गईं और प्रणाम करके एक ओर बैठ गयीं। संत चरणदासजी महाराज ने उनको देखकर अपनी आँखें बंद कर लीं। हमलोग अपने गुरु महाराज के पास जाएँ और हमलोगों को देखकर वे अपनी आँखें बंद कर लें, तो हमलोग क्या समझेंगे? यही कि हमारे गुरु महाराज हमसे रुष्ट हैं। हमारी ओर देखना भी नहीं चाहते हैं; लेकिन सहजोबाई क्या कहती हैं, सुनिये-
“ सहजो गुरु परसन्न ह्वै, मूँद लियो दोउ नैन ।
फिर मोसूँ ऐसे कह्यो, समुझि लेहु यह सैन ।।”
‘खग जाने खग ही की भाषा’ की भाँति यह एक इशारा है, संकेत है। हम साधु-संतों के निकट जाएँ, तो एक चित्त होकर उनकी ओर निहारते रहें। वे कुछ बोलें तो मनोयोगपूर्वक श्रवण कर उसका आचरण करें। हमारा परम कल्याण होगा। साधु-संतों का संग करके हम निवृत्ति-मार्ग पकड़कर परमात्मा तक पहुँच जाएँगे। आवागमन का चक्र छूट जाएगा। संत पलटू साहब ने कहा-
“ साध महातम बड़ा है जैसो हरि यस होय ।।
जैसो हरि यस होय ताहि को गरहन कीजै ।
तन मन धन सब वारि चरन पर तेकरे दीजै ।।
नाम से उत्पति राम संत अनाम समाने ।
सबसे बड़ा अनाम नाम की महिमा जाने ।।
संत बोलते ब्रह्म चरन के पिये पखारन ।
बड़ा महा परसाद सीत संतन कर छाड़न ।।
पलटू संत न होवते नाम न जानत कोय ।
साध महातम बड़ा है जैसो हरि यस होय ।।”
हम सत्संग करें और सदाचार का पालन करते हुए नित्य नियमित रूप से साधना भी करते रहें। शाश्वत सुख और शान्ति मिलेगी।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन कलकत्ता नगर संतमत-सत्संग समिति के छठे वार्षिक अधिवेशन के अवसर पर बिनानी धर्मशाला में दिनांक 04-04-1992 ई0 को
प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, मई 1994 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
विद्वज्जन का कथन है-बिना कारण के कार्य नहीं होता। आज यहाँ इतने लोगों का समूह जो यत्र-तत्र से एकत्र हुआ है, इसका क्या कारण है? इसका कारण है-हमलोग प्रातः स्मरणीय परम पूज्य अनंत श्रीविभूषित श्रीसद्गुरु महाराज की 108वीं जयन्ती मनाने के लिए समवेत हुए हैं।
जिस प्रकार सरोवर में समय-समय पर सरसिज समुत्पन्न होकर स्वसौरभ से संसार को सुरभित करता है, उसी प्रकार समय-समय पर संतजन इस जगती-तल पर अवतीर्ण होकर अपने ज्ञानालोक से जगत् को आलोकित करते रहे हैं। उन्हीं संतों की परम्परा में हमारे परम पूज्य गुरुदेवजी थे। गो0 तुलसीदासजी ने कहा है-
“ संत उदय संतत सुखकारी ।
विश्व सुखद जिमि इन्दु तमारी ।।”
जिस तरह चन्द्र और सूर्य विश्व-कल्याण के लिए उदित होते हैं, उसी प्रकार संतों का उदय जगन्मंगल के लिए हुआ करता है। हमारे गुरुदेव कितने ऊँचे थे, उनकी तपस्या कितनी ऊँची थी, वे कितने महान् थे, उनका बखान हम साधारण जन नहीं कर सकते।
जयन्ती हर एक की नहीं मनायी जाती। जिन्होंने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य; इन षट् विकारों पर विजय पायी है, उनकी जयन्ती मनायी जाती है। जो अपने पर विजय प्राप्त किये हुए होते हैं, वे षट् विकारों के शिकार नहीं होते; षट्विकार उनके अधिकार में होते हैं। ऐसे संत सद्गुरु की जयन्ती मनाने के लिए हमलोग आए हुए हैं। ज्ञातव्य है, गुरुदेव के यशगान को केवल इस कान से सुनकर उस कान से निकाल दें अथवा मुख से उनकी महिमा विभूति का वर्णन कर अन्यों को सुना दें; इतने में ही उनकी जयन्ती मनायी नहीं जाती। उनकी जयन्ती सही रूप में हम तभी मना सकते हैं, जब हम उनके बताए उपदेश के परिवेश में अपने को रखकर जीवन में उतार सकेंगे। किसी ने कहा है-‘मूर्ख ज्ञान की बातें कर सकता है; किन्तु उसका आचरण नहीं करता।’ ज्ञानवान्-विद्वान् जैसा कहते हैं, वैसा करते भी हैं। उनके वचन और आचरण में भिन्नता नहीं रहती। जो संत सद्गुरु-वचन के अनुकूल आचरण करते हैं यानी संत सद्गुरु-वचन को जीवन में उतारते हैं, वे सामान्य मानव नहीं, मानव-तन में रहते हुए देव हैं। देव ही नहीं, निरंजन हैं।
ऐसे थे हमारे गुरुदेव। उन्होंने हमलोगों को क्या सिखलाया? सर्वधर्म-समन्वय सिखलाया। कोई धर्म श्रेय और कोई धर्म हेय नहीं, बल्कि सभी उपादेय हैं। उन्होंने सबलोगों को सीख दी-जो जिस धर्म को माननेवाले हैं, वे अपने धर्म के मूल को देखें; मूल को पहचानें। अगर मूल में भूल रही, तो उसके फूल और फल कैसे होंगे? फिर तो उससे भवशूल नहीं छूट सकता। इसलिए सर्वधर्मसमन्वय-मत संतमत है। इस मत में आप ईसाई को पाएँगे, इस्लाम को पाएँगे, जैन को पाएँगे, बौद्ध को पाएँगे, शैव को पाएँगे। आर्यसमाजी, वैष्णव आदि विविध धर्मावलंबियों को आप संतमत में पाएँगे।
हमारे गुरुदेव की साधना कितनी ऊँची थी कि विदेश गये नहीं; लेकिन विदेशों में इनका ज्ञान-प्रचार हो गया। विदेश के लोग यहाँ आकर इनका ज्ञान लेकर अपने देश को लौटे। साधना कितनी ऊँची थी कि रहते कहाँ थे, देखते कहाँ थे। 1991 ई0 के अक्टूबर में मेरा सत्संग-कार्यक्रम मुंगेर में था। प्रातःकालीन सत्संग स्थानीय सत्संग मंदिर में होता था और अपराह्णकालीन सत्संग वहाँ के राजाजी की ठाकुरबाड़ी में होता थ। अपराह्णकाल के सत्संग में काफी भीड़ रहती थी। उसमें एक प्रोफेसर साहब आये हुए थे, जिनका नाम था श्रीशिवचन्द्र बाबू। वे दीक्षित तो नहीं हैं, लेकिन गुरु महाराज के प्रति श्रद्धा रखते हैं। बहुत अच्छे सज्जन हैं। मैंने कहा-‘प्रो0 साहब! सत्संग में आप भी कुछ कहिए।’ उन्होंने अपने प्रवचन के क्रम में गुरुदेव-संबंधित एक आप-बीती बात बतायी। वे कॉलेज के काम से भागलपुर विश्वविद्यालय आये हुए थे। जिस कार्य से आए हुए थे, वह कार्य पूरा हो गया। उनके मन में हुआ कि निकट में कुप्पाघाट में महर्षिजी विराजते हैं, क्यों न वहाँ जाकर उनके दर्शन कर लूँ। लेकिन जब अपनी जेब में वे हाथ डालते हैं, तो देखते हैं कि उतने पैसे उनके पास नहीं हैं, जितने में वे कुप्पाघाट जाकर मुंगेर वापस आ सकें। मन में संत-दर्शन की तीव्र उत्कण्ठा है; लेकिन अभाव के कारण लाचारी है। अब देखिए आश्चर्य। गुरु महाराज की क्या मौज होती है। उस समय उपकुलपति (अपबम-बींदबमससवत) थे राष्ट्रकवि दिनकरजी। उनके मन में प्रेरणा होती है। वे कहते हैं-‘शिवचन्द्र बाबू! सुनते हैं कि कुप्पाघाट में एक बड़े महात्मा रहते हैं, तो वहाँ चलकर उनके दर्शन क्यों न किये जाएँ।’ वे तो यही चाहते ही थे। कहते हैं-‘हाँ, हाँ, चला जाय न, मेरी भी इच्छा है उनके दर्शन करने की।’ उपकुलपति महोदय की गाड़ी थी। उसी में वे दोनों बैठ गये। चलते समय उपकुलपति महोदय प्रोफेसर शिवचन्द्र बाबू से कहते हैं कि ‘वे इतने बड़े महात्मा हैं, तो मैं जो पूछूँगा, उसका वे उत्तर देंगे न?’ शिवचन्द्र बाबू कहते हैं-‘क्यों नहीं? वे पहुँचे हुए, बहुत बड़े संत हैं।’ उपकुलपति महोदय ने कहा-‘1, 2, 3, 4, 5, 6, 7; इन सातो प्रश्नों को पूछूँगा। देखूँ, वे क्या उत्तर देते हैं।’ उपकुलपति महोदय और प्रोफेसर साहब दोनों सज्जन कुप्पाघाट आश्रम पधारे। उस समय परम पूज्य गुरुदेवजी बैठे हुए थे। दोनों सज्जनों ने परम पूज्य गुरुदेव को प्रणाम कर अपना-अपना परिचय दिया। गुरुदेव का आदेश पाकर दोनों सज्जन बैठ गए। कुशल समाचार हुआ। कुलपति महोदय की जेब में लिखे हुए सात प्रश्न वैसे ही थे, जैसे गरुड़जी के मन में काकभुशुण्डिजी से पूछने के सात प्रश्न थे। विचारणीय विषय है कि गरुड़जी को तो काकभुशुण्डिजी से पूछना भी पड़ा था। लेकिन गुरु महाराज की ऐसी महिमा कि अपनी अंतर्यामिता के कारण आपने उनके सातो प्रश्नों के उत्तर बिना कुछ पूछे ही दे दिये। उनके प्रश्न उनकी जेब में ही पड़े रहे। इन प्रश्नों के उत्तर भी कैसे? क्रमबद्धता के साथ। (श्रोतागण की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)। इस प्रकार की अनेक घटनाएँ हैं, जिनकी चर्चा समयाभाव के कारण संभव नहीं। वे कितने महान् थे, कौन बता सकते हैं? उन्होंने मुझे पाला-पोसा, लिखाया-पढ़ाया, शिक्षा-दीक्षा दी। 1939 ई0 में उनके संपर्क में मैं आया। जैसे कुम्हार मिट्टी को थोप-थापकर बर्तन बनाता है, उसी प्रकार गुरुदेव ने मुझे ठोंक-ठाककर गढ़ने की कृपा की। आपने अपनी अंतर्दृष्टि से मेरे भावी जीवन को देखा और अपनी दूरदर्शिता के आधार पर दो प्रकार की दस्तावेज लिखकर रजिस्ट्री कर दी। प्रथम दस्तावेज में उन्होंने लिखने की कृपा की- “ हमारी सारी चल तथा अचल सम्पत्ति के ये उत्तराधिकारी होंगे। और दूसरी दस्तावेज में उन्होंने लिखा कि ये हमारे भावी उत्तराधिकारी होंगे और मेरा कोई दूसरा उत्तराधिकारी नहीं है; क्योंकि मैं अन्य किसी और को उत्तराधिकारी नहीं मानता हूँ।” (श्रोताओं की ओर से गुरु महाराज की गगनभेदी जय-ध्वनि)।
आपने उपदेश दिया-सबके ईश्वर एक हैं। ईश्वर तक जाने का रास्ता एक है। अन्य सभी स्थूल सगुण साकार उपासनाएँ उस रास्ते को पकड़ाने के लिए सहायक हैं। ईश्वर क्या है, उसको पाने के रास्ते का आरंभ कहाँ से होता है, उस रास्ते पर कौन चलेगा, उस प्रभु को कौन पाएगा आदि सारी बातें आपने बतलायीं, मार्ग-दर्शन दिया। ईश्वर-स्वरूपतः अनंत है। जो अनंत है, वह कहाँ नहीं है? अर्थात् सर्वत्र है। जबकि वह सर्वत्र है, तो हमारे अंदर भी है। जो हमारे अंदर है और हम भी अपने अंदर हैं, तो उस ईश्वर को खोजने के लिए कहाँ जाएँगे? मुण्डकोपनिषद् में बड़ा अच्छा कहा है-
“ एक वृक्ष पै दो पक्षी
अति सख्य भाव से थे रहते ।
खाते एक फल को थे
और एक बिना खाये हँसते ।।”
एक वृक्ष है, उसपर दो पक्षी बैठे हुए हैं। एक कर्ता है, भोक्ता है। दूसरा द्रष्टा। जो भोक्ता है, वह रोता है। जो द्रष्टा है, वह हँसता है। वह द्रष्टा कौन है? वह परम प्रभु परमात्मा है। भोक्ता कौन है? वह जीवात्मा है। शरीररूपी वृक्ष पर परमात्मा और जीवात्मारूपी दोनों पक्षी बैठे हैं। कौन चलेगा? कहाँ से चलेगा? जो जहाँ बैठा रहता है, वह वहीं से चलेगा। जीव पीव से मिलने के लिए जाएगा। वह नयनाकाश के अंधकार मंडल में रहता है। यहाँ से ही यात्र का आरंभ होगा। हमारे गुरुदेव के वचन में आया है-
“ तम प्रकाश अरु शब्द निःशब्द की कोठरी ।
चारो कोठरिया अहइ अंतर घट कोटरी ।।
तू उतरि पर्यो तम माहिं, पीव निःशब्द में ।
यहि ते पड़ि गयो दूर चलो निःशब्द में ।।”
आँख बंद कर देखिए-कहाँ हैं? अंधकार मालूम पड़ता है। इसी अंधकार में जीव है। रात कितनी बड़ी क्यों न हो, उसका कभी-न-कभी अंत होगा और दिन का आरंभ होगा। हमारे यहाँ तो 24 घंटे के दिन-रात होते हैं। उत्तरी ध्रुव में छह महीने का दिन और छह महीने की रात होती है। लेकिन उनका भी अंत होता है। उसी प्रकार हमारे अंदर जो अंधकार है, वह कितना ही बड़ा क्यों न हो, चलते रहेंगे, तो उसका भी एक-न-एक दिन अंत होगा और प्रकाश का उदय होगा। प्रकाश में पहुँचने पर क्या मिलेगा? शब्द मिलेगा; क्योंकि शब्द का मंडल है ऊपर में। ऊपर के मंडल का शब्द नीचे प्रकाश में आता है और उससे फिर अंधकार मंडल में भी आता है। लेकिन जिस शब्द को पकड़कर प्रभु के पास हमें जाना है, वह अंधकार में नहीं मिलेगा, प्रकाश में मिलेगा। वहाँ से केन्द्रीय शब्द को पकड़कर आगे बढ़ना होगा। इसलिए संतमत में ‘विन्दु-ध्यान विधि, नाद-ध्यान विधि, सरल सरल जग में परचारी’ की घोषणा है।
सूक्ष्मता में प्रवेश करने के लिए विन्दु-ध्यान है। लेकिन जबतक मोटे अक्षरों को हम नहीं लिख लेते, महीन अक्षर लिखने की योग्यता नहीं होती, उसी तरह मोटी उपासना जबतक नहीं कर लेते, सूक्ष्म-महीन उपासना की योग्यता नहीं होती। अतएव पहले मानस जप, तब मानस ध्यान करें। इससे कुछ मन का सिमटाव होता है। फिर दृष्टि-साधन करके पूर्ण सिमटाव होता है, पूर्ण सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। तब अंधकार से प्रकाश में प्रवेश कर जाते हैं और वहाँ पर उस मंडल के केन्द्रीय नाद का अवलंब लेकर उससे ऊपर के केन्द्रीय नाद को ग्रहण करते हैं। इस प्रकार क्रम-क्रम से ऊपर के नादों का ग्रहण और नीचे के नाद का त्याग होता है।
“ बजती है पाँच नौबतें, सुनि एक एक को ।
प्रति एक पै चढ़ि जाय के, निज नाह खोजना ।।”
अपने अंदर पाँच नौबते हैं। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ पाँचो नौबत बाजती, होत छतीसो राग ।
सो मंदिर खाली पड़ा, बैठन लागे काग ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज भी कहते हैं-
‘पंच सबदु धुनिकार धुनि तह बाजे सबदु निसाणु ।’
वह शब्द पहले स्थूल के केन्द्र पर पकड़ा जाता है। फिर सूक्ष्म के केन्द्र पर पकड़ा जाता है; क्योंकि ऊपर का शब्द नीचे दूर तक आता है। सूक्ष्म के केन्द्र का शब्द कारण के केन्द्र पर ले जाता है। कारण से महाकारण और महाकारण से कैवल्य के केन्द्र पर जाना होता है। यहाँ जड़ के सारे आवरण झड़ जाते हैं, कैवल्य दशा प्राप्त हो जाती है। ‘अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। संत पुरान निगम आगम वद।।’ ऐसा गोस्वामीजी ने कहा है। जीव उस शब्द को पकड़ लेता है। वही शब्द जीवात्मा को परम प्रभु परमात्मा से जाकर मिला देता है। जो शब्द जीवात्मा को परमात्मा से मिलाता है, वह है स्फोट, उद्गीथ, ॐ, प्रणव आदि। वह आदिशब्द है वाचक और परम प्रभु परमात्मा है वाच्य। जो उस वाचक को ग्रहण करता है, वह वाच्य को भी ग्रहण कर लेता है।
इस प्रकार अंधकार से प्रकाश, प्रकाश से शब्द और शब्द से ‘निःशब्दं परमं पदम्’ में जाकर यह जीव और पीव-दोनों मिलकर एक हो जाते हैं। तब आवागमन के चक्र में वह जीव नहीं पड़ता। दैहिक, दैविक, भौतिक-इन त्रितापों से जो मानव संतप्त होता रहता है, उससे सदा के लिए वह मुक्त हो जाता है। इसके लिए हमारे गुरु महाराज बतलाते हैं-
“ सत्संग नित अरु ध्यान नित, रहिये करत संलग्न हो ।
व्यभिचार चोरी नशा हिंसा, झूठ तजना चाहिए ।।”
गुरु नानक साहब कहते हैं-
“ सूचै भाड़ै साचु समावै बिरले सूचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुम्हारी ।।”
पवित्र बर्तन में सत्य अँटता है। परम प्रभु परमात्मा सत्य है। जबतक हमारा हृदय पवित्र नहीं होगा, उस सत्य स्वरूपी परमात्मा को ग्रहण करने की क्षमता हममें नहीं होगी। पवित्र बनने के लिए पंच पापों से बचना आवश्यक है। हमारे गुरुदेव कहा करते थे-ईश्वर-भक्ति के साथ सदाचार का वैसा ही संबंध है, जैसे फ़ के साथ न् का संबंध है। जितनी मात्र में हम हृदय से पवित्र होते जाएँगे, अंतमार्ग पर उतनी ही मात्र में बढ़ पाएँगे। जितनी मात्र में हम अंतर्मार्ग पर चलेंगे, हमारा हृदय उतना ही अधिक पवित्र होगा। पवित्र आचरण से रहने में मजबूती आती जाएगी।
ईश्वर-भक्ति के लिए कोई प्रतिबंध नहीं है कि कौन करे और कौन नहीं करे। धनी करे या निर्धन करे। पढ़ा-लिखा करे या अनपढ़ करे। हमारे गुरुदेवजी ने तो अपने उपदेश-वाक्य में सरल भाव में कह देने की कृपा की है-
‘जितने मनुष तन धारि हैं, प्रभु भक्ति कर सकते सभी।’
स्वावलंबी जीवन बिताओ। स्वावलंबी जीवन- यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करो। यह उनका उपदेश है। यदि हमलोग अपने को उनके उपदेश और आदेश के परिवेश में रख सकेंगे, तो हमलोगों का भवक्लेश निःशेष होगा। यह सुनिश्चित है। इन कतिपय शब्दों के साथ मैं परमाराध्य गुरुदेवजी के श्रीचरणों में अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है! बोलिये श्रीसद्गुरु महाराज की जय!
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की 108वीं जयन्ती के सुअवसर पर दिनांक 15-5-1992 ई0 के सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जून अंक 1993)

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श्रद्धास्पद, पूजनीय महात्मागणों के चरणों में प्रणाम!
विद्वानों का कथन है-‘बिना कारण के कार्य नहीं होता। आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है।’ यहाँ इस विशाल आयोजन को देखकर स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि इसकी आवश्यकता क्या? अथवा यत्र-तत्र से इतने दर्शनार्थियों की उपस्थिति होने का कारण क्या? उत्तर में निवेदन है-आज अक्षर पुरुषोत्तम संस्था द्वारा यह आयोजन किया गया है-पूजनीय योगीजी महाराज का शताब्दी-समारोह मनाने हेतु।
‘न क्षरति इति अक्षरः।’ अक्षर अर्थात् जिसका कभी नाश नहीं होता।
‘अक्षरं परमो नादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते।’
(योगशिखोपनिषद्)
‘जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्माति वर्त्तते।’
(गीता)
श्रीमद्भगवद्गीता में तीन पुरुषों की चर्चा आयी है-क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष और पुरुषोत्तम। श्रीमद्भगवद् गीता, अ0 15, श्लोक 16-17 तक पुरुषोत्तम की चर्चा आयी है। पुरुषोत्तम=जो पुरुषों में उत्तम हो। श्रीगीताजी में क्षर पुरुष के परे अक्षर पुरुष और उसके भी परे जो है, उसको पुरुषोत्तम कहा गया है। उक्त संस्था द्वारा किए गए इस आयोजन से मुझे प्रसन्नता हो रही है। खासकर इतने संत-महात्मा लोग जो पधारे हुए हैं, इनके दर्शन करके मैं अपने को सौभाग्यशाली मानता हूँ। श्रीयोगीजी महाराज की जयंती मनाई जा रही है। यह ‘योगी’ शब्द बहुत ऊँचा है। श्रीमद्भगवद्-गीता के छठे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने तपस्वी, ज्ञानी और सकाम कर्म करनेवालों से भी योगी को श्रेष्ठ बताकर अर्जुन को योगी बनने की प्रेरणा दी है।
“ तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ।।46।।”
अर्थात् योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, ज्ञानियों से भी श्रेष्ठ है और कर्मकांडियों से भी श्रेष्ठ है। इसलिए हे अर्जुन! तुम योगी बनो।
योगी किनको कहते हैं? इस संबंध में गुरु नानकदेवजी ने इस प्रकार कहा है-
“ जोगु न खिंथा जोग न डंडै जोगु न भसम चड़ाईअै ।
जोगु न मुंदी मूंडि मूड़ाइअै जोग न सिंञी वाईअै ।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै ।।
गली जोगु न होई ।
एक द्रिसटि करि समसरि जाणै जोगी कहीअै सोई ।।
जोग न बाहरि मड़ी मसाणी जोग न ताड़ी लाईअै ।
जोगु न देसि दिसंतरि भविअै जोग न तीरथि नाईअै ।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै ।।
सतिगुरु भेटै ता सहसा तूटै धावतु वरजि रहाईअै ।
निझरु झरै सहज धुनि लागै घर ही परचा पाईअै ।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै ।।
नानक जीवतिआ मरि रहीअै अैसा जोगु कमाईअै ।
बाजे बाझहु सिंञी बाजे तउ निरभउ पदु पाईअै ।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै ।।”
गोस्वामी तुलसीदासजी ने योगी के ये लक्षण बतलाए हैं-
“ मोह निसा सब सोवनिहारा ।
देखहिं सपन अनेक प्रकारा ।।
यहि जग जामिनी जागहिं योगी ।
परमारथी प्रपञ्च वियोगी ।।”
हमारे पूज्य योगीजी महाराज योग में कुशल थे; पारंगत थे और योगी के समस्त गुणों से युक्त थे। योग की विविध परिभाषाएँ हैं; यथा-
‘चित्तवृत्तिनिरोधः इति योगः।’
(पातंजलयोग)
चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहते हैं-
‘योगः कर्मसु कौशलम्।’ (गीता)
‘समत्वं योग उच्यते।’ (गीता)
और गुरु नानकदेवजी महाराज ने दृष्टि को एक करनेवाले को योगी की संज्ञा दी है। दृष्टिधारों को एकत्र करने का तात्पर्य क्या है, उद्देश्य क्या है? उत्तर में निवेदन है-
जहाँ हमारी दृष्टि काम करती है, वहाँ हमारा मन भी काम करता है। जब हमारी दृष्टि काम नहीं करती है, तो हमारा मन भी काम नहीं करता। उदाहरणार्थ जब हम स्वप्न में रहते हैं, तो उस समय यह हमारा स्थूल शरीर कोई काम नहीं करता है; क्योंकि हमारी स्थूल दृष्टि कोई काम नहीं करती है। स्वप्नावस्था में हम मानसिक जगत् में रहते हैं; उस समय हमारी मानसिक दृष्टि काम करती है, तो हमारा मन भी काम करता है। सुषुप्ति अवस्था में हमारी मानसिक दृष्टि काम नहीं करती है, तो हमारा मन भी काम नहीं करता। इसलिए मनोनिरोध के लिए दृष्टि-निरोध की आवश्यकता है। यही हेतु है कि भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दृष्टि-निरोध करने का उपदेश दिया है।
“ समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं दिशश्चानवलोकयन् ।।”
(गीता अ0 9/13)
अर्थात् काय, सिर और गले को समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर अन्य किसी दिशा को नहीं देखते हुए अपनी नासिका के आगे देखें।
विचारणीय विषय यह है कि दिशाएँ दस होती हैं-पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, चारो दिशाओं के चारो कोण, ऊपर तथा नीचे। जब हम आँखें बंद करते हैं, तो आठ दिशाएँ तो स्वतः ही छूट जाती हैं; किन्तु ऊपर और नीचे-ये दो दिशाएँ रह जाती हैं। अब यदि हम नाक के नीचे अथवा भ्रूमध्य में देखते हैं, तो कोई-न-कोई एक दिशा हो ही जाती है और भगवान शर्त रखते हैं कि किसी भी दिशा को न देखते हुए नासिकाग्र में देखें।
यह मात्र संकेत है। इस संकेत को समझने के लिए किसी क्रियावान, शुद्धाचारी, भेद-ज्ञाता अथवा किसी संत-सद्गुरु के पास जाना आवश्यक है। भगवान श्रीकृष्ण का आदेश है-
“ तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।”
(गीता, अ0 4)
अर्थात् उस ज्ञान को विनम्रता-द्वारा, सेवा-द्वारा और जिज्ञासा-द्वारा जानो। तत्त्व का दर्शन करनेवाले ज्ञानी महात्मा उस ज्ञान को तुम्हें बताएँगे।
बाइबिल में आया है-‘सकेत फाटक से प्रवेश करो; क्योंकि संकीर्ण है वह मार्ग, जो अमरता को पहुँचाता है और चौड़ा है वह मार्ग, जो मृत्यु को पहुँचाता है।’ और यह भी कहा है-‘शरीर का दीपक आँख है। यदि तेरी आँख एक हो, तो तेरा सारा शरीर उजियाला होगा; परन्तु यदि तेरी आँख बुरी हो, तो देखो तुम्हारे भीतर अंधकार का कितना बड़ा साम्राज्य है।’
हम प्रतिदिन प्रार्थना करते हैं-‘तमसो मा ज्योतिर्गमय।’ केवल प्रार्थना करने से ही हम प्रकाश में प्रतिष्ठित नहीं हो सकते। वेद में आया है-
“ वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽनाय ।।”
भावार्थ-(अहम्) मैं (एतम्) उस (महान्तम्) बड़े भारी (पुरुषम्) ब्रह्माण्ड भर में व्यापक पूर्ण परमेश्वर को (आदित्यवर्णम्) सूर्य के समान तेजस्वी और (तमसः) अन्धकार के (परस्तात्) दूर विद्यमान (वेद) जानता और साक्षात् करता हूँ। (तम्) उसको ही (विदित्वा) जानकर (मृत्युम् अति एति) मृत्यु को पार कर जाता है। (अन्यः) दूसरा कोई (पन्थाः) मार्ग (अयनाय) अभीष्ट मोक्ष-स्थान को प्राप्त करने के लिए (न विद्यते) नहीं है।
इस मंत्र में ऋषि ने ‘नान्यः पंथा’ शब्दों का प्रयोग कर यह दृढ़ कर दिया है कि ईश्वर तक जाने का एक ही रास्ता है और वह रास्ता अपने अंदर का है, बाहर का नहीं।
परमात्मा ने प्रत्येक इन्द्रिय के लिए एक-एक काम नियुक्त कर दिया है; जैसे आँख का काम देखना, नाक का काम गंध ग्रहण करना, जिह्वा का काम रसास्वादन करना, त्वचा का काम स्पर्श करना, कान का काम शब्द ग्रहण करना। इस भाँति 14 इन्द्रियों में से प्रत्येक का अपना-अपना भिन्न-भिन्न कार्य है। इसी तरह हमारा भी अपना एक काम है और वह है-परमात्मा को जानना। ज्ञातव्य है कि जबतक हम अपने को नहीं जान लेंगे, तबतक परमात्मा को नहीं जान सकेंगे।
जब हम एक बूँद जल की पहचान कर लेते हैं, तो बाल्टी के जल की पहचान कर लेते हैं; कुएँ और तालाब के जल की पहचान कर लेते हैं। इसलिए आवश्यकता है पहले अपनी पहचान कर लेने की। अपनी अथवा परमात्मा की पहचान जब कभी होगी, तो सर्वप्रथम अपने में, पश्चात् बाहर में। जिज्ञासा होती है कि आत्मा अथवा परमात्मा की पहचान कैसे होगी? संतों ने इसका समाधान किया। उन्होंने बताया-आत्मा वा परमात्मा नाम-रूपविहीन है।
“ नामरूपविहीनात्मा परसंवित्सुखात्मकः ।
तुरीयातीतरूपात्मा शुभाशुभविवर्जितः ।।”
(तेजोविन्दूपनिषद्)
अर्थात् आत्मा नाम और रूप से विहीन, पर-ज्ञानस्वरूप, सुखमय, तुरीय से भी अतीत, शुभ और अशुभ से विवर्जित है।
यह संसार नाम-रूपात्मक है। इसलिए अपने को नाम-रूप से ऊपर उठाओ। जैसे सरलाक्षर सीखे बिना कोई संयुक्ताक्षर नहीं सीख सकता, उसी प्रकार स्थूल-उपासना किए बिना सूक्ष्म-उपासना करने की योग्यता नहीं हो सकती। स्थूल-उपासना के लिए परम प्रभु परमात्मा के किसी नाम का मानस जप और उनकी किसी विभूति का मानस ध्यान करना चाहिए। तत्पश्चात् पूर्ण सिमटाव के लिए एकविन्दुता प्राप्त करनी होगी। एकविन्दुता प्राप्त होने पर पूर्ण सिमटाव होता है। सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है और आवरण-भेदन होता है।
इस प्रकार शाम्भवी मुद्रा वा दृष्टियोग क्रिया द्वारा एकविन्दुता प्राप्त करके अंधकार के आवरण का भेदन करके प्रकाश में प्रतिष्ठित होना होगा। प्रकाश में ही शब्द की अनुभूति होती है। सामवेद में एक मंत्र आया है-
“ बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
स शब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।”
अर्थात् परम विन्दु ही बीजाक्षर है, उसके ऊपर नाद है। नाद जब अक्षर (अनाश, ब्रह्म) में लय हो जाता है, तो निःशब्द परम पद है।
रूप-जगत् का छोटे-से-छोटा चिह्न विन्दु होता है और अरूप जगत् का नाद (शब्द) यानी नाम। दूसरी तरह से हम ऐसा भी कह सकते हैं-यदि हम नदी में डूब रहे हों और वहाँ नाव नहीं हो, कोई सहारा नहीं हो; परन्तु यदि हम तैरना जानते हैं, तो जिस पानी में डूब रहे हैं, उसी पानी का सहारा लेकर हम सूखी जमीन पर जा सकेंगे। उसी तरह इस नाम-रूपात्मक संसार-सागर में हम डूब रहे हैं। इससे पार होने के लिए नाम और रूप का ही सहारा लेना पड़ेगा। इस नाम और रूप के सहारे ही हम अनामी और अरूपी परमात्मा तक पहुँच सकेंगे।
इसके लिए पहले स्थूल अवलम्ब मानस जप और मानस ध्यान का सहारा लेंगे। इससे कुछ सिमटाव होगा। पूर्ण सिमटाव एकविन्दुता में होता है। जिसको विन्दु मिलता है, उसको नाद भी मिलता है। संत पलटू साहब कहते हैं-
‘विन्दु में तहँ नाद बोलै, रैन दिवस सुहावनं।’
-सन्त पलटू साहब
यह शब्द-धार परम प्रभु परमात्मा से ही निकली हुई है। इसी को आधार बनाकर सर्वाधार परमात्मा तक पहुँचा जा सकता है। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ बास सुरति ले आवई, सब्द सुरति ले जाय ।
परिचय स्त्रुति है इस्थिरे, सो गुरु दई बताय ।।”
यद्यपि आदिशब्द निर्गुण है, फिर भी त्रय गुण की उत्पत्ति इसी से हुई है। आदिशब्द अनाहत और चेतन है तथा इससे उत्पन्न शब्द अनाहत और अचेतन (जड़) है। शब्द का स्वाभाविक गुण है कि ऊपर का शब्द नीचे की ओर दूर तक जाता है; किन्तु नीचे का शब्द ऊपर दूर तक नहीं जाता। शब्द अपने केन्द्र के गुण को संग लिए रहता है और सुननेवाले को केन्द्र में आकर्षित कर उस गुण से संयुक्त करता है।
सभी सद्ग्रंथ नाद के सहारे परमात्मा तक जाने की बात कहते हैं। इस तरह से परम पद परमात्मा का साक्षात्कार कर मानव परम कल्याण बना सकता है।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अहमदाबाद के गाँधी नगर में श्रीअक्षर पुरुषोत्तम धाम में श्रीमन्नारायण मतवालों के तत्त्वावधान में श्रीयोगीजी महाराज की शताब्दी तिथि पर दिनांक 18-11-1992 ई0 को हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जून 1997 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
विद्वज्जन का कथन है कि बिना कारण के कार्य नहीं होता। आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। आपलोग इतना बड़ा विशाल पण्डाल देख रहे हैं, जिसमें श्रोताओं की अपार भीड़ इकट्ठी हुई है। आपलोग यत्र-तत्र से यहाँ एकत्र हुए हैं।
इतना बड़ा विशाल पण्डाल बनाने की आवश्यकता क्या हुई? इसकी उपादेयता क्या है? यहाँ अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का 82वाँ वार्षिक महाधिवेशन है। यह 82वाँ महाधिवेशन क्या बतला रहा है? 82 में 2 जोड़ दीजिए, 84 हो जाएगा अर्थात् यह 82वाँ महाधिवेशन चौरासी लाख योनियों से छूटने के लिए बतला रहा है, उस ओर इंगित कर रहा है।
यदि हम ‘दो’ को पार कर जाएँ, तो हम चौरासी से छूट जाएँगे। ये ‘दो’ क्या हैं? हम अंधकार में तो पड़े हैं ही। इसके बाद प्रकाश और शब्द को पार करना है। फिर तो चौरासी लाख योनियों से मुक्त हो ही जाएँगे। पुनः भव में नहीं आयेंगे। इसलिए इस 82वें वार्षिक महाधिवेशन का आयोजन है।
संतमत कोई नया धर्म, नया मजहब, नया सम्प्रदाय अथवा नया त्मसपहपवद नहीं है। यह परम पुरातन सनातन वैदिक मत है। वैदिक मत होते हुए भी यह किसी अवैदिक मत से राग, द्वेष वा घृणा नहीं करता। संतमत सर्वधर्म समन्वय मत है। संतमत में कोई संत श्रेय और कोई हेय नहीं हैं, बल्कि सभी समान रूप से उपादेय हैं। संतमत में सभी संतों का समान रूप से सम्मान किया जाता है।
एक बार का प्रसंग है। बादशाह अकबर ने बीरबल से पूछा-‘कहो बीरबल! जो कोई तुमसे कुछ पूछता है, उसका सही उत्तर तुम तत्क्षण दे देते हो। बताओ, तुम कितने पढ़े-लिखे हो?’ बीरबल ने उत्तर दिया-‘जहाँपनाह! मैं थोड़ा-बहुत लिखा-पढ़ा हूँ।’ बादशाह ने पूछा-‘कोई एक बात बताओ, थोड़ा या बहुत। तुम तो थोड़ा या बहुत दोनों बातें बताते हो।’ बीरबल ने उत्तर दिया-‘जहाँपनाह! जहाँ अधिक पढ़े-लिखे लोग होते हैं, वहाँ मैं थोड़ा बन जाता हूँ और जहाँ थोड़े पढ़े-लिखे लोग होते हैं, वहाँ मैं बहुत बन जाता हूँ। इसलिए मैंने थोड़ा और बहुत दोनों शब्दों का व्यवहार किया है।’ बादशाह अकबर ने हँसकर कहा-‘बोलने में तो तुम चतुर हो। अच्छा, एक रेखा मैं खींच देता हूँ, इसको तुम स्पर्श न करो, छूओ मत, मेटो मत; लेकिन छोटी बना दो।’ बीरबल ने अविलम्ब ही उस रेखा के समीप एक बहुत बड़ी समानान्तर रेखा खींच दी और कहा-‘जहाँपनाह! मैंने आपकी रेखा को स्पर्श नहीं किया, मिटाया नहीं; लेकिन मेरी रेखा के सामने आपकी रेखा छोटी हो गयी।’
सज्जनो! इसी प्रकार संतमत किसी मत को मेटता नहीं, किसी का खण्डन करता नहीं, मात्र अपना आदर्श रखता है। यहाँ तो ‘सब सन्तन्ह की बड़ि बलिहारी’ का गान प्रतिदिन होता है।
कुछ वर्ष पूर्व की बात है। बिहार राज्य के भागलपुर शहर में वैदिक और अवैदिक सम्प्रदाय के बीच भारी दंगा हुआ था। उसी वर्ष उस दंगे के एक महीने के अंदर ही हरियाणा राज्य के करणाल नगर में संतमत-सत्संग का आयोजन किया गया था। वहाँ के जो आयोजक थे, वे सत्संग कराने के लिए स्थान खोजने के लिए जाते, तो कोई स्थान देने के लिए तैयार नहीं होते। आयोजक का नाम है-श्रीरामावतारजी गौतम। उनसे लोग पूछते कि कहाँ के महात्मा आएँगे? तो वे कहते-‘बिहार के।’ पुनः लोग पूछते-‘बिहार के किस स्थान से?’ तो वे कहते-‘भागलपुर के।’ एक कहावत है-‘करेली तो अपने ही कड़वी होती है और उसमें जब नीम की छौंक पड़ जाए, तो कहना ही क्या?’
भागलपुर में दंगा हुआ ही था, इसलिए स्थान देने के लिए कोई तैयार नहीं थे; लेकिन श्रीगौतमजी उच्च विचारक हैं, अच्छे प्रचारक हैं और सदाचारी भी हैं। संतमत के प्रति उनकी बड़ी आस्था है। वे चले गये मस्जिद, मस्जिद में इमाम साहब को उन्होंने समझाया कि संतमत क्या है? चले गये वे गिरिजाघर में और वहाँ के पादरी को समझाया कि संतमत क्या है? चले गये आर्यसमाज मंदिर में, वहाँ जाकर उनलोगों को समझाया कि संतमत क्या है? चले गये गुरुद्वारे में और वहाँ जाकर उन्होंने समझाया कि संतमत क्या है? मतलब यह कि वहाँ फैले हुए जो विभिन्न मतों के धर्माचार्य, प्रचारक आदि थे, उन सबसे मिलकर उन्होंने बतलाया कि संतमत क्या है? और सबको उन्होंने सत्संग के अवसर पर आने के लिए आमंत्रित भी किया। पुनः आग्रह किया कि आपलोग हमारे सत्संग में अवश्य आइये, पधारिये। इनके वचन से प्रभावित होकर मानव-सेवा-संघ के उदार महासभापति और मंत्रीजी ने सत्संग कराने के लिए स्थान दिया। सत्संग के समय इमाम साहब गये, तो अपनी जमात के साथ; पादरी साहब गये, तो अपनी जमात के साथ। इसी प्रकार आर्यसमाजी, मानव-सेवा-संघ, बजरंगदल, शिवसेना आदि सब अपनी-अपनी जमात के साथ वहाँ पहुँचे और सत्संग में प्रवचन जब उनलोगों ने सुना, तो उन सबलोगों ने एक स्वर से यही बात कही-‘एक संतमत ही है, जो सभी धर्मावलम्बियों को गले से लगाता है, भाईचारे का नाता जोड़ता है। इसके अतिरिक्त आज जितने धर्म-प्रचारक हो रहे हैं, सब डेढ़-डेढ़ चावल की खिचड़ी बना-बनाकर अलग-अलग खाते हैं।’
संतमत आस्तिक मत है। इसमें एक ईश्वर पर विश्वास दिलाया जाता है। उसकी भक्ति करने के लिए बतलाया जाता है। उसकी प्राप्ति अपने अंदर होगी, इसका प्रतिपादन दृढ़ता से किया जाता है। ईश्वर की भक्ति के साथ ज्ञान और योग का समन्वय आवश्यक है। साथ ही, जैसे एक भव्य भवन-निर्माण के लिए उसकी मजबूत नींव अनिवार्य होती है, उसी प्रकार ईश्वर-भक्तिरूपी भव्य भवन-निर्माण के लिए सदाचार की अत्यावश्यकता होती है। सदाचार-पालन के लिए झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार का परित्याग अपरिहार्य है। हिंसा के सिलसिले में मत्स्य, मांस, अण्डा आदि तामसी भोजन निषिद्ध हैं। अपने जीवन-यापन के लिए पवित्र कमाई करनी चाहिए। अपने परिश्रम द्वारा उपार्जित धन से अपना और अपने परिवार का पालन-पोषण करने की सीख संतमत देता है। शोषित, पतित एवं पीड़ित को आत्मज्ञान देकर उत्थान करानेवाला संतमत है।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का 82वाँ अधिवेशन बिहार राज्यान्तर्गत मधेपुरा जिले के कोदराघाट में दिनांक 27-2-1993 ई0 को प्रातःकालीन
सत्संग के सुअवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अगस्त 1994 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द माताओ एवं बहनो!
एक लड़की का विवाह हुआ। वह ससुराल गयी। अड़ोस-पड़ोस के लोग उसको देखने आये। क्रम-क्रम से लोग देखकर लौटते थे। थोड़ी दूर पर एक बूढ़े बाबा बैठे थे। नववधू को देखकर जो लौटते, बूढ़े बाबा उनसे पूछते-‘कहो, कैसी वधू आयी है; देखने में कैसी है?’ छोटी बच्ची देखकर लौैटती, वह कहती कि मेरी ही जैसी है। किशोरी देखकर लौटती तो उससे पूछने पर वह कहती-मेरी ही जैसी है। युवती देखकर लौटती तो वह कहती-मेरी जैसी है। कोई बूढ़ी देखकर लौटती तो उससे पूछने पर वह कहती कि मुझको न देखा, उसको देखा। सबकी बातों को सुनकर बूढ़े बाबा हैरान हो गये। वे सोचने लगे-नववधू आयी है। वह बच्ची होगी, युवती होगी वा बूढ़ी होगी; लेकिन बात क्या है कि जिससे पूछता हूँ, वह अपनी जैसी बताती है। बूढ़े बाबा स्वयं देखने गये। उन्होंने देखा-वास्तव में वह नववधू अतीव सुन्दरी है, उसके चेहरे से आईने सदृश चमक निकलती थी। तो जो कोई देखने जाते थे, वे उस आईने में अपना ही रूप देखते थे। इसलिए बच्ची कहती-मेरी जैसी, किशोरी कहती-मेरी जैसी, युवती कहती- मेरी जैसी और बूढ़ी कहती-मुझको न देखा उसको देखा। उसी तरह आपलोगों ने जो मेरा अभिनन्दन किया, उसमें जितने सद्गुणों के वर्णन आये, वे सभी सद्गुण आपलोगों के हैं। आपलोगों ने अपने-अपने ही सद्गुणों को देखा है मुझमें। वे सद्गुण मुझमें कहाँ?
स्वामी विवेकानन्दजी महाराज विश्वधर्म- सम्मेलन में गए हुए थे अमेरिका के शिकागो शहर में। विभिन्न देशों के धर्मप्रेमी वहाँ आए हुए थे। सभी धर्मों की पुस्तकें वहाँ सजायी गयी थीं- ऊपर-नीचे क्रम से। पाश्चात्य देशों के लोग यह समझते थे कि भारत अध्यात्मज्ञान से हीन है। भारतवासियों को वे लोग हेय दृष्टि से देखते थे। इसलिए उन्होंने जो पुस्तकें सजायी थीं, उसमें वेद को सबसे नीचे रखा था तथा ऊपर में अन्य ग्रंथों को। सबसे ऊपर में उन्होंने बाइबिल को रखा था। स्वामी विवेकानन्दजी महाराज जब उस मंच में पहुँचे और उन्होंने पुस्तक की सजावट देखी, तो बात उनकी समझ में आ गयी कि किस दृष्टि से धर्मग्रंथों को इस तरह रखा गया है। चूँकि ये लोग वेद को हेय दृष्टि से देख रहे हैं, इसलिए इसको सबसे नीचा रखा है। उनलोगों की भावना इनको परख में आ गयी। लेकिन उन्होंने कहा- धर्मग्रंथों की सजावट देखकर मुझे प्रसन्नता हो रही है। जिस तरह की सजावट होनी चाहिए, उसी तरह से सजायी गयी है। ग्रंथों की सजावट यह बतलाती है कि सभी धर्मग्रंथ का मूल वेद है; क्योंकि वेद पर ही ये सारे धर्मग्रंथ टिके हुए हैं। अगर वेद को नीचे से खिसका लें, तो जितने धर्मग्रंथ हैं, सभी ढनमनाकर नीचे गिर जाएँगे।
उसी तरह आपलोग तो नीचे बैठे हैं और मुझे ऊपर बिठाया है, आपलोगों के आधार पर मैं बैठा हूँ। अगर आपलोग हाथ हटा लेंगे तो मैं भी ढनमनाकर नीचे गिर जाऊँगा। ऊपर बैठने से कोई बड़ा नहीं हो जाता। बड़े तो आपलोग हैं, जो मुझे आश्रय दिये हुए हैं बैठने के लिए।
यह संतमत का सत्संग है। इस संतमत के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है। वह ईश्वर है क्या? इन्द्रियातीत। संतमत बतलाता है कि बिना उस ईश्वर का भजन किये जीवों का कल्याण नहीं है। प्राणियों का कल्याण ईश्वर-भजन में है। ईश्वर की प्राप्ति अपने अंदर होगी। जैसे आईने के माध्यम से हम अपने चेहरे को देखते हैं, उसी प्रकार अंतर्ज्योति का सहारा लेकर परमात्मा को देखा जाता है। इसलिए संतमत को ईश्वर-भक्ति में दिव्य ज्योति और दिव्य नाद को प्राप्त करने का आग्रह है, जिनके माध्यम से परम प्रभु की प्राप्ति होती है। मतलब यह कि परमात्मा का अस्तित्व है। वे परम प्रभु परमात्मा थे और रहेंगे। वे होते नहीं हैं, रहते ही हैं। जो होता है, वह बिगड़ता है। लेकिन परम प्रभु परमात्मा सतत रहते ही हैं। उनका साक्षात्कार अपने अंदर में होगा। इसके लिए अंतस्साधना की आवश्यकता है। वह अंतस्साधना मानस-जप है, मानस ध्यान है, दृष्टि-साधन है और नादानुसंधान है। इन चार साधनाओं के द्वारा हम प्रभु परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं; किन्तु इसके बतलानेवाले सुयोग्य गुरु की आवश्यकता है, जो क्रियावान एवं शुद्धाचरणी हों। बिना क्रियावान शुद्धाचरणी गुरु के उस प्रभु को हम नहीं प्राप्त कर सकते हैं। संतमत में गुरु का सर्वोपरि स्थान है। हम सद्ग्रंथों का अध्ययन- मनन एवं अवलोकन करते हैं, तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं।
खास देवघर में देवघर जिला संतमत-सत्संग का वार्षिक अधिवेशन था। पटना के एक अच्छे विद्वान् आए हुए थे उसका उद्घाटन करने के लिए। उनको हनुमानजी में बड़ी आस्था थी। अपने उद्घाटन-भाषण में उन्होंने हनुमानजी की बड़ी महिमा गायी और कहा कि हम नित्यप्रति हनुमान चालीसा पढ़ते हैं। आपलोग भी जो पढ़ना चाहें, तो हाथ उठायें। मैं हनुमान चालीसा की एक-एक प्रति दूँगा। कुछ प्रतियाँ वे अपने साथ ले गये थे। कुछ लोगों का प्रवचन हुआ। अंत में मेरी बारी आयी। मैंने कहा, लोग इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि गोस्वामी तुलसीदासजी भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त थे। उन्होंने हनुमानजी के अतिरिक्त अन्य देवों की भी स्तुतियाँ की हैं। जिस तरह कोई एक साध्वी महिला जिस परिवार में रहती है, उसके सभी सदस्यों का यथोचित आदर-सत्कार, सेवा-सम्मान आदि वह करती है; किन्तु उसका एकनिष्ठ सूत्र अपने पति से लगा रहता है। उसी तरह गोस्वामी जी मर्यादा सबको देते हैं; लेकिन अपना एक इष्ट बनाये हुए रहते हैं। चूँकि वे पढ़े-लिखे विद्वान थे, इसलिए उनके कहने की जो कला है, वह अद्भुत है। वे हनुमान चालीसा आरंभ कहाँ से करते हैं?
‘श्रीगुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधार।’
सर्वोपरि स्थान किनको देते हैं? गुरुदेव को। दूसरी पंक्ति में वे लिखते हैं-
‘बरनौं रघुवर विमल जसु, जो दायक फल चार ।’
और तीसरी पंक्ति में लिखते हैं-
‘बुद्धिहीन तनु जानि के, सुमिरौं पवन कुमार ।’
अब समझिए, प्रथम स्थान किनका है, दूसरे में कौन हैं और तीसरे में कौन है? गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज के लिए कहा जाता है कि वे राम के भक्त थे; लेकिन वैचारिक दृष्टि से एकनिष्ठ भक्त गुरु के थे। इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने मर्यादा दी सबको। रामचरितमानस के आरंभ में है-
“ बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि ।
महामोह तम पुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।”
हनुमान चालीसा में ही देखिये-
“ जय जय जय हनुमान गोसाईं ।
कृपा करो गुरुदेव की नाईं ।।”
अगर इनके इष्ट राम होते, तो वे कहे होते-
“ जय जय जय हनुमान गोसाईं ।
कृपा करो रघुवर की नाईं ।।”
किन्तु ऐसा वे नहीं कहते हैं। वे हनुमानजी की स्तुति करते हैं और यह कहते हैं-
‘बुद्धिहीन तनु जानि के, सुमिरौं पवन कुमार ।’
मैं बुद्धिहीन हूँ, आपका स्मरण करता हूँ। बल दीजिए, बुद्धि दीजिए, विवेक दीजिए। विचारणीय विषय है कि जब हमको बल, बुद्धि, विवेक कुछ नहीं है तो हमारा कल्याण किसमें है, तो यह भी हम नहीं जानते हैं। ऐसी परिस्थिति में तो ऐसा कहना चाहिए था-
“ जय जय जय हनुमान गोसाईं ।
कृपा करो जो तुम्हहिं सोहाई ।।”
न तो यह भगवान राम की दुहाई देते हैं और न हनुमानजी की, बल्कि वे कहते हैं-
“ जय जय जय हनुमान गोसाईं ।
कृपा करो गुरुदेव की नाईं ।।”
गुरुदेव की कैसी कृपा होती है? गोस्वामी जी की दृष्टि किस ओर है, सो देखिए। इन बातों को सुनने के पश्चात् उक्त विद्वान सज्जन ने कहा, ‘हनुमान चालीसा तो मैं रोज पढ़ता हूँ, मुझे हनुमान चालीसा कंठस्थ भी है; लेकिन इस पंक्ति पर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया था।’ गोस्वामी तुलसीदासजी स्वयं दोहावली में लिखते हैं-
“ राम नाम कलि काम तरु, राम भगति सुर धेनु ।
सकल सुमंगल मूल जग, गुरु पद पंकज रेनु ।।”
कलिकाल में रामनाम कल्पवृक्ष के समान है और राम की जो भक्ति है, वह कामधेनु के समान। लोग समझते हैं, कल्पवृक्ष मिल गया, कामधेनु मिल गयी, अब क्या चाहिए! लेकिन गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-कल्पवृक्ष और कामधेनु को पाकर आंशिक मंगल होगा; लेकिन सकल सुमंगल नहीं होगा। अगर सकल सुमंगल चाहते हो, तो ‘गुरुपद पंकज रेनु।’
देखिए, गोस्वामी तुलसीदासजी की दृष्टि किधर है। भगवान श्रीराम जब लंका पर विजय प्राप्त कर रावण-कुंभकर्ण को मारकर विभीषण को लंका का राज्य देकर और सीताजी का उद्धार करके अयोध्या लौटे, तो कौशल्या माताजी भगवान राम को अपनी गोद में बिठाकर प्यार से पूछती है-‘बेटा! तुम्हारा शरीर तो कमल से भी अधिक सुकोमल है, रावण-कुंभकर्ण आदि दुर्दान्त राक्षसों का वध तुमने कैसे किया?’ इसके उत्तर में भगवान श्रीराम कहते हैं-
“ गुरु बसिष्ट कुलपूज्य हमारे ।
इन्ह की कृपा दनुज रन मारे ।।”
माँ! मेरा कोई पराक्रम नहीं है। मैंने अपने बल से रावण आदि का वध नहीं किया है। गुरु की कृपा से ऐसा हुआ है। गुरु की कृपा कैसी होती है? संत कबीर साहब कहते हैं-
“ गुरुदेव के भेद को जीव जानै नहीं ,
जीव तो आपनी बुद्धि ठानै ।
गुरुदेव तो जीव को काढ़ि भव सिन्धु तें ,
फेरि लै सुक्ख के सिन्धु आनै ।।
बंद कर दृष्टि को फेरि अन्दर करै ,
घट का पाट गुरुदेव खोलै ।
कहै कबीर तू देख संसार में ,
गुरुदेव समान कोइ नाहिं तोलै ।।”
गुरु का स्थान कितना ऊँचा मानते हैं और कितना आदर देते हैं! गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ गुर की मूरति मन महि धिआनु ।
गुर कै शबदि मंत्र मनु मानु ।।
गुरु के चरन रिदै लै धारउ ।
गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारउ ।।”
अज्ञ जीव जानता नहीं है कि गुरुदेव की कृपा कब और कैसे-किस प्रकार होती है।
एक कामिल फकीर थे। उनका एक शिष्य नवाब थे, जो दूर शहर में रहते थे। फकीर ने अपने निकटवर्ती शिष्य को एक अनार देकर कहा कि जाकर यह अनार नवाब को देना और कहना कि इस अनार को वह खाएगा। शिष्य अनार लेकर पहुँचता है उस नवाब के पास। नवाब के साथ बहुत लोग बैठे हुए थे। उक्त शिष्य ने नवाब को अनार देते हुए कहा कि तुम्हारे मुर्शिद ने यह संदेश भेजा है तुम्हारे खाने के लिए। लो खाओ। नवाब सोचते हैं कि गुरु महाराज का भेजा हुआ प्रसाद अनार है। उसको तुरत तोड़कर उसके पाँच दाने उन्होंने अपने मुँह में डाले तो अनार इतना खट्टा था कि नवाब साहब को न तो थूकते बनता था और न निगलते ही। अगर थूकते हैं तो गुरु की प्रतिष्ठा में हीनता होती है। गुरु-प्रसाद मर्यादा रखने के लिए किसी तरह निगल गये। जो शिष्य अनार लेकर गया था, उसने कहा-और खाओ। पाँच दाने खाने में ही तो बेचारे का दम घुटने लगा था। यह कहता है-और खाओ। नवाब सोचते हैं कि ये गुरु महाराज के प्रधान शिष्य हैं। इनकी बात कैसे नहीं मानी जाए। तो पाँच दाने और मुँह में डालकर निगल गये और कहा-अच्छा, पीछे खा लूँगा। इस पर उसने कहा-बस! अरे, और खाओ। उतने लोग बैठे हुए थे। अब कैसे कहे कि नहीं खाऊँगा। उनकी प्रतिष्ठा की हीनता होती, तो जबरदस्ती चार दाने और निगल गये और कहा-अच्छा, पीछे खा लूँगा। वह शिष्य लौटकर चला आया गुरु महाराज के पास। गुरु महाराज ने पूछा-अनार नवाब को दिया? शिष्य ने उत्तर दिया-जी हाँ। मुर्शिद ने पूछा-समूचा अनार खाया? शिष्य ने उत्तर दिया-समूचा तो नहीं; किन्तु पाँच-पाँच और चार कुल चौदह दाने खाये। फकीर ने कहा-मैं क्या करूँ! मैंने तो समूचा अनार भेजा था। अगर उसने समूचा अनार खाया होता, तो जिन्दगी भर उसकी नवाबी रहती, अब मात्र चौदह वर्ष उसकी नवाबी रहेगी। संत सद्गुरु तो चाहते हैं कि जीव को सुख सिन्धु में ले जाने के लिए; लेकिन शिष्य ही अपनी आत्मबुद्धि को विशेष मानकर चूक कर बैठता है। कबीर साहब ने कहा है-
“ गुरु बेचार क्या करे, जो शिष्य माहीं चूक ।
भावे जो परबोधिए, बाँस बजाई फूँक ।।”
संतमत में गुरु का स्थान सर्वोपरि है। हमारे गुरु देव जी थे, वे बड़े ऊँचे और महान संत थे। उन्होंने जिस ज्ञान का प्रचार किया, उन्होंने जो शिक्षा-दीक्षा दी, वह बहुत ऊँची थी। उनको आत्मदृष्टि प्राप्त थी। आत्मदृष्टि से देखकर ही उन्होंने भजन-भेद बताने की आज्ञा कुछ सज्जनों को दी। उनके पास मीटर था, जिस मीटर से जाँचकर उन्होंने दीक्षा देने का आदेश दिया और आज वही संतमत है कि कितने तो अपने मन से दीक्षा देने लग गये हैं। कितने को किन्हीं से अधिकार मिला है दीक्षा देने का। लेकिन यह तरीका गलत है।
गुरु महाराज ने जिन लोगों को आदेश दिया था दीक्षा देने का, वे ही सब ठीक हैं। इनके बाद जो कोई दीक्षा देते हैं या देने का आदेश देते हैं, बिल्कुल गलत है। (श्रोताओं की ओर से सद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि)
कटिहार कॉलेज के एक प्रोफेसर महेश्वर बाबू हैं। उन्होंने जिज्ञासा की गुरु महाराज से कि हुजूर! जितने व्यक्तियों को आपने भजन-भेद देने का आदेश दिया है, क्या वे सभी भजन-भेद देने योग्य हैं? गुरु महाराज बोले, ‘मैं जिन लोगों को भजन-भेद देने का अधिकार दिया है, लोग उनसे भजन-भेद लेंगे। देखिए, जैसे पढ़ाई शुरू होती है, लोअर-प्राइमरी से लेकर मैट्रिक, आई0ए0, बी0ए0, एम0ए0 तक की पढ़ाई होती है। प्राइमरी से लेकर एम0ए0 तक जितने शिक्षक होते हैं, सब-के-सब शिक्षक ही होते हैं; लेकिन क्या सबकी योग्यता एक ही होती है? जिस योग्यता के जो होंगे, वे उस गुरु के पास जाएँगे।
जो कोई सज्जन अन्य दूसरे सत्संगी को भजन-भेद देने का मौखिक या लिखित आदेश देते हैं, वे अनुचित करते हैं और इस आधार पर जो दूसरे को भजन-भेद देते हैं, वे भी अनुचित करते हैं; क्योंकि यह अधिकार सिर्फ उन्हीं को होगा, जो परम पूज्य गुरुदेव के उत्तराधिकारी होंगे।
परम पूज्य गुरु महाराज का आदेश जिनको है, केवल वे भजन-भेद दें। अगर गुरु महाराज का आदेश नहीं है, तब यदि वे भजन-भेद देते हैं, तो गलती करते हैं। जिन सज्जनों को गुरु महाराज ने अन्यों को भजन-भेद देने की आज्ञा दी थी, तो भजन-भेद बताने का आदेश देने के साथ ही गुरु महाराजजी ने यह कहने की कृपा की थी-मैं सभी जगह नहीं जा सकता हूँ। मेरा शरीर कमजोर हो गया है। इसलिए मैं भजन-भेद देने का आदेश देता हूँ कि ये लोग भजन-भेद देंगे। भजन-भेद देने का आदेश है। अगर भजन-भेद देने को कोई व्यापार या रोजगार बना लेंगे, तो सीधे नरक में जाएँगे। जिनको गुरु महाराज ने आदेश दिया है, उनके लिए तो यह बात है और जिन्होंने अपने मन से व्यापार करना प्रारंभ कर दिया है, उनकी क्या हालत होगी? उनको तो खुद समझना चाहिए कि यदि हम गुरु महाराज के आदेश का पालन करते हैं, तो हम गुरुमुख हैं। अगर गुरु महाराज की अवहेलना करते हैं, तो गुरुमुख नहीं हैं, मनमुख हैं।
संतमत पवित्र मत है, शुद्धमत है। अगर हम शुद्ध आचरण से रहेंगे, सदाचार का हम पालन करते रहेंगे, तो हमारा कल्याण होगा। अगर हम गुरु के आदेश का पालन नहीं करते हैं, मनमाना करते हैं, तो हमारा अकल्याण होगा। अवश्य ही संसार में हम कुछ पैसे कमा लेंगे। हमारी कुछ प्रतिष्ठा हो जाएगी। यह बात दूसरी है; लेकिन परलोक में उनके लिए कोई स्थान नहीं है। हम सभी सत्संगियों को समझ-बुझकर इसपर चलना चाहिए। समय अधिक हो गया है। स्वामी श्रीरामानंदजी ने यह सत्संग-मंदिर बनवाया है, बहुत अच्छा काम किया है इन्होंने। लोगों को इससे लाभ मिलेगा।
सत्संग का आयोजन जिन महानुभावों ने किया है, उन सबों को मेरा शुभाशीर्वाद है। गुरु महाराज से उनलोगों के लिए शुभ उन्नतियाँ चाहता हूँ।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन बिहार प्रांत के तहत सहरसा जिलान्तर्गत महर्षि मेँहीँ योगाश्रम, सहरसा में दिनांक 22-3-1993 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, अगस्त अंक 1993)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा अदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
संसार के सभी प्राणी सुख की इच्छा रखते हैं। प्राणियों में मानव श्रेष्ठ है। वह भी सुख प्राप्ति के लिए विविध प्रकार के प्रयत्न करता है। जबसे नींद टूटती है, तबसे लेकर जबतक निद्रा-देवी की गोद में नहीं जाता, वह प्रयत्नशील रहता है। प्राप्त सुख से वह सन्तुष्ट नहीं होता, वरन् सुख की वृद्धि और अति वृद्धि चाहता है। इतना ही नहीं, उसकी अभिवृद्धि कहाँ तक हो, उसकी सीमा रेखा उसके मस्तिष्क में नहीं होती। यह बात विचित्र-सी लगती है कि सुदूर रहकर जिसको हम सुखी और सम्पन्न समझते हैं, उनके निकट जाने पर ये भी दुःखी ही दीखते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे विश्व में ऐसा कोई नहीं, जो दैहिक, दैविक, भौतिक अथवा मानसिक-किसी न किसी पीड़ा से पीड़ित नहीं हो। बात क्या है? लोग धनवान, बलवान, गुणवान, रूपवान, ऐश्वर्यवान प्रभृति होते हुए भी दुःखी क्यों दीखते हैं?
यथार्थ बात यह है कि सुख कहाँ है और उसकी खोज हो रही कहीं है। दूसरे शब्दों में-
‘सुख है जहाँ नहीं, खोज हो रही वहाँ ।’
संत कबीर साहब के शब्दों में हम कह सकेंगे-
‘वस्तु कहीं ढूँढै कहीं, केहि विधि आवै हाथ ।’
बस, यही बात चरितार्थ हो रहा है और जागतिक नश्वर भोग जो हमें मिलता है, बस इसी में हम मस्त रहते हैं। एक लघु कथा सुनिये-
आचार्य द्रोण के पुत्र अश्वत्थामा थे। उनको गाय नहीं थी। अतएव बालपन में उनको पीने के लिए गाय का दूध नहीं मिलता था। उनके बाल साथी जब बाल-क्रीड़ा के समय एकत्र होते, तो कहते कि हमलोग गाय का दूध पीते हैं और तुमको पीने के लिए दूध नहीं मिलता है। ऐसा कहकर उनको चिढ़ाया करते थे। वे बेचारे रोते हुए अपनी माता के पास आते और कहते-‘माँ! मुझे गाय का दूध पिलाओ, मेरे संगी-साथी गाय का दूध पीकर खेलने जाते हैं।’ बेचारी माता के पास लाचारी थी, गाय थी नहीं, वह करती क्या? अरवा चावल को पीसकर, पानी में घोलकर और चीनी मिलाकर, उनको पीने देती। कहती-‘ले बेटा! गाय का दूध पी।’ बड़ी प्रसन्नता के साथ अश्वत्थामा उसको पी लेते और अपने साथियों से कहते कि ‘अरे! मैंने भी गाय का दूध पिया है।’
विचारणीय है कि वे ही अश्वत्थामा जब बड़े हुए होंगे और उनको मालूम हुआ होगा कि मुझे पीने के लिए गाय का दूध नहीं मिलता था, बल्कि चावल को पानी में पीसकर चीनी मिलाकर मुझे पीने के लिए दिया जाता था-गाय का दूध कहकर, तो उनको कितनी आत्मग्लानि, कितनी लज्जा और कितना पश्चात्ताप होता होगा?
ठीक यही हालत हमारी है। हम भी मायिक मिथ्या सुख को, जो विषयोपभोग करने पर हमें आनंद मिलता है, सत्य सुख समझकर हम मस्त हो रहे हैं-उन्मत्त-से हो रहे हैं। जिन विषयों को संतों ने वमन-सदृश जानकर परित्याग कर दिया, उन्हीं विषयों को हम श्वान की नाईं स्वाद से स्वीकार कर प्रसन्न होते हैं, फूले नहीं समाते हैं।
“ जो विषया संतन्ह तजी, मूढ़ ताहि लपटात ।
जौं नर डारत वमन करि, स्वान स्वाद सों खात ।।”
विचारणीय है कि ज्ञान बढ़ने पर जब हमको विषय-सुख की असारता का बोध होगा, तो हमें भी कितनी ग्लानि, कितनी लज्जा और कितना दुःख एवं पश्चाताप होगा। अतएव हम सबेरे ही क्यों न सँभलें।
महान आश्चर्य है कि संतों की सद्वाणी सुनकर भी हमारे कानों ‘जूँ’ तक रेंगने नहीं पाता और हम विषयों-रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द को पाकर उन विषयों को भोगकर तृप्त होना चाहते हैं, सुखी होना चाहते हैं; कब संभव है? विषयोपभोग कर आज तक कोई संतुष्ट हुआ है, किसी ने सुख का अनुभव किया है? गो0 तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
“ बुझै न काम अगिन तुलसी कहँ,
विषय भोग बहु घी तें ।”
संतों ने कहा-अरे मानव! जरा सोच-विचार और समझकर देख। तू जिन पंच विषयों को भोग कर सुखी होना चाहता है, उन पंच विषयों के भोग और उनके परिणाम कैसे हैं; श्रवण कर। किसी कवि ने कितना अच्छा कहा है-
“ मृग मीन भृंग पतंग कुंजर, एक दोष विनासहीं ।
पंच रोग असाध्य जामें, ताकी केतिक आसहीं ।।”
मृग को कर्णेन्द्रिय का विषय-शब्द बहुत प्रिय प्रतीत होता है। इसलिए वह व्याधे की मीठी मधुर सुरीली वंशी की तान सुन, जाल में फँसकर अपनी जान देता है। मीन जिभ्या के रस में फँस परवश हो प्राण गँवाता है। भौंरा सरोवरकूल स्थित कमल फूल पर जाता है और उसकी सुगंधि में मशगूल हो अपने को भूल जाता है। उसको उसके पराग से इतना अत्यधिक अनुराग है कि पिण्ड से प्राण भले भाग जाएँ; किन्तु वह उसको त्यागकर भाग नहीं सकता। कुछ काल पश्चात् रात होती है और अरविन्द की बिखरी पँखुड़ियाँ बंद हो जाती हैं, परिणामस्वरूप चंद समय में उसका भी प्राणस्पन्द बंद हो जाता है। अथवा दूसरे शब्दों में निशीथ के पश्चात् प्रभात में गयन्द के पदाघात से उसका प्राणान्त होता है।
जिस नेत्र विषयरूप में लोलुप हो बड़े-बड़े भूप तमकूप में गिरे हैं, वहाँ बेचारे पतंग को बचने का ढंग कहाँ? वह नेत्र-विषय रूप में लोलुप हो प्रदीप के प्रकाश में अपना सर्वस्व नाश करता है। इसी प्रकार मतिमंद गयन्द स्पर्श विषय के फंद में पड़ जाने अपने जीवन-विध्वंस का कारण बनता है।
इस भाँति हम देखते हैं कि मात्र एक-एक विषय में आसक्ति के कारण एक-एक जीव की जान जाती है; किन्तु हम मानव को तो इन पाँचों विषयों में अनुरक्ति है। और उनपर विजय पाने के लिए न तो शारीरिक शक्ति है और न मानसिक विरक्ति ही। फिर इतने पर भी हम जीवित हैं, यह इस तुच्छ जीव पर पीव की अतिकृपा है।
और भी देखिये, हम जिन पंच विषयों के भोग में सुख-प्राप्ति की इच्छा रखते हैं, उन पंच विषयों के भोग के परिणाम क्या हैं, विचारिये। संत जन कहते हैं कि विषय तत्त्व विषवत् है। समस्त संसार पंच विषयों से भरा है, जैसे स्वर्णघट में विषरस। जरा विचार करें, यदि हम ‘विषय’ शब्द लिखना चाहेंगे, तो कैसे लिखेंगे? विषय में तीन अक्षर हैं-‘वि, ष और य। इन तीनों अक्षरों में ‘य’ को ढक्कन समझियें अब ‘विषय’ में से ‘य’ रूप ढक्कन को हटाकर देखिये, क्या बचता है? विष। फिर, ‘विष’ पान करके यदि अपने जीवन की आशा हम करते हैं, तो यह दुराशा ही है और उसमें निराशा अवश्यम्भावी है।
इसीलिए भगवान श्रीराम ने अपने राजत्वकाल में गुरुजन, पुरजन और सज्जन को आमंत्रित करके कहा था-
“ एहि तन कर फल विषय न भाई ।
स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई ।।
नर तन पाइ विषय मन देहीं ।
पलटि सुधा ते सठ विष लेहीं ।।
ताहि कबहुँ भल कहहि न कोई ।
गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई ।।”
अर्थात् हे भाई! इस मनुष्य-शरीर को प्राप्त करने का फल विषयों का भोगना नहीं है। यदि स्वर्ग प्राप्त कर सको, तो वह भी स्वल्प है और अंत में दुःख देनेवाला है। नरतन पाकर जो जन विषयों में मन लगाता है, वह मूर्ख अमृत के बदले विष लेता है। उसको कभी कोई अच्छा नहीं कहता, जो पारसमणि खोकर करजनी लेता है।
इस उपदेश के अन्दर भगवान का आदेश है कि उत्कृष्ट मानव-शरीर पाकर सर्वोत्कृष्ट सुख के लिए सर्वेश्वर की भक्ति करो, जो इन्द्रियातीत और विषयातीत है। बिना सर्वेश की आराधना किये वह शाश्वत सुख दूर ही नहीं, सुदूर है। इस सम्बन्ध में गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज के आकाशवत् अलोल एवं अनमोल बोल सुनें। कितनी दृढ़ता है उनकी वाणी में! वे कहते हैं-
“ शिव अज शुरु सनकादिक नारद ।
जे मुनि ब्रह्म विचार विशारद ।।
सब कर मत खगनायक ऐहा ।
करिय राम पद पंकज नेहा ।।
श्रुति पुरान सद्ग्रंथ कहाहीं ।
रघुपति भगति बिना सुख नाहीं ।।
कमठ पीठ जामहिं बरु बारा ।
बंध्या सुत बरु काहुहि मारा ।।
फूलहिं नभ बरु बहु विधि फूला ।
जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला ।।
तृषा जाइ बरु मृग जल पाना ।
बरु जामहिं शश सीस बिषाना ।।
अंधकार बरु रविहि नसावै ।
राम विमुख न जीव सुख पावै ।।
हिम ते प्रकट अनल बरु होई ।
विमुख राम सुख पाव न कोई ।।”
“ वारि मथे घृत होइ बरु, सिकता तें बरु तेल ।
बिनु हरि भजन न भव तरिय, यह सिद्धांत अपेल ।।”
अर्थात्-शिव, ब्रह्मा, शुकदेव, सनकादिक, नारद और जो मुनि ब्रह्म-विचार में प्रवीण हैं, हे पक्षिराज! सबका यही मत है कि राम के चरण-कमल में प्रेम करना चाहिये। वेद, पुराण और सब ग्रन्थ (सद्ग्रन्थ) कहते हैं कि राम की भक्ति बिना सुख नहीं है। कछुए की पीठ पर चाहे बाल जम जावें और चाहे बाँझ का बेटा किसी को मार डाले। चाहे आकाश में बहुत तरह के फूल फूलें; परन्तु राम से विमुख रहकर जीव सुख नहीं पा सकता है। चाहे मृगतृष्णा का जल पीने से प्यास दूर हो जाये, चाहे खरहे के माथे पर सींग जम आवे। चाहे अन्धकार सूर्य को नाश कर दे; किन्तु राम से विमुख होकर केाई सुख नहीं पा सकता है। चाहे पाला से अग्नि प्रकट हो जावे; परन्तु राम से विमुख होकर कोई सुख नहीं पा सकता है। चाहे पानी के मथने से घी हो जाय, चाहे बालू से तेल निकल आवे; परन्तु यह सिद्धांत अटल है कि बिना हरि-भजन के कोई संसार-समुद्र से पार नहीं हो सकता है।
अतएव नित्य सत्य एवं शाश्वत सुख के लिए ईश्वर-भक्ति करनी चाहिये। ईश्वर-स्वरूप इन्द्रियातीत होने के कारण उसका सुख भी इन्द्रियातीत है। अतएव इन्द्रियों के द्वारा उस सुख की प्राप्ति कदापि हो नहीं सकती और न कोई भी इन्द्रिय उस सम्बन्ध में कुछ कह सकती है। जो इन्द्रियों का विषय नहीं-जो अनिर्वचनीय है, उसके सम्बन्ध में वाणी मूक है, ठीक उसी तरह जैसे गूँगे को मीठा फल खिलाया जाय, तो वह उसके विषय में कुछ कह नहीं सकता। इस विषय का स्पष्टीकरण सूरदासजी महाराज ने इस भाँति किया है-
अविगत गति कछु कहत न आवै ।
ज्यों गूँगहिं मीठे फल को रस, अन्तरगत ही भावै ।।
परम स्वाद सबही जू निरन्तर, अमित तोष उपजावै ।
मन बानी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै ।।
अमित तोष के लिए संतों ने ईश्वर की भक्ति बतायी; क्योंकि वह परम स्वाद और परम तृप्ति ईश्वर में ही है। यही हेतु है कि इस सत्संग के द्वारा ईश्वर भक्ति का प्रचार किया जाता है।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन सहरसा जिले के 31वें वार्षिक अधिवेशन के अवसर
पर महुआ बाजार में दिनांक 26-03-1993 ई0 को अपराह्णकालीन से सत्संग हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, फरवरी 1994 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
स्वामी श्री गंगेश्वरानन्दजी उम्र में मुझसे अधिक हैं, वयोवृद्ध हैं। परमपूज्य गुरुदेव (महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज) से दीक्षा भी इन्होंने मुझसे पहले ली है, तो इनमें विशेषता होनी ही चाहिए, इस कारण ये मेरी प्रशंसा करें, यह भी स्वाभाविक ही है। वृक्ष की जिस डाली में फल लगते हैं, वह स्वाभाविक ही झुकती है और जिस डाली में फल लगे नहीं रहते, वह ऊपर उठी रहती है। यह इनकी गुणशीलता है, जो इन्होंने मेरी प्रशंसा की है। वास्तव में उक्तगुणों से युक्त तो मैं नहीं हूँ, लेकिन बड़े होने के नाते ये मुझमें जो गुण कहते हैं, वे सब गुरु महाराज की कृपा से मुझमें आ जाएँ, तो अच्छा ही हो। मैं अपना सौभाग्य समझूँगा।
आपलोग अभी पूर्ववक्ताओं से ध्यान-योग के बारे में सुन रहे थे। ध्यान किसको कहते हैं ? हमलोग अपने व्यावहारिक जीवन में ध्यान शब्द का प्रयोग विभिन्न स्थलों पर किया करते हैं। जैसे-जब हमारे बच्चे पढ़ने के लिए विद्यालय जाते हैं, तो हम उन्हें कहते हैं-देखो जी, ध्यान देकर पढ़ना। हमारी माताएँ जब चौका-गृह जाती हैं और रसोई बनाती हैं, अगर वे ध्यान से रोटियाँ नहीं बनाएँ, तो रोटियाँ जल जाएँगी या कच्ची रह जाएँगी। रोटियाँ बनाने में भी ध्यान की आवश्यकता होती है। अगर मन को सँजोकर नहीं रखें, तो सब्जी में नमक दिया है या नहीं, इसका पता भी नहीं चलेगा और कभी दुबारा नमक भी पड़ जाए, सम्भव है। इसलिए प्रत्येक कर्म में, चाहे वे लौकिक या पारलौकिक हों; सब पर ध्यान रखना पड़ता है। किसी बात को समझने के लिए हम ऐसा भी कहते हैं-ध्यान देकर सुनिए, तब बात समझ में आएगी। ‘ध्यान’ शब्द के प्रयोग का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। वैज्ञानिकों का जो आविष्कार होता है, वहाँ भी ध्यान की आवश्यकता पड़ती है। बिना एकाग्रता के अनुसंधान नहीं हो सकता है। बहुत देर तक ध्यान से एकाग्र होकर उन्हें सोचना और काम करना पड़ता है। जब हम आध्यात्मिकता की ओर जाते हैं, तो वहाँ ध्यान के कई प्रकार सामने आते हैं। यथा-स्थूल ध्यान, सूक्ष्म ध्यान, सूक्ष्मतर ध्यान और सूक्ष्मतम ध्यान होता है। हमारे शास्त्र में ध्यान के संबंध में कहा गया है-‘ध्यानं निर्विषयं मनः।’ मन निर्विषय हो जाय, विषयों को ग्रहण नहीं करे, वह ध्यान है। ध्यान की बात केवल हमारे वैदिक धर्म में ही हो, ऐसी बात नहीं। सूफी-फकीर लोग भी ध्यान करते हैं और उसको वे लोग ‘मराकबा’ कहते हैं। ईसाई संत भी ध्यान करते हैं। वहाँ ध्यान को Meditation कहा जाता है और उसकी परिभाषा दी जाती है- 'All attention, without
any tension is called Meditation.' ध्यान का प्रचलन सभी धर्मों में है। ध्यान के बिना कल्याण नहीं है। भगवान बुद्ध ने कहा है-
“ नत्थि झानं अपञ्ञस्स पञ्ञा नत्थि अझायतो ।
यम्हि झानञ्च पञ्ञा च स वे निब्बानसन्तिके ।।”
(धम्मपद, भिक्खुवग्गो)
अर्थात् ज्ञान के बिना ध्यान नहीं औैर ध्यान के बिना ज्ञान नहीं, जो ज्ञान और ध्यान दोनों रखता है, निर्वाण के समीप है।
यह संसार नाम-रूपात्मक है। इस नाम- रूपात्मक संसार से अपने को समेटने के लिए नाम-रूप का ही अवलम्ब लेते हैं। ऋषि-मुनियों की परम्परा से आते हुए हम अद्यावधि ध्यान की क्रिया पाते हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम भी ध्यान करते थे। जब भगवान श्रीराम और लक्ष्मण विश्वामित्र मुनि के साथ जनकपुर गए, तो रात्रि का आगमन जानकर मुनि ने दोनों भाइयों को ध्यान करने का आदेश दिया।
“ निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा ।
सबही सन्ध्या बंदन कीन्हा ।।”
(रामचरितमानस)
जब हम श्रीमद्भागवत पढ़ते हैं, तो उसमें पाते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण भी ध्यान करते थे। यथा-
“ ब्राह्मेमुहूर्त्ते उत्थाय वार्युपस्पृश्य माधवः ।
दध्यौ प्रसन्नकरण आत्मानं तमसः परम् ।।”
अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण प्रतिदिन ब्राह्ममुहूर्त्त में उठ जाते और हाथ-मुँह धोकर अपने आत्म-स्वरूप का ध्यान करने लग जाते। उस समय उनका रोम-रोम आनन्द से खिल उठता था।
मुक्तिकोपनिषद् के द्वितीय अध्याय में लिखा है कि भगवान श्रीराम हनुमानजी को ध्यान करने की क्रिया बतलाते हैं। यह ध्यान की परम्परा अनादि काल से चली आ रही है। ध्यान करते-करते जैसे-जैसे प्रगति होती है, विषयों की ओर से उतना ही हटाव होता जाता है। विषयासक्ति अगर रहेगी, तो हम ध्यान नहीं कर सकते। कठोपनिषद् में आया है-
“ नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो ना समाहितः ।
नाशान्तमानसोवापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ।।”
जो पाप कर्मों से निवृत्त नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ शान्त नहीं हैं और जिसका चित्त असमाहित या अशान्त है, वह इसे आत्मज्ञान द्वारा प्राप्त नहीं कर सकता है।
चाहे क्रिश्चियन हो या इस्लाम या वैदिक; सभी धर्मों में पाप से पृथक रहने की आज्ञा दी गई है। रामकृष्ण परमहंसजी ने कहा-‘जिस कुँए के जल से भूत उतारना हो, यदि उस कुँए के जल में ही भूत का वासा हो, तो भूत उतरेगा कैसे ?’ उसी तरह जिस मन से भगवद्भजन करना है, वह मन ही यदि विषयों में रमण करेगा, तो भजन करेगा कौन ?
इसलिए मन को उस ओर से हटाना है। पहले तो सजग होकर हटाना पड़ता है, पीछे स्वयं हटकर रहता है। ध्यान करने की क्रिया की चर्चा रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में भी है। कागभुशुण्डिजी भी ध्यान करते थे। ध्यानाभ्यास के अतिरिक्त वे क्या सब करते थे, इस प्रकार लिखा है-
“ पीपर तरु तर ध्यान सो धरई ।
जाप यज्ञ पाकरि तर करई ।।
आम छाँह कर मानस पूजा ।
तजि हरि भजन काज नहिँ दूजा ।।
बट तर कह हरि कथा प्रसंगा ।
आवहिं सुनहिं अनेक बिहंगा ।।”
‘जाप यज्ञ पाकरि तर करई’-जपरूपी यज्ञ पाकड़ वृक्ष के नीचे करते थे। ‘आम छाँह कर मानस पूजा’-आम वृक्ष के नीचे बैठकर मानस ध्यान करते थे। इसके अतिरिक्त दूसरे प्रकार का ध्यान करते थे, जिसके संदर्भ में भगवान शंकर पार्वतीजी से कहते हैं-
‘पीपर तरु तर ध्यान सो धरई ।’
जिज्ञासा हो सकती है कि एक बार तो ध्यान के संबंध में पहले कहा जा चुका है, फिर दूसरी बार ध्यान की चर्चा क्यों? उत्तर में निवेदन है कि पहले स्थूल ध्यान-मानस ध्यान के लिए कहा गया है। पुनः जो ध्यान के लिए कह रहे हैं, यह है दृष्टियोग और नादानुसंधान।
“ लोचन चातक जिन्ह करि राखे ।
रहहिं दरस जलधर अभिलाखे ।।
निदरहिं सरित सिन्धु सर भारी ।
रूप बिन्दु जल होहिं सुखारी ।।”
(उत्तरकाण्ड)
चातक पक्षी स्वाति-बूँद पाने के लिए आकाश की ओर एकटक देखता रहता है, उसी तरह दृष्टि-साधन की क्रिया की जाती है। हमारे गुरुदेव के वचन में आया है-‘ध्यानाभ्यास करो सद सदही, चातक दृष्टि बनाई हो ।’ और नादानुसंधान के लिए रामचरितमानस में आया है-
“ जिनके श्रवण समुद्र समाना ।
कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना ।।
भरहिं निरंतर होहिं न पूरे ।
तिनके हिय तुम कहँ गृह रूरे ।।”
(उत्तरकाण्ड)
यह नादानुसंधान की क्रिया है। तो जो हम रामचरितमानस में मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि- ध्यान और नादानुसंधान पाते हैं, वही बात हमलोगों को हमारे गुरु महाराज भी बतलाते हैं।
भगवान श्रीराम ने मुक्तिकोपनिषद् में हनुमानजी को यही क्रिया बतलाई है। यथा-
“ दर्शनादर्शने हित्वा स्वयं केवलरूपतः ।
य आस्ते कपिशार्दूल ब्रह्म स ब्रह्मवित्स्वयम् ।।”
अर्थात् जो दर्शन और अदर्शन को त्याग देता है, वह कैवल्य स्वरूप हो जाता है। वह केवल ब्रह्मज्ञानी नहीं, बल्कि स्वयं ब्रह्म ही है।।
वह दर्शन और अदर्शन क्या है ? अन्तर्ज्योति की प्रत्यक्षता ‘दर्शन’ है और अन्तर्नाद की साधना ‘अदर्शन’ है। ज्योति और नाद की साधना ही दर्शन और अदर्शन की साधना है। उसको जब पार कर जाते हैं, तब ‘निःशब्दं परमं पदम्’ है। भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धवजी को दृष्टियोग की क्रिया बतलाई थी। श्रीमद्भागवत स्कंध 11, अध्याय 4/32 में लिखा है-
“ सम आसन आसीनः समकायो यथासुखम् ।
हस्तावुत्संग आधाय स्वनासाग्र कृतेक्षणः ।।”
अर्थात् सुख-पूर्वक सम आसन से शरीर को सीधा करके बैठो। हाथों को तर-ऊपर गोद में रखो और नासिकाग्र का ध्यान करो। यही विद्या अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण बतलाते हैं-
“ समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ।।”
अर्थात् पीठ, मस्तक और गर्दन को सम करके अचल और स्थिर होकर दिशाओं को न देखते हुए नासाग्र में देखो।
इसी क्रिया को बौद्ध धर्म में विपश्यना ध्यान और जैन धर्म में प्रेक्षा ध्यान कहते हैं। इसके द्वारा अन्तर्ज्योति का दर्शन होता है।
भिक्षु जगदीश काश्यपजी बौद्ध जगत के बहुत बड़े सुप्रतिष्ठित विद्वान थे। वे इतने बड़े विद्वान थे कि पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू जब बौद्ध देशों में जाते थे, तो उनको साथ लेकर जाते थे। वे जितने बड़े विद्वान थे, उतने ही विनयशील भी थे। मुझको उनसे बातचीत होती रहती थी। एक बार मैंने उनसे पूछा-‘बौद्ध साहित्य में जो आया है-एकांगी समाधि और उभयांगी समाधि, वह क्या है ?’ उन्होंने कहा- ‘आपने कहाँ पढ़ा ?’ मैंने कहा-‘आपने ही तो त्रिपिटक का अनुवाद किया है। उसी में मैंने पढ़ा है।’ वे बड़े सरल थे। उन्होंने कहा-‘अनुवाद तो मैंने कर दिया है, लेकिन भावार्थ क्या है, मैं नहीं बतला सकता। यदि आप जानते हैं, तो कहिए।’ तब मैंने कहा-‘देखिए, एकांगी समाधि वह होती है, जिसमें साधक केवल देखता है और उभयांगी समाधि वह है, जिसमें साधक देखता भी है और सुनता भी है। जिस समय साधक दृष्टि-साधन की क्रिया करता है, उस समय वह केवल देखता है। दृष्टि-साधन करके वह स्थूल जगत के परे सूक्ष्म जगत में चला जाता है। इस तरह ज्योति और नाद; दोनों की साधना पूर्ण होने से उसकी समाधि लग जाती है।’ उन्होंने कहा- ‘हाँ, बात तो ठीक जँचती है।’
यह तो बहुत ऊँची बात हुई, लेकिन जबतक कोई मोटे-मोटे अक्षरों को नहीं लिख लेता, उसमें महीन अक्षर लिखने की योग्यता नहीं होती। इसीलिए पहले स्थूल या मोटी उपासना है, उसके बाद सूक्ष्म उपासना है। स्थूल उपासना के संबंध में कबीर साहब कहते हैं-
“ मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ अन्तरि गुरु आराधणा जिह्वा जपि गुर नाउ ।
नेत्री सतगुरु पेखणा स्त्रवणी सुनणा गुरु नाउ ।।”
तथा-
“ गुर की मूरति मन महि धिआनु ।
गुर कै सबदि मंत्र मनु मानु ।।
गुरु के चरन रिदै लै धारउ ।
गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारउ ।।”
इस स्थूल जप और ध्यान के द्वारा मन का कुछ सिमटाव होता है, लेकिन पूर्ण सिमटाव नहीं होता। पूर्ण सिमटाव के लिए दृष्टियोग की क्रिया है। दृष्टियोग में पूर्ण सिमटाव होता है और ऊर्ध्वगति होती है। किसी भी चीज को समेटिए, चाहे वह तरल हो या कठिन हो, वाष्पीय हो या विद्युत् हो, समेटने से उसकी ऊर्ध्वगति होती है। एक मन अनाज जब हम सुखाते हैं, तो उसका क्षेत्र कितना विस्तृत होता है, लेकिन अनाज को जब हम समेट लेते हैं, तो जिस स्तर पर वह अनाज सूख रहा था, उससे वह ऊपर उठ जाता है। उसी तरह हमारा मन जो संसार में फैला हुआ है, इसका जब सिमटाव करते हैं, तो ऊर्ध्वगति होती है, एकविन्दुता प्राप्त होती है और अंधकार से प्रकाश में गमन होता है। इसी अंधकार से प्रकाश में जाने के लिए हम प्रार्थना करते हैं-‘तमसो मा ज्योतिर्गमय।’-हे प्रभु ! मुझे अंधकार से प्रकाश में ले चलो, लेकिन बिना क्रिया किए हम केवल प्रार्थना से ही अंधकार से प्रकाश में चले जाएँ, यह सम्भव नहीं है। आचार्य विनोबा भावे कहते थे कि परमात्मा हमारी कुछ प्रार्थना सुनते हैं और कुछ नहीं सुनते हैं। कैसी प्रार्थना सुनते हैं और कैसी नहीं सुनते ? इसपर वे कहते थे-भागलपुर से एक ट्रेन दिल्ली जाती है और दूसरी ट्रेन कलकत्ता जाती है। हमको दिल्ली जाना है। जो गाड़ी दिल्ली जाती है, उसपर हम बैठ जाएँ और प्रार्थना करें-हे प्रभु ! हमें सकुशल दिल्ली पहुँचा दो, तो परमात्मा हमारी प्रार्थना सुनकर सकुशल हमें दिल्ली पहुँचा देंगे, लेकिन जो गाड़ी भागलपुर से कलकत्ता जाती है, उसमें हम बैठें और कहें-हे प्रभु ! हमें सकुशल दिल्ली पहुँचा दो, तो यह प्रार्थना नहीं सुनी जाएगी। राधास्वामी साहब ने बड़ा अच्छा कहा है-
‘बैठे ने रास्ता काटा, चलते ने बाट न पाई ।’
“ है कुछ रहनि गहनि की बाता ।
बैठा रहे चला पुनि जाता ।।”
बैठने से रास्ता कैसे कटेगा ? अरे ! जब नाव पर बैठ जाते हैं, तो चलते हम हैं या नाव चलती है ? नाव ही चलती है, हम तो बैठे हुए ही रहते हैं और रास्ता भी कट जाता है। दिल्ली के लिए हम चलते हैं, तो गाड़ी पर बैठ जाते हैं, चलती है गाड़ी और हमारा रास्ता कट जाता है। जो सवारी हमको परमात्मा की ओर ले जाएगी, उसपर हम बैठेंगे, तब न उधर जाएँगे। वह सवारी कौन-सी है? महर्षि मेँहीँ-पदावली में आया है-
“ विन्दु नाद अगुवाइ तुमहिं ले जायेंगे ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’, ज्योति मंडल सह
नाद की शैर दिखायँगे ।।
ज्योति मंडल की शैर, झकाझक झाँकिये ।
तिल ढिग जुगनू जोति, टकाटक ताकिये ।।
होत बिज्जु उजियार, नजर थिर ना रहै ,
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’, सुरत काँपती रहै ।
ज्योति दृढ़ क्यों गहै ।।” इस रास्ते पर चलिए, तो विन्दु-रूप सवारी अगुवानी के लिए आपके सामने आएगी। वह कहाँ ले जाएगी। ‘ज्योति मंडल सह नाद की शैर दिखाएँगे।’ जब ज्योति मंडल में पहुँचेंगे, तब क्या मालूम पड़ेगा ? ‘ज्योति मंडल की शैर, झकाझक झाँकिये। तिल ढिग जुगनू जोति टकाटक ताकिये।’ वहाँ की बिजली कैसी होती है ? ‘होत बिज्जु उजियार नजर थिर ना रहै’-ऐसी तेज बिजली है कि आँखें उसपर नहीं टिकतीं। “ अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ सुरत काँपती रहै ज्योति दृढ़ क्यों गहै।” सुरत काँपती है। जिस चीज को कभी देखा नहीं, वह चीज देखने में आती है, तो भय-सा लगता है, लेकिन भय की कोई आवश्यकता नहीं। हमारे गुरु महाराज ढाढ़स देकर कहते हैं-
“ दृष्टि योग अभ्यास अतिहि, करतहि करत ।
कँपनी सहजहिं छुटै, प्रौढ़ होव सुरत ।।
तिल दरवाजा टुटै, नजर के जोर से ।
अरे हाँरे‘ मेँहीँ’, लगे टकटकी खूब,
जोर बरजोर से ।।”
जिस समय हमलोग दंड-बैठक खेलने के लिए अखाड़े में जाते हैं, तो जब नया खिलाड़ी खेल शुरू करता है, तो बाहें दुखने लगती हैं और जाँघें भी काँपने लगती हैं, लेकिन जब नित्य दंड-बैठक करते हैं तो भुजाएँ और जाँघें; दोनों मजबूत हो जाती हैं। अभ्यास करते-करते अभ्यस्त हो जाते हैं। पहले पढ़ने के लिए विद्यालय में जाते हैं, तो एक अक्षर ‘अ’ लिखने में ही पसीना छूटने लगता है। कितने दिन में एक ‘अ’ लिखते हैं। आगे चलकर वही ‘अ’ आप आँख बंद करके लिख देंगे। दाहिने हाथ से कौन कहे, बाएँ हाथ से लिख देंगे। और तो और, हाथ की बात कौन कहे, पैर के अँगूठे से भी आँखें बंद करके लिख लेंगे। ‘अ’ तो वही है, अन्तर कुछ आया नहीं। हाँ, अभ्यास इतना बढ़ गया है कि भय नहीं लगता। उसी तरह जब साधना करते हैं, तो करते-करते स्वाभाविक ही कँपनी छूट जाती है। सुरत मजबूत होगी और हम अभ्यस्त हो जाएँगे। इस तरह दृष्टि-साधन की क्रिया करते-करते अंधकार से प्रकाश में प्रवेश करते हैं। केवल प्रार्थना से प्रकाश में नहीं जा सकते। इसी के लिए संत गुलाल साहब का यह संकेत है-
“ उलटि देखो घट में जोति पसार ।
बिनु बाजे तहँ धुनि सब होवै, विगसि कमल कचनार ।।”
उलटो अर्थात् बहिर्मुख से अन्तर्मुख होओ, नौ दरवाजे से दसवें दरवाजे में जाओ-अंधकार से प्रकाश में जाओ, पिण्ड से ब्रह्माण्ड में जाओ, यह उलटना है। जब तुम इस तरह उलटोगे, तो अन्दर में केवल प्रकाश ही नहीं मिलेगा, बल्कि वहाँ बिना किसी वाद्य-यंत्र के सभी प्रकार के बाजे बजते हैं। संसार में जब कोई गायक राग-रागिनी में गाते और बाजा बजाते हैं, तो उस ओर हमारा मन आकर्षित हो जाता है, फिर जो परमात्म-कृत आन्तरिक ध्वनि है, उसकी बात ही क्या कही जा सकती है!
एक समय स्वामी विवेकानन्द एक राजा के यहाँ ठहरे हुए थे। उस राजा के यहाँ एक नर्तकी आई थी। वह नृत्य करती थी और गाना भी गाती थी। विवेकानन्दजी से उस नाट्यशाला में जाने के लिए कहा गया। स्वामीजी ने कहा-‘मैं नहीं जाऊँगा’ और अपने कमरे में चले गए। इधर नर्तकी नृत्य करने लगी और गाना गाने लगी-‘हमारे प्रभु अवगुण चित न धरो।’ उसका स्वर और लय बहुत मीठा था। विवेकानन्दजी के कमरे में जब उसकी सुरीली आवाज पहुँची, तो वे कमरे से निकलकर उस नाट्यशाला में आ गए। इतने करुण भाव से वह गा रही थी कि स्वामीजी के मन में यह हुआ-मैंने इनसे घृणा की थी कि मैं इनके पास नहीं जाऊँगा और ये कह रही हैं, ‘हमारे प्रभु अवगुण चित्त न धरो।’ वे सोचती होंगी कि मुझे नर्तकी जानकर ये मेरे पास नहीं आना चाहते।
जब मानवकृत बाजा और मानवीय गाना सुनकर हमारा मन इतना आकर्षित होता है, तब जो प्रभु का बनाया हुआ बाजा सुनेंगे, तो हमारा मन कितना आकर्षित होगा, लेकिन उसको सुनेंगे कैसे ?
“ पैठि पताल सूर ससि बाँधौ, साधौ त्रिकुटी द्वार ।
गंग जमुन के वारपार बिच, भरतु है अमिय करार ।।”
संत गुलाल साहब पाताल में पैठने कहते हैं। पाताल में कहाँ, समुद्र के नीचे जाना है ? नहीं, संतों का समुद्र और पाताल कुछ और ही होता है। कबीर साहब कहते हैं-
“ कबीर काया समुँद है, अन्त न पावै कोय ।
मिरतक होइ के जो रहै, मानिक लावै सोय ।।
मैं मरजीवा समुँद का, डुबकी मारी एक ।
मूठी लाया ज्ञान की, जामें वस्तु अनेक ।।
डुबकी मारी समुँद में, निकसा जाय अकास ।
गगन मंडल में घर किया, हीरा पाया दास ।।”
जागतिक समुद्र में जो व्यक्ति डुबकी लगाएगा, वह पाताल चला जाएगा, लेकिन संत कबीर डुबकी लगाते हैं समुद्र में और निकलते हैं आकाश में। ये संतों के पारिभाषिक और सांकेतिक शब्द हैं। इसी प्रकार चन्द्र और सूर्य के लिए भी हैं।
सूर-ससि = दाईं धार और बाईं धार अर्थात् इड़ा और पिंगला नाड़ी। इन दोनों की जो संधि है, उसपर जो कोई अपने को टिकाते हैं, तो सूर-ससि को साधते हैं, दाईं और बाईं धारों को एकत्रित करते हैं। एक बंगाली महात्मा योगी पंचानन भट्टाचार्य ने कहा है-
“ बामे इड़ा नाड़ी दक्षिणे पिंगला,
रजस्तमो गुने करिते छे खेला ।
मध्ये सत्वगुने सुषुम्ना विमला,
धरऽ धारऽ ताँरे सादरे ।।”
जो सुषुम्ना को आदर के साथ धारण करता है, वह प्रकाश में पहुँचता है। वहाँ विविध प्रकार के शब्द मिलते हैं। इसलिए संत कबीर साहब ने कहा है-
“ विमल विमल अनहद धुनि बाजै,
सुनत बने जाको ध्यान लगे ।
जो कोई ध्यान करते हैं, उनको ये शब्द सुनाई पड़ते हैं, विमल ध्वनि सुनाई पड़ती हैै। जिस तरह की आवाज हम सुनते हैं, जिस तरह की बात हम सुनते हैं, हमारा मन उससे प्रभावित होता है। पवित्र बात सुनकर हमारा मन पवित्र होता है और अपवित्र बात सुनकर मन अपवित्र होता है। जो परम प्रभु का परम पावन शब्द है, उस शब्द को जब हम सुनेंगे, तो मन कितना पवित्र होगा! उस पवित्र ध्वनि को कौन सुनता है? ‘सुनत बनै जाको ध्यान लगे।’ ध्यान किसका लगता है? जिसका सांसारिक विषयों से हटाव होता है, उसी का परमात्मा से जुटाव होता है। अगर इस ओर जुटा हुआ है, तो उस ओर जुटाव नहीं होगा। इसके लिए भगवान श्रीकृष्ण ने अभ्यास और वैराग्य धारण करने के लिए कहा है-
‘अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येन च गृह्यते ।’
आन्तरिक ध्वनि या अन्तर्नाद; दो तरह की होती हैं। पहले तो अनहद नाद है, फिर अनाहत नाद। अनहद नाद में किस नाद को पकड़ना चाहिए, यह नादानुसंधान की क्रिया में बतलाई जाती है। उस नाद को पकड़कर सुरत स्थूल के केन्द्र से सूक्ष्म के केन्द्र पर जाती है। सूक्ष्म के केन्द्र के नाद को पकड़कर कारण के केन्द्र पर जाती है। फिर कारण के केन्द्रीय नाद को पकड़कर महाकारण के केन्द्र पर जाती है, तो इस तरह जड़ात्मक आवरणों से छूट जाते हैं। वहाँ के शब्द को पकड़ करके कैवल्य मंडल में जाते हैं, जहाँ सारशब्द की प्राप्ति हो जाती है। हमारे गुरुदेव कहते हैं-‘सारशब्द ही नाह मिलावै और नहीं कोई।’ अन्तिम शब्द जो सार शब्द है, वही परमात्मा से जाकर मिलाता है। वही आदिशब्द है, वही ओ3म् है, स्फोट है, उद्गीथ है, प्रणव है, शब्द ब्रह्म है, आदिनाद है। उसके बहुत-से नाम हैं।
“ आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह ।
परसत ही कंचन भया, छूटा बन्धन मोह ।।”
-संत कबीर साहब
वहाँ पहुँचकर मोह का बंधन छूट जाएगा। सारे दुःख-दर्द समाप्त हो जाएँगे। आवागमन का चक्र समाप्त हो जाएगा। यह संतमत का सार आपलोगों की सेवा में निवेदन किया।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन गोड्डा जिला 46वाँ अधिवेशन, पोड़ैयाहाट में दिनांक 09-04-1993 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जुलाई 2005 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आपलोगों ने रामचरित मानस का पाठ सुना। रामचरित मानस एक अद्भुत ग्रंथ है। जिस तरह एक राजा के यहाँ एक हाथी को नहला-धुलाकर लाया गया; लेकिन वह हाथी अपने सूँढ़ से नीचे की मिट्टी उठा-उठाकर, धूल उठा-उठाकर अपने शरीर पर डालता जा रहा था। एक पथिक ने महावत से पूछा-‘यह हाथी अपने शरीर पर धूल क्यों डाल रहा है?’ महावत ने उत्तर दिया-‘यह हाथी तो जंगली जानवर है, इसको क्या पता कि हमको नहलाया-धुलाया गया है, साफ-सुथरा किया गया है। इसी अज्ञानता से वह अपने शरीर पर धूल डाल रहा है।’ किसी ने अब्दुल रहीम खानखाना से पूछा-
‘धूल धरत निज शीश पर, कहु रहीम केहि काज ।’
वे तो कवि थे, उन्होंने उत्तर दिया-
‘जो रज मुनि पत्नी तरी, सो खोजत गजराज ।’
यह हाथी उस धूल की खोज में है, जिस धूल से अहल्या का उद्धार हो गया था। किसी ने कबीर साहब से पूछा-‘राजा के दरबार में जो हाथी बंधा हुआ है, वह अपने सिर पर धूल क्यों ले रहा है?’ संत कबीर साहब ने उत्तर दिया-
“ राज दुआरे बंधिया, माथा धुनत गजन्द ।
मनुष जन्म कब पाइहौं, भजिहौं परमानन्द ।।”
वह सिर पर धूल नहीं ले रहा है, वह तो सिर धुन रहा है कि हमको कब मनुष्य का शरीर मिले और हम भगवान का नाम लें, भजन करें। यह समझिये कि हमलोगों को अभी मनुष्य का शरीर मिला हुआ है, अगर हम इसमें भगवान का भजन नहीं करें, तो शायद कहीं हाथी की तरह हमको भी माथा धुनना न पड़े। इसलिए हम सचेत हो जाएँ। दुर्लभ शरीर मिला हुआ है, भगवद्भजन करें।
ग्रंथ पाठ के क्रम में आपने सुना कि भगवान श्रीराम जब शवरी के आश्रम पर आये, तो वह भाव विह्वल हो गई और हाथ जोड़कर कहने लगी-
“ केहि विधि अस्तुति करउँं तुम्हारी ।
अधम जाति मैं जड़मति भारी ।।
अधम तें अधम अधम अति नारी ।
तिन्ह महँ मैं मति मंद अघारी ।।”
हे पाप के शत्रु! मैं आपकी स्तुति किस तरह करूँ। मैं मूढ़ हूँ, ज्ञानहीना हूँ, उच्च कुल विहीना हूँ, नारियों में जो नीच-से- नीच होती हैं, उनमें भी मैं नीच हूँ।
समझने की बात है कि वही भगवान श्रीराम शवरी के लिए कहते हैं-‘सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।’ जिनमें सभी प्रकार की भक्ति पूरी हो, वह नीच-से-नीच कैसे हो सकती है। यह नीचता का भाव जो शवरी बतला रही है, इसका अर्थ यह समझना चाहिए कि-
“ फूले फले विटप सब, रहे भूमि नियराय ।
पर उपकारी पुरुष जिमि, नवहि सुसंपति पाय ।।”
पेड़ की जिस डाल में फल लगते हैं, नहीं लगता, वह डाल ऊपर उठी रहती है। उसी तरह जिनमें सद्गुण आते हैं, वे विनम्र हो जाते हैं और जिनमें सद्गुण नहीं हैं, वे अकड़े हुए रहते हैं। शवरी तो भक्ति में पूर्ण थी; इसलिए वह अपने को सबसे नीच बतला रही है। भगवान श्रीराम कहते हैं-
“ कह रघुपति सुनु भामिनि बाता ।
मानउँ एक भगति कर नाता ।।”
हमारा और तुम्हारा जो संबंध है, वह भक्ति का संबंध है। तन का, जाति का, कुल का, विद्या का या धन आदि का संबंध नहीं है। बात यह है कि किसी कुशल स्वर्णकार के पास आप स्वर्णहार लेकर बेचने के लिए जाइये तो वह स्वर्ण के हार को नहीं देखता है, वह देखता है कि खरा सोना है या नहीं। उसकी दृष्टि सोने की गुणवत्ता पर रहती है। आपके हार का वह वजन कर लेगा और वजन करने के बाद कहेगा कि पाँच तोले का हार है, इसकी कीतम इस भाव से लीजिए। अगर आप कहेंगे कि पाँच तोला तो सोना है और यह हार की जो बनावट है, उसके पैसे दीजिए, तो स्वर्णकार बनावट के पैसे नहीं देगा, सोने के पैसे देगा। वह कहता है कि जेबर की बनावट से क्या मतलब, हमको तो सोने से मतलब है। उसी तरह जो आत्मज्ञ होते हैं, उनकी दृष्टि आत्मा पर होती है, शरीर पर नहीं होती है और जाति-पाति पर भी नहीं होती। जिस तरह से तकिया का खोल कोई काला, कोई पीला, कोई नीला, कोई उजला और कोई हरा होता है; लेकिन सबके भीतर रहने वाली रूई एक ही रंग की होती है। उसी तरह से बाहर से कोई व्यक्ति काला, कोई गोरा, कोई मोटा, कोई पतला, कोई लम्बा और कोई नाटा होता है। यह तो बहिरंग है। कोई ब्राह्मण, कोई क्षत्रिय, कोई वैश्य, कोई शूद्र, कोई सिक्ख, कोई जैन, कोई बौद्ध, कोई ईसाई, कोई इस्लाम और कोई वैदिक होता है। यह तो बहिरंग हैं; लेकिन सबमें निवास करने वाली जो आत्मा है, वह तो एक ही है। भगवान की जो दृष्टि है, वह शबरी की आत्मा पर है।
जब संतों के दर्शन होते हैं, तो प्रभु की याद आती है और जिस समय हमें प्रभु की याद आती है, परमात्मा के दरवार में उसी समय की हाजरी होती है और बाकी दिनों की हाजरी तो बनती ही नहीं है।
“ कबीर दर्शन साधु के, साहेब आवै याद ।
लेखा की वाही घड़ी, बाकी के दिन बाद ।।”
इसलिए कहते हैं कि संतों की संगति करो। संतों की संगति से क्या होता है-
‘जो कुछ गंधी दे नहीं, तौ भी वास सुवास ।’
गंधी की दुकान पर आप जाइये। आप उससे मोल-मोलाई या खरीद नहीं कीजिए, दुकान पर केवल खड़े ही रहिये, फिर भी आपको सुगंधी मिलेगी। उसी तरह संतों के पास जब आप जायेंगे, संत कुछ नहीं भी बोलें, तब भी उनके शरीर की जो आभा है, वह आप में प्रवेश करेगी और आपके मन में परिवर्तन ला देगी। बुद्धि को, वृत्ति को सात्विक बना देगी । इसलिए-
“ प्रथम भगति संतन्ह कर संगा ।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ।।”
संतों के संग में जब जाएँगे, तो वहाँ कुछ-न-कुछ कथा-प्रसंग होगा, भगवत् चर्चा होगी। भगवत् चर्चा को मन देकर सुनिये, प्रेम से सुनिये। ऐसा नहीं कि तन तो रहे सत्संग में और मन रहे संसार में। तब वह रंग नहीं लगेगा। जहाँ आप का तन है वहीं आपका मन रहेगा, तब रंग लगेगा। तुलसी दासजी से किसी ने पूछ दिया कि हम देखते हैं कि अमुक व्यक्ति रोज सत्संग करता है; लेकिन सत्संग का रंग उसपर नहीं चढ़ता है, ऐसा क्यों?
“ नित प्रति दर्शन साधु के, औ साधुन के संग ।
कहो तो कौन वियोग ते, नहीं लागा हरि रंग ।।”
वे उत्तर स्वरूप कहते हैं-
“ मन तो रमे संसार में, तन साधुन के संग ।
तुलसी याहि वियोग ते, ना लागा हरि रंग ।।”
बाल्टी में रंग घोला हुआ है। यदि कपड़ा रंगना हो तो कपड़ा को बाल्टी में ठीक से डुबाइये। तब कपड़े पर रंग चढ़ेगा। जहाँ रंग है, वहाँ कपड़े को नहीं डालकर बाल्टी के अगल-बगल में डालेंगे तो क्या होगा? बाल्टी के बगल में जो मिट्टी है, वही लगेगी। इसलिए साधु का संग हो, सत्संग हो, तो वहाँ मन देकर वचन सुनिये, तब संग का रंग लग जायेगा।
जब कथा प्रसंग होगा, उसमें बतलाया जाएगा कि ईश्वर का स्वरूप क्या है, उसकी प्राप्ति कैसे होगी, उसको कौन प्राप्त करेगा। जिस तरह दूध में घृत रहता है; लेकिन उस दूध से पूड़ि़याँ नहीं छानी जातीं। जब दूध को मथकर उससे घी को पृथक कर लेते हैं, तब उस घृत से पूड़ियाँ छानते हैं। उसी तरह जबतक जड़ के साथ चेतन है, तबतक परमात्मा की प्राप्ति नहीं होगी। जड़ से चेतन को पृथक कर लेने पर परमात्मा की प्राप्ति होगी। इसलिए एक भक्त ने कहा-
“ जिमि दूध के मथन से, निकसत है घिउ जतन से ।
तिमि ध्यान की लगन से, परब्रह्म ले निहारा ।।”
दूध से मथकर जैसे घृत पृथक कर लेते हैं, उसी तरह ध्यानाभ्यास के द्वारा जड़ से चेतन को पृथक कर लेते हैं; तब परमात्मा की प्राप्ति होती है। जड़ से चेतन को हम पृथक कैसे करें? इसी की युक्ति सन्त सद्गुरु बतलाते हैं। यह युक्ति तो महज मामूली होती है; लेकिन मूल्य बहुत है।
एक साधु बाबा थे। वे घूम-घूमकर भिक्षाटन करते और आवाज लगाते-‘राम राम करै, भवसागर तरै।’ ऐसे घूमते-घूमते एक दिन वे उस दरवाजे पर पहुँच गये, जिस दरवाजे पर पिंजड़े में एक सुग्गा बैठा हुआ था। सुग्गा को भी राम-राम सिखला दिया गया था। सुग्गा भी राम-राम जपता था। साधु बाबा जैसे जाकर टेर लगाते हैं कि ‘राम-राम करै भवसागर तरै’, तो पिंजड़ावाला सुग्गा कहता है कि ‘राम-राम करै लोह पिंजड़ पड़ै।’ साधु बाबा ने कहा-‘अरे! तुम क्या कहता है?’ सुग्गा ने कहा-‘बाबा! आप क्या कहते हैं?’ साधु बाबा ने कहा-‘हम तो कहते हैं कि राम-राम करै भवसागर तरै। तुम क्या कहते हो?’ हम तो कहते हैं-‘राम-राम करै, लौह पिंजड़ पड़ै।’ साधु ने कहा-‘ऐसा तुम क्यों कहते हो?’ सुग्गा बोला बाबा! जो सुग्गा राम-राम कहने के लिए नहीं जानता है, वह पेड़ पर बैठता है, फल खाता है, जहाँ मन होता है वहाँ उड़ करके चला जाता है। जबतक मन बैठने का होता तबतक बैठता है; जब मन उड़ने का होता तब उड़ जाता है। एक आभागा सुग्गा मैं ही हूँ, राम-राम कहता हूँ और लोहे के पिंजड़े में पड़ा हुआ हूँ। आपका जो ज्ञान है, वह किसी किताब में पढ़े होंगे कि राम-राम करने से भवसागर तरता है या आपको किसी साधु बाबाजी ने बहका दिया है कि राम-राम करने से भवसागर तरता है। मेरा ज्ञान तो अनुभव ज्ञान है। राम-राम कहने से मैं लोहे के पिंजड़े में पड़ा हुआ हूँ।’ साधु बाबा ने कहा- “ अरे बेवकूफ! ऐसे ही राम-राम कहने से भवसागर तरता है? ‘युक्ति करै, तो सहजै तरै।’ तुम राम-राम तो कहता है, पर युक्ति जानता नहीं।”
सुग्गा जिस समय पिंजड़े में रहता है, उस समय वह राम-राम कहता है। अगर कहीं बिल्ली आकर उसकी गर्दन को पकड़ ले, तो वह टांय-टांय बोलने लगता है, उस समय राम-राम नहीं कहता। उसी तरह जिसको युक्ति नहीं मालूम है कि जप कैसे किया जाता है, वह माला पर राम-राम, शिव-शिव, हरि-हरि, वाह-गुरु आदि जपता है; लेकिन जब यम आता है तो हाय बाप! हाय बेटा! कहकर चिल्लाता है, उस समय वह अपने इष्ट को भूल जाता है। तो ऐसी कौन-सी युक्ति है, जिससे राम को नहीं भुलाया जाये, अंतिम समय भी राम हमारे सामने आ जायें। वह युक्ति सद्गुरु बतलाते हैं। सुग्गा को साधु बाबा के रूप में सद्गुरु मिल गए। सुग्गे ने उनसे कहा-‘बाबा! हम कहाँ युक्ति खोजने जाएँ, आपही कुछ बता दीजिए।’ साधु बाबा ने उसे कुछ क्रिया बतला दी। वह सुग्गा उस क्रिया को करने लग गया। क्रिया करते-करते उसका प्राण स्पन्द निरुद्ध होने लगा। एक दिन वह क्रिया करके पिंजड़े में लेटा हुआ था। इतने में उसको खिलाने के लिए गृहपति आ गया। । पिंजड़ा खोलता है, तो देखता है कि सुग्गा का श्वास बन्द है। गृहपति ने सोचा कि सुग्गा तो मर गया है। उसे पिंजड़ा से बाहर फेंक दिया। जैसे ही सुग्गा बाहर निकला, वह फुर्र-से उड़ गया।
अपने मन से राम-राम कहने से कोई भवसागर नहीं तरता है, युक्ति करने से तरता है, भव बन्धन से छूटता है, शरीर के बन्धन से छूटता है। इसलिए आवश्यकता है हम उस युक्ति को जान लें। उसी युक्ति को जानने के लिए भगवान श्रीराम कहते हैं-
‘गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान।’
सन्त-सद्गुरु ज्ञान सिखलानेवाले होते हैं, इसलिए उनकी शरण में जाओ।
“ सन्त शरण जो पड़ा, ताहि का लगा ठिकाना ।
और कहीं नहिं कुशल, सकल वैराग चबाना ।।”
जो सन्त सद्गुरु की शरण में जाता है, उनकी सेवा करता है उसीका कल्याण होता है।
गुरु की सेवा करो, लेकिन मान रहित होकर।
“ अहं अग्नि हिरदै जरै, गुरु से चाहै मान ।
तिनको यम न्यौता दिया, हो हमरे मेहमान ।।”
-संत कबीर साहब
मान रहित होकर उनकी सेवा करने से वे प्रसन्न होंगे और फिर वे तुम्हें शिक्षा-दीक्षा देंगे। उनके ज्ञान के अनुकूल तुम साधना करोगे और तुम्हारा कल्याण हो जाएगा।
‘चौथी भगति मम गुण गन, करइ कपट तजि गान ।’
वे फिर भगवद्भजन करने के लिए बतलाएँगे, स्तुति और ध्यान बतलाएँगे, वह करो; लेकिन किस तरह करो? कपट छोड़ कर, दिखावा के लिए नहीं। भगवान को रिझाने के लिए करो; लोगों को रिझाने के लिए। एक बंगाली महात्मा ने कहा-
“ जाँक जमके कर्ले पूजा, अहंकार हय मने मने ।
तुमि लुकिये ताँरे कर्बे पूजा, जानबे ना रे जगज्जने ।।”
भगवान राम आगे कहते हैं-
“ मंत्र जाप मम दृढ़विस्वासा ।
पंचम भजन सो वेद प्रकासा ।।”
पाँचवीं भक्ति है- मंत्र जप। मंत्र जप एकाग्रतापूर्वक होना चाहिए। ऐसा नहीं कि मन कहीं और, मनका कहीं और। एकाग्रता पूर्वक जप करने का बहुत बड़ा फल है। शास्त्र में लिखा है-‘जपात् सिद्धिः।’ जप से सिद्धि मिल जाती है। कुन्ती देवी को जप सिद्ध था। इसलिए वह जिस देवता का आह्वान करना चाहती थी, वे देवता आ जाते थे।
जो पंसारी के दुकान की गंधक होती है, वह कच्ची गंधक होती है। इस कारण उस गंधक को खाने से शरीर में घाव हो जाता है; लेकिन जो वैद्यजी की गंधक होती है, वह शोधी हुई होती है, वह घाव को नाश करती है। उसी तरह जो गुरु प्रदत्त मंत्र होता है, वह सिद्ध मंत्र होता है। उस मंत्र का जाप करना चाहिए। जिस तरह गुरु बतलावें जप करने के लिए। जप के चार प्रकार हैं- वाचिक, उपांशु, श्वास और मानस। वाचिक जप से उपांशु जप में दस गुणा लाभ है; श्वास जप में सौ गुणा और मानस जप में हजार गुणा लाभ है। इसलिए मानस जप सर्वोत्तम है। मानस जप सबको करना चाहिए। यह पाँचवी भक्ति है।
“ छठ दम सील बिरति बहु कर्मा ।
निरत निरन्तर सज्जन धर्मा ।।”
छठी भक्ति है दमशील बनना, इन्द्रियों का दमन। जिसकी इन्द्रियाँ दमित नहीं है, वह साधना में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
“ दसइँ दसहु कर संजम, जौं न करिय जिय जानि ।
साधन वृथा होइ सब, मिलहिं न सारँग पानि ।।”
इन्द्रियों का दमन दृष्टि साधन की क्रिया से होता है। इन्द्रिय के निग्रह से सुरत का सिमटाव होता है। सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। ऊर्ध्वगति में आवरण भेदन होता है। साधक अन्धकार से प्रकाश में जाता है। अन्धकार में रहने के कारण जो अज्ञानता रहती है; प्रकाश में जाने पर वह अज्ञानता मिट जाती है। उसके कर्म ज्ञानमय हो जाते हैं। हमारा मन तबतक काम करता है, जबतक हमारी दृष्टि काम करती है। दृष्टि जब काम नहीं करती है, तो हमारा मन भी काम नहीं करता है। इसलिए मनोनिग्रह के लिए दृष्टि निग्रह करना चाहिए।
“ सातवँ सम मोहिमय जग देखा ।
मोतें संत अधिक करि लेखा ।।”
जहाँ दम की क्रिया होती है, वहाँ शम की भी क्रिया होती है। शम की क्रिया मनोनिग्रह की क्रिया है। दृष्टियोग के बाद शब्द की साधना (नादानुसन्धान) होता है। इसी के द्वारा मन वश में किया जाता हैै।
“ सबद खोजि मन वश करै, सहज योग है येहि ।
सत्त सबद निज सार है, यह तो झूठि देहि ।।”
-संत कबीर साहब
शब्द साधना से मन की चंचलता दूर होती है और मन वश में हो जाता है। इसलिए सातवीं भक्ति शम की साधना-मनोनिग्रह की साधना है। इस तरह जो कोई प्रथम से सातवीं भक्ति तक कर लेते हैं, तो अन्त में उसे सार- शब्द की प्राप्ति होती है। उस शब्द को पकड़ करके सर्वाधार परमात्मा तक पहुँचा जाता है। जो परम प्रभु परमात्मा तक पहुँच जाता है, वह आवागमन के चक्र से छूट जाता है।
शबरी की साधना इतनी ऊँची थी कि वह परम प्रभु परमात्मा को प्राप्त करके एकमेक हो गयी थी। इसलिए आवागमन के चक्र से छूट गयी। हमलोगों को भी चाहिए कि शवरी की तरह सब प्रकार की भक्ति पूरी करके आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाएँ।
जब सात भक्ति हो जाती है, तो उसके परिणाम स्वरूप आठवीं और नवीं भक्ति स्वतः हो जाती है।
“ आठवँ जथा लाभ सन्तोषा ।
सपनहुँ नहिं देखइ पर दोषा ।।”
साधक को जो मिल जाता है, उसी में वह संतुष्ट रहता है। वह सांसारिक पदार्थों के लिए हाय-हाय नहीं करता।
“ खुश खाना है खिचड़ी, माहिं पड़ा टुक लोन ।
मांस पराया खायके, गला कटावै कौन ।।”
इतने ऊँचे दर्जे का साधक दूसरे का दोष क्यों देखेगा? वह आत्मवत् सर्वभूतेषु देखता है। सबमें उसको एक-ही आत्मा का भान होता है। उसकी अज्ञानता मिट जाती है।
“ नवम सरल सब सन छल हीना ।
मन भरोस हिय हरष न दीना ।।”
नौवीं भक्ति यह है कि वह सबसे सरल हो जाता है, छलहीन हो जाता है और किसी दूसरे का भरोसा नहीं करके एक परमात्मा का भरोसा करता है। परमात्मा की ही आशा करता है और उसके विश्वास से उसकी आसा पूरी होती है।
सन्तमत बतलाता है। इन नवो प्रकार की भक्ति करके हम अपने जीवन को कल्याणमय बना लें। यह मनुष्य शरीर हमलोगों को मिला हुआ है। इसकी सदुपयोगिता जानें, भजन करें, सत्संग करे, सदाचार का पालन करें और अपने जीवन-यापन के लिए कुछ-न- कुछ पवित्र उद्यम अवश्य करें। जहाँ तक हो सके समाज की सेवा करें, देश की सेवा करें और विश्व की सेवा करें। इसी में मानव जीवन की सार्थकता है।
संसार में जितने प्रकार के यज्ञ हैं, सब यज्ञों से बढ़कर सत्संग-यज्ञ और ध्यान-यज्ञ होता है। जिन्होंने इस सत्संग का आयोजन किया है और जिन्होंने इसमें तन, मन, धन या वचन से सहयोग दिया है, वे सभी पुण्यात्मा धन्यवाद के पात्र हैं। उनलोगों के लिए मेरी मंगल कामना है। परमप्रभु परमात्मा सबका कल्याण करें।
सद्गुरु महर्षि संतसेवी परमहंस का यह प्रवचन देवघर जिले के सप्तम् वार्षिक अधिवेशन के सुअवसर पर मधुपुर में अपराह्णकालीन सत्संग के अवसर पर दिनांक 13-04-1993 ई0 को हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, जनवरी 2008 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आज बुधवार है। यदि कहा जाए कि यह विशुद्ध मंगलवार है, तो यह शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी; क्योंकि आज की ही तिथि वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को हमारे ‘मंगल मूरति सद्गुरु, मिलवैं सर्वाधार। मंगलमय मंगल करण’ का अवतार हुआ था। हमारे यहाँ छह ऋतुएँ होती है। चैत और वैशाख को वसन्तु ऋतु कहते हैं। वसन्तु ऋतु को ऋतुराज भी कहते हैं। इस ऋतुराज में ऋषिराज हमारे गुरु महाराज का अवतार हुआ था, जिनकी 108वीं वर्षगाँठ ठाट के साथ मनाने हेतु हमलोग कुप्पाघाट में यत्र-तत्र से एकत्र हुए हैं। आज उनकी 109वीं जयन्ती है, 108वीं वर्षगाँठ है। आज जयन्ती मनाने के लिए, यश-गान करने के लिए, महिमा-विभूति का वर्णन करने के लिए समवेत हुए हैं। किन्तु मेरे विचार में संसार के समस्त समुद्रों की थाह ले ली जाए, उनके समस्त जलों का वजन कर लिया जाए, पृथ्वी पर के सारे रजकणों की गणना कर ली जाए, गगन मंडल में स्थित सारे ग्रहों और नक्षत्रें को एक साथ एक हाथ में रख लिया जाए-ये सारी असंभव बातें कदाचित् संभव हो जाएँ, तो भी हमारे परम पूज्य गुरु महाराज की महिमा-विभूति का वर्णन कर, यशोगान कर कोई अवसान करे, यह संभव नहीं, असंभव है।
क्या आकाश को और ऊपर उठाया जा सकता है? क्या उसके ऊपर चंदन का लेप लगाया जा सकता है? क्या कल्पवृक्षों को अन्य वृक्षों की भाँति सुसज्जित कर उसकी सुन्दरता बढ़ायी जा सकती है? क्या सूर्य को देखने-दिखाने के लिए किसी प्रकाश की आवश्यकता हो सकती है? यदि नहीं, तो इसी तरह गुरु महाराज का यशोगान करना संभव नहीं, असंभव है।
हमारे गुरुदेव क्या थे, यह बहुत कम लोग जानते हैं। जितने बड़े वे संत थे, उन्होंने अपने को उतना ही अधिक छिपाकर रखा। लेकिन क्या कोई अग्नि को पोटली बाँधकर रख सकता है? कोई सूर्य को ढक्कन से ढँक सकता है? उसी तरह हमारे गुरु महाराज की साधना-तपस्या इतनी उत्कृष्ट थी कि यह स्वयं प्रकाशित थी। प्रवचन के द्वारा उसको प्रकाश में नहीं लाया जा सकता है।
यहाँ भागलपुर में कुछ वर्ष पूर्व रामानुजम् साहब कलक्टर थे। एक बार नाथनगर में सर्वधर्म सम्मेलन का आयोजन किया गया था, जिसमें हमारे परम पूज्य गुरुदेव जी महाराज को भी बुलाया गया था। गुरुदेव पधारे। रामानुजम् साहब को भी बुलाया गया था। गुरु महाराज ह्वीलचेयर पर बैठे हुए थे। रामानुजम् साहब ने उनके श्रीचरणों में अपना प्रणाम निवेदित किया। वहाँ एक विशिष्ट सज्जन ने परिचय देते हुए कहा कि ये कलक्टर साहब हैं हुजूर! गुरु महाराज उनकी ओर देखते हैं और कहते हैं-‘आप जिले भर के मालिक हैं; लेकिन उम्र में मुझसे कम हैं, तो मैं जो कुछ कहूँगा, क्या आप मेरी बात सुनेंगे?’ बड़े सज्जन थे रामानुजम् साहब। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा-‘हुजूर! कहा जाय।’ गुरु महाराज कहते हैं-‘कल दोपहर का भोजन मेरे यहाँ कीजिए।’ कलक्टर साहब ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। दूसरे दिन आये ठीक भोजन के समय। भोजन किया आश्रम में। गुरु महाराज के पास बैठे, फिर चले गये। अब गुरु के प्रभाव से उतनी ही देर में वे इतने प्रभावित हुए कि लोगों के पास जाकर कहते थे कि मेरे सिर पर इतना बोझ था, इतनी चिंता थी, मैं चिंताग्रस्त रहता था; लेकिन जैसे ही मैं उनके पास आश्रम में उनके सान्निध्य में पहुँचा, उनके पास कुछ देर बैठा, न मालूम, वे सभी चिन्ताएँ कहाँ रफू चक्कर हो गयीं।
तब से एक छोटी-सी छड़ी घुमाते हुए आश्रम आ जाते थे। मेरे पास आकर कहते, ‘गुरु महाराज का दर्शन करूँगा।’ मैं उन्हें गुरु महाराज के पास लाकर बिठाता था। वे बैठते थे, कुछ देर रहते थे। इस तरह वे आते रहते थे। एक बार उनकी बदली हो गयी, उनका ट्रांसफर (ज्तंदेमित) हो गया। उन्होंने गुरुदेव से कहा, ‘हुजूर! मेरी बदली हो गयी है। यहाँ से तो मैं जा रहा हूँ। आपके दर्शन के लिए आ गया।’ गुरु महाराज कहते हैं, ‘आपकी बदली नहीं हुई है।’ रामानुजम् साहब कहते हैं कि ट्रांसफर-लेटर (ज्तंदेमित समजजमत) आ गया है। फिर गुरु महाराज कहते हैं, ‘आपका ट्रांसफर (ज्तंदेमित) नहीं हुआ है।’ अब वे चकित हो गये। जैसे ही रामानुजम् साहब गुरु महाराज के पास से जाते हैं, ऑफिस में देखते हैं कि स्थगन-पत्र आया हुआ है। अब उनके दिल में यह हो गया कि हमारे ऑफिस में स्थगन-पत्र आया हुआ है, इसका मुझे पता नहीं, उनको कैसे पता चल गया? अब तो कलक्टर साहब की श्रद्धा उमड़ पड़ी। जब कुछ वर्षों के बाद सही में ट्रांसफर पत्र आया, तो वे आये गुरु महाराज के पास और कहने लगे, ‘हुजूर! हमारा तो ट्रांसफर हो गया है।’ तो गुरु महाराज कहते हैं, ‘हाँ, आपका ट्रांसफर हो गया है। अच्छा आप जाइए; लेकिन उन्नति करके आइए।’ वे ट्रांसफर होकर पटना चले गये। कुछ वर्षों तक वहाँ रहे। उसके बाद वे कमिश्नर बनकर भागलपुर आए। जैसे ही भागलपुर आये, वे गुरु महाराज के पास पहुँचे और कहते हैं कि हुजूर का आशीर्वाद मिला था कि उन्नति करके आइए, तो हुजूर! कमिश्नर बनकर आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ।
तो हमारे गुरु महाराज क्या थे? विद्वान की योग्यता विद्वान ही जान सकते हैं, संत को संत ही पहचान सकते हैं और किन्हीं के पास पहचानने का मीटर नहीं है।
वे क्या थे? कल्पवृक्ष साधारण वृक्ष है क्या? कामधेनु गाय है, तो क्या वह साधारण गाय है? गरुड़ पक्षी है, तो क्या वह साधारण पक्षी है? गंगा नदी है, तो क्या वह सामान्य नदी है? उसी तरह हमारे गुरुदेव मानव शरीर में थे, तो क्या सामान्य मानव थे? नर-रूप में वे हरि थे। उनकी जितनी गुण-गाथा गाया जाय, थोड़ी होगी। मैं तो कहूँगा, चतुर्मुख ब्रह्मा, पंचमुख शिव, षण्मुख कार्तिकेय और सहस्त्रमुख शेष भी जिनकी गुण-गाथा गाकर शेष नहीं करते, अवशेष ही रह जाता है, तो उनकी बात कोई नर-विशेष कह-कहकर कितना ही कहे; लेकिन अवशेष रही ही जाता है।
श्री सरस्वती विद्यावरदा, प्रजापति सृष्टिकर्ता और श्रीगणेशजी लेखनकर्ता-ये तीनों मिलकर यदि वर्णन करना चाहें, तो उनकी ज्ञान-महिमा की इतिश्री नहीं कर सकते। गुरु नानकजी ने तो कहा है-
‘गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारउ ।’
गुरु पारब्रह्म परमेश्वर है। हमलोगों को उन्होंने जो उपदेश दिया, उसे यदि हम वास्तव में आचरण में उतारते हैं, तो उनकी सही जयन्ती नहीं मनायी जा सकती। उनके उपदेश और आदेश के परिवेश में यदि हम अपने को रख सकें, तो हमारा भव-क्लेश निःशेष होगा, इसमें संशय की कोई बात नहीं।
क्या उपदेश दिया उन्होंने? एक ईश्वर का ज्ञान उन्होंने दिया। किसी धर्म में आप जाइये, आपको ईश्वर का ज्ञान दिया जाता है। गुरु नानकदेवजी महाराज छोटे थे, तो उनके पिता कल्याण दासजी के मन में हुआ कि बच्चे को पढ़ाना चाहिए, अतः एक देवनागरी पढ़ानेवाले गुरुजी के पास उनको भेजा। गुरुजी ने लिख दिया-1 (एक)। अब दूसरा अंक लिखना ही चाहते थे गुरुजी कि गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं, ‘गुरुजी! यह क्या है?’ गुरुजी ने कहा, ‘यह लिखा है 1 । तो गुरु नानकदेवजी कहते हैं-बस, पहले एक को जान लेने दीजिए, फिर दूसरी बात कहिएगा। (श्रोताओं द्वारा गुरु महाराज की जय-ध्वनि)।
तो कल्याण दासजी के मन में हुआ कि यह नागरी पढ़ना नहीं चाहता है, इसीलिए बहाना करता है। एक मौलवी के पास भेज दिया कि जाओ उर्दू-फारसी पढ़ो। जब ये गये मौलवी के पास, तो मौलवी साहब ने पहला अक्षर लिखा, ‘अलीफ।’ गुरु नानक साहब पूछते हैं कि यह क्या लिखा आपने? मौलवी कहते हैं-अलीफ। गुरु नानकदेवजी पूछते हैं, ‘अलीफ का क्या अर्थ होता है?’ मौलवी साहब ने बताया कि अलीफ का अर्थ है पहला। वे ‘बे’ लिखना ही चाहते थे कि गुरु नानकदेवजी कहते हैं, ‘बस, पहले ‘पहला’ को जानने दीजिए, फिर दूसरी बात बताइएगा।’ वह पहला क्या है? एकोऽहं बहुस्याम्। एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति।
अर्थात् ‘वह एक ही है और सद्विप्र उसे अनेक नामों से अभिहित करते हैं।’ यहूदी उसे जेहोवा कहते हैं। ईसाई गॉड या स्वर्गस्थ कहते हैं, मुसलमान अल्लाह कहकर पूजते हैं, बौद्ध बुद्ध, पारसी अहुरमज्द और हिन्दू ब्रह्म या ईश्वर कहते हैं। लेकिन है सबका अर्थ एक ही। यहाँ भाषान्तर है, शब्दान्तर है; लेकिन तत्त्वान्तर नहीं है। तत्त्वरूप में वह एक है। हमारे गुरुदेव ने उसी एक का ज्ञान दिया। जो उस एक को जान लेते हैं, उन्हें फिर और कुछ जानना बाकी नहीं रह जाता है। संत सुन्दरदासजी ने कहा-
“ एक सही सबके उर अंतर,
ता प्रभु कूँ कहु क्यों नहीं ध्यावे ।
संकट माहि सहाय करे पुनि,
सो अपनी पति क्यों विसरावे ।।
चार पदारथ और जहाँ लौं,
आठहु सिद्धि नवो निधि पावै ।
सुन्दर छार परे तिनके मुख,
जो हरि को तजि आन कूँ ध्यावे ।।”
क्या हुआ गुरु नानकदेवजी महाराज के पंथ में देखिए-एक ॐकार सत्नाम। उसी को जानने की शिक्षा-दीक्षा सभी संतों ने दी है। हमारे गुरुदेव ने भी उसी एक की टेक बतलायी है।
मैं गया हुआ था कान दिखलाने के लिए ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट दिल्ली, तो कान के डॉक्टर ने मेरे कान को देखा और पूछा कि बाबा! आप किनकी पूजा करते हैं। मैंने कहा कि एक ईश्वर की पूजा करता हूँ। फिर उन्होंने कहा कि मैं भी पूजा करता हूँ। मैंने पूछा, ‘किनकी पूजा करते हैं?’ तो उन्होंने कहा, ‘मैं गणेशजी की पूजा करता हूँ, हनुमानजी की पूजा करता हूँ। सात-आठ देवताओं के नाम उन्होंने बता दिये और फिर मुझसे पूछते हैं कि बाबा! ठीक करता हूँ न!
मैंने कहा, ‘पूजा करते हैं, सो तो ठीक करते हैं; लेकिन अनेक की पूजा न करके किसी एक की पूजा कीजिए, तो ठीक रहेगा। उन्होंने कहा, ‘एक की पूजा करूँगा, तो और सब नाराज हो जाएँगे तब?’ मैंने कहा-देखिए, गंगा के किनारे सैकड़ों नावें लगी हुई हैं और आप गंगा पार करना चाहते हैं। यदि आप नाव से नाव पर, नाव से नाव पर चढ़ते रहेंगे, तो कभी पार हो सकेंगे? अरे! एक नाव को पकड़ लीजिए, जो बहुत मजबूत हो, जिसका खेवैया कुशल हो, तो आप गंगा पार हो जाएँगे। उसी तरह सभी देवताओं में से एक को चुन लीजिए, जो सबसे विशेष जान पड़े और किस तरह पकड़िएगा, उसकी कला सीख लीजिए। फिर पार हो जाइएगा। उन्होंने कहा, ‘बाबा! कहते तो आप ठीक हैं; लेकिन यही मन में होता है कि और सब नाराज हो जाएँगे। डॉक्टर ने दुहराया।’
मैंने कहा-‘देखिए, हमलोगों के यहाँ तैंतीस करोड़ देवता हैं। आप डॉक्टर आदमी हैं। समय निकाल कर मान लिया जाए कि आपने एक करोड़ देवताओं की पूजा कर ली, इधर 32 करोड़ देवता आपसे नाराज ही रह जाएँगे। आजकल वोट का जमाना है, 32 करोड़ वोट एक तरफ और एक करोड़ एक तरफ, तो आप जीतेंगे कि हारेंगे? डॉक्टर साहब ने कहा कि बाबा! आप कहते तो ठीक हैं; लेकिन बहुत दिनों से करते जो चले आए हैं, सो मन नहीं मानता।
मैंने सोचा कि अभी भी इनका मन ठीक नहीं हुआ है। मैंने कहा-‘अच्छा, एक बात बतलाइए कि जिस समय आपने एम-बी-बी-एस- पास किया, उस समय क्या-क्या इलाज करते थे?’ उन्होंने कहा, ‘आँख, नाक, गला, कान-समूचे शरीर का इलाज करते थे।
मैंने पूछा, ‘आजकल?’ उन्होंने कहा, ‘आजकल केवल कान का इलाज करते थे, उस समय आप बड़े डॉक्टर थे कि केवल कान का इलाज करने लगे, तो आज बड़े डॉक्टर हैं? उन्होंने कहा, ‘बड़ा डॉक्टर तो आज हूँ।’ इसपर मैंने कहा, ‘उसी तरह जब आप एक को पकड़िएगा, तो बड़े बनकर रहिएगा, नहीं तो एम-बी-बी-एस- बनकर रह जाइएगा।
गुरु महाराज ने हमें एक ईश्वर का ज्ञान दिया और बतलाया है ईश्वर को खोजने के लिए कहीं बाहर जाने की जरूरत नहीं। गुरु नानक साहब ने कहा-
“ काहे रे वन खोजन जाई ।
सरब निवासी सदा अलेपा, तोही संग समाई ।।
पुहप मधि जिउ बासु वसतु है, मुकर माहिं जैसे छाई ।
तैसे ही हरि बसे निरंतरि, घटि ही खोजहु भाई ।।
बाहरि भीतरि एको जानहु, इहु गुर गिआन बताई ।
जन नानक बिनु आपा चीनै, मिटै न भ्रम की काई ।।”
उस ईश्वर की खोज अपने अंदर करो। लेकिन समझने की बात यह है कि पुष्प में सुगंध तो है, पर सुगंध को देखते नहीं हैं। सुगंध को ग्रहण नासिका करेगी, आँख नहीं कर सकती है। उसी तरह से संसार को हम देखते हैं; लेकिन संसार में जो परिव्याप्त ब्रह्म है, उसे हम इन आँखों से नहीं देख सकते। इन आँखों से संसार को ही देख सकते हैं।
संसार में परिव्याप्त ब्रह्म को देखना चाहेंगे, तो सुनिए संत कबीर साहब क्या कहते हैं-
“ चाम चश्म सों नजरि न आवै,
खोजु रूह के नैना ।।”
आत्मदृष्टि से वह लक्षित होगा, किसी इन्द्रिय के द्वारा नहीं। इसके लिए अपने अंदर-अंदर चलने की आवश्यकता है। बाहर जहाँ कहीं जाएँगे, हम इन्द्रियों के साथ रहेंगे। इन्द्रियों से जो कुछ भी ग्रहण होगा, वह मायिक तत्त्व होगा। निर्मायिक तत्त्व ग्रहण होगा अपने अंदर में चलने से। अपने अंदर में कैसे हम चलें, इसकी सद्युक्ति श्री सद्गुरु बतलाते हैं। इसलिए गुरु नानकदेवजी महाराज ने बतलाया-
“ बिनु सतिगुर सेवे जोगु न होई ।
बिनु सतिगुर भेटे मुकति न कोई ।।
बिनु सतिगुर भेटे नामु पाइआ न जाइ ।
बिनु सतिगुर भेटे महा दुखु पाइ ।।
बिनु सतिगुर भेटे महा गरबि गुबारि ।
नानक बिनु गुर मूआ जनमु हारि ।।”
व्यर्थ का जीवन चला जाएगा, यदि सद्गुरु के चरण नहीं गहे और सद्युक्ति नहीं ली, सदाचार पूर्वक साधना नहीं की। हमारे गुरुदेव ने हमलोगों को बतलाया कि सरल, सहज, सुगम, परम सुखद यह मार्ग है। इसपर चलें, तो इस लोक में कल्याण होगा और परलोक में भी कल्याण होगा। परलोक दोनों के लिए उन्होंने बतला दिया।
“ सत्संग नित अरु ध्यान नित, रहिये करत संलग्न हो ।
व्यभिचार चोरी नशा हिंसा, झूठ तजना चाहिए ।।”
इन पंच पापों को छोड़ दीजिए, कल्याण होगा। सत्संग कीजिए। सत्संग को उन्होंने दो भागों में विभक्त किया है-अंतर सत्संग और बाह्य सत्संग।
“ धर्म कथा बाहर सत्संगा ।
अंतर सत्संग ध्यान अभंगा ।।”
दोनों तरह के सत्संग कीजिए। उन्होंने गिरे हुए को उठाया। दीन-दुखियों को गले लगाना तो उनकी बान थी। जिस समय जाति-पाँति का भेद-भाव फैला हुआ था, उस समय गुरु महाराज ने जाति-पाँति के भेद को तोड़कर छोड़ दिया। उपदेश के लिए प्रतिबंध था कि अमुक को उपदेश दो और अमुक को नहीं, तो संतों ने इस प्रतिबंध को नहीं माना। गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा-
“ चहु बरना को दे उपदेश।
ता पंडित को सदा अदेश ।।”
और हमारे गुरु महाराज ने उससे और आगे बढ़कर कहा-
‘जितने मनुष तनधारी हैं, प्रभु भक्ति कर सकते सभी ।’
जाति-पाँति की कोई बात नहीं।
“ जाति पाँति पूछे नहिं कोई ।
हरि को भजे सो हरि का होई ।।”
साथ ही उन्होंने यह भी कहा-
“ जीवन बिताओ स्वावलंबी, भरम भाँड़े फोड़िकर ।
संतों की आज्ञा हैं ये ‘मेँहीँ’, माथ धर छल छोड़िकर ।।”
उन्होंने स्वयं स्वावलंबी जीवन बिताया। उन्होंने जो कुछ कहा, करके दिखलाया, केवल बताया ही नहीं। इसके लिए घर-बार, परिवार, रोजगार छोड़ने की आवश्यकता नहीं। संत कबीर साहब ने तो कहा-
“ अबधू भूले को घर लावै,
सो जन हमको भावै ।
घर में जोग भोग घर ही में,
घर तजि वन नहिं जावै ।।
वन के गये कलपना उपजै,
तब धौं कहाँ समावै ।
घर में जुक्ति मुक्ति घर ही में,
जो गुरु अलख लखावै ।।”
और इसका आदर्श हमारे दस गुरुओं ने दिया। गुरु नानक साहब से लेकर गुरु गोविन्द साहब तक जो दस गुरु हुए हैं, उनमें मात्र एक छोटी ही उम्र में ब्रह्मलीन हो गये थे, बाकी सब-के-सब गृहस्थ थे। गृहस्थी में रहकर ही उन्होंने उपदेश दिया कि देखो, गृहस्थ आश्रम में रहकर भी उस पद को पाया जा सकता है। अतः संसार का भी काम करो और परमार्थ का भी चिंतन करो।
यही हमारे गुरु महाराज का उपदेश है। साधारण-सी शिक्षा है-मानस जप करो, मानस ध्यान करो, दृष्टि-साधन और नादानुसंधान की क्रिया करो। इन चारो साधनाओं को करो और पंच पापों से छूटकर रहो।
दोनों तरहों का सत्संग करो। स्वावलंबी जीवन बिताओ। तुम्हारा यह संसार भी कल्याणमय होगा और शरीर छूटने के बाद का भी जीवन कल्याणमय होगा। गुरु महाराज के उपदेश का सार मैंने थोड़े शब्दों में आपलोगों के सामने रखा।
अगर उनके आदेश-उपदेश के अनुकूल चलेंगे, तो गुरु महाराज के कथनानुसार लोक- परलोक दोनों कल्याणमय होंगे। आज उनकी जयन्ती के उपलक्ष में मैं उनके श्रीचरणों में अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की 109वीं जयन्ती के सुअवसर पर दिनांक 5-5-1993 ई0 के अपराह्णकालीन सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, मई अंक 1993)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
जापान की एक महिला यूकिको फ्रयूजिता ने स्वप्न में देखा कि एक झील है। उस झील में एक मंदिर है। वह उस मंदिर में देखने के लिए गयी कि उस मंदिर में किस देव का प्रतिष्ठान है। वह देव-दर्शन करने के ख्याल से उस मंदिर में गयी। वहाँ वह देखती है कि एक संत बैठे हुए हैं। गौरवर्ण के हैं, लंबी-लंबी दाढ़ी-मूँछें, लंबे केश और गैरिक वस्त्रधारी हैं। श्रद्धावनत होकर वह प्रणाम करती है। इतने में उनकी नींद टूट जाती है। उसके मन में हुआ कि साधु-संत, ऋषि-मुनि लोग तो भारत में हुआ करते हैं। हो-न-हो, भारत के ही संत ने आकर मुझे दर्शन दिये हैं, तो हमारा पुनीत कर्तव्य है कि हम भी जाकर उनके दर्शन करें। वह अकेले ही आयी जापान से भारत। खोजने लगी, जिनको उसने स्वप्न में देखा था; किन्तु कहीं पता नहीं चला। भारत-प्रवास की अवधि पूरी हो गयी। लौटकर जापान चली गयी। लेकिन उसके संस्कार ने उसको सोने नहीं दिया। एक वर्ष के बाद फिर वायुयान से भारत वह आती है और यत्र-तत्र घूमने लग जाती है मठों में, आश्रमों में, मंदिरों आदि में। भागलपुर के निकट ही मुंगेर में योग- विद्यालय है। उसमें कुछ दिनों तक वह ठहर गयी और वहाँ उसने दीक्षा भी प्राप्त कर ली। लेकिन उसके मन में संतुष्टि नहीं हुई। सोचने लगी, जिन संत को मैंने स्वप्न में देखा था, वे संत तो ये नहीं हैं। खोजती-ढूँढ़ती वह भागलपुर आयी महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट। कुप्पाघाट में गुरु महाराज की तस्वीर टँगी हुई थी। उसको देखकर तो वह बाग-बाग हो उठी। आश्रमवासियों से कहने लगी, ‘इन्हीं संत के दर्शन हमें स्वप्न में हुए। अभी वे संत हैं कहाँ?’ संयोग से गुरुदेव आश्रम में नहीं थे। उसी वर्ष हरिद्वार में अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का वार्षिक अधिवेशन हुआ था। भागलपुर से स्पेशल ट्रेन गयी थी। उसको आश्रमवासियों ने बताया कि आपको उनके दर्शन वहाँ होंगे। निश्चित समय पर वह वहाँ पहुँची और गुरु महाराज के दर्शन करके निहाल हो गयी। जैसे किसी का खोया अनमोल पदार्थ एकाएक मिल गया हो, तो जो उसकी प्रसन्नता होती है, वही प्रसन्नता उसको हुई। फिर उसने दीक्षा की इच्छा प्रकट की। गुरु महाराज बोले, ‘तुमको दीक्षा भागलपुर में मिलेगी। भागलपुर आश्रम आओ।’ नियत समय पर वह भागलपुर कुप्पाघाट आश्रम पहुँची। कुप्पाघाट आश्रम में ही उसने गुरुदेवजी से दीक्षा प्राप्त की और बैठ गयी ध्यान करने के लिए। लगातार तीन घंटे तक बैठी रही वह ध्यान में। तीन घंटे के बाद वह अपने कमरे से निकलकर परम पूज्य गुरुदेव के निकट आयी। उसके हाथ में कागज का एक टुकड़ा और एक पेन्सिल थी। चित्र बना-बनाकर गुरुदेव को दिखलाने लगी कि साधनानुभूति प्रथम कैसी, दूसरी कैसी और तीसरी कैसी! किस-किस तरह की अनुभूतियाँ होती हैं, वर्णन करने लगी। उसके बतलाने के बाद गुरु महाराज ने पूछने की कृपा की, ‘संतमत की साधना तुमको कैसी लगी?’ वह कहती है, ‘गुरु महाराज! (very easy and very hard) संतमत की साधना सरल से सरल है और कठिन से कठिन है।
अभी आपलोगों ने वेदमंत्र में सुना। यह क्या है? कठिन-से-कठिन है और सरल से सरल है। हमलोग इन्द्रियों के द्वारा वस्तुओं को ग्रहण करते हैं; लेकिन जिन वस्तुओं का ग्रहण इन्द्रियों के द्वारा नहीं करते हैं, उन वस्तुओं की भी अभिव्यक्ति की शक्ति हमारी इन्द्रियों में नहीं है। फिर जो इन्द्रियातीत है, उसके संबंध में हमारी इन्द्रिय क्या कह सकती है! परमात्मा इन्द्रियातीत है और हम इन्द्रियगम्य वस्तु की बात सही रूप में नहीं बतला सकते हैं। हमको कोई एक रसगुल्ला, एक पेड़ा और एक टिकरी खिला दे और तीनों का स्वाद पूछे कि कैसा-कैसा लगा? तो हम क्या कहेंगे? मीठा लगा। फिर पूछे कि टिकरी कैसी लगी? तो उत्तर देंगे, मीठी लगी। पुनः पूछे, पेड़ा कैसा लगा? उत्तर देंगे, मीठा लगा। अरे भाई! सब मीठे-ही-मीठे हैं, तो तीनों में अंतर क्या है? क्या कुछ बतला सकते हैं? नहीं बतला सकते हैं। जितना भी खाया, स्वाद लिया है जिभ्या से ही; लेकिन जिभ्या नहीं बतला सकती है। तब जो इन्द्रियातीत है, उसका वर्णन इस जिभ्या इन्द्रिय के द्वारा हो, कैसे संभव है?
आँखों से हम रूप देखते हैं। कान से हम शब्द सुनते हैं। नासिका से हम गंध ग्रहण करते हैं। जिभ्या से हम रसास्वादन करते हैं। मुख से हम भोजन करते हैं। नीचे की दो इन्द्रियों से मल-मूत्र विसर्जन करते हैं। एक-एक इन्द्रिय के लिए एक-एक काम नियुक्त है। दो छेद कान में भी हैं और दो छेद नाक के भी। लेकिन नाक का काम कान और कान का काम नाक नहीं कर सकती। एक-एक इन्द्रिय के लिए जैसे एक-एक विषय नियुक्त है, उसी तरह वह परमात्मा किसका विषय है? वह चेतन आत्मा का विषय है। वह हमारा विषय है। वह जीवात्मा का विषय है। इसके अतिरिक्त और किसी विषय का नहीं है। आँख जब ग्रहण करेगी तो रूप को ही। कान जब ग्रहण करेगा, तो शब्द को ही। इस तरह जीवात्मा जब ग्रहण करेगा तो परमात्मा को ही ग्रहण करेगा। यह सरल साधना है। इसकी साधन हमलोगों को मिली हुई है। हमलोग अपने-अपने समय को सही रूप में व्यतीत करें। इधर-उधर घूमने-फिरने, हास-परिहास करने में नहीं बितायें। अपने समय का सदुपयोग हमलोग करें। यह स्वर्ण संयोग मिला है। वर्षों व्यतीत हो गये परमाराध्य सद्गुरु महाराज के साथ में यहाँ आया था। क्या आज वह संयोग मिल सकता है? आज भी तो आया हूँ; लेकिन गुरुदेवजी का संग आज नहीं है। इतने सत्संगी भारत के कोने-कोने से यहाँ इकट्ठे हो गये हैं। क्या यह संयोग फिर मिलेगा? सबलोग बैठकर यहाँ ध्यान करें, सत्संग करें। मैं आपलोगों को बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ और आशीर्वाद के योग्य हैं, उनको आशीर्वाद देता हूँ।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन उत्तरप्रदेश राज्यान्तर्गत हरिद्वार जिला के महासाधु नगरी ऋषिकेश में दिनांक 26-6-1993 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था। (शांति-सन्देश, नवम्बर अंक 1993 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
मैत्रयण्युपनिषद् में आया है-ब्रह्म के दो रूप हैं-एक मूर्त्त और अमूर्त्त। जो मूर्त्त है, वह असत्य है और अमूर्त्त है, वह सत्य है। मूर्त्त सगुण और अमूर्त्त निर्गुण। योगतत्त्वोपनिषद् में लिखा है-
“ सगुणं ध्यानमेतत्स्यादणिमादिगुणप्रदम् ।
निर्गुणध्यानयुक्तस्य समाधिश्च ततो भवेत् ।।”
सगुण ध्यान से अणिमा आदि गुणों की प्राप्ति होती है और निर्गुण ध्यान से युक्त को समाधि होती है। स + गुण = सगुण। निः + गुण = निर्गुण। त्रयगुण-सहित = सगुण। त्रयगुण-रहित = निर्गुण। त्रयगुण = रज, सत और तम। रजोगुण = उत्पादक शक्ति; सत्त्वगुण = पालक शक्ति और तमोगुण = विनाशक शक्ति।
जो उत्पन्न हो, कुछ काल रहे और पश्चात् नहीं रहे-विनष्ट हो जाए, वह सगुण कहलाता है। जो कभी उत्पन्न न हो और न विनष्ट ही हो, वह निर्गुण कहलाता है। सगुण असत् है, निर्गुण सत् है। सगुण जड़ है, निर्गुण चेतन है। सगुण अपरा प्रकृति है और निर्गुण परा पकृति। सगुण विनाशी और निर्गुण अविनाशी। सगुण क्षर है और निर्गुण अक्षर है। असत्-सत्, क्षर-अक्षर, सगुण-निर्गुण तथा अपरा-परा के जो परे है, वह परमात्मा है।
इस सगुण और निर्गुण की चर्चा रामचरित- मानस में गोस्वामीजी ने भी की है-
“ लीला सगुण जो कहब बखानी ।
सोइ स्वच्छता करइ मल हानी ।।
रघुपति महिमा अगुण अबाधा ।
बरनव सोइ वर वारि अगाधा ।।”
भगवान के सगुण रूप की महिमा जो है, वह स्वच्छ जल के समान है। स्वच्छ जल मैल को पवित्र करता है और निर्गुण महिमा के लिए कहा है कि वह जल की अगाधता है। जल स्वच्छ हो; लेकिन अल्प हो तो उससे मैल साफ नहीं हो सकती है। बहुत मैल को साफ करने के लिए बहुत जल की आवश्यकता होती है। सगुण रूप अवश्य ही मैल की हानि करता है; लेकिन अल्पांश में और निर्गुण जल की अगाधता है, बहुत जल है। समस्त मैल उसमें साफ हो जाती है। सगुण रूप के दर्शन से बहुतों के मन में भ्रम उत्पन्न हुआ। लेकिन जिन्होंने निर्गुण दर्शन किये, वे भ्रम से मुक्त हो गये। जैसे-रावण ने सीता का हरण किया। सीताजी चली गयी लंका, वहाँ की अशोक वाटिका में वे रहने लगी। इधर भगवान राम और लक्ष्मण सीताजी की खोज में चले। जिस जंगल से भगवान श्रीराम और लक्ष्मण जा रहे थे, उसी जंगल की दूसरी ओर से भगवान शंकर सती जी के साथ आ रहे थे। भगवान श्ांकर ने देखा, अभी नजदीक जाकर साक्षात् करने का समय नहीं है। उन्होंने दूर से ही प्रणाम कर लिया। सतीजी ने पूछा, ‘आपने किनको प्रणाम किया?’ भगवान राम की ओर संकेत करके भगवान शंकर ने कहा, ‘देखती नहीं हो, भगवान जा रहे हैं।’ सतीजी ने कहा, ‘ये राजा दशरथ के पुत्र हैं। ये भगवान कैसे?’
‘जौं नृप तनय तो ब्रह्म किमि?’ ये राजपुत्र हैं, ये ब्रह्म कैसे हो सकते हैं? अगर आप कहते हैं कि ये ब्रह्म हैं, तो नारी-विरह में इतने विकल क्यों हैं? इनकी महिमा को सुनकर और इनके चरित्र को देखकर मेरी बुद्धि भ्रमित हो रही है। भगवान शंकर ने समझाने की चेष्टा की; लेकिन सतीजी के मन ने नहीं माना। भगवान शंकर ने देखा-मेरी बात से इसको बोध नहीं हो रहा है, तो उन्होंने कहा, ‘अगर मेरी बात पर तुमको विश्वास नहीं है, तो जाओ स्वयं परीक्षा ले लो। कि वे भगवान हैं या नहीं। मैं इसी वृक्ष के नीचे बैठता हूँ।’ भगवान श्ांकर बैठ गये और सतीजी चलीं परीक्षा लेने के लिए। सोचने लगीं-परीक्षा किस तरह लूँ? सोचते-सोचते उनके मन में विचार आया, ‘ये (राम) सीताजी की खोज में जा रहे हैं। क्यों नहीं, मैं ही सीताजी का रूप धारण कर मार्ग में बैठ जाऊँ। अगर सीता-सीता कहकर मेरे पास आएँगे तो मैं समझ जाऊँगी कि ये कितने पानी के भगवान हैं। अगर मुझे पहचान गये तो मैं समझूँगी कि ठीक ही ये भगवान हैं। श्रीसतीजी मन-ही-मन कहती हैं-
“ सीता छवि धर के वन में चलके करूँ परीक्षा आज ।
ज्यौं पहचान गये तो मैं समझूँगी हैं भगवन्त ।
नहीं तो समझूँ कोई नर है पर है अति बलवन्त ।।”
दूर से ही लक्ष्मणजी देखते हैं। देखते ही समझ जाते हैं कि सती ने सीता का रूप धारण किया है; लेकिन उन्होंने भगवान श्रीराम से कहा नहीं। जब भगवान श्रीराम सतीजी को निकट जाते हैं, तो पूछते हैं-आप अकेली घूम रही हैं, भगवान शंकर कहाँ हैं? अब तो बेचारी लाज के मारे आँखें बंद कर लेती हैं। अंदर में देखती हैं-राम, लक्ष्मण, सीता; तीनों हैं। फिर आँखें खोलती हैं, तो आगे राम, लक्ष्मण, सीता; तीनों को देखती हैं। फिर आँखें बंद कर खोलती हैं, तो वहाँ कोई नहीं है। अब वहाँ से चल देती हैं। आती हैं भगवान शंकर के पास। भगवान श्ांकर पूछते हैं कि परीक्षा ले ली? (कहने में तो जरा संकोच लगता है। इतनी बड़ी साध्वी नारी होकर भी झूठ बोल देती हैं।) अपने पति से कहती हैं कि मैंने परीक्षा नहीं ली। आपही की तरह प्रणाम करके लौट आयी। भगवान् शंकर ध्यानावस्थित होकर देखते हैं कि सती ने सीता का रूप धारण करके परीक्षा ली है। भगवान राम की सीता तो मेरी आराध्या देवी हैं, मेरी माता हैं। सती ने जब मेरी माता का रूप धारण कर लिया, तो यह पत्नी कैसे रह सकती है? उन्होंने सतीजी का मन से परित्याग कर दिया कि आज से इनके साथ पति-पत्नी का संबंध नहीं रहेगा। जिन सती में यह शक्ति थी कि वे रूप बदल सकती थीं; उन सती के मन में भी सगुण लीला को देखकर संदेह हो गया कि ये भगवान हैं कि नहीं। और देखिये, जब भगवान राम और लक्ष्मण जी मेघनाद के नागपाश से बँध गये, तो नारदजी भगवान के निकट पहुँचते हैं। देखते हैं कि भगवान नागपाश से बँधे हुए हैं, तो उन्होंने गरुड़जी से जाकर कहा कि भगवान नागपाश से बँधे हुए हैं, तुम जाकर छुड़ाओ उनको। गरुड़जी आते हैं। गरुड़जी के आते ही नाग भाग जाता है। भगवान नागपाश से मुक्त हो जाते हैं। अब इस स्थिति को देखकर गरुड़जी के मन में भ्रम हो जाता है। वे मन-ही-मन सोचते हैं-अगर मैं नहीं गया होता तो दोनों भाई बँधे ही रहते। ये भगवान कैसे हैं?
“ भव बंधन ते छूटई, नर जपि जाकर नाम ।
खर्व निशाचर बाँधउ, नाग पाश सो राम ।।”
उनको भ्रम हो गया। ग्वाल-बाल के साथ कृष्ण को खेलते देखकर ब्रह्मा को भ्रम हो गया कि ये भगवान कैसे? उन्होंने गौएँ चुरा लीं। ग्वाल-बालों को चुरा लिया, बछड़ों को चुरा लिया। भगवान ने गौएँ, बछड़े, ग्वाल-बाल सब बना लिये। तब ब्रह्मा की आँखें खुलीं-ठीक ही भगवान हैं। इन्द्र के मन में भ्रम हो गया, तो व्रज पर वर्षा शुरू कर दी। भगवान श्रीकृष्ण ने सबकी रक्षा की, इस तरह इन्द्र का भ्रम दूर हुआ। इसी तरह सगुण रूप को देखकर बहुतों के मन में भ्रम हुआ है। इसीलिए गो0 तुलसीदासजी को कहना पड़ा-
“ निर्गुण रूप सुलभ अति, सगुण जान न कोय ।
सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि भ्रम होय ।।
निर्गुण में कोई भ्रम नहीं रह जाता। इसका अर्थ यह नहीं हो जाता कि सगुण उपासना को छोड़ दो और केवल निर्गुण को ही पकड़ो। उपासना का आरंभ स्थूल सगुण साकार से करो और आराधना का अंत निर्गुण निराकार में जाकर करो। दोनों की आवश्यकता है। किसी एक को छोड़ने की आवश्यकता नहीं है; लेकिन यदि कोई जीवन भर स्थूल सगुण साकार को ही पकड़े रह जाए, निर्गुण निराकार की ओर नहीं जाए तो जो पूर्ण कल्याण होना चाहिए, उससे वंचित रह जाएगा। इसलिए संतमत बतलाता है- स्थूल सगुण से आरंभ करो और निर्गुण निराकार में जाकर समाप्त करो। पहले स्थूल सगुण साकार की उपासना, पश्चात् सूक्ष्म साकार उपासना, तत्पश्चात् सूक्ष्मतर सगुण निराकार उपासना और अंत में सूक्ष्मतम निर्गुण निराकार की उपासना। उपासना की यह क्रमबद्धता है। इस तरह उपासना करके परम प्रभु परमात्मा को पा सकते हैं।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन उत्तरप्रदेश राज्यान्तर्गत हरिद्वार जिला के महासाधुनगरी
ऋषिकेश में दिनांक 29-6-1993 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, सितम्बर अंक 1993 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द माताओ एवं बहनो!
अभी आपलोागों ने रामचरितमानस का पाठ सुना है, जिसमें राम के प्रबल प्रकाश सूर्य का वर्णन आया है और यह भी आया है कि जब सूर्य का उदय हुआ, तो तीनों लोकों में प्रकाश हुआ। इसका अर्थ यह नहीं हो जाता है कि पहले तीनों लोकों में अंधकार था और जब यह सूर्य उदय हुआ, तो तीनों लोकों में प्रकाश हुआ। जिस समय भगवान राम थे, उस समय यह सूर्य हुआ था, ऐसी बात भी नहीं है। वस्तु स्थिति का स्पष्टीकरण गोस्वामी ने आगे चलकर किया है। वह इस प्रकार है-
‘यह प्रताप रवि जाके, उर जब करइ प्रकास ।’
-रामचरितमानस
अर्थात् ‘राम का प्रबल प्रताप रूप सूर्य का जब जिसके हृदय में उदय होता है, तो उसको तीनों लोक सूझते हैं।’ बाहर के सूर्य के उदय होने पर एक लोक में भी पूर्ण प्रकाश नहीं होता है, तीन लोक की बात कौन कहे?
अभी यहाँ पर दिन है, तो अमरीका में रात है। एक लोक यानी समस्त मर्त्यलोक में भी प्रकाश नहीं है। इसी लोक के उत्तरी ध्रुव के निकट नार्वे और स्वीडेन हैं, जहाँ छः महीने का एक दिन होता है और छः महीने की एक रात होती है। अगर वह सूर्य बाहर में उदय हुआ होता, तो वहाँ भी प्रकाश फैल गया होता। गोस्वामीजी द्वारा रामचरितमानस में वर्णित सूर्य बाहरी सूर्य नहीं है, आन्तरिक है। साधक जब साधना करते हैं, तो वे आज्ञाचक्र से ऊपर सहस्त्रदल कमल में पहुँचते हैं। उसके ऊपर जब वे त्रिकुटी में जाते हैं, तब उनको उस सूर्य के दर्शन होते हैं, जिससे उनको तीनों लोक दीखते हैं। हमलोगों के गुरुदेव थे, उनकी साधना इतनी ऊँची थी कि वे कहीं भी रहकर कहीं के दृश्य देखते थे। उस घटना के संबंध में कई बार मैं कह चुका हूँ। आंतरिक सूर्य की चर्चा संत कबीर साहब की वाणी में पाते हैं-
“ यहि घट चंदा यहि घट सूर,
यहि घट बाजै अनहद तूर ।
यहि घट बाजै तबल निशान,
बहिरा शब्द सुनै नहिं कान ।।”
आज्ञाचक्र से आगे बढ़कर सहस्त्रदल कमल में चन्द्र के दर्शन होते हैं और आगे बढ़कर त्रिकुटी में सूर्य के दर्शन होते हैं।
संत कबीर साहब के अतिरिक्त अन्य संतों की वाणियों में भी हम पाते हैं कि हमलोगों के अन्दर चन्द्रमा, सूर्य और तारे भी हैं। इसका वर्णन गुरु नानकदेवजी महाराज के वचन में इस प्रकार है-
‘रवि शशि लउके यहु तनु, किंगुरी बाजै शबद निरारी।’ तथा,
‘तारा चड़िया लम्मा किउ नदरि निहालिआ राम ।’
जो कोई अपने अन्दर में चलते हैं यानी अन्तस्साधना करते हैं, उनकी एकाग्रता होती है। एकाग्रता में ऊर्ध्वगति होती है। वे पिण्ड से ब्रह्माण्ड में प्रवेश कर जाते हैं, वहाँ उनको तारे, चन्द्र, सूर्य आदि के दर्शन होते हैं; यह आन्तरिक बात है, बाहर की नहीं।
बाह्य संसार में बिना प्रकाश और बिना शब्द के हम कुछ काम नहीं कर सकते हैं। इन दोनों चीजों का अभाव हो जाए, तो हमलोगों का जीवन दूभर हो जाएगा। इसलिए जिस तरह बाह्य संसार में प्रकाश और शब्द की आवश्यकता होती है, उसी तरह अपने अन्दर में भी प्रकाश और शब्द की आवश्यकता होती है। हम बाह्यजगत में किन्हीं व्यक्ति वा वस्तु की पहचान प्रकाश और शब्द के द्वारा करते हैं। उसी तरह ईश्वर की पहचान के लिए भी अपने अन्दर प्रकाश और शब्द की आवश्यकता है। प्रकाश और शब्द का अवलम्ब लेकर उसके परे जाकर प्रभु से मिलकर हम एकमेक हो सकते हैं। यहाँ पर जितने लोग बैठे हुए हैं, सभी बाह्याकाश स्थित सूर्य के प्रकाश के कारण सब कोई एक-दूसरे को देख रहे हैं, लेकिन जबतक एक-दूसरे से नहीं पूछा जाए कि आपका क्या नाम है, आपका कहाँ घर है, आप क्या काम करते हैं आदि, तबतक पूरी पहचान नहीं हो सकती। किन्हीं की पूरी पहचान तभी होगी, जब बातचीत करके उनका परिचय जान लेंगे। अभी इतने लोग परस्पर एक-दूसरे को देख रहे हैं, कुछ समय के पश्चात् यदि अन्यत्र उनको कहीं हम देखेंगे, तो मन में होगा कि कहीं इनको देखा है। बहुत याद करेंगे, तो स्मरण होगा कि अमुक स्थान पर इनको देखा था, लेकिन ये कौन हैं, इसका पता नहीं। पूरी पहचान तभी होगी, जब उनसे हम नाम-पता आदि पूछ लेंगे। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे बाहरी संसार में प्रकाश और शब्द आवश्यक है, वैसे ही आन्तरिक जगत में भी प्रकाश और शब्द अनिवार्य है।
परमात्मा ने हमारे लिए कितना अच्छा नमूना दे रखा है। आप बाह्याकाश में देखते हैं काले-काले बादल मँडरा रहे हैं, बिजलियाँ कौंधती हैं, पश्चात् कड़ाके की आवाज सुनते हैं। इस प्राकृतिक दृश्य के द्वारा परमात्मा ने अन्तस्साधना में दर्शित दिशा की ओर संकेत किया है अर्थात् साधक जब नेत्र द्वय बन्दकर गुरु निर्देशित स्थान पर देखते हैं, तो वे अन्दर देखते हैं कि काले-काले बादल मँडराते हैं, बिजलियाँ चमकती हैं और जोर की आवाज होती है। ऋग्वेद में एक मंत्र आया है-
“ शृण्व वृष्टेरिव स्वनः पवमानस्य शुष्मिणः ।
चरन्ति विद्युतो दिवि ।।”
आकाश में बिजलियाँ चलती हैं और उस समय वृष्टि के शब्द के समान बलवान् पापशोधक उसका शब्द सुन पड़ता है। साधक के मूर्धा-स्थल में विद्युत् की-सी कान्तियाँ व्यापती हैं, अनाहत पटह के समान गर्जन अनायास सुनता है। वह स्वच्छ पवित्र आत्मा का ही शब्द होता है।
आपने अनेक बार देखा होगा कि जब बिजली खूब जोर से चमकती है, तो आवाज भी जोरों की सुनते हैं। इस प्रकार पहले प्रकाश देखते हैं, फिर शब्द श्रवण होता है। इसी प्रकार आंतरिक साधना करनेवाले साधक को प्रथम प्रकाश की अनुभूति होती है, पश्चात् शब्द की। यदि हम सृष्टि क्रम की ओर दृष्टि करेंगे, तो पाएँगे कि पहले शब्द है, उसके बाद प्रकाश है और तत्पश्चात् अंधकार है, लेकिन साधना का आरंभ अंधकार से होने के कारण साधक अंधकार के परे पहले प्रकाश को पाते हैं, पीछे शब्द को। इसका अर्थ यह नहीं कि शब्द पीछे होता है। वस्तुतः शब्द पहले होता है, किन्तु हम पीछे सुनते हैं। जो कोई अन्तस्साधना करते हैं, उनकी ये अनुभूतियाँ होती हैं। मैत्रेय्युपनिषद् में एक प्रसंग आया है-
एक ब्राह्मण थे। वे अन्य ब्राह्मणों की भाँति सन्ध्या-वन्दन, गायत्री-जप, पूजा पाठ आदि नहीं करते थे; अपनी साधना में लगे रहते थे। उनकी पत्नी अपने अड़ोस-पड़ोस में सखी-सहेलियों से मिलने के लिए जाती थीं, तो वे लोग उनसे हँसी-मजाक में कहा करतीं कि तुम तो ब्राह्मणी है, लेकिन तुम्हारा विवाह शूद्र से हो गया है। तुम्हारे पति ब्राह्मण नहीं हैं। यदि वे ब्राह्मण होते, तो समय पर स्नान करते, गायत्री मंत्र-जप करते, त्रयकाल संध्या करते, समय पर ब्राह्मणोचित पूजा-पाठ आदि करते, लेकिन वे तो ये सब करते नहीं हैं। घर लौटने पर अपने पति से कहतीं कि लोग ऐसा-ऐसा कह रहे हैं। वे उन बातों को सुनकर कुछ उत्तर नहीं देते। ब्राह्मणी जब-जब पड़ोसिन के पास जातीं, तब-तब उनको वे ही बातें सुनने को मिलतीं। एक दिन बहुत दुःखी होकर वे अपने पति से कहने लगीं-‘मैं आपसे बार-बार कहती हूँ, किन्तु आप मेरी बात पर ध्यान नहीं देते हैं।’ उनके पति ने कहा-‘देवि! तुम नहीं जानती है और जो पड़ोसिन तुमको कुछ कहती है, वह भी नहीं जानती है कि मैं क्या करता हूँ?’ अरी! संध्या किसको कहते हैं? सन्ध्या कब की जाती है? सूर्यास्त होता है, उसको संध्या कहते हैं यानी दिन का अन्त होता है और रात का आरंभ होता है, उस संधिकाल को संध्या कहते हैं। पूर्वाह्न का अंत और अपराह्न का आरंभ होता है, उसको मध्याह्न संध्या कहते हैं। रात्रि का अंत और दिन का आरंभ होता है, उसको प्रातः संध्या कहते हैं। इस प्रकार हमारे यहाँ त्रिकाल संध्या मानते हैं। प्रातः संध्या, मध्याह्न संध्या और सायं संध्या। जहाँ सूर्योदय अथवा सूर्यास्त ही नहीं, वहाँ संध्या कैसी? हमारे हृदयरूपी आकाश में चेतनरूप सूर्य बराबर उगा रहता है। वह न उगता है, न डूबता है; मैं संध्या कैसे करूँ? मैत्रेय्युपनिषद् में लिखा है-
“ हृदाकाशे चिदादित्यः सदा भासति भासति ।
नास्तमेति न चोदेति कथं संध्यामुपास्महे ।।”
जो कोई आंतरिक साधना करते हैं, उनको इस प्रकाश की अनुभूति होती है। उनको प्रथम तो प्रकाश मिलता है, पश्चात् शब्द भी। शब्द में गुण होता है केन्द्र में खींचने का। तो जो ईश्वर की ओर से शब्द आ रहा है, उस शब्द को जो पकड़ता है, वह ईश्वर तक पहुँचता है।
नादानुसंधान का साधक पहले स्थूल के केन्द्र का शब्द पकड़ता है। स्थूल-सूक्ष्म की संधि पर उस शब्द को पकड़कर उससे खि्ांचकर सूक्ष्म के केन्द्र पर जाता है। सूक्ष्म के केन्द्र पर के शब्द को पकड़कर वह कारण के केन्द्र पर जाता है। कारण के केन्द्र पर शब्द को पकड़कर महाकारण के केन्द्र पर के शब्द को पकड़कर जड़ावरण को पार करके कैवल्य में पहुँचता है। वहाँ सार-शब्द को पकड़कर ‘निशब्दं परमं पदम्’ में पहुँच जाता है। वहाँ परमात्मा को प्राप्तकर जीव-पीव मिलकर एक हो जाता है। आवागमन का चक्र छूट जाता है। संतमत की अन्तस्साधना पर थोड़ा-सा कहा।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट के सत्संग हॉल में सप्ताहिक सत्संग के अवसर पर दिनांक 18-07-1993 ई0 को हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जनवरी 1999 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
परम प्रभु परमात्मा ने अद्भुत सृष्टि की है और उनकी सृष्टि का विधान भी अद्भुत है। संसार में लोग आते हैं, कुछ दिन रहते हैं, फिर चले जाते हैं। यह संसार ही कुछ ऐसा है कि पूर्व में जो कोई भी आये, सब-के-सब चले गये। वर्त्तमान में जो हैं, वे भी जायेंगे। फिर भविष्य में भी जो आयेंगे, वे भी जायेंगे।
संत कबीर साहब ने कहा है-
“ आये हैं सो जाहिंगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जाय जंजीर ।।”
आनेवाले निश्चित रूपेण जायेंगे। लेकिन जाने में भेद है और वह यह है कि एक सिंहासन पर चढ़कर जायेंगे और दूसरे जंजीर से बँधे जायेंगे। सांसारिक माया में जो बँधे रहेंगे, वे यम के बंधन से बँधकर यमालय जायेंगे। दूसरे वे होते हैं, जो जागतिक बंधनों से मुक्त होते हैं, ईश्वर-भक्ति से संयुक्त होते हैं; वे भगवद्भजन कर ईश्वर-धाम को पहुँचते हैं। जो कोई जागतिक प्रपंच में ही लगे रहते हैं, वे यमजाल से बँधते हैं और जो ईश्वर का भजन करते हैं, वे यमजाल से छूटते हैं।
इसलिए संतों ने कहा-इस जीवन का कोई ठिकाना नहीं है। कितने दिनों के लिए यह शरीर है, कितने दिनों तक यह रहेगा, कोई ठिकाना नहीं है।
गुरु नानक देव ने कहा है-
“ नहँ बालक नहँ यौवने, नहि बिरधी कछु बंध ।
वह अवसर नहिं जानिये, जब आय पड़े यम फंद ।।”
कोई प्रतिबंध नहीं है-कौन कब मरेगा? बूढ़े होंगे, तभी मरेंगे-ऐसी बात हीं। कितने तो गर्भ से मरकर ही आते हैं। इस तरह इस संसार में मरना-ही-मरना है। इस लोक का नाम ही मृत्युलोक है। सबके लिए परमात्मा ने जीवन-काल निश्चित कर दिया है। लेकिन सर्वसाधारण के लिए यह अज्ञात है। गुरु नानक देव जी महाराज थे। उनका सत्संग होता था। बहुत सबेरे-सबेरे लोग सत्संग में इकट्ठे हो जाते थे। उस सत्संग में बहुत लोग जाते थे। उसमें पाँच वर्ष का एक छोटा बच्चा भी जाता था। उसमें गुरु नानक साहब ने देखा कि यह बच्चा अपने अभिभावक के साथ बराबर सत्संग में आता है।
एक दिन गुरु नानक देव जी महाराज ने उस बच्चे से पूछा कि बच्चे! जो वयस्क लोग हैं, वे जानते हैं कि सत्संग से क्या लाभ है। तुम जो इतने सबेरे-सबेरे आ जाते हो क्या समझकर? उस छोटे बच्चे ने कहा-गुरु महाराज! मैं तो कुछ समझता नहीं हूँ; लेकिन एक दिन की घटना है-मेरी माँ रोटी बना रही थी। चूल्हे के निकट मैं भी बैठा था। मैंने देखा कि जो मोटी-मोटी लकड़ियाँ हैं, वे तो देर से जलती हैं और जो पतली-पतली टहनियाँ हैं, वे जल्दी-जल्दी जल जाती है। मैंने सोचा, जो बड़ी उम्र के लोग हैं, वे मोटी-मोटी लकड़ियों के समान हैं और जो पतली-पतली टहनियाँ हैं, वे कम उम्र के लोगों के समान हैं। इसलिए मैंने सोचा कि जो बड़ी उम्र के लोग हैं, वे देर से मरेंगे और मैं जो पतली टहनी के समान हूँ, जल्द मर जाऊँगा। इसलिए सत्संग में आने लगा हूँ। आपके दर्शन करता हूँ। गुरु नानक देव जी प्रसन्न मुद्रा में हँसकर बोले-यह बच्चा नहीं है, बूढ़ा है; क्योंकि इसका ज्ञान परिपक्व है। गुरु नानकदेवजी के आशीर्वाद से उसने लम्बी आयु पायी।
हाँ, तो मैं कह रहा था-इस जीवन का ठिकाना नहीं है-भरोसा नहीं है कि कब चला जायगा। श्रीमदाद्य शंकराचार्यजी ने कहा-
“ पप्र पत्र पर पड़े हुए अति चंचल नीर समान ।
अतिशय चपल और क्षणभंगुर, इस जीवन को जान ।।
यहाँ एक क्षणभर की सत्संगति ही का भाव ।
भवसागर से तरने में बन जाता दृढ़तर नाव ।।”
कमल के पत्ते पर पानी रखिए, ढरक जायगा। वह रहेगा नहीं। उसी तरह यह मनुष्य का शरीर है, यह भी क्षणभंगुर है, नाशवान है। कब समाप्त हो जायगा, पता नहीं। इस क्षणभंगुर शरीर से सत्संग करना चाहिए। थोड़ा-सा भी सत्संग करेंगे, तो उसका बड़ा महत्त्व है। एक बार का प्रसंग है। वशिष्ठजी घूमते-घामते विश्वामित्र मुनि के आश्रम में गये। विश्वामित्र मुनि जी ने बड़ी तपस्या की थी। बहुत आदर-सत्कार किया। जब वशिष्ठजी चलने लगे, तो उन्होंने अपनी एक हजार वर्ष की तपस्या का फल इनको विदाई में दिया। प्रसन्न हो चले गये वशिष्ठ जी। कुछ दिनों के बाद विश्वामित्र मुनि जी घूमते-घामते पहुँचे वशिष्ठजी के यहाँ। वशिष्ठ जी राजयोगी थे। इन्होंने भी आदर-सत्कार किया और उनके चलते समय इन्होंने जो सत्संग किया था, ध्यान किया था, दो घड़ी के सत्संग का फल दान में दिया । विश्वामित्र के मन में हुआ कि मेरे दान के सामने इनका दान बहुत कम हुआ। झूँझलाकर बोले-कहाँ तो मैंने इतना अधिक दान दिया और आपने इतना कम दिया। दोनों में बातें बढ़ गयीं। अब इसका इंसाफ कौन करे कि किनका दान कम हुआ और किसका अधिक। तो गये दोनों विष्णु भगवान के पास। विष्णु भगवान् ने कहा-मुझे फुर्सत नहीं है, चले जाइये ब्रह्माजी के पास। दोनों ब्रह्माजी के पास गये और अपनी-अपनी बातें बतायीं। ब्रह्माजी ने कहा-मुझे अवकाश नहीं है, चले जाइये शेषनाग के पास। शेषनाग के पास दोनों ने अपनी-अपनी बातें सुनायीं। शेषनागजी ने कहा-किसका दान अधिक, किसका फल कम-यह कैसे बताऊँ? मैं तो पृथ्वी का भार लेकर हूँ। आपलोगों में से कोई इसकी भार सँभाल कीजिए, तो मैं इन्साफ कर दूँगा। विश्वामित्र मुनिजी ने अपना तप-बल लगाया; लेकिन उस भार को वे ले न सके। और वशिष्ठजी ने भार ले लिया। विश्वािमत्रजी ने शेषनाग से कहा, अब तो आप कहिये। शेषनाग ने कहा-न्याय तो हो गया कि किसने अधिक दान दिया। जिसने भार उठाया, उसने अधिक दान दिया।
सत्संगति से हो जाता नर विषयों से निस्संग ।
फिर व्यामोह-रहित हो जाता, हो सर्वत्र असंग ।।
मोह-विगत होते ही होता मन निश्चलतायुक्त ।
निश्चलता आते ही वह हो जाता जीवनमुक्त ।।
सत्संग करते हैं, सत्य का रंग लगता है, तो असत् का संग छूटता है। जहाँ सत्य होता है, विजय वहीं होती है। जो सत्य है, उसी की विजय होती है। असत् की विजय नहीं होती है। इस संसार में लोक-विजय, इन्द्रिय-विजय, मनोजय, संसार-जय वही कर सकता है, जो सत्य का आचरण करता है। सत्य का आचरण करके सत्यस्वरूप सर्वेश्वर का साक्षात्कार करते हैं। इसलिए संतों का यह ज्ञान है कि हमलोगों को सत्संग करना चाहिए, ध्यान करना चाहिए। इससे इस लोक में जीवन कल्याणमय होगा और परलोक में भी जीवन कल्याणमय होगा।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन झारखण्ड राज्यान्तर्गत राँची जिले के संतमत-सत्संग मंदिर चुटिया में दिनांक 23-09-1993 को अपराह्नकाल में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जनवरी 1994 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
संतमत-सत्संग के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है। ईश्वर-भक्ति में मानव का हित निहित है। आज कुछ ऐसे भ्रामक विचारों का प्रचार हो रहा है कि ईश्वर-प्राप्ति के अनेक मार्ग हैं। इस विषय की पुष्टि के लिए उनका कथन है कि जैसे ‘करणाल आने के लिए उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम और चारो कोनों से यानी सभी तरफ से रास्ते हैं, उसी तरह ईश्वर के पास जाने के लिए भी सब तरफ से रास्ते हैं यानी बहुत रास्ते हैं।’ उन सज्जनों से मेरा निवेदन है कि वे इस विषय का गंभीरतापूर्वक मनन करने का कष्ट करें कि करणाल इस स्थूल संसार में हरियाणा प्रान्त के अंदर एक स्थान पर अवस्थित है। उसके सभी ओर अवकाश है। इसलिए सभी ओर से लोग करणाल आते हैं; किन्तु क्या परमात्मा भी बाह्य जगत् में कहीं एक स्थान पर अवस्थित है, जिसके सभी ओर अवकाश है, जिससे कि सभी ओर से लोग उसके पास जायेंगे?
परमात्मा स्वरूपतः अव्यक्त, अनंत, अगोचर, सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे है। अनंतस्वरूपी सर्वेश्वर अपनी सूक्ष्मता के कारण सबके बाहर और भीतर विद्यमान है।
हम बाहर में जो कुछ ग्रहण करते हैं-इन्द्रियों से। वह परमात्मा इन्द्रियातीत है। इसलिए बाहर में उसकी प्राप्ति नहीं हो सकती। अपने अंदर-अंदर चलने से इन्द्रियों से छूटना होता है। जहाँ सभी इन्द्रियों से हम छूट जाएँगे, वहीं परमात्म-स्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान होगा। इसलिए यह स्पष्ट है कि परमात्मा की प्राप्ति अपने अंदर होगी, बाहर में नहीं।
पुनः जब हम संतवाणी का अध्ययन-मनन करते हैं, तो पाते हैं कि ईश्वर-प्राप्ति का रास्ता एक ही है, एक से अधिक नहीं। हम वैदिक हों या अवैदिक, ईसाई हों या इस्लाम, जैन हों या बौद्ध, सिक्ख हों या यहूदी-कुछ भी हों, किसी भी जाति-पाँति के हों, धनी या गरीब हों, विद्वान या अविद्वान हों अथवा किसी भी तरह के कोई मानव क्यों न हों, परमात्मा ने सबकी रचना एक-सी की है। चाहे वे किसी देश के वा किसी वेश का आदमी हो, सबके लिए परमात्मा ने एक-सा न्याय बरता है। सभी लोग मुँह से ही भोजन करेंगे। भोजन करने का रास्ता एक ही है और वह है मुँह। देखने का रास्ता एक है और वह है आँख। सुनने का रास्ता एक है और वह है कान। गंध ग्रहण करने का रास्ता है और वह है नाक। इसी तरह स्पर्श करने का माध्यम है त्वचा। इन पाँच ज्ञानेन्द्रियों से हम पाँच विषयों को ग्रहण करते हैं। मल और मूत्र विसर्जन के लिए भी एक-एक रास्ता नियुक्त है। इसी तरह ईश्वर-भजन करने का रास्ता भी एक ही है। अब सोचने की बात यह है कि वह ईश्वर कहाँ है, जहाँ जाकर हम उसको प्राप्त कर सकते हैं। ईश्वर को कौन प्राप्त करेगा तथा ईश्वर स्वरूपतः है क्या, इन बातों की जानकारी होनी चाहिए। संत कबीर साहब ने ईश्वर-स्वरूप के संबंध में कहा है-
“ जो दीसै सो तो है नाहीं, है सो कहा न जाई ।
सैना बैना कहि समुझावौं, गूँगे का गुड़ भाई ।।”
‘जो दीखता है अर्थात् जो नेत्र इन्द्रिय से ग्रहण होता है, वह परमात्मा नहीं है, वह परमात्मा की माया है। और जो है, वह कहा नहीं जा सकता।’ क्योंकि वह वाणी का विषय नहीं है। वास्तव में वह इन्द्रियातीत है, अगोचर है, सर्वव्यापक है और सर्वव्यापकता के भी परे है। इसलिए जो वाणी का विषय नहीं है, उसको वाणी के द्वारा कैसे समझाया जा सकता है?
एक शिकारी शिकार खेलने के लिए जंगल गया। उसने एक हिरण पर बाण चलाया। बाण लगते ही वह हिरण अपने प्राण लेकर भागा। उसी जंगल में एक साधु बाबा की कुटिया थी, जिसमें साधु बाबा बैठे हुए थे। हिरण चौकड़ी भरता हुआ साधु बाबा के आगे से निकल गया और एक झाड़ी में छिप गया। पीछे से शिकारी उसकी खोज करता हुआ आया। आते-आते साधु बाबा के पास पहुँचा और पूछा, ‘महात्मन्! आपने एक शरविद्ध हिरण को भागते देखा है?’ महात्मा जी सोचने लग गये,‘जीवन में कभी झूठ बोला नहीं; अगर मैं झूठ बोलता हूँ, तो महापातक होता है। गोस्वामी जी ने लिखा है-
“ नहिं असत्य सम पातक पुंजा ।
गिरि सम होइ कि कोटिक गुंजा ।।”
झूठ बोलना ठीक नहीं। अगर मैं सत्य कहता हूँ, तो एक निरपराध प्राणी की हत्या हो जाएगी और हिंसा का पाप मुझे लग जाएगा। जहाँ ‘अहिंसा परमो धर्मः।’ है, वहाँ हिंसा करवाकर मैं पाप का भागी बनूँगा।’ साधु बाबा को न तो सत्य बोलते बनता है और न झूठ बोलते ही। क्या किया जाए? लेकिन साधु बाबा थे बड़े प्रत्युत्पन्नमति। उन्होंने कहा, ‘भाई व्याध! जिसने देखा है, वह बोल सकता नहीं है और जो बोल सकता है, उसने देखा नहीं। मैं क्या कहूँ?’ अर्थात् हिरण को भागते हुए देखा है नेत्र ने। नेत्र तो बोल सकता नहीं, बोलेगा मुँह; लेकिन मुँह ने तो देखा नहीं है।
इसी प्रकार परमात्मा को तो प्राप्त जीवात्मा करता है-चेतन आत्मा करता है। मगर चेतन आत्मा तो बोलता नहीं है। बोलता है मुँह। मुँह ने तो कभी परमात्मा का दर्शन किया ही नहीं। तब परमात्म-स्वरूप के विषय में मुँह से क्या कहा जा सकता है? इसीलिए संत कबीर साहब ने कहा था-
“ जस कथिये तस होत नहिं, जस है तैसा सोय ।
कहत सुनत सुख ऊपजै, अरु परमारथ होय ।।
जो देखै सो कहै नहिं, कहै सो देखै नाहिं ।
सुनै सो समझावै नहिं, रसना दृग सरवन काहिं ।।”
तात्पर्य यह कि देखती है आँख; लेकिन आँख बोलती कुछ नहीं; कहती है जिभ्या; लेकिन जिभ्या देखती नहीं। इसलिए ‘कहै सो देखै नाहिं’ कहा। और ‘सुनै से समझावै नहिं’ कहने का आशय है-सुनता है कान। किन्तु कान किसी को कुछ समझाता नहीं।
संत कबीर साहब कहते हैं कि रसना, दृग और श्रवण-तीनों एक साथ किसको है? इसलिए ईश्वर-स्वरूप निगूढ़ तत्त्व है। वह सूक्ष्मतम होने के कारण सर्वव्यापक है। सर्वव्यापक तत्त्व कहाँ है और कहाँ नहीं है? अर्थात् सर्वत्र है। जो तत्त्व सर्वत्र है, तो सर्वत्र होने के कारण वह हमारे भीतर भी है। गुरु नानकदेवजी महाराज ने फरमाया है-
“ सब किछु घर महि बाहरि नाहीं ।
बाहरि टोलै सो भरमि भुलाहीं ।।”
पुनः कहा-
“ इस गुफा महि अखुट भंडारा ।
तिसु बिचि बसै हरि अलख अपारा ।।
आपे गुपुत परगट है आपे ।
गुरु सबदि आप वंञावणिआ ।।”
अर्थात् आपके अंदर अघट भंडार भरा पड़ा है। सब कुछ के सहित परम प्रभु परमात्मा भी विराजमान हैं। फिर भी हम अपने प्रभु को देख नहीं पाते।
“ है नेरे सूझत नहीं, ल्यानत ऐसो जिन्द ।
तुलसी या संसार को, भयो मोतियाबिन्द ।।”
जिस तरह किसी की आँख में मोतियाबिन्द की बीमारी हो जाती है, तो नजदीक में चीज रहने पर भी उसको वह सूझती नहीं है। उसी तरह परम प्रभु परमात्मा हमारे निकटतम रहने पर भी हमें दीखता नहीं है। मोतियाबिन्द का ऑपरेशन डॉक्टर कर देते हैं। नेत्र के ऊपर जो आवरण हो जाता है, उसको वे हटा देते हैं। फिर आँख देखने लग जाती है। उसी प्रकार चेतन आत्मा के ऊपर जो जड़ का आवरण हो गया है, उस आवरण को हटाने के लिए संत सद्गुरुरूपी डॉक्टर के पास जाना होगा। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
“ सद्गुरु वैद बचन बिस्वासा ।
संयम यह न विषय कै आसा ।।
रघुपति भगति संजीवन मूरी ।
अनूपान स्त्रद्धा मति पूरी ।।
एहि बिधि भलेहि सो रोग नसाहीं ।
नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं ।।”
कितना भी उपाय कर लो, यह रोग दूर होने को नहीं है। इसलिए संत सद्गुरु की शरण जाओ। तभी तुमको भव-रोगों से मुक्ति मिलेगी, अन्यथा नहीं। गुरु नानकदेवजी महाराज ने तो बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा है-
“ बिनु सतिगुर सेवे जोगु न होई ।
बिनु सतिगुर भेटे मुकति न कोई ।।
बिनु सतिगुर भेटे नामु पाइआ न जाइ ।
बिनु सतिगुर भेटे महा दुखु पाइ ।।
बिनु सतिगुर भेटे महा गरबि गुबारि ।
नानक बिनु गुर मूआ जनमु हारि ।।”
गुरु नानकदेवजी कहते हैं कि अपने जन्म को यूँ ही व्यर्थ खो दिया, अगर सच्चे सद्गुरु के दर्शन तुमको नहीं हुए। तुम्हारा जीवन व्यर्थ का चला गया। वैसा राम-राम, शिव-शिव, वाहगुरु आदि ईश्वरवाचक शब्द सभी कोई कहते हैं; बहुत अच्छी बात है; लेकिन कहने की कला जानकर कहो, तो अत्युत्तम हो। एक साधु बाबा थे। वे मधुकरी वृत्ति से जीवन- यापन करते थे। जिस दरवाजे पर वे जाते, तो कहते-‘राम-राम करे, भवसागर तरे।’ प्रतिदिन इसी भाँति लोग भोजन के समय उनको रोटियाँ खिला देते। साधु बाबा खाकर मस्त रहते और भगवान का नाम लिया करते, दुनियादारी की कोई फिक्र नहीं। एक दिन ऐसे ही घूमते-घामते वे एक दरवाजे पर पहुँचे गये। उस दरवाजे पर एक सुग्गा पिंजड़े में बैठा हुआ था। गृहपति ने उसे पाल रखा था। साधु बाबा ने कहा, ‘राम-राम करे, भवसागर तरै।’ तो पिंजड़ेवाले सुग्गे ने कहा, ‘राम-राम करे, लौह पिंजड़ पड़े।’
साधु बाबा ने पूछा, ‘अरे! तू क्या बोलता है?’ सुग्गे ने कहा, ‘बाबा! आप क्या कहते हैं?’ साधु बाबा ने कहा, ‘मैं तो कहता हूँ कि राम-राम करे, भवसागर तरै।’ पिंजड़वाले सुग्गे ने कहा, ‘मैं कहता हूँ कि राम-राम करे, लौह पिंजड़ पड़े।’ साधु बाबा ने कहा, ‘ऐसा तू क्यों कहता है?’ पिंजड़ेवाले सुग्गे ने कहा, ‘बाबा! आप किसी किताब में पढ़े होंगे कि राम-राम कहने से भवसागर तरता है या किसी बहक में आप पड़ गये हैं कि राम-राम कहने से भवसागर तरता है। आपका जो ज्ञान है, वह तो श्रवण-मनन का ज्ञान है और मेरा अनुभव ज्ञान है। आप प्रत्यक्ष देखते हैं कि मैं राम-राम कहता हूँ, तो लोहे के पिंजड़े में पड़ा हुआ हूँ और जो सुग्गा राम-राम नहीं कहता है, वह स्वतंत्र विचरण करता है। जहाँ उसका मन होता है, वहाँ वह उड़ता है; जहाँ जो खाना चाहता है, वहाँ वह खाता है; जब मन उड़ने का होता है, उड़ता है और बैठने का मन होता है, तो बैठता है। एक अभागा सुग्गा मैं ही हूँ, जो राम-राम करते हुए लोहे के पिंजड़े में जकड़ा पड़ा हूँ। इसलिए अबसे आप यह कहा कीजिए कि ‘राम-राम करे, लौह पिंजड़ पड़ै।’ इसको भूल जाइये कि ‘भवसागर तरै।’ साधु बाबा ने कहा, ‘अरे! तुम मुझको ज्ञान सिखलाते हो? राम-राम तो तुम कहते हो; लेकिन कहने की युक्ति जानते हो? राम-राम कहने की युक्ति जानकर कहोगे, तो पिंजड़े से मुक्ति मिल जाएगी।’ संत कबीर साहब ने कहा है-
“ नाम रटे क्या पाइये, हो हिरदा नाहिं समाय ।
कोटिक गुन सुगना रटे, अन्त बिलाइ खाय ।।”
सुग्गा राम-राम तो कहता है; लेकिन जब बिल्ली उसकी गर्दन को पकड़ती है, तो मुँह से टाँय-टाँय के सिवा और कुछ आवाज नहीं निकलती। उसी तरह से मुँह से हम राम-राम, शिव-शिव, वाहगुरु, सतनाम आदि सब कुछ कहते हैं; लेकिन जब यमराज आता है, तो ‘हाय रे बाप, हाय रे माय, हाय रे धन, हाय रे दौलत, हाय रे बेटा आदि के सिवा और कुछ में आता नहीं। अंत समय में भगवान का नाम कैसे आवेगा, इसकी युक्ति जानिये। तब मरने के समय में वह नाम याद आवेगा। हाँ, तो मैं पिंजड़वाले सुग्गे की कहानी कह रहा था। सुग्गे ने कहा, ‘बाबा! मैं युक्ति नहीं जानता, कृपा करके युक्ति बतलाने का कष्ट करें।’
साधु बाबा ने सुग्गे से कहा, ‘अच्छा, मालूम नहीं है, तो तुमको मैं युक्ति बतला देता हूँ।’ साधु बाबा ने सुग्गे को युक्ति बतला दी। सुग्गा उसका अभ्यास करने लग गया। करते-करते कुछ दिनों के बाद उसका प्राण-स्पंदन निरुद्ध होने लगा। एक दिन वह क्रिया करके पिंजड़े में पड़ा हुआ था। गृहपति उसको कुछ खिलाने के लिए आया, तो देखता है कि सुग्गा की श्वास-गति बंद है। उलटा-पुलटा करके देखने पर उसको प्रतीत हुआ कि सुग्गा मर गया है। उसने पिंजड़े से सुग्गे को निकालकर बाहर फेंक दिया। जैसे ही सुग्गा पिंजड़े से बाहर निकला, वह फुर्र से उड़ गया।
यह तो एक कथा है। लेकिन इसके साथ वास्तविकता क्या है? गुरु गोरखनाथजी महाराज ने कहा है-
“ सप्त धातु का काया प्यंजरा,
ता माहिं जुगति बिन सुवा ।
सतगुरु मिलै त उबरै बाबू,
नहीं तौ परलै हूवा ।।”
हमलोगों का यह शरीर सात धातुओं से बना हुआ है-रक्त, रस, मांस, मेद, मज्जा, अस्थि, वीर्य। इन सात धातुओं से बना हुआ यह शरीर पिंजड़े के समान है। इस पिंजड़े में जीवरूप सुग्गा बैठा हुआ है। इसको राम-राम, शिव-शिव, वाहगुरु, सतनाम, हरे कृष्ण, हरे राम, सीता-राम, राधेश्याम आदि जो शब्द जपने के लिए सिखला दिया गया है, वह बोलता है। लेकिन जब मौतरूप बिल्ली उसकी गर्दन धर दबाती है, तब वह भगवान को भूल जाती है। उस समय उसको दुनियादारी याद आती है। परिणामस्वरूप मरने के पश्चात् यह दुर्गति को प्राप्त करता है। संत गुरु गोरखनाथ जी महाराज कहते हैं, ‘सतगुरु मिलै तो उबरै बाबू’ अर्थात् अगर तुमको सच्चे सद्गुरु के दर्शन हो जाएँ, उनकी तुम शिक्षा-दीक्षा ग्रहण कर लो, तदनुकूल तुम उसको अपने आचरण में उतारो, तो तुम्हारा उद्धार हो जाएगा। अगर नहीं तो प्रलय में तो पड़े हुए हो ही। ईश्वर के बारे में सभी संत और सद्ग्रंथ कहते हैं कि वह ईश्वर सर्वत्र है। वह सर्वत्र है, तो हमारे अंदर भी है। जब ईश्वर हमारे अंदर है, तब उसको बाहर खोजने के लिए क्यों जाएँ? संत कबीर साहब कहते हैं-
“ कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूँढ़े वन माहिं ।
ऐसे घट में पीव है, दुनिया जानै नाहिं ।।
समझै तो घर में रहै, परदा पलक लगाय ।
तेरा साईं तुज्झ में, अनत कहूँ मत जाय ।।
ज्यों नैनन में पुतरी, यों खालिक घट माहिं ।
मूरख लोग न जानहीं, बाहर ढूँढ़न जाहिं ।।”
जो बाहर ढूँढ़ने के लिए जाते हैं, वे मूर्ख हैं। मूर्ख में और अनपढ़ में भेद है। कबीर साहब अनपढ़ थे; लेकिन मूर्ख नहीं थे, बहुत बड़े विद्वान थे। आज सिगरेट के डिब्बे पर लिखा हुआ हम पढ़ते हैं, ‘सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।’ फिर भी हम पीते हैं। इस दृष्टि से हम मूर्ख हैं या विद्वान, विवेक दृष्टि से अवलोकन करें। कबीर साहब मृगा की उपमा देकर बतलाते हैं कि जिस तरह मृग की नाभि में कस्तूरी है; लेकिन वह उसे बाहर ढूँढ़ता है। बाहर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते उसका जीवन समाप्त हो जाएगा; लेकिन कभी उसको कस्तूरी से भेंट नहीं होगी। उलटकर वह अपनी ओर देखे, तो उसको अपने ही शरीर में-नाभि में कस्तूरी का पता चल जाएगा। संत कबीर साहब की भाँति कस्तूरी मृग की उपमा गुरु नानकदेवजी महाराज भी देते हैं।
“ घर ही महि अंम्रित भरपूर है,
मनुखा सादु न पाइआ ।
जिउ कस्तूरी मिरगु न जाणै,
भ्रमदा भरम भुलाइआ ।।
अंम्रितु तजि विखु संग्रहै,
करतै आपि खुआइआ ।
गुरमुखि विरले सोझी पाई,
तिना अंदरि ब्रह्मु दिखाइआ ।।”
जिनको गुरु की प्रसादी मिली हुई है, कृपा मिली हुई है, वे ही अपने अंदर ब्रह्म को देख सकते हैं। हम गो0 तुलसीदासजी महाराज से पूछते हैं, तो वे अपने अनुभव की बीती बात बताते हैं-
“ एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो ।
परिहरि हृदय-कमल रघुनाथहिं,
बाहर फिरत विकल भय धायो ।।
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद,
अति मतिहीन मरम नहिं पायो ।
खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल,
परम सुगन्ध कहाँ तें आयो ।।”
ये भी कस्तूरी-मृग की उपमा देते हुए कहते हैं कि जिस तरह से कुरंग अर्थात् मृग की नाभि में कस्तूरी है; लेकिन वह अज्ञ है, जानवर है, बाहर-बाहर खोजता है-गिरि, तरु, लता, भूमि, बिल आदि, न जाने कहाँ-कहाँ खोजता है। लेकिन क्या गिरि, तरु, लता, भूमि, बिल में कस्तूरी मिलेगी? कस्तूरी तो उसके अंग-संग मौजूद है। वह अपने अंग-संग में ही मिलेगा। तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि जबतक मैं बाहर भटकता रहा, तबतक उस मृग के समान भ्रमित रहा; लेकिन जब संत सद्गुरु के दर्शन हुए, उनसे सद्युक्ति मिली, स्वयं साधना की, तो अपने में अपने प्रभु को पाया। अब भक्तप्रवर श्रीसूरदासजी महाराज की सुनिये, वे क्या कहते हैं-
“ अपुनपौ आपुन ही में पायो ।
शब्दहिं शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो ।।
ज्यों कुरंग नाभी कस्तूरी, ढूँढ़त फिरत भुलायो ।
फिर चेत्यो जब चेतन ह्वै करि, आपुन ही तन छायो ।।”
श्रीसूरदासजी भी कस्तूरी-मृग की उपमा देते हैं। हम संत दादू दयालजी महाराज से पूछें कि इस विषय में उनका क्या अभिमत है-
“ सब घट में गोविन्द है, संगि रहे हरि पास ।
कस्तूरी मृग में बसै, सूँघत डोलै घास ।।”
ये भी कस्तूरी-मृग की उपमा देते हैं। इस तरह सभी संतों की वाणियों में हम साम्य पाते हैं। सभी संत परम प्रभु परमात्मा की प्राप्ति अपने अंदर बतलाते हैं।
अंत में हम अपनी जिज्ञासा का समाधान पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज से करवाना चाहेंगे। उनकी वाणी में उनकी अनुभूति बोलती है। वे बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहते हैं, हे सज्जन! परम प्रभु परमात्म की खोज अपने अंदर करो, वे अपने अंदर विराजमान हैं। खोजने की कला यह है कि अपनी युगल दृष्टिधारों को एक करके तिलद्वार तक ले जाओ। वहाँ केन्द्र में केन्द्रित करो। अपने अंदर पाँच केन्द्र हैं। पाँचो केन्द्रों के शब्द ही पाँच नौबत के नाम से विख्यात हैं।
अपने शरीर के अंदर पाँच केन्द्र हैं। पाँचो केन्द्रों के शब्द ही पाँच नौबत कहलाते हैं। प्रथम केन्द्र के शब्द के सहारे अर्थात् उसके आकर्षण से आकर्षित होकर सुरत द्वितीय केन्द्र में पहुँचेगी; क्योंकि ऊपर के केन्द्र का शब्द नीचे के केन्द्र पर आता है। इस प्रकार नादानुसंधान की साधना से क्रमशः सुरत पाँचवें केन्द्र पर पहुँचती है। जहाँ जड़विहीन चेतनावस्था में परमात्मा की प्राप्ति होती है। किन्तु वहाँ द्वैत भाव रहता है। वहाँ सारशब्द को ग्रहण कर सुरत परम प्रभु परमात्मा से जा-मिलकर एक हो जाती है; आवागमन का चक्र छूट जाता है। इस अवस्था की प्राप्ति के लिए गुरु-कृपा अत्यंत अपेक्षित है-
“ निज तन में खोज सज्जन, बाहर न खोजना ।
अपने ही घट में हरि हैं, अपने में खोजना ।।
दोउ नैन नजर जोड़ि के, एक नोक बना के ।
अन्तर में देख सुन-सुन, अन्तर में खोजना ।।
तिल द्वार तक के सीधे, सुरत को खैंच ला ।
अनहद धुनों को सुन-सुन, चढ़-चढ़ के खोजना ।।
बजती हैं पाँच नौबतें, सुनि एक-एक को ।
प्रति एक पै चढ़ि जाय के, निज नाह खोजना ।।
पंचम बजै धुर घर से, जहाँ आप विराजैं ।
गुरु की कृपा से ‘मेँहीँ’, तहँ पहुँचि खोजना ।।”
जिन्होंने प्रभु की खोज की, उनको वे मिले। कहाँ मिले? संत प्रवर सूरदासजी महाराज कहते हैं-
‘अपुनपो आपुन ही में पायो।’
कैसे-
‘शब्दहिं शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो।’
इसका भेद सद्गुरु ने बतलाया। अपने अंदर प्रकाश हुआ। प्रकाश में शब्द मिला। शब्द के सहारे ‘निःशब्दं परमं पदम्’ में परमात्मा के दर्शन हुए, मिलन हुआ। तो यह निश्चित हो गया कि परमात्मा हमारे अंदर हैं। उनको खोजनेवाला जीवात्मा है। यह चेतन आत्मा ही परमात्मा को प्राप्त करने में सक्षम है। परमात्मा तो हमारे अंदर हैं और जीवात्मा कहाँ है? क्या कोई कह सकते हैं कि यह शरीर में नहीं है, शरीर के बाहर है? सब कोई कहते हैं कि हम अपने अंदर में हैं। आप कहाँ पर हैं? आँख में हैं, नाक में हैं, कान में हैं, मुँह में हैं, हाथ में हैं, पैर में हैं, पेट में हैं, पीठ में हैं, सिर में हैं, कहाँ हैं? कहते हैं, अपने अंदर में हैं; लेकिन कहाँ हैं? इसका ही पता नहीं है। हैं लेकिन अंदर में ही। संत कबीर साहब ने प्रश्न किया था-
“ इस तन में मन कहाँ बसै, निकसि जाय केहि ठौर ।
गुरु गम है तो परखि ले, नातर कर गुरु और ।।”
अगर तुमको पता है कि इस शरीर अंदर मन कहाँ है, तब तो ठीक है। अगर तुमको इसका पता नहीं है, तो वैसा गुरु करो, जो तुमको बतला दे। उत्तर में संत कबीर साहब ने बतलाया-
“ नैनों माहिं मन बसै, निकसि जाय नौ ठौर ।
गुरु गम भेद बताइया, सब सन्तन सिरमौर ।।
जाग्रत्स्वप्ने तथा जीवो गच्छत्यागच्छते पुनः ।
नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत् ।
सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्निं संस्थितम् ।।”
भावार्थ-जीव जाग्रत् और स्वप्न में पुनः पुनः आता-जाता रहता है। जीव का वासा जाग्रत् में नेत्र में, स्वप्न में कण्ठ में, सुषुप्ति में हृदय में और तुरीयावस्था में मस्तक में बासा होता है।
ऐसा लगता है, जैसे इसी का भाषानुवाद संत चरणदासजी महाराज ने किया हो। वे कहते हैं-
“ जाग्रत वासा नैन में, स्वप्न कण्ठ स्थान ।
जान सुषुप्ति हृदय में, नाभि तुरीय मन तान ।।”
संत दरिया साहब बिहारी ने लिखा है-
“ जानि ले जानि ले सत्त पहिचानि ले,
सुरति साँची बसै दीद दाना ।
खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै,
पलक परवीन दिव दृष्टि ताना ।।
ऐन के भवन में बैन बोला करै,
चैन चंगा हुआ जीति दाना ।
मनी माथे बरै छत्र फीरा करै,
जागता जिन्द है देखु ध्याना ।।”
वह जागता जिन्द तुम्हारे अंदर है, ध्यान करके देखो। जो कभी मरता नहीं, सदा जीवित रहता है, इसलिए उसका नाम है जीव। हाथरस निवासी संत तुलसी साहब ने कहा है-
‘सत सुरति सिहार साधौ, निरखि नित नैनन रहो।’
इन्होंने भी बतलाया है कि जीव आँख में रहता है। इस भाँति संतों की वाणियों से तथा अन्य सद्ग्रंथों के अध्ययन से इस बात का पता चलता है कि जीव का वासा जाग्रत काल में आँख में होता है।
यद्यपि परमात्मा सर्वत्र हैं; लेकिन सर्वत्र हम उनके दर्शन नहीं कर सकते। जिस तरह आँख पर पट्टी बँधी रहने के कारण निकट की चीज को भी हम नहीं देख सकते अथवा हमारी आँख पर रंगीन चश्मा लगा हो, तो नजदीक की चीज को देखते हुए भी उसका सही रूप मालूम नहीं पड़ता। उदाहरणार्थ अगर चश्मे में हरा शीशा लगा हुआ है, तो जिस चीज को देखेंगे, वह हरी मालूम पड़ेगी। लाल शीशा लगा हुआ है, तो वह चीज लाल मालूम पड़ेगी। पीला शीशा लगा हुआ है, तो चीज पीली मालूम पड़ेगी-सही मालूम नहीं पड़ेगी। उसी तरह से जीवात्मा के ऊपर शरीररूपी पट्टी और इन्द्रियरूपी चश्मा लगा हुआ है। इसलिए शरीर-रूपी पट्टी के कारण कुछ सूझता नहीं है और इन्द्रियरूपी चश्मे से अगर कुछ सूझता भी है, तो वह सही नहीं सूझता। इसलिए शरीर-रूपी पट्टी और इन्द्रियरूपी चश्मे को हम अपने ऊपर से उतारें। जब ये दोनों हट जायेंगे, जहाँ पर हट जाएँगे, वहीं पर परमात्मा का साक्षात्कार हो जाएगा।
अतएव हम वहाँ चलें, जहाँ जाने पर शरीर और इन्द्रिय से छूटना हो। जिज्ञासा होती है-हम चलें तो कहाँ से, कैसे चलें? उत्तर में निवेदन है-चलता कोई कहाँ से है? जो जहाँ से बैठा रहता है, चलता वहीं से है। हमलोग दूर-दूर से आकर इस हॉल में बैठे हुए हैं। अपने घर से आकर इस हॉल में बैठ गये हैं। अब अगर हम इस हॉल से अपना घर जाना चाहेंगे, तो कहाँ से चलेंगे? जो जहाँ बैठे हुए हैं, वहीं से चलेंगे। एक की जगह से दूसरे कोई नहीं चल सकते। जो जहाँ बैठे हैं, वहीं से चलेंगे। उसी तरह शरीर में हम जहाँ बैठे हुए हैं अर्थात् आँख में बैैैैैैैैैैठ हुए हैं, तो यहीं से यानी आँख से चलेंगे क्योंकि जो कुछ काम करना होगा, जाग्रत अवस्था से ही हम शुरू कर सकते हैं, स्वप्न में तो कुछ कर ही नहीं सकते, सुषुप्ति में तो और कहाँ से क्या कुछ कर सकते हैं। जाग्रत से ही हमारा कार्य आरंभ होगा। साधना का आरंभ जाग्रत से ही होगा और जाग्रत अवस्था में हम आँख में हैं। इसलिए आँख से चलें। चलें कैसे? इसकी युक्ति संत सद्गुरु से जान लें।
किसी चीज का जब सिमटाव होता है, तो उसकी ऊर्ध्वगति होती है। जो जितना सूक्ष्म होता है, उसका उतना ही अधिक सिमटाव होता है और उसकी ऊर्ध्वगति भी उतनी ही अधिक होती है। जैसे एक किलो बर्फ लीजिए। एक किलो बर्फ की ऊँचाई उस ढेले की ऊँचाई के बराबर होगी; लेकिन एक किलो अगर आप पानी लीजिए और उसको पतले नल में प्रवेश कराइये, तो जितनी दूर तक वह बर्फ गयी थी, उससे बहुत अधिक दूर तक वह पानी चला जाएगा; क्योंकि बर्फ से पानी तरल है, सूक्ष्म है। उसी एक किलो पानी को आप उबालकर वाष्प बना दीजिए, तो जल से महीन होने के कारण उसका सिमटाव जल से अधिक हो जाएगा और जल की अपेक्षा वाष्प की अधिक ऊर्ध्वगति हो जाएगी। उस वाष्प को यदि हम विद्युत में परिवर्तित कर दें, तो वाष्प से विद्युत सूक्ष्म होने के कारण उसी ऊर्ध्वगति और अधिक हो जाएगी। विद्युत-गति के लिए आज के वैज्ञानिकों ने बताया है कि एक लाख छियासी हजार सात सौ सड़सठ मील एक सेकेण्ड में होती है। विचारणीय विषय है कि बिजली की गति एक सेकेण्ड में इतनी होती है, तो बिजली का तो स्पर्श हमारे शरीर में होता है। लेकिन हमारा मन कितना सूक्ष्म है, जिसका स्पर्श नहीं होता है। उस मन का अगर सिमटाव करेंगे, तो उसकी गति एक सेकेण्ड में कितनी होगी? इस मन का सिमटाव करो। मन का सिमटाव कैसे करें? मन हमारा कहाँ फँसा हुआ है? इस जगत् में। इस जगत् को नाम-रूपात्मक कहते हैं और वह परमात्मा-नाम-रूपविहीन है। तजोविन्दूपनिषद् में लिखा है-
“ नामरूपविहीनात्मा परसंवित्सुखात्मकः ।
तुरीयातीतरूपात्मा शुभाशुभविवर्जितः ।।”
नाम और रूप में हमारा मन फैला हुआ है, तो नाम और रूप के द्वारा ही हम अपने मन को समेटें। इसके लिए हम कोई एक नाम लें, जो ईश्वरवाचक हो और जिसमें हमारी श्रद्धा हो। संतों के यहाँ संकीर्णता नहीं है। जिसमें आपकी श्रद्धा है, जिसमें आपकी रुचि है, उस नाम को लीजिए। ईश्वर-वाचक किसी नाम में कोई फर्क नहीं पड़ता। संत दादू दयालजी महाराज ने कहा है-
“ दादू सिरजनहार के, केते नाँव अनन्त ।
चित आवै सो लीजिए, यौं साधू सुमिरै संत ।।”
जिस इष्ट का नाम हम लें, उनके रूप का हम ध्यान भी करें; क्योंकि हम जो नाम रूप लेते हैं, तदनुरूप रूप हमारे सामने आता है। नाम कहते हैं शब्द को। शब्द से हम पुकारते हैं। जिनको हम पुकारते हैं, उनका रूप हमारे सामने आवे, यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं। जैसे हमारे चार लड़के हैं। उन चारो लड़कों में जिस लड़के का नाम लेकर पुकारेंगे, उस लड़के का रूप हमारे सामने आएगा, अन्य तीन लड़कों के नहीं। हमारी दो लड़कियाँ हैं। उन दो लड़कियों में जिस लड़की का नाम लेकर हम पुकारेंगे, उस लड़की का रूप हमारे ख्याल में आएगा। आम का नाम लेंगे, तो आम का रूप हमारे सामने आएगा। केले का नाम लेंगे, तो केले का रूप हमारे सामने आएगा। निष्कर्ष यह निकला कि जिस शब्द का हम उच्चारण करेंगे, उससे संबंधित रूप हमारे सामने आएगा। उसी तरह जिस इष्ट का नाम लेकर हम जप करेंगे, उस इष्ट का रूप भी हमारे सामने आना चाहिए। फिर उसका हम ध्यान करें। जब हम संतवाणी का अध्ययन करते हैं, तो संतवाणी में पाते हैं कि गुरु का स्थान सर्वोपरि है। गुरु से बढ़कर अन्य किसी का स्थान नहीं है। जैसा कि संत कबीर साहब, गुरु नानकदेवजी और अन्य संत कहते हैं-गुरु नाम के जप से और गुरु-रूप के ध्यान से उपासना का आरंभ करो।
संत कबीर साहब के वचन में आया है-
“ मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज क्या कहते हैं-
“ अन्तरि गुरु आराधणा जिहवा जपि गुर नाउ ।
नेत्री सतिगुरु पेखणा स्त्रवणी सुनणा गुर नाउ ।।”
गुरु की मूरति मन महिँ धिआनु ।
गुरु के शबदि मंत्र मनु मानु ।।
गुरु के चरण रिदै लै धारउ ।
गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारऊ ।।
वेद में हम पाते हैं-
‘गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवः महेश्वरः।’
स्थूल नाम के जप और स्थूल रूप के ध्यान से इस स्थूल नाम-रूपात्मक जगत में हमारा कुछ सिमटाव होता है। पूर्ण सिमटाव के लिए गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ भगता की चाल निराली ।
चाल निराली भगताह केरी, विखम मारगि चलणा ।।
लबु लोभु अहंकारु तजि त्रिसना, बहुतु नाहीं बोलणा ।।
खंनिअहु तीखी बालहु नीकी, एतु मारगि जाणा ।।”
इस सूक्ष्म रास्ते पर चलना है। मानस जप और मानस ध्यान; यह स्थूल सगुण साकार उपासना है। इसके पश्चात् सूक्ष्म सगुण साकार उपासना का आरंभ होता है।
‘खंनिअहु तीखी बालहु नीकी, एतु मारगि जाणा ।’
इस रास्ते से चलना है। इसी विषय को संत कबीर साहब ने इस भाँति कहा-
‘भक्ति का मारग झीना रे।’
भक्ति का रास्ता महीन है। इसी को बाइबिल में लिखा है, ‘सकेत फाटक से प्रवेश करो; क्योंकि चौड़ा है वह मार्ग जो मृत्यु को पहुँचाता है और संकीर्ण है वह मार्ग, जो जीवन को पहुँचाता है।’ इस संदर्भ में एक शायर ने कहा है-
“ जिगर वो हुस्न एक सूई का मंजर याद है अबतक ।
निगाहों का सिमटना वो हूजूमे में नूर हो जाना ।।”
निगाहों का सिमटना कैसे होगा, उसकी कला जानिये। इसी कला को भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के छठे अध्याय में बतलाया है-
“ समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ।।”
अर्थात् शरीर, गर्दन और मस्तक को सीधा करके बैठो। इससे मेरुदण्ड सीधा रहेगा। मेरुदंड सीधा रहने से श्वास-प्रश्वास की गति धीमी पड़ेगी। श्वास-प्रश्वास की गति धीमी पड़ने से मन की चंचलता दूर होती है। जब मन की चंचलता दूर होती है, तो भगवद्भजन में मन लगता है। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण के निर्देशानुकूल बैठने की आदत डालो। शरीर को अचल ओर स्थिर करके बैठने के बाद क्या करो? ‘सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं’ अर्थात् नासिका अग्र में देखो। साथ ही शर्त है ‘दिशश्चानवलोकयन्’ यानी किसी दिशा को नहीं देखते हुए देखो। जिस समय हमारी आँखें खुली होती हैं, हम दसो दिशाओं को देखते हैं; लेकिन जिस समय आँखें बंद करते हैं, तो उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम और चारो कोणों का ज्ञान तो नहीं रहता; किन्तु ऊपर और नीचे का ज्ञान तो रहता ही है। कितने लोग नासिकाग्र का अर्थ बतलाते हैं-नाक की नोक का निचला भाग; कोई कहते हैं ‘भ्रुवोर्मध्य’ यानी ऊपर का भाग। इस प्रकार हम नीचे का भाग करें, चाहे ऊपर भाग का, तो दस दिशाओं में से एक दिशा हो ही जाएगी। भगवान कहते हैं, किसी दिशा को नहीं देखते हुए नासिकाग्र में देखो। तब क्या करना होगा? इसी का यत्न संत सद्गुरु से सीखना पड़ता है। एक लघु कथा है-
एक बूढ़े सेठजी थे। उन्होंने अपने पुत्र से कहा, ‘बेटा! घर में निठल्ले बैठकर क्या करोगे, जाओ कुछ काम-धंधा करो। कुछ पैसे कमाओ।’ सेठपुत्र चला गया विदेश कमाने के लिए। बूढ़े बीमार हुए। खबर दी कि मेरा अंतिम समय है, आकर भेंट करो। दूर होने के कारण आने में देर हो गयी। सेठजी का शरीर छूट गया। घर आने पर उसने तिजौरी में पूर्व संचित सम्पत्ति की खोज की। वहाँ धन नहीं था। उसको चिंता हुई। किसी से पूछने पर भी पता नहीं चला। उसके मन में आया कि अगर पिताजी किसी को दिये होंगे, तो रोकड़-बही में जमा-खर्च होता ही होगा, उसमें वह लड़का रोकड़ खाते के पन्ने उलटाने लगा, उसमें उसने लिखा पाया-आज अमुक महीना, तिथि अमुक, बारह बजे दिन में मैंने अपनी सारी सम्पत्ति दरवाजे पर स्थित शिवालय के त्रिशूल पर रख दी है। वह जाता है बाहर दरवाजे पर; देखता है, शिवालय है, त्रिशूल भी है; लेकिन इतनी सम्पत्ति त्रिशूल पर रहे तो कैसे? त्रिशूल पर तो कुछ नहीं है। तो क्या हमारे पिताजी झूठी बात लिखकर चले गये? नहीं। इसमें कोई राज है, जो हम नहीं समझ रहे हैं। वे चले गये मुनीमजी के यहाँ। वहाँ उनसे पूछा, ‘आपको पता होगा, पिताजी ने सम्पत्ति क्या की?’ मुनीमजी ने उत्तर दिया, ‘हाँ, मुझे मालूम है। लेकिन वह महीना आने दो, वह तिथि आने दो, मुझे खबर करना। मैं जाऊँगा और बारह बजे दिन जैसे होगा, वैसे मैं तुमको पता बतला दूँगा।’ वह महीना आया, वह तिथि आयी, सेठपुत्र गया मुनीमजी के यहाँ। मुनीमजी को बुलाकर लाया और कहा, अब बतलाइये। मुनीमजी ने कहा,‘बैठो।’ जब बारह बजने में एक-दो मिनट की देर रही, तो मुनीमजी ने कहा, ‘चलो, अब बतलाता हूँ।’ गये; ठीक बारह बजे दिन में शिवालय के त्रिशूल की छाया जहाँ पर पड़ती थी, मुनीमजी ने कहा, ‘खोदो यहाँ पर।’ जमीन खोदी गयी, सारी सम्पत्ति मिल गयी। यह एक रहस्य की बात है। इसी तरह शास्त्रें में नासाग्र, नासिकाग्र, भ्रुवोर्मध्य आदि बातें लिखी हुई हैं; लेकिन जबतक संत सद्गुरु रूप मुनीम से भेंट नहीं होगी, राज नहीं खुलेगा। खोजते रह जाइये त्रिशूल पर, कभी सम्पत्ति नहीं मिलेगी। वह त्रिशूल है क्या, वह शिवालय है क्या? योग- शिखोपनिषद् में आया है-
“ विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम् ।
देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।”
हमलोगों का जो यह शरीर है, यह शिवालय है। शिवालय के ऊपर त्रिशूल क्या है? आप देखे होंगे, कितने लोग तिलक लगाते हैं-तीन धारियाँ लगाते हैं। दोनों बगलवाले तिलक उजले होते हैं और बीचवाला लाल होता है। ये अगल-बगलवाले क्या हैं। इड़ा-पिंगला हैं और बीचवाला जो है गोदुम आकार का, वह सुषुम्ना है। यही त्रिशूल है। यह एक संकेत है। सुषुम्ना में जाकर खोजो, मिलेगा। सुषुम्ना में कैसे जाओ, इसका यत्न गुरु से जानो। योगिवर पंचानन भट्टाचार्यजी ने लिखा है-
“ बामे इड़ा नाड़ी दक्षिणे पिंगला रजस् तमोगुणे करिते छे खेला ।
मध्ये सत्वगुणे सुषुम्ना विमला धरऽ धरऽ ताँरे सादरे ।।
आर केन मन भ्रमिछ बाहिरे, चलन आपन अन्तरे ।
बाहिरे जार तत्व कर अविरत सेत आज्ञाचक्रे बिहरे ।।”
मीराबाई के लिए लोग कहते है-वह तो मात्र गिरिधर गोपाल को जानती थी और कुछ नहीं जानती थी। लेकिन परम भक्तिन मीराबाई क्या कहती है-
‘सेज सुखमना मीरा सोवे, शुभ है आज घड़ी ।’
सुषुम्ना की शय्या पर सोती थी मीराबाई। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ गागर ऊपर गागरी, चोले ऊपर द्वार ।
सूली ऊपर साँथरा, जहाँ बुलावे यार ।।”
और मीराबाई कहती है-
“ सूली ऊपर सेज पिया की,
किस विधि मिलना होय ।”
वह शूली क्या है? वह शूली है चेतनधार। जिसको शूली की सजा होती थी, छेद देती थी शूली उसके शरीर को नीचे से ऊपर तक-गुदा मार्ग से मस्तक तक। उसी तरह एक सार धार चेतन-धार है, जो समूचे शरीर को बेधे हुए है अर्थात् ब्रह्मांड-पर से पिण्ड पर्यन्त परिव्याप्त है। उस सारशब्द को जो कोई पार करते हैं, उनको ‘सूली ऊपर सेज पिया की’ मिल जाती है; पिया से मिलन हो जाता है; परमात्मा से भेंट हो जाती है-साक्षात्कार हो जाता है। कहने का तात्पर्य यह कि दृष्टि-साधन की क्रिया करने से पूर्ण सिमटाव होता है। पूर्ण सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है, आवरण भेदन होता है, फलतः सुरत अंधकार से प्रकाश में चली जाती है। वहाँ उसको शब्द की अनुभूति होती है। उस शब्द को पकड़कर वह आगे बढ़ती है। वहाँ पहले अनेक शब्द मिलते हैं। अनेक शब्द होने के कारण उनकी संज्ञा हो गयी अनहद शब्द की। संत चरणदासजी महाराज ने कहा है-
“ अनहद शब्द अपार दूर सूँ दूर है ।
चेतन निर्मल शुद्ध देह भरपूर है ।।”
और,
“ रिमझिमि बरसै अंम्रित धारा ।
मनु पीवै सुनि शबदु विचारा ।।
अनद विनोद करै दिन राती ।
सदा सदा हरि केला जीउ ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा-जीव और पीव के मिलन में वहाँ सतत ही आनंद होता रहता है। कबीर साहब ने भी कहा है-
“ भजन में होत आनंद आनंद ।
बरसत विशद अमी के बादर, भींजत है कोइ संत ।।”
योगिवर पंचानन भट्टाचार्य जी अपनी अनुभूति की बातें कितने स्पष्ट शब्दों में कहते हैं-
“ आनन्दे आनन्द बाड़े प्रतिक्षण ।
दशेन्द्रिय थाके शून्य ते बन्धन ।।
रिपुचय पराजय सकलि आनन्दमय ।
अनुभव मात्र रय आर सब पाय लय ।।
जेमन जीवने जीवन थाके ना ।।”
इस तरह जो कोई आंतरिक साधना में अग्रसर होते हैं, तो क्रमशः अंधकार से प्रकाश में चले जाते हैं, वहाँ उनको शब्द की अनुभूति होती है। उस शब्द को पकड़कर वे आगे की ओर बढ़ते हैं यानी स्थूल के केन्द्र से सूक्ष्म के केन्द्र पर, सूक्ष्म के केन्द्र से कारण के केन्द्र पर, कारण के केन्द्र से महाकारण के केन्द्र पर और महाकारण के केन्द्र से भी आगे बढ़कर कैवल्य के केन्द्र पर पहुँच जाते हैं। वहाँ उनकेा परमात्म-दर्शन होते हैं। उससे भी आगे जाकर परम प्रभु परमात्मा से मिलकर एकमेक हो जाते हैं और उसमें विराजनेवाली शांति को वे प्राप्त करते हैं।
यह संतों का ज्ञान है। यह संतमत की ज्ञान है। इसके लिए आवश्यकता है पंच पापों-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार से बचने की। अगर इन पंच पापों से हम बचते हैं, तो एक नये समाज का निर्माण हो जाएगा।, जहाँ कहीं राग नहीं, द्वेष नहीं, कलह और क्लेश नहीं, जहाँ आपस में प्रेमपूरित सद्भावना से रहेंगे, वहाँ लड़ाई-झगड़े नहीं होंगे, शांति से रहेंगे। तो हम पंच पापों से बचें। नित्य सत्संग करें, अंतर-साधना करें और अपने जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करें। इस तरह हमारा मानव-जीवन सफल होगा, सार्थक होगा।

महर्षि सन्तसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन 19-10-1993 ई0 हरियाणा प्रांतीय के सातवें
वार्षिक अधिवेशन, सनातन धर्म मंदिर, कुंजपुरा रोड में अपराह्णकालीन सत्संग में हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, जून+जुलाई 1995 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
‘मानस’ यानी रामचरितमानस। भगवान शंकर ने मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के पवित्र चरित्र को अपने मानस पटल पर चित्रित कर रखा था, जिसको समय पाकर उन्होंने श्री पार्वती जी से कहा। इसलिए ‘रामचरितमानस यहि नामा’ कहकर अभिहित किया गया। मानस में भगवान श्रीराम के स्थूल सगुण साकार और निर्गुण निराकार-दोनों स्वरूपों के विलक्षण वर्णन मिलते हैं। रामचरितमानस में जहाँ हम सगुण लीला का बड़प्पन पाते हैं, वहाँ गोस्वामी तुलसीदास जी निर्गुण निराकार की भी महिमा गाते नहीं आघाते हैं। जहाँ सगुण लीला को जल की स्वच्छता बताया गया है, वहाँ निर्गुण निराकार को जल की अगाधता बताया गया है। स्पष्ट है कि जल स्वच्छ हो; किन्तु स्वल्प हो, तो उससे अधिक मैल दूर नहीं हो सकती। समस्त मल-प्रक्षालन के लिए तो प्रचुर मात्र में निर्मल जल की आवश्यकता है, जिसकी पूर्त्ति निर्गुण स्वरूप से ही संभव है।
“ लीला सगुन जो कहब बखानी ।
सोइ स्वच्छता करइ मल हानी ।।
रघुपति महिमा अगुन अबाधा ।
बरनब सोइ बर बारि अगाधा ।।”
पुनः प्रश्न है-
‘जो निर्गुन पुनि सगुन सो कैसे ।’
तो उत्तर देते हैं-
‘जल हिम उपल विलग नहिं जैसे ।।’
निर्गुण मूल तत्त्व है, उससे सगुण की उत्पत्ति हुई है। जैसे जल मूलतत्त्व है और उससे हिम और उपल की उत्पत्ति होती है। विचारणीय विषय है- जल से खेती लहलहा उठती है; किन्तु हिम और उपल से फसल नष्ट होती है। इसी हेतु गोस्वामीजी ने निर्गुण रूप को सुलभ और सगुण रूप को भ्रमोत्पादक बतलाया है; यथा-
“ निर्गुन रूप सुलभ अति, सुगन जान नहिं कोय ।
सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होय ।।”
इसका अर्थ यह नहीं कि सगुण साकार की भक्ति को छोड़कर केवल निर्गुण निराकार की उपासना की जाय। जैसे सरलाक्षर सीखे बिना कोई संयुक्ताक्षर नहीं लिख सकता, उसी प्रकार स्थूल सगुण साकार की आरम्भिक साधना किये बिना कोई निर्गुण निराकार की उपासना नहीं कर सकता। जैसे पैर के बिना कोई दौड़ नहीं सकता और सिर के बिना कोई जीवित नहीं रह सकता, उसी प्रकार स्थूल सगुण साकार की उपासना किये बिना कोई भक्तिपथ पर अग्रसर नहीं हो सकता और निर्गुण निराकार को उपासना किये बिना भक्ति की पराकाष्ठा पर पहुँच नहीं हो सकती और न अमृतत्व की प्राप्ति हो सकती है। स्थूल सगुण साकार-भक्ति प्रगट है और सूक्ष्म सगुण साकार से लेकर निर्गुण निराकार तक की भक्ति गुप्त है। इसी दृष्टि को अपनाकर गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने रामचरितमानस में लिखा है-
“ औरउ एक गुपुत मत, सबहि कहउँ कर जोरि ।
संकर भजन बिना नर, भगति न पावइ मोरि ।।”
(उत्तरकाण्ड)
जिसका सामान्य अर्थ होता है-भगवान श्रीराम (गुरु, गुरुजन, पुरजन एवं प्रजाजन से) पाणिबद्ध प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि बिना शंकर-भजन किये कोई मेरी भक्ति नहीं पा सकता। किन्तु जब मानस की निम्नलिखित चौपाइयाँ हमारे सामने आती हैं, तो समस्या गंभीर हो जाती है, सोचने के लिये बाध्य होना पड़ता है कि क्या भगवान शंकर को चुनौती देनेवाले भी भगवान श्रीराम के भक्त हो सकते हैं? औरों की बात जाने दीजिये, भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त, जैसे लक्ष्मणजी, हनुमानजी और अंगदजी चुनौती देते हैं; यथा वनवास-काल में भरतागमन सुनकर श्रीलक्ष्मणजी का आक्रोश में आकर कहना-
“ जो सहाइ कर शंकर आई ।
तौ मारौं रन राम दुहाई ।।”
(अयोध्याकाण्ड)
रावण के प्रति श्री हनुमानजी का वचन है-
“ सुनु दसकंठ कहौं पन रोपी ।
राम बिमुख त्रता नहिं कोपी ।।
संकर सहस विष्णु अज तोही ।
सकहिं न राखि राम कर द्रोही ।।”
(सुन्दरकाण्ड)
मेघनाद के प्रति भी लक्ष्मणजी का कथन है-
“ जौं सत संकर करहिं सहाई ।
तदपि हतौं रघुबीर दुहाई ।।”
(लंकाकाण्ड)
और रावण के प्रति अंगद का वचन-
“ सुनु रावन परिहरि चतुराई ।
भजसि न कृपा सिंधु रघुराई ।।
जो खल भयसि राम कर द्रोही ।
ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही ।।”
(लंकाकाण्ड)
और तो और, जबकि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम स्वयं एक स्थल पर कहते हैं कि श्ांकर-द्रोही मेरा दास नहीं हो सकता। वे ही भगवान दूसरी जगह दूसरी तरह की बात कहते हैं, तो स्थिति गंभीरतम हो जाती है-
“ सुनु सुग्रीब मैं मारिहौं, बालिहि एकै बान ।
ब्रह्म रुद्र सरणागतहु गये न उबरहिं प्रान ।।”
जिज्ञासा होती है-आखिर इसका समाधान कहाँ और कैसे हो? उत्तर में निवेदन है-भिन्नता स्थूल रूप में होती है, सूक्ष्म में नहीं। रूप का आरम्भ विन्दु से होता है। प्रत्येक इष्ट के स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण, कैवल्य और शुद्ध आत्म-स्वरूप हैं। भिन्न-भिन्न इष्टों के भिन्न-भिन्न नाम-रूप होने पर भी सबकी आत्मा अभिन्न ही है।
हम शिवालय जाते हैं। वहाँ देखते हैं कि नीचे जलढरी है और उसके ऊपर शिवलिंग स्थापित है। योगशिखोपनिषद्, अध्याय 1 में आया है-
“ विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम् ।
देहं शिवालयं प्राक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।”
अर्थ-विन्दुनाद महलिंग है और शिव-शक्ति का घर है। इस देह को शिवालय कहते हैं, सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है।
और इसी योगशिखोपनिषद् के पंचम अध्याय में लिखा है-
“ विन्दुनाद महालिंगं विष्णुलक्ष्मीनिकेतनम् ।
देहं विष्ण्वालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।”
अर्थ-विन्दुनाद-रूप जो महलिंग है, वही विष्णु
और लक्ष्मी का घर है। इस देह को विष्णु-मन्दिर (ठाकुरवाड़ी) कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है।
विन्दुरूप में शक्ति और नादरूप में शिव विराजते हैं। उसी तरह विन्दुरूप में लक्ष्मी तथा नादरूप में विष्णु विराजते हैं, इस प्रकार जो विन्दु और नाद की उपासना करते हैं, वे शक्ति और शिव की उपासना करते हैं तथा विन्दु और नाद के उपासक ही लक्ष्मी और विष्णु की भी उपासना करते हैं। यही शिव-भक्त
का राम-भक्ति होना है।
शब्दानाम् अनेकार्थः-एक ही शब्द के अनेक अर्थ होते है। ‘कर’ का अर्थ ‘हाथ’ के अलावा ‘किरण’ भी होता है। इसलिये ‘औरउ एक गुप्त मत’ इस दोहे का अर्थ इस तरह है-मैं सबको और भी एक गुप्त विचार कहता हूँ (वह यह कि) किरणों (चैतन्यवृत्तियों-सुरत की धारों) को जोड़कर (एकत्र कर) कल्याणकारी भजन किये बिना कोई मेरी भक्ति नहीं पाता है।
किरण प्रकाशस्वरूप होती है। शरीर में चैतन्यवृत्ति का सुरतधार ज्ञानमयी तथा प्रकाशमयी हैं सुरत की धारें युगल नेत्रें से निःसृत होती है। इस दोनों धाराओं को गुरु-निर्देशित स्थान पर एकत्र किया जाता है।
‘एक द्रिसटि करि समसरि जाणै जोगी कहीअै सोई ।’
(गुरु नानक साहब)
“ यदि तेरी आँख एक हो तो तेरा सारा शरीर उजियाला होगा।” (प्रभु ईसा मसीह)
इस यौगिक क्रिया के द्वारा एकविन्दुता की प्राप्ति होती है। चित्तवृत्ति का निरोध होता है, पूर्ण सिमटाव होता है। पूर्ण सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। ऊर्ध्वगति में आवरण-भेदन होता है। फलस्वरूप अंधकार से प्रकाश में प्रतिष्ठित हो जाता है। प्रकाश में प्रतिष्ठित होने से विकारों-दुर्गुणों का विनाश और सद्गुणों का विकास होता है। पढ़िये रामचरितमानस में-
“ जबतेँ राम प्रताप खगेसा ।
उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा ।।”
तथा- “ राम भगति चिन्तामनि सुन्दर ।
बसइ गरुड़ जाके उर अंतर ।।
परम प्रकास रूप दिन राती ।
नहिं कछु चहिय दिया घृत बाती ।।
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा ।
लोभ वात नहिं ताहि बुझावा ।।
प्रबल अविद्या तम मिटि जाई ।
हारहिं सकल सलभ समुदाई ।।
खल कामादि निकट नहिं जाहीं ।
बसइ भगति जाके उर माहीं ।।
गरल सुधा सम अरि हित होई ।
तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई ।।
व्यापहिं मानस रोग न भारी ।
जिन्हके बस सब जीव दुखारी ।।
राम भगति मनि उर बस जाके ।
दुख लवलेस न सपनेहुँ ताके ।।”
अर्थ-रामभक्ति-रूपी सुन्दर चिन्तामणि है, हे गरुड़ जी! वह जिसके हृदय में बसती है, वह दिन रात परम प्रकाश-रूप है। वहाँ दीप घी और बत्ती कुछ नहीं चाहिये। अज्ञानता-रूपी दरिद्रता उसके पास नहीं आती है और लोभ-रूपी दरिद्रता उसके पास नहीं आती है और लोभ-रूपी हवा उस मणि के प्रकाश को नहीं बुझाती है। अविद्या का कठिन अंधकार (उस मणि के प्रकाश से) मिट जाता है और (मदादिक) सब फतिंगे हार जाते हैं (उसे बुझा नहीं सकते हैं।)
काम आदि दुष्ट उसके पास नहीं जाते, जिसके हृदय में भक्ति बसती है। जिसके प्रभाव से विष अमृत और शत्रु मित्रतुल्य हो जाते हैं, उस मणि के बिना कोई सुख नहीं पाता है। भक्तिवन्त को मन के भारी रोग नहीं होते, जिनके वश में सभी जीव दुःखी है। राम-भक्ति-रूपी मणि जिसके हृदय में बसती है, उसे सपने में भी लवलेश मात्र दुःख नहीं होता। भारी रोग नहीं, जिनके वश में सभी जीव दुःखी हैं। राम भक्ति रूपी मणि जिसके हृदय में बसती है, उसे सपने में लवलेश मात्र दुःख नहीं होता है
जो कोई इस तरह की रामभक्ति करते हैं, जिसमें अन्तः प्रकाश मिलता है, वास्तव में वे ही रामराज्य में रहते हैं। उनके त्रय ताप नष्ट होते हैं और वे परम कल्याण के भागी होते हैं।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन बिहार राज्यार्न्तगत भागलपुर नगर के राम मंदिर में दिनांक 20-12-1993 ई0 को रात्रिकाल में तुलसी-जयन्ती के अवसर पर पर हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, अप्रैल 1994 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृंद तथा आदरणीया माताओ एवं बहनो!
विश्व का प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद है। उसमें एक मंत्र आया है-
“ संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्व सज्जानाना उपासते ।।”
अर्थात् आपस में सब मिलकर रहो; प्रेम से बातचीत करो; उद्वेगवाली बात मत करो, जिस तरह से पूर्व के जन सात्त्विक भोजन करते थे, उस तरह का भोजन करो और जिस तरह की उपासना वे करते थे, उसी तरह की उपासना करो। सबसे पहली बात इसमें आयी-आपस में प्रेम से रहो, मेल से रहो। यह मेल, यह प्रेम कैसे होता है, नहीं होने से क्या होता है? जहाँ मेल होता है, वहाँ बल होता है। जहाँ मेल नहीं है, वहाँ प्रेम नहीं है। उपनिषद् में आया है- ‘नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो’-जो बलहीन है, वह आत्मलाभ नहीं कर सकता। हमलोगों के शरीर पर जो वस्त्र है, वह क्या है? वह अनेक सूतो ं का मेल है। उसमें जब अनेक सूत एक जगह मेल से हैं, तब हमलोग उससे जाड़े, गर्मी, बरसात में अपने अंग को ढँकते हैं। उससे हमारी प्रतिष्ठा बचती है, उससे हम प्रतिष्ठा के साथ रहते हैं। वस्त्र के जितने सूत हैं, सब अलग-अलग हो जाएँ, तो हमारी प्रतिष्ठा नहीं रहेगी, हम प्रतिष्ठाहीन हो जायेंगे। तो सूतों के मेल से वस्त्र बनता है, जिससे हमारी प्रतिष्ठा होती है। उसी तरह से एक परिवार के हम जितने लोग हैं, सब आपस में मेल से रहें, प्रेम से रहें, तो परिवार में बल होगा। एक समाज के हम सब लोग जब आपस में मेल से रहेंगे, तब सामाजिक बल होगा। एक देश के लोग आपस में मिल-जुलकर रहेंगे, देश संगठित होकर रहेगा, तो देश में ऐसा बल होगा कि दूसरा कोई देश दबा नहीं सकेगा। परिवार, समाज, देश और विश्व के लोग जब एक होकर रहेंगे, एक मेल से रहेंगे, तो कहीं भी कलह, अत्याचार, अनाचार, दुराचार, व्यभिचार, बलात्कार आदि दुष्कर्म नहीं होंगे। तो इस तरह मेल से रहने का मूल मंत्र क्या है? मेल कहाँ होता है? जहाँ सत्य होता है, वहीं मेल होता है। जहाँ असत्य होता है, वहाँ मेल टूट जाता है। सन्त कबीर साहब ने कहा है-
“ साँचे को साँचा मिले, अधिका जुड़े सनेहु ।
साँचे को झूठा मिले, तड़ दे टूटे नेहु ।।”
जिसका हृदय साफ है, शुद्ध है, परिमार्जित है, उसी शुद्ध हृदय में भगवत्-दर्शन होते हैं। जिस तरह से जब जल शुद्ध होता है, तो उसमें अपनी परिछाहीं देख पाते हैं और जब जल गँदला-मटमैला होता है, तो उसमें हम अपने चेहरे को नहीं देख पाते। उसी तरह से जबतक हमारा हृदय शुद्ध नहीं होता, तबतक हम परमात्म-दर्शन नहीं कर सकते, आत्म-दर्शन नहीं कर सकते। इसीलिए सन्त कबीर साहब ने कहा है-
“ जब दर्शन देखा चाहिए, तो दर्पण माँजत रहिये ।
जब दर्पण लागी काई, तो दरस कहाँ ते पाई ।।”
चेहरा देखना चाहते हो, तो आइने को साफ करो। उसी तरह से भगवद्-दर्शन करना चाहते हो, तो अपने अन्तःकरण को पवित्र करो। गुरु नानकदेव जी महाराज ने भी कहा-
“ सूचै भाड़ै साचु समावै, बिरले सूचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ, नानक सरणि तुमारी ।।”
हृदय पवित्र होगा, तो कलह नहीं होगा। जहाँ दूषित हृदय होता है, वहीं कलह होता है, वहीं एक दूसरे से मेल नहीं होता है। मेल के लिए सत्य वचन बोलें। आचार-विचार में सत्यता रहे, सब कोई अगर सत्य आचरण करने लग जायँ, असत्य आचरण को सब कोई छोड़ दें, तो आपस में मेल-ही-मेल होगा, प्रेम-ही-प्रेम होगा। और फिर जब हृदय पवित्र होगा, तो भगवद-भजन भी बनेगा, भगवत-प्राप्ति भी होगी। कलुषित मन से भगवत्-प्राप्ति नहीं होती। भगवद्-भजन नहीं होगा, तो प्रभु-मिलन कैसे होगा? इसलिए हमलोगों को सत्याचरण करना चाहिए। और सबसे मूल सत्य है ईश्वर। जो ईश्वर को जानना चाहते हैं, ईश्वर को पाना चाहते हैं, उन्हें तो सत्य आचरण करना ही चाहिए। बिना सत्य को पालन किये कोई ईश्वर का उपासक नहीं बन सकता। इसलिए हमलोगों को सत्य का व्यवहार करना चाहिए। अगर असत्य का व्यवहार करते हैं, तो एक दूसरे से मेल नहीं होगा।
महादेवजी और सती जी-दोनों जंगल से जा रहे थे। महादेवजी ने दूर से देखा श्रीराम और श्री लक्ष्मणजी जंगल से जा रहे हैं। इन्होंने अच्छा अवसर नहीं समझा, इसलिए श्रीराम को दूर से ही प्रणाम कर लिया। सती ने पूछा कि आपने किनको प्रणाम किया? भगवान शंकर ने कहा कि देखती नहीं हो कि भगवान जा रहे हैं। सती ने कहा- “ ये तो राजा दशरथ के पुत्र हैं, भगवान कैसे? अगर आप कहते हैं कि ये भगवान हैं, तो पत्नी के विरह में ये इतने व्याकुल क्यों है?
‘जौं नृप तनय तो ब्रह्म किमि नारि विरह अति भोर ।’
उनके चरित्र को देखकर और महिमा को सुनकर मेरी बुद्धि तो भ्रमित हो रही है।” शंकर जी ने बहुत समझाने की चेष्टा की; लेकिन सती के मन ने नहीं माना, तो भगवान शंकर ने कहा-
“ जौ तुम्हारे मन अति सन्देहू ।
तौ किन जाइ परीछा लेहू ।।”
यदि तुम्हारे मन में सन्देह है, तो जाकर परीक्षा ले लो कि वे भगवान हैं या नहीं। मैं इसी वृक्ष के नीचे बैठता हूँ। भगवान शंकर बैठ गये। सतीजी चलीं भगवान राम की परीक्षा लेने। सोचा कि किस तरह परीक्षा ली जाय। मन में विचार आया कि ये सीता जी की खोज में हैं, तो क्यों नहीं मैं सीताजी का रूप धरकर उनके रास्ते में बैठ जाऊँ। अगर ‘सीता! सीता!’ कहकर मेरे पास आ जायेंगे, तो मैं समझ जाऊँगी कि ये कितने पानी के भगवान हैं।
“ सीता छवि धरके बन में चलके करूँ परीक्षा आज ।
जौं पहचान गये तो, मैं समझूँगी हैं भगवन्त ।
नहीं तो समझूँगी कोई नर है, पर है अति बलवन्त ।।”
सती आगे बढ़ती है। जिस रास्ते से भगवान राम जानेवाले थे, उसी रास्ते पर थोड़ी दूर जाकर और सीता जी का रूप धरकर बैठ जाती है। पहुँचते-पहुँचते भगवान श्री राम और लक्ष्मण वहाँ पहुँचते हैं, तो लक्ष्मणजी पहचान गये कि सती ने सीता का रूप धारण किया है; लेकिन उन्होंने भगवान राम से यह बात कही नहीं। भगवान राम और लक्ष्मण पहुँचते हैं सती के निकट, तो भगवान राम सतीजी से पूछते हैं कि “ आप अकेली यहाँ बैठी हैं, भगवान शंकर कहाँ हैं?” अब तो बेचारी लाज के मारे आँखें बन्द कर लेती हैं। आँखें बन्द करने पर भीतर देखती हैं कि राम, लक्ष्मण और सीता-तीनों हैं। आँखें खोलती हैं, तो भी राम, लक्ष्मण और सीता-तीनों को देखती हैं। अब तो बेचारी को न आँखें बन्द करते बनता है और न आँखें खोलते ही। समझ गयीं कि ठीक ही ये भगवान हैं। वे वहाँ से लौटकर भगवान शंकर के पास आती हैं। भगवान शंकर पूछते हैं कि तुमने परीक्षा ले ली? भगवान हैं या नहीं? सतीजी कहती हैं कि हाँ, भगवान हैं। शंकर जी पूछते हैं कि परीक्षा कैसे ली? तो सतीजी झूठ बोल देती हैं कि मैंने परीक्षा नहीं ली। आपकी ही तरह मैं भी दूर से प्रणाम करके चली आयी।
भगवान शंकर ध्यानस्थ होकर देखते हैं, तो उनको पता चलता है कि सतीजी ने तो सीताजी का रूप धारण किया था। तो उनके मन में दुःख हुआ कि जिन इष्ट का हम ध्यान करते हैं, उनकी पत्नी का रूप इसने धारण कर लिया। इस तरह से यह ठीक नहीं किया। तो सती के झूठ बोलने से श्ांकर भगवान के मन में बहुत ठेस लग गयी। गो0 तुलसीदासजी लिखते हैं-
“ जल पै सरिस विकाय, देखहु प्रीति की रीति भली ।
विलग होई रस जाइ, कपट खटाई परत पुनि ।।”
दूध में पानी मिला देते हैं, तो उसके साथ पानी भी बिक जाता है; लेकिन उसी दूध में जब खटाई डाल देते हैं, तो दूध फट जाता है। उसी तरह जब सत्य के साथ सत्य है, तब तो प्रेम है; लेकिन सत्य के साथ जब असत्य समा जाता है, तो मेल टूट जाता है। इसी तरह यदि परमात्मा से मेल करना चाहें और अपने हृदय में असत्य को धारण किये रहें, तो परमात्मा के दर्शन कैसे होगा, सत्यस्वरूप परमात्मा को कैसे जान सकेंगे? इसलिए अपने हृदय को शुद्ध करना चाहिए। शुद्ध करने के लिए गुरु महाराज के आदेशानुकूल, सद्ग्रन्थों के आदेशानुकूल हमलोगों को झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार-इन पंच पापों से अपने को वर्जित रखना चाहिए; और एक ईश्वर पर विश्वास करना चाहिए, ईश्वर की प्राप्ति अपने अन्दर होगी-इसका दृढ़ निश्चय रखना चाहिए, सत्संग करना चाहिए, ध्यान करना चाहिहए, गुरु की सेवा करनी चाहिए। ये पंच विधि कर्म हैं। पहले के कहे पाँच निषिद्ध कर्म हैं। विधि कर्म यदि हम करते रहेंगे, गुरु के आदेश और उपदेश के परिवेश में अपने को अगर हम रख सकेंगे, तो हमारा भव-क्लेश निःशेष होगा। इसलिए हमलोगों को सत्संग करना चाहिए। सत्संग से ही सद्ज्ञान की प्राप्ति होती है। सद्ज्ञान से ही कर्त्तव्याकर्त्तव्य का ज्ञान होता है। सत्संग का ज्ञान जबतक हमारे अन्दर नहीं आता है, तबतक सत्यासत्य का ज्ञान नहीं होता है। सत्यासत्य का ज्ञान नहीं होने से जो असत्याचरण है, उसको हम करते हैं, जिसका परिणाम बुरा होता है। जब हम सत्संग करते हैं और उसमें जब यह जानकारी हो जाती है कि यह कर्त्तव्य है-यह करना है; यह अकर्त्तव्य है-यह नहीं करना है; जो नहीं करना है, उसको नहीं करते हैं और जो करना चाहिए, उसको करते हैं, तो हमारा जीवन कल्याणमय होता है, भविष्य हमारा कल्याणमय होता है। यह जीवन कल्याणमय होता है और शरीर छूटने के बाद का जो जीवन है, वह भी कल्याणमय होता है। इसलिए हमलोगों को सत्याचरण करना चाहि। पहली बात यहीं है-‘संगच्छधवं फिर संगवदध्वं।’
प्रेम से बोलें, उत्तेजना पैदा करनेवाली बातें नहीं बोलें; प्रेम से मिलकर कहें, गंभीरता से कहें। अभी कुछ महीने पहले मैं गुजरात गया हुआ था। वहाँ एक आश्रम है श्रीमन्नारायण स्वामी का। बहुत बड़ा आयोजन किया गया था अपने गुरु की जन्मशताब्दी पर। बड़ी अच्छी व्यवस्था थी, मैं भी वहाँ गया था। उस आश्रम के साधुओं को मैंने देखा। उस आश्रम के अतिरिक्त उस पंथ के और साधु भी जहाँ-तहाँ से आये हुए थे। देखा-उनलोगों में कितनी नम्रता थी और वे लोग कितने मृदुभाषी थे। उनकी शालीनता देखकर मन में बड़ी प्रसन्नता होती थी। वास्तव में जो साधु को होना चाहिए, बोली में कितनी मिठास थी। तो साधु में मिठास क्यों आयी, विनम्रता क्यों आयी, कारण क्या है? बात यह होती है कि जिस वृक्ष में फल लगते हैं, उसकी डाल नीचे झुक जाती है और जिस वृक्ष की डाल में फल नहीं है, वह डाल ऊपर उठी रहती है। उसी तरह जिनमें साधना की कमी है,
जिन्होंने साधना की ही नहीं, सत्संग से जिनको ज्ञान मिला नहीं, सत्य-असत्य का जिनको विवेक नहीं है, वे वैसे ही अहंकार में ऊपर उठे हुए हैं। और जिन्होंने साधना की, सत्संग का ज्ञान लाभ किया है, तो सद्ज्ञान होने से वे झुक जाते हैं। जिस बादल में पानी होता है, यह नीचे आकर बरसता है। जिस बादल मं पानी नहीं है, वह दूर ऊँचाई पर उड़ता है। तो जिसमें कुछ नहीं है, जो सारहीन है, वह घमण्ड में भरपूर रहता है और अपने को सबसे उँचा समझता है। लेकिन जो साधना करते हैं, उनमें सद्बुद्धि आती है सद्ज्ञान आता है, उनमें विनम्रता आ जाती है। तो हमलोगों को चाहिये कि विनम्रतापूर्वक रहें। फिर जो सात्त्विक भोजन है, वह सात्त्विक भोजन करें। रजोगुण भोजन मन में चंचलता उत्पन्न करता है। तमोगुणी भोजन मन में अज्ञान पैदा करता है। इसलिए इन भोजनों को छोड़कर जो सतोगुणी भोजन है, वह सतोगुणी भोजन करें। सतोगुणी भोजन की भी मात्र जानकर करें; क्योंकि मात्रभेद से गुणभेद ही जाता है। वह सात्त्विक भोजन करें और पहले के ऋषि-मुनि जो उपासना करते थे, वह उपासना करें। वे लोग क्या करते थे? मानस-जप करते थे, मानस-ध्यान करते थे, दृष्टियोग करते थे, नादानुसंधान है-ये ही चार क्रियाएँ हैं। इन्हीं चार क्रियाओं को हमलोगों को भी करना चाहिए। यही साधना है, यही उपासना है। जो इस प्रकार की साधना करेंगे, पवित्र जीवन बितायेंगे, उनका जीवन पवित्र होगा, इस लोक में और परलोक में वे कल्याण पायेंगे। यह कहकर मैं आपलोगों के लिये मंगलकामना करता हूँ कि प्रभु आपलोगों को शुभ उन्नतियाँ दें।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 01-01-1994 ई0 को महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर स्थित पूज्यपाद सद्गुरु महर्षि मेँहीँ निवास पर अपराह्णकालीन
सत्संग में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, मार्च 1994 ई0)
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माननीय मुख्यमंत्री महोदय, समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
यदि आप अस्पताल में रोगियों की अधिक भीड़ देखें, तो यह समझे कि उस क्षेत्र के लोगों का शारीरिक स्वास्थ्य का पतन हो चुका है। यदि आप कचहरियों में मुकदमाबाजी में अधिक भीड़ देखें, तो यह समझे कि उस क्षेत्र के लोगों का नैतिक पतन हो चुका है। यदि आप सिनेमा घरों में तमासा देखनेवालों कि अधिक भीड़ देखें तो यह समझे कि उस क्षेत्र के लोगों का चारित्रिक पतन हो चुका है; किन्तु सत्संग के नाम पर यदि इस तरह कि उमड़ती भीर देखें, तो यह समझे कि उस क्षेत्र के लोगों की अध्यात्मिक उन्नति हो रही है। तो मैं आपलोगों की अध्यात्मिक उन्नति देखकर के बहुत प्रसन्न हो रहा हूँ। और आपलोगों को बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ।
हमारे गुरूदेव कहा करते थे-जहाँ आध्या- त्मिकता होगी, वहाँ के लोग सदाचारी होंगे, वहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी और जहाँ कि सामाजिक नीति अच्छी होगी, वहाँ कि राजनीति बुरी हो नहीं सकती। इसलिए आध्यात्मिकता को प्राथमिकता दीजिए। आध्यात्मिकता का सदाचार से वही संबंध है, जो फ़ के साथ न् का है। जहाँ आध्यात्मिकता का अभाव होगा, वहाँ सदाचारिता की कमी होगी। जहाँ सदाचारिता की कमी होगी, वहाँ की समाजिक नीति अच्छी नहीं होगी और वहाँ की राजनीति उथल-पुथल रहेगी। इसलिए आध्यात्मिकता को अपनाओ। आध्यात्मिकता अर्थात् अधि + आत्मिकता। आत्मा संबंधी ज्ञान प्राप्त करो।
आज जो देश में, देश में ही नहीं, विदेश में भी; या यों कहिये विश्व में लूट-पाट, मार-काट, अत्याचार, दुराचार, बलात्कार, व्यभिचार आदि न मालूम कितने प्रकार के अनाचार फैले हुए हैं; क्यों? इसका मूल कारण आध्यात्मिकता की कमी है। इस संतमत-सत्संग के द्वारा उस अध्यात्म-ज्ञान का प्रचार-प्रसार होता है, जिससे विश्व का कल्याण हो।
यह संस्था सत्संग संतमत के नाम से विख्यात है। संतमत किसको कहते हैं? संतों के मत को संतमत कहते हैं। संत कौन? गैरिक वस्त्र धारण करने से सन्त होते हैं? देह पर भस्म मल लेने से संत होते हैं? जटा बड़ा कर लेने से संत होते है, गुदड़ी पहन लेने से संत होते हैं? नहीं, कदापि नहीं। वेश-भूषा से संत नहीं होते हैं, संतों के आचरण से संत होते हैं। गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा-
“ जोगु न खिंथा जोग न डंडै, जोगु न भसम चड़ाईअै ।
जोगु न मुंदी मूंड़ि मूंड़ाइअै, जोग न सिंञी वाईअै ।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै, जोग जुगति इव पाईअै ।।
गली जोगु न होई ।
एक द्रिसटि करि समसरि जाणै, जोगी कहीअै सोई ।।”
योगशिखोपनिषद् में एक मंत्र आया है-
“ भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।”
जिनके हृदय की ग्रन्थि खुल गयी है। वह कौन-सी ग्रन्थि है? जड़ और चेतन की ग्रन्थि है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है-
“ जड़ चेतन ग्रन्थि पड़ गई ।
जदपि मृषा छूटत कठिनई ।।”
जड़ और चेतन की ग्रन्थि खोलने से क्या मिलता है? सन्त कबीर साहब ने इसका उत्तर दिया है-
“ लाल लाल जो सब कोई कहै, सब की गाँठि लाल ।
गाँठी खोलिके परखे नाहीं, तासे भयो कंगाल ।।”
जब जड़ और चेतन की ग्रन्थि खुल जाती है, तो वह लाल मिलता है, जिस लाल को पाकर जीवन निहाल हो जाता है। पानेवाला मालोमाल हो जाता है। वह लाल है-परम प्रभु परमात्मा। जो परम प्रभु परमात्मा को प्राप्त किये हुये होते हैं, वे सन्त होते हैं। भारती भाषा में जिनको सन्त कहते हैं, पारसी भाषा में उनको फकीर कहते हैं। फकीर कैसे लिखते है? फे काफ, ये, रे। फे कहते हैं-फाका (उपवास) अर्थात् खुदा का निकट निवास। काफ-कनायत अर्थात् सब्र, संतोष। ये-यादे इलाही और रे-रियाज (अभ्यास)।
वैदिक धर्म में जिनको सन्त कहते हैं, ईस्लाम धर्मावलम्बी उसी को फकीर कहते हैं और ईसाई अंग्रेजी में उन्हीं का saint कहते हैं। जिनको saint कहते हैं, वास्तव में उनमें सेन्ट होती है। वह कौन-सी सेन्ट होती है? भगवान बुद्ध के एक शिष्य ने उनसे पूछा था-भन्ते! हम देखते हैं कि ‘जूही, तगर, कमल आदि फूलों की सुगन्ध हवा के अनुकूल चलती है। क्या कोई ऐसा भी सुगंध है, जो हवा के प्रतिकूल चलती हो?’ भगवान बुद्ध ने उत्तर दिया-‘हाँ, है और वह है सदाचार कि सुगंध, जो उत्तम सुगंध देवताओं तक जाती है अर्थात् जो संत होते हैं, वे सदाचारी होते हैं। वे काम के दाम में कभी बँधते नहीं। क्रोध उनको अबोध कर प्रतिशोध की भावना उत्पन्न नहीं करता। लोभ उनके मन में क्षोभ उत्पन्न नहीं करता। मोह जिनको बेशोह नहीं करता। पद पाकर भी वे मद में नहीं आते। वे किन्हीं से डाह नहीं करते; किन्तु यदि कोई उनसे डाह करते हैं, तो वे उनकी परवाह नहीं करते; ऐसे होते हैं संत। उन संतों का जो मत है, वह है संतमत।
संत बतलाता है कि एक ईश्वर में विश्वास करो और उनका भजन करो। ईश्वर का स्वरूप जानो। ईश्वर सर्वव्यापक है और उसके परे भी है। भले ही हम उनके नाम भिन्न-भिन्न दे दें। ईसाई उनको God कहते हैं; मुसलमान उनको खुदा या अल्लाह कहते हैं; चीनी तितीन कहते हैं; पारसी अहुरमज्द कहते हैं; यहूदी जेहोवा कहते हैं और वैदिक धर्मावलम्बी उसी को ब्रह्म या परमात्मा कहते हैं। भाषान्तर के कारण शब्दान्तर है, किन्तु तत्त्वान्तर नहीं है। तत्त्व रूप में वह एक-ही-एक है। जो उस एक को जान लेता है, उसको फिर जानने के लिए कुछ बाकी नहीं रह जाता है।
हमको शरीर का ज्ञान है, आत्मा का नहीं; इसलिए द्वैत बना हुआ है। जब अपनी आत्मा का ज्ञान हो जायेगा, तब द्वैत भाव मिट जाएगा और ‘सियाराममय सब जग जानी’ हो जाएगा। सन्तों ने कहा-‘यह शरीर क्षणभ्ांगुर है। कब समाप्त हो जाएगा, कोई ठिकाना नहीं। इसके अन्दर जो निवास करनेवाले आत्मा है, उसको पहचानो। इसका कभी नाश नहीं होता।’ जो कोई आत्मा को पहचानते हैं, वही परमात्मा को पहचानते हैं। किसी शायर ने कितना अच्छा कहा है-
“ इबादत है किसी नाशाद को फिर शाद कर देना ।
इबादत है किसी बर्बाद को आबाद कर देना ।।
यही सीखा है सागर हमने मुर्शद के कदम छूकर ।
खुदा से हो अगर मिलना खुद का पता लगा लेना ।।”
जो कोई खुदा का पता लगाएँगे, उन्हीं को खुदा का पता मिलेगा। इस संतमत-सत्संग में हिन्दू, मुसलमान, बौद्ध, सिख, जैन, ईसाई प्रभृति सभी मतों के संतों का समान आदर है। सभी मत के सज्जन इस संतमत में सम्मिलित हैं। सभी का आपस में भाई-चारे का सम्बन्ध है। यह संतमत विश्वबंधुत्व का ज्ञान देता है। ईश्वर-भक्ति करने में गरीब-अमीर, विद्वान- अविद्वान, नर-नारी सभी समान अधिकारी हैं। हमारे गुरुदेव का उद्घोष है-
“ जितने मनुष्य तनधारी हैं, प्रभु भक्ति कर सकते सभी ।
अन्तर व बाहर भक्ति कर, घट पट हटाना चाहिए ।।”
अपने अन्दर स्थूल-सूक्ष्मादि भेद से जितने पर्दे हैं, उन पर्दों को हटाना है। कबीर साहब ने कहा था-‘घूँघट का पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे।’ यह घूँघट क्या है? आन्तरिक आवरण है, मायिक आवरण है। मायिक आवरण के हटने पर हमें प्रभु के दर्शन होंगे। यह मायिक आवरण कैसे हटेगा? इसका क्या यत्न है? सन्तमत बतलाता है, इसी के लिए पूजा, ध्यान, जप, तप आदि की बात होती है।
कितने लोग कहा करते हैं कि ईश्वर के पास जाने के अनेक रास्ते हैं; लेकिन यह बात यथार्थ नहीं है। ईश्वर के पास जाने का एक ही रास्ता है। जैसे देखने का रास्ता एक है-आँख। सुनने का रास्ता एक है-कान। गंध ग्रहण करने का रास्ता है-नाक। भोजन ग्रहण करने का रास्ता एक है-मुँह। मल-मूत्र विर्सजन करने का भी एक-एक रास्ता नियुक्त है। उसी तरह परम प्रभु परमात्मा के पास जाने और उनको पाने का रास्ता एक है और वह बाहर मे नहीं, अपने अन्दर में है।
“ बेहोशिये इन्सान से यह ख्याल जुदा है ।
जाहिर में है मुहम्मद बातिन में खुदा है ।।”
केवल मस्जिद में खुदा नहीं है, केवल मन्दिर में ईश्वर नहीं है, केवल गिरजाघर में (God ) नहीं है, वह कहाँ नहीं है? सब जगह है। किसी एक जगह बँधा हुआ नहीं है। मन्दिर, मस्जिद, गिरजा, सबमें है; लेकिन उनमें दर्शन नहीं होंगे। वे सब तो पूजा-स्थल हैं। परमात्म-दर्शन जब कभी होंगे, तो अपने अन्दर होंगे। इसलिए संतगण कहते हैं-‘अपने अन्दर में प्रवेश करो।’ अन्दर प्रवेश करने के लिए क्या करो-जप करो और ध्यान करो यानी जिकर करो और फिकर करो। ध्यान में स्थूल ध्यान होता है और सूक्ष्म ध्यान होता है; साकार ध्यान होता है और निराकार ध्यान होता है। इस तरह ध्यान में भेद है, उस भेद को जानकर क्रम-क्रम से हम आगे बढ़ते जाएँ। हमारे गुरुदेव कहा करते थे-जिस तरह कोई पैर काटकर दौड़ना चाहे, वह नहीं दौड़ सकता और सिर काटकर कोई जीना चाहे, वह नहीं जी सकता। चलने के लिए पैर और जीने के लिए सिर चाहिए। इसी तरह न तो सगुण छोड़ो और न निर्गुण ही। स्थूल सगुण साकार से आरम्भ करो और निर्गुण निराकार तक पहुँचो। न तो पैर को छोड़ो और न सिर को छोड़ो; दोनों को लेकर चलो। यही संतमत बतलाता है। बिल्कुल सरल साधना है, सहज साधना है। इसके लिए घरवार, रोजगार, परिवार, छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। सन्त कबीर साहब ने कहा है-
“ घर में जोग भोग घर में ही घर तजि वन नहिं जावै ।
वन के गये कल्पना उपजै, तब धौं कहाँ समावै ।।
घर में युक्ति मुक्ति घर में ही, जौं गुरु अलख लखावै ।
सहज सुन्न में रहै समाना, सहज समाधि लगावै ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज के वचन में है-
“ राज महि राज जोग महि जोगी ।
तप में तपीसुर गृहस्थ माहि भोगी ।।
ध्याय ध्याय भक्तः सुख पाया ।
नानक तिस पुरुष का किनूँ अंत न पाया ।।”

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का 83 वाँ वार्षिक महाधिवेशन, नवगछिया में दिनांक 6-3-1994 ई0 के अपराह्णकालीन सत्संग (बिहार प्रांत के
माननीय मुख्यमंत्री श्रीलालू प्रसाद की उपस्थिति) के शुभ अवसर पर हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, फरवरी 1999 ई0)

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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा अदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है; शांति चाहता है। कल्याण चाहता है। कल्याण एक दिन के लिए नहीं, शांति एक दिन के लिए नहीं, सुख एक दिन के लिए नहीं, सदा के लिए सुख चाहिए, सदा के लिए कल्याण चाहिए। किन्तु परम प्रभु की भक्ति के बिना न तो परम सुख की प्राप्ति होती है, न तो शाश्वत शांति की प्राप्ति होती है और न परम कल्याण की प्राप्ति होती है। इसलिए संतमत ईश्वर-भक्ति का प्रचार करता है; किन्तु यह ईश्वर की भक्ति अंधी भक्ति नहीं, ज्ञान-योग-युक्त है। इसलिए सबसे पहले जान लेना चाहिए कि ईश्वर स्वरूपतः कैसा है। वह स्वरूपतः अनंत होने के कारण सूक्ष्मतम है। हमलोग जो बाहरी और आंतरिक किसी भी इन्द्रिय के द्वारा उस परमात्मा को ग्रहण करना चाहते हैं, यह सर्वथा अयोग्य है; क्योंकि स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता। सूक्ष्म यंत्र से ही सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण हो सकना संभव है। यह जीवात्मा सूक्ष्म है और परमात्मा भी सूक्ष्म है। ये दोनों ही सूक्ष्मतम है। इसलिए जीवात्मा के द्वारा ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। परमात्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए गोस्वामीजी ने कहा है-
“ राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।”
एक होता है रूप, दूसरा होता है सरूप और तीसरा होता है स्वरूप। इस आँख के द्वारा जो देखा जाता है, उसको रूप कहते हैं। रूप के सहित जो रहता है, उसको सरूप कहते हैं और जो निज रूप है, आत्मरूप है, उसी को स्वरूप कहा गया है। उस निज रूप की चर्चा गोस्वामीजी ने ‘विनय-पत्रिका’ में इस भाँति की है-
“ अनुराग सो निजरूप जो, जग तें विलच्छन देखिये ।
सन्तोष सम सीतल सदा दम, देहवन्त न लेखिये ।।
निर्मल निरामय एकरस, तेहि हरष सोक न व्यापई ।
त्रयलोक पावन सो सदा, जाकी दसा ऐसी भई ।।”
यहाँ अनुराग से जो रूप देखा जाता है, वह निज रूप ही है। वह संसार से विलक्षण है। संसार में ऐसा कोई चीज नहीं है, जिससे उसकी उपमा दी जा सके। हमारे गुरुदेव के वचन में आया है-
“ जो जगत से विलक्षण, जिसमें न विषय लक्षण ।
जो एकरस सकल क्षण, तिसमें मुझे रमा दो ।।”
जगत् की जितने चीजें होती हैं, वे बनती और बिगड़ती हैं। जो बनता और बिगड़ता है, वह माया है। जो बने नहीं, वह बिगड़े कैसे? वह निर्मायिक तत्त्व परमात्मा है। वह आँख का विषय रूप नहीं है, कान का विषय शब्द नहीं है, जिह्वा का विषय रस नहीं है, त्वचा का विषय स्पर्श नहीं है, नासिका का विषय गंध नहीं है। अर्थात् पंच ज्ञानेन्द्रियों से ग्रहणीय विषय परमात्मा नहीं है। इसीलिए गोस्वामीजी ने ‘जग ते विलक्षण देखिये’ कहा। वह परमात्मा संतोषस्वरूप है। उसको ही प्राप्त कर लेने पर संतोष मिलता है। जबतक संतोष नहीं होता, इच्छा का नाश नहीं होता। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
“ बिनु संतोष न काम नसाहीं ।
काम अछत सुख सपनेहु नाहीं ।।
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा ।
थल विहीन तरु कबहुँ कि जामा ।।”
जिस तरह बिना मिट्टी का वृक्ष नहीं जमता है, उसी तरह जबतक कामनाओं का अंत नहीं होगा, तबतक स्वप्न में भी सुख नहीं मिल सकता। जब कामनाओं का अंत होता है, तभी शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है, चिर शांति मिलती है, परम कल्याण होता है और परम प्रभु परमात्मा की प्राप्ति होती है।
जबतक कोइ मनोनिरोध नहीं करे, जबतक कोई इन्द्रिय-निग्रह नहीं करे, तबतक वह उस प्रभु को नहीं प्राप्त कर सकता है। इसी मनोनिग्रह और इन्द्रिय-निग्रह के लिए दृष्टियोग और नादानुसंधान की क्रियाएँ है। इस विषय को गोस्वामी तुलसीदासजी ने इस भाँति समझाने की चेष्टा की है-
“ लोचन चातक जिन्ह करि राखे ।
रहहिं दरस जलधर अभिलाखे ।।
निदरहिं सरित सिन्धु सर भारी ।
रूप बिन्दु जल होहिं सुखारी ।।
तिनके हृदय सदन सुखदायक ।
बसहिं अनुज सिय-सह रघुनायक ।।”
चातक पक्षी आकाश में स्वाति-बूँद की प्रतीक्षा करता रहता है। वह बड़ी-बड़ी नदियों, झीलों, तालाबों और समुद्रों को अनादृत करता है यानी वह उनका जल नहीं पीता है, जब स्वाति-बूँद मिल जाती है, तब उसका पान करके तुष्ट होता है। किसी कवि ने बड़ा ही अच्छा कहा है-
“ सरवर नीर न पीवई स्वाति बूँद को आस ।
केहरि कबहु न तृण चरे, जो व्रत करै पचास ।।
जौं व्रत करै पचास, विपुल गज जूह विदारै ।
धन है गवै न करै, निर्धन नहिं दीन उचारै ।।
नरहरि कुल के भाय, मिटै नहिं जब लग जीये ।
बरु चातक मरि जाय, नीर सरवर नहिं पीये ।।”
सरोवर के किनारे चातक पक्षी है; लेकिन जबतक स्वाति की बूँद नहीं मिलेगी, तबतक वह अन्य किसी प्रकार का जल नहीं पिवेगा। चाहे वह मर क्यों न जाय। अंतस्साधना का साधक चतुर्भुजी, अष्टभुजी, अनेकभुजी अथवा आश्चर्यमय तेजपुंज से पूरित कोई रूप क्यों न हो, उस ओर वह आकर्षित नहीं होता-उससे वह पृथक् रहता है।
“ चौभुज औ अष्टभुज जो, अथवा अनेकभुज जो ।
आश्चर्य तेजपुंज जो, सबसे सुरत फुटा दो ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
वह साधक प्रभु के विभिन्न विभूतियों को देखते और छोड़ते हुए मात्र विन्दु पर अपने को प्रतिष्ठित कर रखता है। अंतस्साधक के समक्ष विभिन्न प्रकार की ज्योतियाँ, विभिन्न प्रकार के प्रलोभन आते हैं। विभिन्न प्रकार की ऋद्धि-सिद्धियाँ भी आती हैं; लेकिन वह उनके फेर में नहीं पड़ता है। वह अपने को विन्दु पर टिकाकर रखता है, उसी की वह अभिलाषा करता है। नररूप, देवरूप या विश्वरूप किसी भी रूप की वह इच्छा या प्रतीक्षा नहीं करता। वह तो मात्र प्रभु से मिलना चाहता है। जो विन्दुरूप को प्राप्त करता है, वही एक दिन करुणासिन्धु प्रभु को पाकर भवसिन्धु को पार कर सकता है। जो साधक भक्त विन्दुरूप का दर्शन नहीं कर सकता, वह भवसिन्धु पार नहीं हो सकता। इस दृष्टियोग की क्रिया से इन्द्रिय-निग्रह होता है। मनोनिरोध के लिए नादानु- संधान की क्रिया की जाती है। इस विषय में गोस्वामीजी का कथन है-
“ जाके श्रवण समुद्र समाना ।
कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना ।।
भरहिं निरन्तर होहिं न पूरे ।
तिनके हिय तुम्ह कहँ गृह रूरे ।।”
बहती हुई नदियाँ समुद्र में जाकर मिल जाती हैं। चाहे कितनी भी नदियाँ समुद्र में क्यों न मिलें, समुद्र भरपूर नहीं होता, उसी तरह अंतस्साधक अपने अंदर के विविध नादों का श्रवण करता है, ग्रहण करता है; किन्तु कितने भी नाद क्यों नहीं हों, उनसे वह तुष्ट नहीं होता है। तुष्ट तब होता है, जब उसको सारशब्द की प्राप्ति होती है। वह सदा उस अंतर्नाद में रत रहता है-उसमें वह लीन रहता है, अघाता नहीं। साधक सारशब्द को प्राप्त करके प्रभु के दर्शन करता है; प्रभु से मिलाप करता है, तुष्ट होता है-संतुष्ट होता है-तृप्त होता है।
जागतिक जितनी भी चीजें हैं, वे सभी हमसे छूट जाती हैं अथवा हम उन चीजों को छोड़कर चले जाते हैं। संसार की यही रीति है। मिलन के बाद बिछुड़न होता ही है; लेकिन जो कोई उन प्रभु से एक बार मिल जाता है, तो फिर उसका उनसे बिछुड़न कभी होता ही नहीं है। यह विलक्षणता है और वास्तविकता भी है। इसलिए ‘तिनके हृदय सदन सुख दायक’ कहा। मानस में एक स्थल पर ऐसा भी कहा गया है-
“ प्रकृति पार प्रभु सब उर वासी ।
ब्रह्म निरीह बिरज अविनासी ।।”
उन उरवासी प्रभु के दर्शन करके ही वाल्मीकि जी ने श्रीराम के लिए वैसा कहा। ‘कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं’ कहने का तात्पर्य यह है कि ईश्वर कहाँ नहीं है? सर्वत्र है। सर्वत्र होने पर भी उनके दर्शन जब कभी होंगे, तो अपने ही अंदर होंगे। तभी बाहर में भी दर्शन होंगे। संत चरणदासजी महाराज ने नादानुसंधान की महिमा गाते हुए कहा है-
“ जब से अनहद घोर सुनी ।
इन्द्री थकित गलित मन हूआ, आशा सकल भुनी ।।
घूमत नैन शिथिल भइ काया, अमल जो सुरत सनी ।
रोम रोम आनन्द उपज करि, आलस सहज भनी ।।
मतवारे ज्यों शब्द समाये, अंतर भींज कनी ।
करम भरम के बन्धन छूटे, दुविधा विपति हनी ।।
आपा विसरि जक्त कूँ विसरो, कित रहि पाँच जनी ।
लोक भोग सुधि रही न कोई, भूले ज्ञानि गुनी ।।
हो तहँ लीन चरण ही दासा, कहै शुकदेव मुनी ।
ऐसा ध्यान भाग सूँ पैये, चढ़ि रहै शिखर अनी ।।”
संत चरणदासजी महाराज कहते हैं कि जबसे मैंने आंतरिक नादों का श्रवण किया, तबसे मेरी सभी इन्द्रियाँ थक गयीं, मन गल गया और सभी आशाएँ जल-भुनकर समाप्त हो गयीं।
“ घूमत नैन शिथिल भइ काया, अमल जो सुरत सनी ।
रोम रोम आनन्द उपज करि, आलस सहज भनी ।।”
हमारी आँखें जो बाहर में घूमती थीं, हमारी वृत्तियाँ जो बाहर में फैली हुई थीं, वे घूम गयीं। अर्थात् उलट गयीं-बाहर से अंतर्मुख हो गयीं-पिण्ड से ब्रह्मांड में चली गयीं। शरीर शिथिल हो गयी अर्थात् निश्चेष्ट हो गया। भगवान महावीर बैठे थे ध्यान करने के लिए। ध्यान करने में वे इतने लीन हो गये कि जिस वस्त्र को पहनकर वे ध्यान करने के लिए बैठे थे, वह गल गया। वे दिगम्बर हो गये। बाहर की कुछ भी सुधि नहीं रही। आज जैनधर्म में श्वेताम्बर और दिगम्बर दो दल हो गये हैं। श्वेत वस्त्र पहनकर भगवान महावीर ध्यान करने के लिए बैठे थे। इस दृष्टि से एक संस्था अपना नाम श्वेताम्बर और भगवान महावीर के वस्त्रविहीन हो जाने के कारण दूसरी ने अपना नाम दिगम्बर रख लिया। इस संस्था के लोगों ने निर्वस्त्र को निग्र्र्रन्थ की संज्ञा दी। वास्तव में निर्ग्रन्थ तो उनको कहते हैं, जिनके हृदय की जड़-चेतन-ग्रंथि प्रहीण हो गयी हो। लेकिन सत्संग के अभाव में, सच्चे गुरु के अभाव में कुछ लोग यही समझने लग गये कि शरीर पर वस्त्र नहीं रहने के कारण निर्ग्रन्थ हो गये। अपने अंदर में जड़ और चेतन की ग्रंथि पड़ी है। जब जड़ और चेतन की ग्रंथि खुल जाती है, तब परम प्रभु परमात्मा के दर्शन होते हैं और तभी कोई निर्ग्रन्थ होता है। ऐसे साधक के रोम-रोम में आनंद उपजता है, आलस्य का वहाँ प्रश्न ही नहीं रहता। जिस तरह जोरों की वर्षा होती है, तो पृथ्वी के कण-कण में पानी समा जाता है, उसी तरह साधक साधना करता है, अंतर्नाद की उपासना करता है, तो इतनी प्रसन्नता होती है, इतना आनंद होता है कि उसका वर्णन नहीं हो सकता। नादानुसंधान की साधना का परिणाम क्या हुआ, इसपर कहते हैं-
‘करम भरम बंधन छूटे, दुविधा विपत्ति हनी ।’
अर्थात् जड़ और चेतन का जो बंधन था, वह टूट गया। भगवान बुद्ध ने कहा-‘ऐ गृह के निर्माण करनेवाले! मैंने तुझे देख लिया। अब तू गृह नहीं बना सकता। गृह का शिखर गिर गया। सब कड़ियाँ टूट गयीं। चित्त संस्कार-रहित हो गया। तृष्णाओं का क्षय हो गया।’ तो उन्होंने भी इस तरह की साधना की थी। जिस किसी ने इस नादानुसंधान की साधना की, उसने परम प्रभु परमात्मा को पाया। परमात्मा को पानेवाला जड़-चेतन की ग्रंथि में क्यों रहेगा? जहाँ प्रभु के साक्षात् दर्शन हों, वहाँ दुविधा और दुःख का स्थान कहाँ।
आपा को भूलने पर संसार विस्मृत हो गया। पाँचो ज्ञानेन्द्रियाँ कहाँ छूट गयीं, कुछ पता नहीं। लोक-भोगों की वासना समाप्त हो गयी। वास्तविक बात तो यह है कि इन्द्रियों के द्वारा विषयों का ग्रहण होता है। जहाँ इन्द्रियाँ ही नहीं, वहाँ विषयोपभोग करेगा तो कौन?
“ हो तहँ लीन चरण ही दासा, कहै शुकदेव मुनी ।
ऐसा ध्यान भाग सूँ पैये, चढ़ि रहै शिखर अनी ।।”
श्रीशुकदेव मुनि संत चरणदासजी महाराज से कहते हैं। नादानुसंधान-सुरत-शब्द-योग का साधक शब्द के शिखर पर चढ़ जाता है। अर्थात् ॐ- स्फोट-प्रणव ध्वनि को पा लेता है। किन्तु ऐसा ध्यान भाग्यवान को ही मिलता है।
इस नादानुसंधान के संदर्भ में वाल्मीकि मुनि जी ने संकेत किया है। उपर्युक्त चौपाइयों के द्वारा साररूप में यही बतलाया गया है कि दृष्टि-साधन अच्छी तरह करें। इस साधना में सफलता मिलने पर नादानुसंधान करने की योग्यता होती है और नादानुसंधान की परिपूर्णता में परम प्रभु परमात्मा की प्राप्ति होती है। फिर चिरशांति, परम कल्याण और शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है। यही थोड़ा-सा आपलोगों की सेवा में कहा।

महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक 15-05-1994 ई0 को साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जून 1994 ई0)

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